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“स्व” से उठकर “सर्व” एवम “स्वार्थ” से उठकर “परमार्थ” को अपनाया जाए, प्रस्तुतकर्ता संध्या कुमार

19 मार्च 2024

परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि नव युग निर्माण हेतु हमने दो कार्य दिए हैं तथा हम उम्मीद करते हैं कि अगले दशक तक आप लोग इन कार्यों को ऊंचे स्तर तक पहुंचा दोगे। यह दो कार्य निम्नलिखित हैं :

(1 ) विचारक्रांति  एवम (2 ) समाज सुधार,

हमने विपुल साहित्य का भी सृजन कर दिया है,उसे घर-घर तक,जन-जन तक पहुंचाना है, उससे सारा देश ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व प्रकाशमय हो सकता है।  इस उच्चतम कार्य के लिए  हमने अपने परिजनों से थोड़ा समयदान  एवम अंशदान की  माँग की  है जो किसी भी भावनाशील  व्यक्ति के लिए संभव है। इसके साथ ही समाज में व्याप्त कुरीतियों का उन्मूलन भी अनिवार्य है, जैसे विवाह संबंधी गड़बड़ियां , जाति भेद, ऊंच/नीच का भेदभाव, कन्याओं से भेद आदि को सही करना नितांत आवश्यक है। “साहस” गुण पर बल देते हुए गुरुवर कहते हैं कि इस गुण के अभाव में अन्य गुण  निरर्थक हो जाते हैं। साहस के बल पर ही मनुष्य दैनिक कार्य संपन्न करता है, साहस के बल पर ही वह आत्मनियंत्रण कर पाता है एवम शरीर को अधिक श्रम करने के लिए  तैयार करता है, उसी से  मन पर नियंत्रण भी कर पाता है।  शरीर और मन के  नियंत्रण से मनुष्य  आत्मनियंत्रण की ओर अग्रसर  होता है, इसलिए  गुरुवर  कहते हैं कि नवनिर्माण के लिए केवल  साहसी ही नहीं, दुस्साहसी ( आवश्यकता से बढ़ कर साहस करने वाले) मनुष्यों  की आवश्यकता है क्योंकि नए सृजन के साथ-साथ, पुरानी, सड़ी/गली प्रथाओं को भी उखाड़ फेंकने की आवश्यकता है।

परमात्मा ने अपनी सर्वोत्तम कृति, मानव को बुद्धि से अलंकृत किया है, और यही उसका सबसे बड़ा शस्त्र है। बुद्धि बल (सद्बुद्धि?) वाले मनुष्य ही बलशाली होते  हैं । प्राचीनकाल में सबसे ज्यादा ध्यान बुद्धि बल के सदुपयोग पर ही दिया जाता था। बच्चे के जन्म के तुरंत बाद  ही उसे संस्कारित करने के विधान रखे जाते थे तथा 10-12 वर्ष की आयु  पर उसे गुरुकुल भेज दिया जाता था, जहां संस्कारित वातावरण में उसका विकास होता था। यही कारण है कि  भारत का बौद्धिक एवम चारित्रिक स्तर देवमय बना रहा।  यह भी सत्य है कि जहां सद्बुद्धि  का प्रकाश होगा वहां न तो सुखशांति की कमी होगी और न ही संपत्ति और सफ़लता की। लेकिन आजकल  बुद्धि की दिशा उलट गई है, आज प्रत्यक्षवाद एवं तर्कवाद ने “आत्मा,ईश्वर,कर्मफल” आदि को नकार  दिया है, तथाकथित आधुनिक बुद्धिवाद ने मानवीय आदर्शवादिता एवम उत्कृष्टता को निरर्थक घोषित कर दिया है जिसके  फलस्वरूप विलासिता, भोगवाद, तृष्णा, धन, अहंकार, प्रदर्शन, स्वार्थ और संग्रह इन्हीं की सीमित परिधि में मनुष्य की सारी अकांक्षाए भ्रमण करती हैं।  ऐसी हालत में विकृत प्रवृतियों का पनपना एवम विस्तार स्वाभाविक है जिससे रोग, शोक, कष्ट,संताप, कलह, विग्रह, अपराध, अनाचार, उत्पीड़न आदि भी पनपते , विस्तार पाते हैं। 

यह सब  दुर्बुद्धि  का ही,खेल है ।

अत: प्रबुद्ध व्यक्तियों की जागृत आत्माओं का यह उत्तरदायित्व बढ़ जाता है कि वह ही इस दावानल को बुझाएं  और शांत करें । परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि युग निर्माण योजना द्वारा ऐसे ही अपने प्रियजनों को आमंत्रण  है जो  स्वार्थ एवं  संकीर्णता से ऊपर उठकर समस्त मानव समाज के कल्याण के लिए कार्य करें।

गुरुदेव ऋग्वेद की प्रार्थना का उल्लेख करते हैं कि इस प्रार्थना में कहा गया है कि “हे भगवान हमें देवताओं के पाप से बचा लो” क्योंकि साधारण व्यक्तियों के पाप कुछ व्यक्तियों या एक परिवार को खराब करते हैं, किंतु देवताओं, प्रतिभाशाली, समर्थ व्यक्तियों के पाप व्यापक प्रभाव डालते हैं। यह समझने की बात है कि प्रतिभाशाली एवम समर्थ व्यक्तियों की समाज के प्रति जिम्मेदारी अधिक होती है।

कला का भी जनसमुदाय पर व्यापक प्रभाव पड़ता है अत: समाज का चरित्रिक  बल सुधारने के उद्देश्य से सिनेमा, नाटक, टेलीविजन पर केवल  मनोरंजन की अपेक्षा चारित्रिक निर्माण की दिशा में  “उत्कृष्ट प्रसारण” पर बल दिया जाना चाहिए।  ये कला के साधन समाज की दिशाधारा को बनाने या बिगाड़ने का सामर्थ्य रखते हैं, इसलिए  यह भी आवश्यक है कि जनसाधारण भी इन साधनों पर पैनी नजर रखे ताकि इनका दुरुपयोग न किया जा सके।

काम, क्रोध, मोह, लोभ और ईर्ष्या जैसे दुर्गुणों का शमन अति आवश्यक है। विश्वास एक बहुत ही योग्य एवं अपनाने वाला  सदगुण है लेकिन  किसी पर ज़रुरत से अधिक विश्वास यानि अन्धविश्वास भी  हानिकारक ही  होता है।

यह सर्वविदित सत्य है कि मनुष्य जीवन  के लिए शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का कितना अधिक महत्व है  इसलिए  शरीर को स्वस्थ्य, नियंत्रित,संयमित रखना; बुद्धि को स्थिर, चिंतनशील बनाना;  मन को बलिष्ठ, विश्वासी और अविचल रखना; आत्मा को जीवन का सर्वोपरी तत्व मानते हुए  उसका सम्मान करना, उसका निर्देश मानना और उसका चिंतन करना ऐसा उत्तम कृत्य है जो शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा को बलशाली बनाता है। जो मनुष्य ऐसे कृत्य करते हैं, वह मानव से महामानव एवम जीव से ईश्वर बनकर अपना अंतिम लक्ष्य पा लेते हैं।

आशा और अभिलाषा जीवन के प्रेरक तत्व हैं किंतु इन्हें नश्वर भौतिकता से नहीं बल्कि अनश्वर आत्मतत्व से प्रेरित होना चाहिए  ताकि  व्यक्ति समाज, राष्ट्र और  संसार के लिए कल्याणकारी कार्य कर सके।  अत: “स्व”से उठकर “सर्व” एवम “स्वार्थ” से उठकर “परमार्थ” की ओर अग्रसर होने की प्रवृति,मानव को महामानव की श्रेणी में ला खड़ा कर देती  है।

“धर्म” के संबंध में परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि अधिकतर मनुष्य धर्मभीरू होते हैं अर्थात ऐसे होते हैं जो भय के कारण धर्मशील होते हैं। यह ऐसे लोग होते हैं जो धर्म का पालन इसलिए करते हैं कि उन्हें अधर्म करने में भय लगता है। ऐसे लोग धर्म के लिए  कुछ धनराशि एवम कुछ समय अवश्य लगाते हैं।  जीवन भर दी गयी थोड़ी-थोड़ी धनराशि समय आने पर बहुत बड़ी धनराशि का रूप ले लेती है। गुरुदेव इस सम्बन्ध में चेतावनी देते हैं कि  इस विशाल धनराशि को धर्म के नाम पर दिखावटी ढकोसलों या धर्म के खोखले कर्मकांडों में खर्च करने के बजाए लोककल्याणकारी योजनाओं के लिए प्रयोग करना चाहिए। ऐसा करने से  व्यक्ति, समाज एवम राष्ट्र का रूप निखर जाएगा। स्मरण रहे  कि प्राचीनकाल में धार्मिक प्रतिभाएं सन्मार्गगामी थीं जिसके कारण हर जगह  स्वर्गीय वातावरण फैला हुआ था, वही मार्ग आज भी अपनाया जाना चाहिए।

मनुष्य के जीवन में “धन” का विशेष स्थान है।  जीवनयापन के लिए लगभग सभी साधनों का प्रबंध धन के माध्यम से ही होता है लेकिन  अधिक से अधिक  धन प्राप्ति ही जीवन का लक्ष्य मान लेना सर्वथा अनुचित है। आज का मानव अधिक से अधिक धन अर्जन की अंधी दौड़ में भटक रहा है। जीवन में सुख प्राप्ति के लिए अधिक से अधिक  भौतिक साधनों की उपलब्धि के लिए शारीरिक, मानसिक, परिवारिक सुख चैन गवां बैठा है। मनुष्य  धन के पीछे इतना  मतवाला हो गया है कि अपने साथ-साथ, भावी पीढ़ी के लिए असीमित  धन जमा कर  लेना चाहता है। ऐसा करते हुए वह स्वयं को तो बर्बाद  करता ही है, साथ में भावी पीढ़ी को भी आलसी, निकम्मा,अपव्ययी आदि  बनाकर उसका सर्वनाश कर रहा है जो कि सर्वथा अनुचित है। हर धनी व्यक्ति  को सोचना चाहिए कि वह समाज का एक महत्वपूर्ण अंग है, समाज की सहायता से ही वह अपने समस्त कार्य संपन्न कर पाता है इसलिए उसे चाहिए कि प्राप्त हुए धन में से कुछ राशि समाज कल्याण के लिए  भी अवश्य खर्च करे।

वैसे तो “धन के अर्जन और खर्च”  का विषय एक ऐसा विषय है जिस पर हम में से कोई भी, कितनी ही देर के लिए चर्चा कर सकता है , सैंकडों पन्ने लिख सकता है  लेकिन “लिखने/बोलने” से अधिक महत्व “करने” का है। हमारे इस छोटे से संकल्पित परिवार का तो motto ही “जो प्राप्त है वही पर्याप्त है”  लेकिन क्या हम इस motto का पालन कर रहे हैं ? यां कोरी विज्ञानबाज़ी से ही आनंद प्राप्त कर रहे हैं। इस प्रश्न के अनेकों उत्तर मिल सकते हैं लेकिन सार्थक उत्तर तो अंतरात्मा ही दे पाएगी।   

हमारे गुरुवर उदाहरण देते हुए कहते हैं कि राणा प्रताप को धन के बिना भारतीय स्वाधीनता की रक्षा करना मुश्किल था, तब भामाशाह ने आर्थिक सहयोग दिया था। आज ऐसे ही  भामाशाहों की नितांत आवश्यकता है। हम सभी को जागृत करते हुए गुरुवर कहते हैं कि “विचार क्रांति” को गति देने के लिए साधनों एवम प्रतिभाशाली व्यक्तियों की आवश्यकता है। प्रतिभाशाली व्यक्ति ही जनसाधारण का नेतृत्व कर सकते हैं एवम उन्हें विनाश एवम विकास अर्थात् ध्वंसकारी एवम रचनात्मक यानि  सड़े/गले, कूड़े/ करकट की सफ़ाई एवम नव सृजनात्मक कार्य एक साथ करने होंगे।  इस उच्चस्तरीय कार्य के लिए  विशाल व्यक्तित्व जिसे पद, प्रतिष्ठा, मान, धन किसी की चाह न हो, वह जनता का छोटा सा सेवक बनकर, हर प्रकार  के कार्य को प्रसन्नतापूर्वक  करे।  ऐसी प्रतिभाओं की कमी नहीं है लेकिन  इन प्रतिभाओं को साहस या दुस्साहस कर आगे आना चाहिए , जो शौर्य और साहस का, त्याग और बलिदान का, पौरुष और पुरुषार्थ का आदर्श प्रस्तुत करेंगे।

परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि हमने हर धर्मप्रेमी व्यक्ति और आत्मवादी व्यक्ति को आवाहन  करते हुए कहा है कि समाज सेवा के लिए थोड़ा समय एवम  धन अवश्य लगाएं क्योंकि मनुष्य का जीवन  समाज के सहयोग से ही चलता है। तभी तो कहा जाता है कि मनुष्य  समाज का ऋणी है और यह ऋण समाज की सेवा करके ही चुकाया जा सकता है। प्राचीनकाल में सादगीपूर्ण जीवन के साथ परोपकार को भी अपनाया जाता था जिसके कारण संपूर्ण  विश्व में  “स्वर्ग के समान” परिस्थियाँ थीं  मानव को  “देवतुल्य” माना जाता था। आज के दुःखद समय में  मनुष्य इन सदगुणों से विमुख होकर स्वार्थी एवम निम्नपथगामी बन बैठा है।  आज मनुष्य को संगठित होकर सद्ज्ञान संवर्धन के महान कार्य करने होंगे, मनुष्य को अपनी तृष्णा और विलासिता पर अंकुश रखकर कुछ धन “मूर्छित मानवता” को  प्राणवान बनाने के लिए  साधनों में लगाना होगा। आज के मनुष्य में भी शौर्य और साहस की कमी नहीं है किंतु स्वार्थवश वह “युग की पुकार” को अनसुना कर रहा है किंतु “स्व” से”सर्व” एवम “स्वार्थ” से “परमार्थ” की ओर अग्रसर होना ही युग की आवश्यकता है।

नव सृजन के लिए “आंतरिक महानता” आवश्यक है। भावनात्मक परिष्कार ही वह अमोघ उपाय है जिसके माध्यम से  समस्त विभीषिकाओं का चिस्थायी समाधान निकल सकता है । उत्कृष्ट मनोभूमि पर ही सभी सदगुण जन्मते, पनपते हैं तथा कार्य को सफल बनाते हैं। स्वार्थ से निकलकर परमार्थ की ओर कदम बढ़ाना, फिजूलखर्ची  को त्यागकर मितव्ययी बनना एवम शारीरिक बल को भी लोकमंगल में लगाना ही प्रबुद्ध वर्ग (Enlightened section of the  Society) को शोभा देता है। गुरुवर सावधान करते हुए कहते हैं कि जो धन कमाते हैं उसमें सादगी एवम मितव्यीयता से जीवनयापन करते हुए कुछ धन अवश्य बचाकर समाज के लोक कल्याणकारी कार्यों में लगाना चाहिए। बचा-बचा कर यां दोनों हाथों से कमाकर  आगे की पीढ़ी के लिए बचाना व्यर्थ है क्योंकि आने वाले समय में सारी दुनिया आर्थिक क्षेत्र में समाजवादी ढांचे में ढल जायेगी। आने वाले समय में  पूंजी पर समाज का नियंत्रण होगा। सादगीपूर्ण जीवन-निर्वाह का मार्ग अपनाते हुए, शेष धन समाज कल्याण हेतु लगाना चाहिए।  गुरुवर कहते हैं कि बुजुर्ग वर्ग को बच्चों  की परवरिश एवम मार्गदर्शन में बढ़-चढ़ कर भागीदारी करनी चाहिए तथा पढ़ी लिखी पत्नियों को नौकरी के साथ गृहस्थी की पूरी जिम्मेदारी निभाते हुए अपने पतियों को उनकी आमदनी के साथ समाज सेवा के कार्य हेतु छोड़ देना चाहिए। जब जन-जन में समाज के प्रति दायित्व वहन की भावना जागृत  तभी सुदृढ़ समाज का निर्माण हो सकेगा यानि नवयुग का सृजन संभव होगा।

इस पुनीत कार्य के लिए मानव  के अंतःकरण में  आदर्शवदिता  की उमंग पैदा होनी बहुत आवश्यक है। इस भावना की जागृति के लिए  चिंतन/मनन, स्वाध्याय/सत्संग एवम प्रेरणाप्रद वातावरण बहुत आवश्यक है। जब व्यक्ति अपनी मनोदशा एवम गतिविधियां परिष्कृत स्तर की बना लेता है तो उसका प्रत्येक कृतत्व उसके स्वयं के हित के साथ-साथ  धर्म, समाज संस्कृति और विश्व शांति के लिए हर प्रकार से उपयोगी सिद्ध होता है।

नवयुग निर्माण के लिए  तृष्णा, वासना,लोभ, और मोह के चंगुल से निकलकर लोकमंगल के लिए बड़े से बड़ा त्याग, बलिदान, पुरुषार्थ और अनुदान अग्रसर होने पर साधारण मनुष्य भी संत/महात्माओं की तरह उच्च कार्य करने में सक्षम हो जाता है क्योंकि बड़े कार्य धन या साधनों  से नहीं होते हैं, उनके लिए प्रचंड अंत:प्रेरणा एवम भावभरी उमंग आवश्यक होती है।  जिस किसी ने भी स्वयं को अपनी एष्णाओ से  आदर्शवादिता, उत्सुकता से त्याग और बलिदान के श्रृद्धा सुमन चढ़ाने का साहस और मनोबल रखता है, वही  मनुष्य नव युग का निर्माण करने में सक्ष्म  हो सकता है।

आदरणीय संध्या बहिन जी का ह्रदय से आभार     


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