20 फ़रवरी 2024 का ज्ञानप्रसाद
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवारजनों ने परमपूज्य गुरुदेव का आध्यात्मिक जन्मदिन मनाने हेतु सम्पूर्ण फ़रवरी माह में मंगलवेला के ज्ञानप्रसाद से लेकर रात्रि को पोस्ट होने वाले शुभरात्रि सन्देश तक समस्त योगदान परम पूज्य गुरुदेव को ही समर्पित करने का संकल्प लिया है। इसी संकल्प के अंतर्गत 20 फ़रवरी 2024 का ज्ञानप्रसाद लेख, इस संकल्प का 10वां लेख प्रस्तुत है।
आज इस लेख के साथ ही हमारे संकल्प का मध्यांतर यानि इंटरवल होता है। कल से संकल्प का दूसरा पार्ट यानि “अनुभूति विशेषांक” का श्रीगणेश हो रहा है। इस रोचक पार्ट का शुभारम्भ आदरणीय सरविन्द पाल जी के योगदान से हो रहा है। हमें पूरा विश्वास है कि सरविन्द जी द्वारा प्रस्तुत की गयी अनुभूति के कुछ अंश हमारे मंच पर पहले भी प्रकाशित हो चुके हैं लेकिन इससे उनकी अनुभूति में व्यक्त किये गए विचारों का महत्व कम नहीं होता। अनुभूतिओं के सम्बन्ध में शांतिकुंज द्वारा न जाने कितना ही कुछ प्रकाशित हो चुका है लेकिन ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के सदस्यों का यह अद्भुत प्रकाशन अपनेआप में unique है। सभी साथिओं का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं। हमारे सहयोगी जानते हैं कि 27 फ़रवरी को ब्रेक तो आएगी लेकिन हम अपने विवेक के अनुसार, गुरुदेव के मार्गदर्शन में, जो कुछ भी बन पायेगा अवश्य करने का प्रयास करेंगें।
हमारे साथिओं को स्मरण होगा कि आने वाला शुक्रवार फ़रवरी माह का अंतिम शुक्रवार है और आदरणीय सुमनलता बहिन जी के सुझाव अनुसार यह शुक्रवार युवाशक्ति की ऑडियो/वीडियो के लिए रिज़र्व रखा हुआ है। हमारी सबकी बेटी संजना की प्रस्तुति का दूसरा पार्ट work in progress (WIP) है।
आज के ज्ञानप्रसाद लेख का प्रसंग एक विद्वान और महायोगी के बीच हो रही वार्ता का वर्णन है। इस शिक्षाप्रद लेख में प्रेम और परमात्मा के सम्बन्ध का बहुत ही सुंदर वर्णन है। यह लेख मार्च 2003 की अखंड ज्योति में प्रकाशित हुआ था।
तो आइये गुरुकक्षा की ओर रुख करें।
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पंडित रघुनाथ शास्त्री जी उच्चकोटि के,सर्वमान्य लोकप्रिय विद्वान थे। पंडित जी के नाम के साथ अनेकों उपाधियाँ टँकी थी। विश्व के अनेक देशों की दर्जनों भाषाओं में उन्होंने हजारों- हजार ग्रंथों का अध्ययन किया था। उन्हें अनगिनत विषयों का पारदर्शी ज्ञान था लेकिन एक गहरी कसक भी थी कि इस ज्ञान से सम्मान तो बहुत मिला लेकिन संतुष्टि न मिल सकी। अन्तःकरण में हमेशा अतृप्ति (Unsatisfaction) के अंगारे दहकते रहते थे। महामहोपाध्याय, विद्यावाचस्पति, विद्यावारीधि एवं महापण्डित जैसे सभी भारी भरकम अलंकरण किसी भी तरह उनकी जलन और चुभन को शान्त न कर सके। जीवन प्रश्न के समाधान की तल्लीनता में उनके मन में अनेकों तरंगें उठती-गिरती रहती थीं। ऐसी ही अनगिन तरंगों में एक वेग पूर्ण तरंग यह भी उठी कि
“अन्तःकरण में परम शान्ति केवल परमात्मा के संस्पर्श से पनप सकती है।”
इस विचार तरंग ने उन्हें खोजी (Researcher) बना दिया। वह तीर्थस्थान, देवमन्दिर, सिद्ध महापुरुषों आदि के द्वार दरवाजे खटखटाने लगे। हर जगह सब कुछ था लेकिन “वह परमात्मा” नहीं था जिसकी तलाश में भटक रहे थे। तीर्थस्थानों में पर्यटन स्थल की रोचकता और भव्यता तो थी लेकिन पावन तीर्थचेतना का अभाव था । देवमन्दिरों में दैवी गुणों के स्थान पर धन भण्डारण था। संन्यासी, त्यागमूर्ति एवं तपोनिष्ठ होने की जगह “ऐश्वर्यवान” ही मिले।
यह सब कुछ देखकर उन्हें बहुत ही बेबुझ (Senseless) सा अनुभव हुआ और जो सोचा था सब उल्ट ही लगा। इस उलटबाँसी ने पंडित जी के अंदर अन्तर्विरोध तो पैदा किया लेकिन उनकी खोज सच्ची थी, जिज्ञासा पक्की थी। कबीर जी का सूत्र “जिन खोजा तिन पाइयाँ” उन्हें और अधिक गहरे पानी में जाने का बल दे रहा था।
खोजते-भटकते, विहरते-विचरते आखिर वह गंगा की गोद और हिमालय की छाँव में बनी महायोगी आचार्य सत्यव्रत जी की सुरम्य कुटीर में आ पहुँचे, स्थल तो बड़ा ही मनोरम था। कुटीर में शान्ति थी, तप की ऊर्जा थी और तीर्थ की पावनता एवं न जाने क्या कुछ था, शब्दों में वर्णन करना बहुत ही कठिन है। कुटीर में शास्त्रों का बड़ी ही जीवन्त आत्मा थी । कुटीर में वास करने वाले महायोगी ब्रह्मचेतना के घनीभूत पुंज थे। उन्हें देखकर अनायास ही श्रद्धा का विस्फोट हो आया। इस कुटीर की सुरम्यता ने पंडित जी की राह की सारी थकान पल भर में हर ली। ऐसा लगा जैसे महायोगी के मधुर स्वरों ने जैसे मुरझाए अन्तःकरण पर अमृतवर्षा कर दी हो। महायोगी ने संस्कृत में पूछा, “वत्स किम् प्रयोजनम् ? अर्थात क्या प्रयोजन है बेटे ?” इस संक्षिप्त प्रश्न के उत्तर में उन्होंने अपनी सारी गाथा सुना डाली। इस गाथा को सुनते हुए महायोगी आचार्य सत्यव्रत उन्हें देखे जा रहे थे। अचानक एक मद्धम मुस्कान के साथ उन्होंने पूछा, “वत्स, क्या नाम बताया तुमने?” उत्तर में उन्होंने कहा, “आचार्यवर, मेरा नाम महामहोपाध्याय महापण्डित रघुनाथ परचुरे शास्त्री विद्यावाचस्पति विद्यावारीधि है।” नाम के साथ इतने अलंकरण सुनकर आचार्य सत्यव्रत खिलखिला कर हँस पड़े। हँसी थमने पर वह बोले, “वत्स रघुनाथ, ज्ञान तो मनुष्य के ह्रदय के सारे भार को हर लेता है लेकिन यहाँ तो ऐसा लग रहा है कि तुम्हारे ज्ञान ने तुम्हें भारवाही बना दिया।” आचार्य का इशारा उनकी उपाधियों के साथ शास्त्र पोथियों की उस गठरी की ओर था जिसे पंडित रघुनाथ शास्त्री अभी भी अपने सिर पर लादे हुए थे।
पंडित रघुनाथ शास्त्री ने आचार्य सत्यव्रत से पूछा कि आचार्यवर परमात्मा को पाने के लिए मैं क्या करूं? तो सत्यव्रत जी ने कहा, “वत्स, सबसे पहले उपाधियों की इस गठरी को नीचे रख दो। पंडित जी ने इस आदेश को मानने में काफी कठिनाई तो अनुभव की लेकिन फिर भी साहस किया और गठरी को नीचे रख दिया। आत्मा के बोझ को नीचे रखने के लिए सचमुच ही अदम्य साहस की जरूरत होती है। वैसे अभी भी उनका एक हाथ गठरी पर ही था। आचार्य जी ने कहा,“वत्स,तुम अपने हाथ को भी उस गठरी से दूर हटा लो।” पंडित रघुनाथ जी ने अपनी सच्ची जिज्ञासा का परिचय देते हुए अपना वह हाथ भी गठरी से दूर कर लिया। इस पर महान् योगी आचार्य जी ने पूछा,
क्या तुम प्रेम से परिचित हो ?
क्या तुम्हारे चरण प्रेम के पथ पर चले हैं?
पंडित जी को आचार्य सत्यव्रत के इस कथन पर हैरानी हुई। अभी तक उन्होंने प्रेम को “जीवन पथ की बाधा” ही माना था लेकिन आचार्य जी तो कुछ नया कह रहे थे। उन्होंने प्रश्नवाचक निगाहों से आचार्य सत्यव्रत जी की ओर देखा । इन प्रश्न सूचक निगाहों के उत्तर में आचार्य जी ने भी कुछ प्रश्न वाचक वाक्य कहे,
क्या प्रेम ही परमात्मा नहीं है?
क्या प्रेम में डूबा हुआ हृदय ही उसका मन्दिर नहीं है?
क्या उस व्यक्ति की खोज व्यर्थ नहीं जो प्रेम को छोड़कर उसे कहीं और खोजता है ?
आचार्य जी के स्वरों में उनके अनुभव का संगीत था। वह बता रहे थे कि जो व्यक्ति परमात्मा को खोजता है, वही घोषणा करता है कि उसे प्रेम नहीं मिला क्योंकि जो स्वयं को प्रेम के लिए समर्पित कर देता है, वही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। जब प्रेम का अभाव होता है तो परमात्मा की खोज का जन्म होता है। प्रेम के बिना परमात्मा का पाना लगभग असम्भव ही है। परमात्मा को जो खोजता है, वह परमात्मा को तो पा ही नहीं सकता और प्रेम की खोज से अवश्य ही वंचित हो जाता है लेकिन जो प्रेम को खोजता है, वह प्रेम को पाकर ही परमात्मा को पा लेता है। प्रेम मार्ग है, प्रेम द्वार है, प्रेम पैरों की शक्ति है, प्रेम प्रहरों की प्यास है, प्रेम ही परमेश्वर है इसीलिए इस बात पर बल दिया जाता है कि प्रेम करो,परमात्मा स्वयं ही प्राप्त हो जायेगा।
आचार्य सत्यव्रत के वचन पंडित रघुनाथ जी को आश्चर्यजनक तो लग रहे थे लेकिन इनमें उन्हें सत्य की झलक भी मिल रही थी। सत्यव्रत कहे जा रहे थे,
“मैं कहता हूँ, परमात्मा को छोड़ो और प्रेम को पाओ । मन्दिर को भूलो और हृदय को खोजो, क्योंकि प्रेम का वास तो ह्रदय में ही है। जिस मंदिर में मनुष्य नाक रगड़ रहा है, प्रेम ढूंढ रहा है वोह तो परमात्मा की पत्थर की मूर्ति है, ह्रदय में बैठा परमात्मा ही प्रेम है। पत्थर की मूर्तियों में वह प्रेममूर्ति खो गई है। यदि परमात्मा का कोई मन्दिर है, तो वह मनुष्य का हृदय ही है। दुर्भाग्य है कि मिट्टी के मन्दिरों ने उस प्रेम को, परमात्मा को भलीभाँति ढक लिया है। इसलिए हे वत्स, तुम प्रेम के मन्दिर में प्रवेश करो। प्रेम को जियो और जानो, इसके बाद आना, फिर मैं तुम्हें परमात्मा तक ले चलने का आश्वासन देता हूं”
आचार्य की ये बातें सुनकर पंडित रघुनाथ अपनी “ज्ञान की गठरी” वहीं छोड़कर वापस लौटने लगे। सचमुच ही उनकी जिज्ञासा असाधारण और अद्भुत थी क्योंकि साम्राज्य छोड़ना सरल है, ज्ञान छोड़ना अत्यंत कठिन है क्योंकि ज्ञान अहंकार का अन्तिम आधार जो ठहरा। प्रेम के लिए अहंकार का त्याग जरूरी है। प्रेम का opposite घृणा नहीं है। प्रेम का मूल शत्रु अहंकार है । घृणा तो अहंकार की अनेक सन्तानों में से एक है। राग-विराग, आसक्ति-विरक्ति, मोह, घृणा, ईर्ष्या, क्रोध, द्वेष, काम सभी उसकी ही सन्तानें हैं। अहंकार का यह परिवार काफी बड़ा है।
आचार्यवर की सत्संगति में पंडित रघुनाथ ने यह सत्य जान लिया था। उन्होंने आचार्यवर से विदा ली। आचार्य जी भी उन्हें बाहर तक छोड़ने आये। आचार्य सत्यव्रत पंडित जी के साहस से आनन्दित थे क्योंकि जहाँ साहस है वहीं साधना की सम्भावना है। साहस से स्वतंत्रता आती है और स्वतंत्रता से सत्य का साक्षात्कार होता है।
इस घटना को हुए कई वर्ष बीत गये। आचार्य सत्यव्रत पंडित रघुनाथ जी के लौटने की प्रतीक्षा में अतिवृद्ध हो गये लेकिन रघुनाथ जी वापस नहीं लौटे। अन्ततः थक-हारकर आचार्य सत्यव्रत ही उन्हें खोजने के लिए चल पड़े। अनेकों यात्राओं के बाद आखिरकार आचार्य जी ने पंडित जी को एक दिन खोज ही लिया। वह एक गाँव में बड़े ही आत्मविभोर होकर एक कुष्ठरोगी की सेवा कर रहे थे। वह इतने वृद्ध हो गए थे कि उन्हें पहचानना भी कठिन था। प्रेम भरे आनन्द से उनका कायाकल्प हो गया था। आचार्य सत्यव्रत ने पूछा,
“तुम आये नहीं? मैं तो प्रतीक्षा करते-करते थक गया और आखिर में तुम्हें स्वयं ही खोजने के लिए चल पड़ा। क्या तुम्हें परमात्मा को नहीं खोजना है ?”
पंडित रघुनाथ ने कहा, “नहीं बिल्कुल नहीं। जिस क्षण प्रेम को पाया,उसी क्षण से सभी प्राणियों में उसे ही निहार रहा हूँ। मैं जान गया हूँ, प्रेम ही परमेश्वर है।”
इस दिव्य प्रसंग का समापन यहीं पर होता है।
शिक्षा: प्रेम ही परमात्मा है, प्रेम ही पूजा है, प्रेम का ह्रदय में वास है इसलिए परमात्मा का वास भी ह्रदय के मंदिर (मन मंदिर) में ही है।
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आज 14 युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है।सरविन्द जी एवं चंद्रेश जी को गोल्ड मैडल जीतने की बधाई एवं सभी साथिओं का संकल्प सूची में योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1)सरविन्द कुमार-51 , (2)संध्या कुमार-35 ,(3)अनुराधा पाल-41, (4)मंजू मिश्रा-26,(5 )रेणु श्रीवास्तव-28 ,(6)पुष्पा सिंह-30 (7) सुमनलता-30 ,(8)वंदना कुमार-26,(9) नीरा त्रिखा-28,(10) चंद्रेश बहादुर-48 ,(11) विदुषी बंता-27,(12) अरुण वर्मा-30 ,(13 )सुजाता उपाध्याय-40,(14) आयुष पाल-39
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।
