3 अप्रैल 2024 का ज्ञानप्रसाद
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से हम परम पूज्य गुरुदेव की अद्भुत रचना “मानवीय विद्युत के चमत्कार” को आधार मानकर इस लेख श्रृंखला की अमृतपान कर रहे हैं। आज इस लेख शृंखला का छठा ज्ञानप्रसाद लेख अपने समर्पित साथिओं के समक्ष प्रस्तुत है।
2011 में प्रकाशित 66 पन्नों की इस दिव्य पुस्तक के दूसरे एडिशन में परम पूज्य गुरुदेव हम जैसे नौसिखिओं,अनुभवहीन शिष्यों को मनुष्य शरीर की बिजली एवं उस बिजली से सम्पन्न होने वाले कार्यों से परिचित करा रहे है। गुरुदेव बताते हैं कि जिस प्रकार “स्वास्थ्य विज्ञान, Health science” जानना हर व्यक्ति के लिए आवश्यक है, उसी प्रकार उसे अपनी सबसे मूल्यवान वस्तु “शारीरिक बिजली, Bodily electricity” के बारे में जानना चाहिए। गुरुदेव कहते हैं कि कितने दुःख की बात है कि हम में से बहुत से सुशिक्षित लोग भी इस “महत्त्वपूर्ण विज्ञान” की मोटी-मोटी बातों से परिचित नहीं हैं। इस अज्ञानता का परिणाम यह होता है कि इस महत्वपूर्ण जानकारी के अभाव में मनुष्य गलत मार्गों को अपनाकर जीवनभर दुःख उठाता रहता है।
हमारे विचार में इस विस्तृत एवं जटिल विषय को समझना सरल तो नहीं है लेकिन जितना भी समझ आ जाए लाभदायक ही होगा।
आज के लेख में भोजन की आंतरिक स्वच्छता में भावनाओं ( Emotional impulses) की क्या भूमिका है, आखिर भावनाएं भी तो एक प्रकार की विद्युत् तरंगें ही तो हैं।
तो आइए स्वच्छ अंतःकरण से, विश्वशांति का कामना के साथ गुरूकक्षा की और प्रस्थान करें।
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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भोजन की आंतरिक पवित्रता
हिंदू समाज में खान-पान सम्बन्धी “छूतछात” पर विशेष ध्यान दिया जाता है। यहाँ छूतछात का अर्थ किसी व्यक्ति विशेष से न होकर पवित्रता है। पवित्र व्यक्तियों के हाथ का बना हुआ भोजन, चौके में भूमि पर बैठकर भोजन ग्रहण करने की शास्त्रीय प्रथा का आज उपहास किया जाता है। डाइनिंग टेबल पर भोजन करना जूता पहनकर, कुर्सी-मेज पर बैठ कर भोजन करना सभ्यता का चिह्न समझा जाता है। इस प्रकार के भोजन का गुप्त रूप से शरीर और मन पर तामसी प्रभाव पड़ता है जिसका दुःखद परिणाम समय आने पर भोगना पड़ता है।
थियोसोफिकल सोसायटी के प्रसिद्ध नेता महात्मा Charles Webster Leadbeater
ने “वस्तु की आंतरिक दशा” नामक एक बहुत ही विवेकपूर्ण पुस्तक लिखी है, उसमें वे एक स्थान पर कहते हैं
“जो कुछ भोजन हम खाते हैं, वह पाचन के उपरांत शरीर का एक महत्वपूर्ण भाग बन जाता है। भोजन पर जिस प्रकार के सूक्ष्म प्रभाव (Subtle effect) अंकित होते हैं, भोजन के साथ वे भी हमारे शरीर में बस जाते हैं”
भोजन के समय हम एक महत्वपूर्ण तथ्य भूल जाते हैं कि जितना बाहरी सफाई पर ध्यान देना आवश्यक है, उससे कहीं अधिक आवश्यक उसकी “आंतरिक स्वच्छता” पर ध्यान देना है । भारतवर्ष में भोजन की आंतरिक स्वच्छता को अधिक महत्त्व दिया जाता है। अगर हम आंतरिक स्वछता को भोजन पकाने वाली माँ की अंतरात्मा से जोड़ दें तो शायद अनुचित न हो। अक्सर माताएं प्रातःकाल तड़के ही उठ कर, नहा धोकर, पूजा अर्चना करके ही चौके में प्रवेश करती थीं। ऐसी शुद्धता और मनःस्थिति में पका हुआ भोजन अवश्य ही आंतरिक स्वछता का प्रतीक होता है।
परम पूज्य गुरुदेव की उत्कृष्ट पुस्तक “मानवीय विद्युत के चमत्कार” में हम उस बिजली की चर्चा कर रहे हैं जो हमारे शरीर में सांस लेने की शक्ल में, चलने फिरने की शक्ल में भोजन खाने-पचाने की शक्ल में एवं अन्य अनेक क्रियाओं की शक्ल में दौड़ रही हैं। बिजली को पॉवर भी कहते हैं,एनर्जी भी कहते हैं, Electric waves भी कहते है, विद्युत् तरंगें भी कहते हैं। भावनाएं भी एक प्रकार की विद्युत तरंगें ही होती हैं। जिस भोजन में जिस प्रकार की भावनात्मक तरंगें प्रवाहित होती हैं, खाने वाले के ह्रदय, मन-मस्तिष्क पर उसी प्रकार का प्रभाव पड़ता चला जाता है इसीलिए बार-बार कहा गया है “ जैसी होवे भावना, वैसा पके अन्न और जैसा खाए अन्न वैसा होवे मन”
“नीच विचार” के लोगों के हाथों से बना हुआ खाना यां नीच प्रवृति के लोगों के साथ बैठकर भोजन करना इसलिए नापसंद किया जाता है कि ऐसे लोगों से रिफ्लेक्ट (Reflect) हो रहे हीन/नीच विचार (भावनाएं) भोजन की पवित्रता को भी प्रभावित करते हैं। हमें इस तथ्य को गांठ बाँध लेना चाहिए कि केवल बाहरी सफाई,बढ़िया एवं हाई क्वालिटी भोजन से ही भोज्य पदार्थ उत्तम गुण वाले नहीं बन जाते ।
भोजन पर उसके बनाने वाले का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। विज्ञान बताता है कि “मानवीय विद्युत” का सबसे अधिक प्रवाह उँगली की पोरुओं (Finger tips) में प्रवाहित होता है। जिस भोजन को बनाते समय बार-बार छुआ जाता है, वह उसके अच्छे या बुरे विचारों से अवश्य ही प्रभावित होगा। हमारी माताएं, दादी-नानी आदि पकते भोजन को चखने के बिल्कुल विरुद्ध थीं। वोह तो चौके में जूता-चप्पल पहन कर प्रवेश करने के भी विरुद्ध थीं। यह सब पवित्रता के ही मापदंड थे। भोजन, जिसे खाकर आँखे खुलती हैं, शरीर चलता है, पवित्र ही होना चाहिए। यह सच है कि अग्नि पर पकने से भोजन के बहुत से दोष जल जाते हैं, लेकिन फिर भी बार-बार छुआ गया भोजन “संपूर्ण प्रभाव” से रहित नहीं हो जाता। ऐसा भी देखने में भी आया है कि केवल छूने से ही भोजन पर वैयक्तिक(Personal) असर नहीं पड़ता बल्कि पास बैठने वाले से भी उस व्यक्ति के अच्छे/बुरे गुण भोजन में ट्रांसफर हो जाते हैं।
भोजन मनुष्य की प्रिय वस्तु है जिसे ग्रहण करके जीवन मिलता है, शक्ति मिलती है रोज़मर्रा के समस्त क्रियाकलाप घटित होते हैं। ऐसा कहना अन्धविश्वास और रूढ़िवाद का समर्थन करता दिखता है लेकिन है बिल्कुल सत्य कि जब कोई व्यक्ति किसी के भोजन की थाली पर विशेष दिलचस्पी के साथ दृष्टि डालता है तो भोजन पर उसकी दृष्टि का प्रभाव पड़ता है। ऐसा भी देखने मैं आया है कि दुःखी होकर परोसे गए भोजन से खाने वाला जरूर रोगग्रस्त होगा । ऐसा भी देखा गया है कि किसी के हाथ से छीनकर या दूसरों को दिए बिना भोजन करने से खाद्य पदार्थों में नेगेटिव vibrations अर्थात नकारात्मक भावनाओं का, “विद्युत” संचार होता है। यह नेगेटिव भावनाएं कईं बार इतनी प्रबल होती हैं कि भोजन को करीब-करीब विषाक्त कर देती हैं और इस Food poisoning से कईं बार उल्टी भी आ जाती है।
यहाँ पर गौ ग्रास का पासिंग रेफरन्स देना उचित लगता है जिसे वरिष्ठ साथी अवश्य जानते होंगें। परिवारों में गौ को खिलाकर ही, यां फिर पक्षियों को भोजन खिलाने के बाद ही भोजन की प्रथा थी। शायद हमारे अनेकों साथिओं के परिवारों में यह प्रथा अब भी चल रही होगी लेकिन अधिकतर यह प्रथा लुप्त हुई ही दिखती है।
एकांत स्थान में या चौके में भूमि पर बैठकर भोजन करना इस दृष्टि से बहुत ही अच्छा है कि उस पर भीड़-भाड़ की दृष्टि नहीं पड़ती। हाँ एक ही घर के यां एक ही परिवार के,एक ही विचार वाले लोग पास-पास बैठकर भोजन करने की प्रथा बहुत ही प्रेरणादायक है क्योंकि उनमें एक-दूसरे के प्रति प्रेम भावना दर्शित होती है।
परम पूज्य गुरुदेव बताते हैं कि कई बार बनाने वाले या परोसने वाले के शारीरिक और मानसिक गुण एवं उनके हाथों द्वारा परोसा हुआ रूखा-सूखा भोजन, बाजार के हलुवे से कहीं अधिक गुणकारी होता है क्योंकि ऐसे भोजन में पकाने वाले और परोसने वाले की भावनाएं लिपटआती हैं। अभी कुछ दिन पूर्व ही हमारी छोटी बहिन आदरणीय सुमनलता जी से फ़ोन पर बात करते समय शांतिकुंज स्थित माता जी के चौके, माँ भगवती भोजनालय की बात हो रही थी। हम बहिन जी के साथ शांतिकुंज में ही रहने और वहीँ पर भोजन करने के महत्व की चर्चा कर रहे थे। वैसे तो शांतिकुंज में दो कैंटीन भी हैं, गेट के सामने कुछ होटल ढाबे भी हैं लेकिन जो आनंद एवं दिव्यता माता जी के चौके में भोजन करके प्राप्त होता है वोह और कहाँ। यह सब एक माँ के स्नेह और प्यार के कारण ही है।
भावनाओं की विद्युत तरंगों (Electrical waves) का शबरी के बेरों और विदुर के शाक से बड़ा और क्या उदाहरण हो सकता है।
भगवान् श्रीरामचंद्रजी और भगवान कृष्ण ने इस सन्दर्भ में जो प्रशंसा की है, उससे हम सब भलीभांति परिचित हैं। भगवान ने शबरी और विदुर के भोजन की प्रशंसा उनका मान बढ़ाने के लिए नहीं की थी बल्कि यह प्रेम का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। प्रेम की सद्भावनाओं में इतने “रुचिर तत्त्व” होते हैं कि उनसे साधारण भोजन भी बहुत उच्चकोटि का बन जाता है। बड़े बड़े फाइव स्टार होटलों में भोजन करने वाले व्यक्ति हमेशा पेट की शिकायत करते रहते हैं। कहते रहते हैं कि होटलों में रोटी कच्ची मिलती है, शाक खराब मिलता है इसलिए वह हमें हज़म नहीं होता लेकिन वास्तविक कारण दूसरा ही है। होटल वालों की नियत यह रहती है कि ग्राहक कम भोजन खावे, जिससे उन्हें अधिक लाभ हो। होटल वालों की ऐसी नकारात्मक भावनायें भोजन के साथ पेट में पहुँचती हैं और ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करती हैं कि खाने वाले की भूख घट जावे। इन होटलों में भोजन करने वालों ने अक्सर देखा होगा कि दाल सब्ज़ी आदि में एक ऐसा केमिकल (Monosodium glutamate,MSG) डाला होता है जिससे थोड़ा सा ही खाने के बाद पेट भर जाता है। हमारा अनुभव तो इस स्तर का हो चुका है कि देखते ही बता देते है कि दाल खाने से नुक्सान होने वाला है। इससे भी बढ़कर भोजन पकाने के लिए जो कच्ची दाल सब्ज़ी प्रयोग की जाती है वोह अधिकतर Genetically modified होती है जिन्हें Genetic enginering से बदल दिया गया होता है। ऐसी सब्ज़ियों, फलों आदि को अक्सर दुकानों पर Bright रंगों, बड़े साइज में देखा जाता है।
बाजारों में बिकने वाली मिठाइयाँ या अन्य दूसरी खाद्य वस्तुएँ प्रदर्शनी एवं विज्ञापन के लिए रखी जाती हैं। जो कोई भी राहगीर इन होटलों आदि के आगे से गुज़रता है तो अधिकांश लोगों का मन इन ब्राइट से artificial colour से पकाए भोजन को देख कर ललचाता है। कीमतें आदि देखकर साधारण व्यक्ति यहाँ भोजन करने की हिम्मत तक नहीं करता लेकिन कई बार बच्चों की ज़िद के कारण, यां किसी occasion पर गरीब लोग मन मारकर दुःखी होते हुए चले जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों की यह बेबसी भरी इच्छायें उस मिठाई आदि में प्रचुर मात्रा में लिपट जाती हैं। अनेक मनुष्यों की ऐसी भावनाओं को वह बाजारू भोजन अपने में इकट्ठा करता रहता है और कुछ समय उपरांत उनका एक बोझ जमा हो जाता है और उसे पूर्णतः अखाद्य बना देता है।
” बाजारू भोजन करने से लोग बीमार पड़ते हैं”, यह अनुभव बिलकुल सत्य है । इसका कारण और कुछ नहीं हो सकता अगर घृत, मिष्ठान जैसी बलवर्द्धक वस्तुओं से बने हुए पदार्थ भी हानि पहुँचायें तो इसका भला और क्या कारण होगा ?
इसी विषय को अगले लेख में आगे बढ़ाने का प्रयास करेंगें।
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आज 11 युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है।आज रेणु बहिन जी गोल्ड मैडल विजेता हैं, उन्हें हमारी बधाई एवं संकल्प पूरा करने वाले सभी साथिओं को बधाई।
(1),रेणु श्रीवास्तव-41,(2)संध्या कुमार-35,(3)अरुण वर्मा-27,(4) सुजाता उपाध्याय-27,(5) चंद्रेश बहादुर-26,(6)सरविन्द पाल-32 ,(7) सुमनलता-32 ,(8)विदुषी बंता-24,(9) निशा भारद्वाज-29,(10) मंजू मिश्रा-24,(11) नीरा त्रिखा-24
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।