19 फ़रवरी 2024 का ज्ञानप्रसाद
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवारजनों ने परमपूज्य गुरुदेव का आध्यात्मिक जन्मदिन मनाने हेतु सम्पूर्ण फ़रवरी माह में मंगलवेला के ज्ञानप्रसाद से लेकर रात्रि को पोस्ट होने वाले शुभरात्रि सन्देश तक समस्त योगदान परम पूज्य गुरुदेव को ही समर्पित करने का संकल्प लिया है। इसी संकल्प के अंतर्गत 19 फ़रवरी 2024 का ज्ञानप्रसाद लेख, इस संकल्प का नौंवा लेख प्रस्तुत है।
परम पूज्य गुरुदेव की कृपा एवं ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के सहकर्मियों के सामूहिक आशीर्वाद से 2024 की वसंत पंचमी के शुभ अवसर पर परम पूज्य गुरुदेव के आध्यात्मिक व क्रान्तिकारी विचारों को आत्मसात् करने के लिए उनके आध्यात्मिक जन्म दिवस पर दो भागों में प्रस्तुत यह दूसरा एवं अंतिम लेख है l सरविन्द जी ने यह दिव्य लेख नियमित स्वाध्याय प्रक्रिया के अंतर्गत गम्भीरतापूर्वक स्वाध्याय करने के उपरांत प्रस्तुत किया है, जहाँ तहाँ हमने भी एडिटिंग करते समय अपना योगदान दिया है। यह लेख युग निर्माण योजना मासिक पत्रिका के जनवरी 2022 अंक में प्रकाशित हुआ था ।
आज का ज्ञानप्रसाद प्रस्तुत करने से पहले साथिओं से एवं परम पूज्य गुरुदेव से करबद्ध क्षमाप्रार्थी हैं कि कल से आरम्भ होने वाली “अनुभूति श्रृंखला” को एक दिन के लिए पोस्टपोन करना पड़ रहा है। इस पोस्टपोन का कारण अखंड ज्योति मार्च 2003 के “जिन प्रेम कियो तिन्हीं प्रभु पायो” शीर्षक वाला लेख है जो समर्पण की पराकष्ठा वर्णन कर रहा है। यह एक ऐसा लेख है जिसने हमारे मन को मोह लिया है। हमने इस लेख का परिवार के साथ ही अमृतपान करना उचित समझा।
तो चलते हैं गुरुकक्षा की ओर गुरुचरणों में समर्पण हेतु।
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परम पूज्य गुरुदेव ने मार्गदर्शन सत्ता के समक्ष स्वयं को पूर्णतया समर्पित कर दिया था। गुरुदेव बताते हैं कि आस्तित्व का यह समर्पण बहुत ही डरावना होता है लेकिन इसमें बहुत ही लाभ छिपा होता है l बकरी की भांति मैं-मैं करते हुए जीवन व्यतीत करने में कुछ भी प्राप्त नहीं होता है। समर्पित जीवन में प्रत्यक्ष रूप में घाटा-ही-घाटा दिखता है, इस असमंजस भरे बिज़नेस के बारे में परम पूज्य गुरुदेव से ही सुनें तो उनके विचार हैं कि
“यह घाटे का नहीं, असंख्य गुने लाभ का व्यापार है l जिस गुरुसत्ता के हाथों हमने स्वयं को, शरीर को व मन को बेचा है, बदले में उसने अपनेआप को पूर्णतया हमारे हाथ में सौप दिया l हमारी तुच्छता जिसके चरणों में समर्पित हुई, उसने अपनी महानता हमारे ऊपर उड़ेल दी l बाँस के टुकड़ों ने अपनेआप को पूरी तरह खोखला करके बंसी के रूप में प्रियतम के अधरों को स्पर्श किया तो उसमें से मनमोहक राग-रागिनियाँ प्रकट होने लगीं l”
ऐसे मिलन के बाद अपनी इच्छा का तो कोई आस्तित्व ही नहीं बचा है, उसी की हर इच्छा अपनी हर इच्छा बन गई। वह “अद्वैत” स्थिति ब्रह्म और जीव के मिलन में आने वाले ब्रह्मानंद की तरह बहुत ही सुखद लगने लगी l
अद्वैत यां अद्वैत वेदांत अपनेआप में ही एक बड़ा गूढ़ विषय है, कभी उचित अवसर पर इसकी चर्चा भी अत्यंत रोचक हो सकती है लेकिन वर्तमान के लिए अद्वैत का अर्थ “दो नहीं एक” समझ कर ही आगे बढ़ना उचित होगा।
गुरुदेव कहते हैं कि यह स्थिति तब उत्पन्न हुई जब सम्पूर्ण श्रद्धा व सच्चे मन से बिना किसी प्रतिदान की आशा किए अंतःकरण की गहराईयों तक आत्मसमर्पण कर दिया । परम सत्ता ने भी अपनी महानता में, उदारता में व प्रतिदान में तनिक कमी नहीं रहने दी और बताया कि हमारे पास जो प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है, उससे कई गुना अप्रत्यक्ष रूप में छिपा पड़ा है l यह हमारा उपार्जन नहीं है l सही मायनों में हमारी मार्गदर्शक सत्ता का ही प्रतिफल व अनुदान-वरदान है जो अपना आपा सौपनें के फलस्वरूप उस सत्ता का सारा वैभव अपना ही बना लिया l इस प्रकार यह समर्पण हमारे लिए घाटे का नहीं बल्कि फायदे का ही सौदा रहा है । हमारा समर्पण वह कसौटी बना, जिसने हमें बार-बार कसा, इतना कसा कि गुरु के प्रति हमारा शिष्यत्व खरा सिद्ध हुआ l समर्पण को यदि शिष्यत्व का ही समानार्थक (Alternative) शब्द कहें तो कोई बढ़ा चढ़ा कर कहने जैसे बात नहीं होगी क्योंकि समर्पण ही शिष्यत्व का दूसरा नाम है और शिष्य का भावार्थ ही समर्पण है, भक्ति व प्रेम है l जहाँ प्रेम है वहीं परमात्मा हैं क्योंकि प्रेम ही परमेश्वर है l
अखंड ज्योति मार्च 2003 के अंक में “जिन प्रेम कियो तिन्हीं प्रभु पायो” शीर्षक वाला लेख यहाँ बिल्कुल फिट बैठता है। परमात्मा की खोज में भटक रहे रघुनाथ जी को जब महायोगी आचार्य सत्यव्रत की शिक्षा मिली तो वोह क्या से क्या बन गए। कल वाला ज्ञानप्रसाद लेख इसी दिव्यता को दर्शाने की योजना है।
गुरुदेव बताते हैं कि जब परिपूर्ण समर्पण की माँग के साथ कठोर परीक्षाएं निभाने को कहा गया तो पहली नजर में ऐसा लगा कि इस गुरू से क्रूर व्यक्ति इस संसार में और कोई हो ही नहीं सकता, लेकिन वास्तविकता इससे बिल्कुल विपरीत है। विपरीत इसलिए है कि गुरू से बड़ा प्रेमी तीनों लोकों में खोजने पर भी नहीं मिलेगा l समर्पण के लिए आवश्यक है कि हम अपने आस्तित्व की सर्जरी के लिए स्वयं को सर्जन के हाथों सौप दें। सर्जन द्वारा बरती गयी कठोरता से हमारा अंतःकरण पवित्र होता है, मन की मलीनता दूर होती है और अंतःकरण की गहराई में पहुँच कर एक तपस्वी, मनस्वी,तेजस्वी का उत्पादन होता है l युगतीर्थ शांतिकुंज में इसी तरह के महामानवों का उत्पादन हो रहा है।
परम पूज्य गुरुदेव लिखते हैं :
सांसारिक संबंधों में सबसे घनिष्ठ संबंध दो ही हैं, पहला माँ और शिशु का संबंध और दूसरा पति और पत्नी का संबंध l दोनों रिश्तों में घनिष्ठता की भावभूमिका शरीर और मन के तल तक ही सीमित होकर रह जाती है, जबकि गुरू और शिष्य की घनिष्ठता “आत्मा” की व्यापकता में फलते-फूलते परिपुष्ट होती है।
परम पूज्य गुरुदेव अपनी मार्गदर्शक सत्ता के संबंधों के बारे में निम्नलिखित शब्दों में बताते हैं :
“अपने मार्गदर्शक सत्ता के प्रति हमारी निष्ठा व प्रेम-साधना को यदि सांसारिक संबंधों से तोला जाए,यह उपमा एक पतिव्रता स्त्री के अन्यन्य प्रेम की दी जा सकती है l गुरु की प्रसन्नता अपनी प्रसन्नता; गुरु की इच्छा अपनी इच्छा है l अपने लिए कुछ भी चाहने व माँगने की कभी कल्पना तक नहीं उठी; केवल इतना ही सोचते रहे कि अपने पास जो कुछ भी है,जो भी संपदाएं/विभूतियाँ जुड़ी हुई हैं,सभी अपने आराध्य के श्रीचरणों में समर्पित हो जाएं तो कितना अच्छा हो l जब भी, ऐसे अवसर आए, हमारे संतोष और उल्लास की मात्रा उतनी ही बढ़ी, उत्सुकता कम नहीं हुई l मार्गदर्शक सत्ता पर समर्पित हमारी प्रेम-साधना हर बार चमत्कारी वरदान बनकर ही वापस लौटी है l मार्गदर्शक सत्ता का हर आदेश व संकेत ब्रह्मवचन की तरह शिरोधार्य रहा है l माँगना कुछ नहीं, देना सब कुछ। प्रेम के इस अविच्छिन्न सिद्धांत को हम दोनों गुरु-शिष्य ने परम सीमा तक निभाया है। मार्गदर्शक सत्ता ने हमारे बारे में क्या सोचा, इसकी चर्चा हमारी वर्णन शक्ति से बाहर है l हम अपनी ओर से इतना ही कह सकते हैं कि भगवान से बढ़कर हमने उनके दिशा-निर्देशन को शिरोधार्य किया है l अरूचिकर और कष्टकर प्रसंग को भी हमने बहुत ही सहज-स्वभाव से स्वीकार किया है, क्योंकि प्रेम की रीति-नीति ऐसी ही होती है। इस समर्पण के फलस्वरूप ही मार्गदर्शक सत्ता का अनुग्रह अमृत हमारे ऊपर अजस्त्र अनुदान व वरदान के रूप में निरंतर बरसता रहा है, प्रेमतत्व के संवर्धन की साधना गुरुभक्ति से आरम्भ होकर ईश्वरभक्ति तक जा पहुँची l”
सच्चे शिष्य बन जाने पर अंतःकरण परिष्कृत हो जाता है और मनुष्य के अंतःकरण में करुणा जागृत होकर इंसानियत आ जाती है , ऐसा शिष्य गुरू सत्ता के बताए मार्ग पर चलने लगता है।
गुरुदेव बता रहे हैं कि हमें इस प्रसंग में इतना अधिक आनंद और उल्लास का अनुभव होता रहा है कि उसके आगे संसार का बड़े-से-बड़ा सुख भी तुच्छ लगने लगा l मार्गदर्शक सत्ता के प्रति बढ़ती हुई हमारी प्रेम-साधना, आत्म-प्रेम और विश्व-प्रेम में विकसित होती चली गई और देखने वालों को उस अंतःभूमि की प्रतिध्वनि “एक दिव्य जीवन” के रूप में मिल सकी l
हमारे लिए एक स्वर्ण अवसर :
परम पूज्य गुरुदेव की इस विशेष व महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति व विचारों से हम सबको बहुत बड़ी प्रेरणा व ऊर्जा मिलने की प्रबल सम्भावना है l परम पूज्य गुरुदेव के इस गुरूप्रेम के आलोक में, हम सबके लिए एक स्वर्ण अवसर है,यह अवसर हमारे शिष्यत्व के मूल्यांकन का अवसर है। यहाँ यह याद रखने की आवश्यकता है कि “मनुष्य जिससे प्यार करता है, उसके उत्कर्ष एवं सुख के लिए सम्पूर्ण समर्पण भाव से बड़े-से-बड़ा त्याग और बलिदान करने को हमेशा तैयार रहता है”
यदि इस दिव्य लेख का स्वाध्याय करने के उपरांत आनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवारजनों के अंतःकरण में करुणा व उदारता जागृत हो गई, गुरुप्रेम की पवित्र ज्योति जल गई तो समझ लेना चाहिए कि हम में से कोई भी अपने शरीर, मन, अंतःकरण तथा भौतिक साधनों का अधिकाधिक भाग समाज की सेवा में लगाने से पीछे नहीं हटेगा। ऐसा होते ही एक वसंती हूक उठेगी जिसे कोई भी सांसारिक प्रलोभन रोक सकने में असमर्थ होगा जिससे हर किसी के अंतःकरण में ज्ञान की ज्योति प्रज्जवलित होगी एवं विकास की गंगा बहने लगेगी l अपने आराध्य परम पूज्य गुरुदेव के आदर्शो के लिए सर्वस्व लुटाकर भी हमारा अंतःकरण एक ऐसे दिव्य आनंद से भरा-पूरा रहेगा, जिसे भक्तियोग के मर्मज्ञ व ज्ञाता ही जान सकते हैं l
मनुष्य ईश्वर का सबसे प्रिय पुत्र है, राजकुमार है,उसी का अंश है लेकिन भौतिक जगत् की चकाचौंध में मनुष्य अपने परम पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारिओं को भूल गया है। मनुष्य का निर्मल ह्रदय अपवित्र हो गया है, वोह ईश्वरीय दिव्य विभूतियों से अंजान हो गया है, देवता की श्रेणी में गिने जाने वाले मानव ने भटके हुए देवता की अग्रिम श्रेणी में अपना नाम दर्ज करा लिया है। यही कारण है कि ईश्वर के पुत्र देवता को “भटका हुए देवता” कह कर सम्बोधन किया जा रहा है।
“भटके हुए देवता” के सम्बोधन को निकाल फैंकने का,स्वयं को परिष्कृत करने का एकमात्र विकल्प आनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करना ही है, भागीदारी भी ऐसी जिसमें नियमितता का पालन किया जाए। ज्ञानप्रसाद का अमृतपान एक सिलसिलेवार एक से साथ दूसरी जुडी कड़ी है, यह समर्पण का विषय है, ऐसा नहीं है कि जब मन किया पढ़ लिया, जब कुछ करने को नहीं है तो चलो ज्ञानप्रसाद लेख ही पढ़ लें। यह समर्पण नहीं टाइम पास है,गुरुदेव द्वारा रचित इस परिवार यह प्रथा नहीं है। यह एक ऐसा समर्पित परिवार है जिसमें गुरुदेव के दिव्य साहित्य द्वारा मनुष्य की सुप्त प्रतिभा जगायी जाती है एवं सभी की भावनाओं का सम्मान किया जाता है।
हमारी सबकी सम्मानीय बहिन सुजाता जी के सहयोग से विश्व के एकमात्र “भटका हुआ देवता” मंदिर के दिव्य सन्देशों द्वारा साथिओं को उनके अस्तित्व के प्रति बार-बार नींद से जगाया जाता है।
समापन
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आज 14 युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है।अरुण जी को गोल्ड मैडल प्राप्त करने की बधाई एवं सभी साथिओं का संकल्प सूची में योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1)सरविन्द कुमार-27, (2)संध्या कुमार-53 ,(3)अनुराधा पाल-28, (4)मंजू मिश्रा-33,(5 )रेणु श्रीवास्तव-48 ,(6)पुष्पा सिंह-25,48, (7) सुमनलता-38 ,(8)वंदना कुमार-40,(9) नीरा त्रिखा- 30,(10) चंद्रेश बहादुर-36 ,(11) विदुषी बंता-27,(12 प्रेरणा कुमारी-24,(13 )अरुण वर्मा-64,(14)सुजाता उपाध्याय,27
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।