18 मार्च 2024 का ज्ञानप्रसाद
चलती रहे बस मेरी लेखनी, इतना योग्य बना देना मेरे सिर पर हाथ धरो माँ, ज्ञान की ज्योति जगा देना।
वीणा वादिनी, ज्ञान की देवी माँ सरस्वती की वंदना के साथ आज सप्ताह के प्रथम दिन, सोमवार को ज्ञानप्रसाद का शुभारम्भ करते हैं। सबसे पहले जहाँ हम आदरणीय संध्या बहिन जी का इस लेख के लिए धन्यवाद् करते हैं वहीँ हम क्षमा याचना भी करते हैं कि “अनुभूति विशेषांक” एवं हमारी नेत्र सर्जरी के कारण इस लेख को उस समय प्रकाशित न कर पाए जब उन्होंने अपनी इच्छा व्यक्त की थी।
बहिन जी द्वारा प्रस्तुत लेख का प्रथम भाग परम पूज्य गुरुदेव द्वारा रचित ”युग की पुकार अनसुनी न करें” दिव्य पुस्तक पर आधारित है। श्री वेदमाता गायत्री ट्रस्ट द्वारा 2002 में प्रकाशित,158 पन्नों और 14 अध्याय वाली यह दिव्य पुस्तक अगर कोई भी पाठक पढ़ना आरम्भ कर दे तो समापन करने के बाद ही सांस लेगा।
वंदना जी,विदुषी एवं अन्य साथिओं से हम क्षमा प्रार्थी हैं कि उनकी अनुभूतियाँ कल प्रकाशित न हो पाएंगी।
इन्हीं शब्दों के साथ आज की गुरुकक्षा का शुभारम्भ होता है।
****************
“युग की पुकार अनसुनी ना करें”, परमपूज्य गुरुदेव की अनुपम कृति है, जिसमें गुरुदेव सभी को अगाह करते हुए जागृत कर रहे हैं क्योंकि आज का मनुष्य अर्थात सम्पूर्ण विश्व एक ऐसी विषम परिस्थिति में उलझ गया है जिससे मुक्ति पाना अत्यंत आवश्यक है। मनुष्य इस स्थिति से मुक्त तो अवश्य ही होगा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है, लेकिन मुक्ति को संभव करने के लिए मनुष्य का सजग होना बहुत ही ज़रूरी है। यदि मनुष्य सजग नहीं हुआ तो उसे बेहद कष्टदायक स्तिथि में जीवन व्यतीत करने के लिए विवश होना पड़ेगा।
ऐसी स्थिति में मनुष्य को सजग होकर अपने दायित्व का निर्वहन करना होगा जिसमें भारत की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण हो सकती है। भारत की प्राचीन सभ्यता, उच्च नैतिक एवं मानवीय मूल्यों से प्शिक्षा प्राप्त करके हम एक सजग प्रहरी (Alert security guard) का दायित्व निभा सकते हैं। धर्म व्यवस्था, शासन व्यवस्था,आर्थिक व्यवस्था,मनोरंजन एवम कला के साधनों आदि सभी क्षेत्रों को एक ही लक्ष्य बनाकर हमें अग्रसर होना होगा और वोह लक्ष्य होगा “उच्चस्तरीय चरित्र निर्माण”, जिसका आधार जन-जन की परिष्कृत मनोवृति होगी, जन-जन को अंतर्मन से शुद्ध, निर्मल, उच्च, परिष्कृत होना होगा। इस उद्देश्य को सार्थक करने के लिए बहुत आवश्यक है कि “स्व” से उठकर “सर्व” एवम “स्वार्थ” से उठकर “परमार्थ” को अपनाया जाए।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार बहुत ही सौभाग्यशाली है कि हमारे मार्गदर्शक ,पितातुल्य परमपूज्य गुरुदेव ने संजीवनी बूटी के रुप में विशाल साहित्य का सृजन कर हमारे हाथों में थमा दिया है। परिवार के एक-एक सदस्य से आशा की जाती है कि वह एक नियमित उत्तरदायित्व के अंतर्गत उच्चस्तरीय क्रियाकलापों का पालन करे, अपने जीवन में उतारे। हमें एक सुदृढ़ भावना बना लेनी चाहिए कि कोई करे न करे, हमें तो गुरुवर के निर्देशों का अक्षरश: पालन करना ही है क्योंकि हमारा यह छोटा सा किन्तु संकल्पित परिवार “विशाल विश्व्यापी गायत्री परिवार” का ही अंग है। यदि हम आगे बढ़ेंगे तो अनेकों और लोग भी अनुसरण करते हुए हमारा सहयोग करेंगें, हमारे विवेक के अनुसार यही एकमात्र विकल्प है और हमारे इस परिवार ने इस विकल्प को बार-बार Try and Test किया है। हमारे परिवारजनों द्वारा प्रदर्शित मानवीय मूल्य ही एक अदृश्य चुम्बक की भांति नित नए साथिओं को इस परिवार की ओर खींच रहे हैं। हम उस पुरातन उदाहरण को कैसे नकार सकते हैं, “Charity begins at home” , हमें दूसरों के लिए एक Role Model की भूमिका निभानी होगी। परमपूज्य गुरुदेव तो बार-बार व्यक्ति निर्माण की बात करते हैं। पहले व्यक्ति निर्माण होगा, तभी तो समाज निर्माण होगा।
स्वर्गीय वातावरण एवम मनुष्य में देवत्व के अवतरण का दायित्व निभाने के लिए हमें दृढ़ संकल्पित होना होगा, अपने ओजस्वी, मनस्वी, तपस्वी, श्रेष्ठतम संत परमपूज्य गुरूदेव के प्रति हमारी यही सच्ची गुरुभक्ति होगी।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के सभी सदस्यों से करबद्ध अनुरोध एवं निवेदन है कि “युग की पुकार अनसुनी ना करें” दिव्य पुस्तक को अवश्य पढ़ें। हमें तो पढ़ते समय बार-बार आदरणीय पंडित लीलापत शर्मा जी का कथन स्मरण हो आता था कि “ऐसा लेखक मैंने कभी नहीं देखा”, इतना ऊंचा प्रकरण, उस पर उत्तम भाषा शैली, एक-एक शब्द, एक-एक वाक्य सीधा मन मस्तिष्क में उतरे जा रहा है जिससे हमें गहन चिंतन/मनन की प्रेरणा मिलती है। हमारा विश्वास है कि जिस किसी ने भी इस पुस्तक को पढ़ना शुरू कर दिया, वोह इसे समाप्त करके ही साँस लेगा,यही है उच्चस्तरीय लेखन का पैमाना।
हम सब परिजन बहुत भाग्यशाली हैं जो परमपूज्य गुरुदेव ने हमें गायत्री परिवार से जुड़ने का सुअवसर प्रदान किया। यह भी बड़े ही भाग्य की बात है कि परमपूज्य गुरुदेव ने अपने द्वारा मार्गदर्शित, संरक्षित एवम आदरणीय त्रिखा भाईजी द्वारा संचालित OGGP से जुड़ने का सुअवसर प्रदान किया। आदरणीय त्रिखा भाईजी की लगन, मेहनत, समर्पण से हम नियमितता से प्रतिदिन सुबह सबेरे ज्ञानप्रसाद एवम शयन काल में शुभरात्रि संदेश का अमृतपान कर लाभ उठाते हैं। गुरुवर के दिव्य साहित्य के स्वाध्याय एवम सत्संग से हम परिजनों के जीवन की दशा एवम दिशा परिष्कृत हो रही है, आज हम परिजनों को ज्ञानप्रसाद का अमृतपान एवं ज्ञानरथ परिवार की बातों के इलावा सब बातें फिज़ूल ही लगती हैं। OGGP के स्वाध्याय/सत्संग में परमपूज्य गुरुदेव एवम वंदनीय माताजी का सानिध्य प्राप्त होता है जिस कारण कोई भी और आयोजन, पार्टी आदि अच्छी नहीं लगती।
इस दिव्य कार्य हेतु आदरणीय त्रिखा भाईजी के लिए धन्यवाद शब्द बहुत छोटा है, लेकिन फिर भी धन्यवाद, धन्यवाद, धन्यवाद भाईजी, आप सदा स्वस्थ्य एवम प्रसन्न रहें तथा अनवरत OGGP का संचालन एवम मार्गदर्शन करते रहें। परम पूज्य गुरुसत्ता को सादर नमन, वंदन, पूजन।
आज विज्ञान ने बहुत उन्नति कर ली है, जिसके कारण आज के मनुष्य का जीवन अनेकों सुविधाओं से सम्पन्न हो गया है, अत: आज के मनुष्य को तो बहुत प्रसन्न रहना चाहिए, किंतु स्थिति इसके विपरित है। आज मनुष्य बहुत हैरान/परेशान है, इसका कारण है कि मनुष्य ने आध्यात्मिक प्रगति को गौण समझा और भौतिक प्रगति को अधिक महत्व दिया है। यदि मनुष्य आध्यात्मिक और भौतिक प्रगति का सामंजस्य बैठाकर चलता तो उसे आज जैसी दुर्गति का सामना न करना पड़ता।
परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि “सादा जीवन उच्च विचार” के आदर्शवादी जीवन में अपार शांति एवम संतुष्टि है, किंतु आज का मनुष्य इसके विपरित तड़क/भड़क, बनावटी एवम अनावश्यक प्रतिस्पर्धा को अपनाकर भयावह जीवन का भागीदार बन बैठा है। आज के युग की पुकार है कि इस गलत जीवनशैली को रोका जाए। यदि वृहद जनसमुदाय समझने को तैयार न हो, फिर भी एक छोटा वर्ग ही “विचार क्रांति” का लक्ष्य लेकर आगे बढ़े और अपनी क्रियापद्धति को कार्यान्वित करने के लिए कुछ त्याग/बलिदान कर दिखाए।
अखिल विश्व गायत्री परिवार की रचना इसी आधार पर की गयी थी। गुरुदेव बता रहे हैं कि हमारे पास साधन कम थे, परिवार छोटा था किंतु हमने लक्ष्य बड़ा रखा। मनुष्य एक है अत: वसुधैव कुटुंबकम अर्थात सारी वसुधा ही मेरा परिवार है को अपनाया जाना चाहिए। हमारा सारा जीवन, हमारा तप, हमारी समस्त शक्ति, इसी उद्धेश्य की प्राप्ति को समर्पित है । नवयुग का आगमन एकता, शुचिता, समता एवम ममता से हो रहा है और यही उसके आधार स्तम्भ हैं।
एकता में बहुत शक्ति है; जड़ और पदार्थ एक और एक दो होते हैं किंतु जीवित व्यक्ति एक और एक ग्यारह होते हैं। यह भी सोचने/समझने की बात है कि जब ईश्वर एक है, सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान है, तब धर्म में भी एकरूपता होनी चाहिए। जितना खून खराबा धर्म के भेदभाव में हुआ है, उतना युद्धों में भी नहीं हुआ है। धर्म एकरूपता की भांति सांस्कृतिक एकरूपता भी महत्वपूर्ण है जिसके लिए परमपूज्य गुरुदेव सुझाव देते हैं कि संसार भर में फैली हुई संस्कृतियों में से सर्वश्रेष्ठ, सर्वोपयोगी अंश लेकर सर्वांगपूर्ण/सार्वभौम संस्कृति का निर्माण विश्व के लिए बेहद लाभकारी होगा। इस संदर्भ में भारतीय धर्म, अध्यात्म तथा संस्कृति, विश्व मानव की सार्वभौम आवश्यकताएं पूरी करने में भली भांति समर्थ है। पिछले 5000 वर्षों में आई, विकृतियों को निकाल दिया जाए तो विशुद्ध भारतीय मान्यताएं ऐसे स्तर की हैं जैसे कि समस्त मानवजाति के लिए वास्तविकता, उपयोगिता एवम औचित्य का ध्यान रखकर विनिर्मित की गई हो।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, Humans are social beings, वह समाज का एक अविछिन्न अंग है। मनुष्य की ज़िम्मेदारी मात्र शरीर और परिवार तक ही सीमित नहीं है बल्कि विस्तृत जनसमाज तक व्यापक है। आज का मनुष्य सब कुछ देख भी रहा है, समझ भी रहा है कि मानव समाज अनेकों विकृतियों (तोड़-मरोड़) का शिकार हो गया है, जिसमें मनुष्य का जीवन दूभर हो गया है। विकृत, टूटे-फूटे, लंगड़े-लूले समाज को सुधारना ही इस युग की सबसे बड़ी पुकार है। यदि मनुष्य को किसी का सहयोग न भी मिले, फिर भी उसे अपनी आत्मा को साक्षी मानकर,अंतर्मन, संकल्प एवम साहस के साथ सत्य के लिए, धर्म के लिए आगे बढ़ना होगा।
यह कार्य जितनी सरलता से यहाँ लिखा जा रहा है, दिख रहा है, सही मायनों में उतना आसान है नहीं। इसके लिए साहस एवम दुस्साहस के साथ अपने दृष्टिकोण और क्रियाकलापों में परिवर्तन की आवश्यकता है। सजग एवं जागृत व्यक्तियों को यही शोभा देता है। मनुष्य परमात्मा की सर्वोत्तम कृति है और परमात्मा ने बीजरूप में सारी महत्ता और विभूति मनुष्य में प्रतिष्ठापित की हैं। ऐसा करने के साथ ही परमात्मा ने मनुष्य को इस बात की पूरी छूट दे रखी है कि कोई भी मनस्वी इन विभूतियों का उपयोग करते हुए निर्भयता से विकास की सीढ़ियों पर चढ़ता हुआ पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर सकता है। यहाँ यह भी समझना बहुत ज़रूरी है कि कोई व्यक्ति आध्यात्मिक चेतना की भूमिका में विकसित हुआ है या नहीं, यह परीक्षा उसके सत्साहस को देखकर ही की जा सकती है, जो साहसी है वही अध्यात्मवादी है। मनुष्य के अंतराल में अनगनित योग्यताएं, क्षमताएं, विभूतियाँ भरी पड़ी हैं, उन्हें जगाने तथा उठाने के लिए साहस चाहिए। साहस के बलबूते ही व्यक्ति अपनी आज की अवांछनीय मनोदशा और क्रियापद्धती को बदल डालने के लिए क्रांतिकारी कदम उठाने के लिए समर्थ होता है। जिस व्यक्ति ने यह ठान लिया कि ऐश्वर्यवान बनने के लिए अवांछनीय मार्ग नहीं अपनाया जा सकता, भले ही आदर्शवाद की राह पर चलते हुए रूखी सूखी रोटी खाकर, फटा कपड़ा पहनकर ही गुज़ारा करना पड़े किंतु आदर्शवाद भरी आध्यात्मिकता का निर्वाह हर संभव करना ही है। आज ऐसे ही मानवों की महती आवश्यकता है तथा ऐसे ही मानव भौतिक एवम आत्मिक, दोनों लक्ष्यों की पूर्ति करने में सक्ष्म होते हैं।
यही है आज के युग की पुकार जो मानव को नर पशु न बनकर नर नारायण बनने की ओर अग्रसित करेगी। आज के मनुष्य में ऐसे ही साहस की आवश्यकता है जो सारे अवरोधों को कुचलकर आगे बढ़ने में सहायक । ऐसे ही मानवों का जीवन धन्य माना जाता है एवम मानवता का उद्धार, समाज का कल्याण एवम देश, धर्म तथा संस्कृति का उत्थान इन्ही के प्रयासों से संभव होता है।
To be continued
********************
आज 10 युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है।आदरणीय सरविन्द जी को गोल्ड मैडल जीतने की बधाई एवं सभी साथिओं का योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1) अरुण वर्मा-25,(2)संध्या कुमार-49 ,(3)अनुराधा पाल-27 ,(4 )सुमनलता-31,(5 ) निशा भारद्वाज -25,
(6) सुजाता उपाध्याय-54 ,(7 )वंदना कुमार-32,(8 ) चंद्रेश बहादुर-53 ,(9 )सरविन्द कुमार-67 , (10 ) मंजू मिश्रा-24 ,
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।
