वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

परम पूज्य गुरुदेव की अंतिम वसंत पंचमी  एवं अनेकों प्रश्नों का समाधान 

14 फ़रवरी  2024 का ज्ञानप्रसाद

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवारजनों ने परमपूज्य गुरुदेव का आध्यात्मिक जन्मदिन मनाने हेतु  सम्पूर्ण फ़रवरी माह में मंगलवेला के ज्ञानप्रसाद से लेकर रात्रि को पोस्ट होने वाले शुभरात्रि सन्देश तक समस्त योगदान परम पूज्य गुरुदेव को ही समर्पित करने का संकल्प लिया है। इसी संकल्प के अंतर्गत 14  फ़रवरी 2024 का  ज्ञानप्रसाद लेख, इस संकल्प का सातवां  लेख प्रस्तुत है।

अखंड ज्योति के अप्रैल 1990 वाले अंक पर आधारित,कल और आज  दो लेख ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से प्रस्तुत हुए। वर्ष 1990 की वसंत पंचमी गुरुदेव के जीवन की अंतिम वसंत पंचमी थी। अपने ह्रदय में जिज्ञासा लिए अनेकों साधक शांतिकुंज आए, कइयों को उनके प्रश्नों के उत्तर मिल भी गए लेकिन अनेकों साधक ऐसे भी थे जो शंका के वशीभूत गुरुदेव की शक्ति को पहचान न पाए और असंतुष्ट ही गए। 

आज के इस लेख के अंत में शंका के  विषय पर साथिओं को हमारी व्यक्तिगत प्रतिक्रिया तो मिलेगी ही, साथ में “पात्रता कैसे विकसित की जाए ?” एवं साधना से सिद्धि जैसे गंभीर प्रश्नों के उत्तर भी मिलेंगें। इसलिए साथिओं से करबद्ध निवेदन कर रहे हैं कि इस लेख का अध्ययन  बिल्कुल इसी प्रकार किया जाए जैसे एक समर्पित विद्यार्थी  Top पोजीशन लेने के लिए करता है क्योंकि इस परीक्षा में सफल होने वाले विद्यार्थी ही परम पूज्य गुरुदेव के Torch bearers होंगें, उन्ही के हाथों में गुरुदेव ने ज्ञान एवं विचार क्रांति की मशाल थमाई हुई है। गुरुदेव के साहित्य को समझ कर, अपनी सामर्थ्य के अनुसार इतना  सरल बना कर प्रस्तुत करना कि जो भी पढ़े समझ जाए, इसी उद्देश्य से ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की लेखन प्रथा का विस्तार  हो रहा है।

इन्ही शब्दों के साथ, विश्व शांति की कामना करते हुए, प्रातःकाल की मंगलवेला में आज का ज्ञानप्रसाद प्रस्तुत है। 

ॐ असतो मा सद्गमय ।तमसो मा ज्योतिर्गमय ।मृत्योर्मा अमृतं गमय ।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ 

अर्थात 

हे प्रभु, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो ।मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो ।

मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो ॥ 

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वर्ष 1990  का बसन्त पर्व न केवल आयोजन की दृष्टि से बल्कि  स्वजनों के साथ आत्मीयता भरे परामर्श देने की दृष्टि से भी अनुपम रहा। लोगों ने इतना कुछ ऐसा पाया जिसकी आशा या संभावना कदाचित थोड़ों को ही रही होगी।

सुनना अधिक कहना कम, करना अधिक बताना कम, सिखाना कम सीखना अधिक,यही हमारे परम पूज्य गुरुदेव की जीवन शैली रही है, उन्होंने  इतने गंभीर प्रसंगों को इतनी सरलतापूर्वक बता दिया कि आगन्तुकों में से अधिकांश को भारी संतोष हुआ। प्रश्नों की  झड़ी लगी रही। इतनों को एक व्यक्ति इतना कुछ प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से बता सकता हैं, यह प्रसंग भी अपनेआप में अद्भुत रहा।

अधिकांश जिज्ञासुओं ने एक जिज्ञासा प्रधान रूप से प्रकट की और वह जिज्ञासा थी कि  “एक साधन रहित अकेला व्यक्ति, सीमित समय में इतने भारी और इतने व्यापक काम कैसे  कर सकता है।” 

पूछने वालों को कानों से सुनी और आँखों से देखी गई उन सभी बातों का पता भी था और विश्वास भी था लेकिन निम्नलिखित महत्वपूर्ण प्रश्नों का  निदान कैसे हो :  

1.“युगचेतना उभारने वाला इतना विशाल साहित्य कैसे सृजा गया?” 

2. इतने विशाल साहित्य का अनेक भाषाओं में अनुवाद और प्रकाशन/ प्रसार कैसे सम्पन्न हुआ? 

3.इतना बड़ा परिवार कैसे संगठित हो गया, जिसमें पाँच लाख पंजीकृत और इससे पाँच गुना अधिक सामयिक स्तर पर सम्मिलित उच्चस्तरीय व्यक्तियों का समुदाय कैसे  जुड़ता ही चला गया और आज तक  साथ चल रहा है ? 

4.एक व्यक्ति के तत्त्वावधान में 2400 आश्रम-देवालय कैसे बन सके ? 

5.शान्तिकुंज , ब्रह्मवर्चस्, गायत्री तपोभूमि जैसे  बहुमुखी तीर्थधामों की संरचना कैसे बन सकी ? 

5.सुधारात्मक और सृजनात्मक आन्दोलन की देशव्यापी, विश्वव्यापी व्यवस्था कैसे बन गई? 6.“रोता आए, हँसता जाए ” वाला उपक्रम अनवरत रूप से कैसे चलता रहा? 

80  वर्षों में ऐसे अगणित क्रिया-कलाप  घटित हुए हैं जिनकी इतने सुचारु रूप से चलने की आशा  परम पूज्य गुरुदेव जैसे नगण्य एवं साधारण से व्यक्तित्व से नहीं की जा सकती लेकिन फिर  भी वे कैसे सम्पन्न होते चले गए?

7.जड़ी बूटी चिकित्सा पर आधारित आयुर्वेद की नयी सिरे से शोध कैसे बन पड़ी व मनोरोगों के निवारण और मनोबल के संवर्द्धन की ब्रह्मवर्चस प्रक्रिया कैसे चलती रही? 

8.सात पत्रिकाओं का सम्पादन एकाकी प्रयास से कैसे चल पड़ा? लाखों शिक्षार्थी हर वर्ष प्रशिक्षण पाने से किस प्रकार लाभान्वित होते रहे? 

9.सृजनात्मक आन्दोलनों को इतनी गति कैसे मिल सकी जितनी कि अनेकानेक संगठन और समुदाय भी नहीं उपलब्ध कर सके?

जिन्होंने उपरोक्त प्रत्यक्षदर्शी कृत्यों को अंकुरित, पल्लवित और फलित होते देखा है, उनका समाधान एक ही उत्तर से हुआ कि 

“सर्वशक्तिमान सत्ता की इच्छा और प्रेरणा के अनुरूप अपने व्यक्तित्व, कर्तृत्व, मानस और श्रम को समर्पित कर सकने वालों के लिए ऐसा कुछ बन पड़ना तनिक भी कठिन नहीं हैं। अगर एक छोटी सी चिंगारी, ईंधन के अम्बार से मिल जाने पर प्रचण्ड अग्निकाण्ड बन सकता है, पारस को छूकर लोहे से  सोना बनने वाली उक्ति प्रसिद्ध है तो  फिर भगवान के साथ रहने  वालों की स्थिति वैसी क्यों नहीं हो सकती। यह स्थिति तो बिल्कुल वैसी ही है जैसी  बिजली के विशाल उत्पादन केन्द्र के साथ जुड़ जाने पर छोटे मोटे यंत्र उपकरण सहज ही चलते रहते हैं।”

बताया जाता रहा है कि यह सब कुछ मात्र कठपुतली के खेल की तरह होता रहा । श्रेय लकड़ी के खिलौने को नहीं, बाजीगर की उस कलाकारिता को मिलना चाहिए जो पर्दे के पीछे रह कर उँगलियों में बँधे तारों के सहारे अद्भुत हलचल करते चलने लायक बनाता और नचाता रहता हैं।

कुछ का समाधान तो हो गया लेकिन  हजारों जिज्ञासु शंका और संदेह  ही प्रकट करते रहे और पूछते रहे कि जब लाखों की संख्याओं में गिने जा सकने वाले भगवद् भक्त गया गुज़रा, उपहासास्पद, अवांछनीयता भरा  जीवन व्यतीत करते हैं तो  एक व्यक्ति ने ऐसा क्या किया कि नरसी मेहता की हुण्डी बरसने एवं  हनुमान-अर्जुन जैसे भगवत् सखा भगवान के अनुदान  होने के रूप में मिलें। 

संदेह सही भी था लेकिन जो उत्तर दिया गया वह भी कम समाधानकारक नहीं था। यह उत्तर निम्लिखित पंक्तियों में वर्णित है : 

“पात्रता के अनुरूप उपलब्धियों का हस्तगत होना एक ऐसी वास्तविकता  है जिसे हर कहीं चरितार्थ होते देखा जा सकता हैं। खोटे सिक्के सर्वत्र ठुकराये जाते हैं। खरे सोने की कीमत तो कहीं भी मिल  सकती हैं। भगवान से जो अपना स्वार्थ साधना चाहता है उस प्रपंची पाखण्डी को सदैव भगवान से शिकायत ही रहती है और वह भगवान् को निरंकुश ही कहता रहता  है। जिस स्त्री ने  अपना सब कुछ पति को सौंप दिया, उस पत्नी को अपने पति की समूची सम्पत्ति, सहायता और सद्भावना मिलकर ही रहती है। स्रष्टा की एक ही आशा है कि सुरदुर्लभ मानव तन तथा जीवन पाने वाला प्राणी उपलब्ध विभूतियों के सहारे स्रष्टा के विश्व उद्यान को हरा भरा रखने के लिए वफादार माली की भूमिका निबाहे। अगर यह मानव इस वफादारी को समझ कर गाँठ बाँध लेता है तो  कोई कारण नहीं कि उसे आत्मसंतोष, सभी का सम्मान, श्रेय, यश तथा स्वामी का समुचित अनुग्रह अनुदान प्राप्त न हो। इस तथ्य की परीक्षा करनी हो तो संसार में जन्में अब तक के महामानवों की जीवनचर्या को साक्षी देने के लिए आमंत्रित किया जा सकता है। पुण्य और परमार्थ को उस बीज की तरह विकसित होते देखा जा सकता हैं जो आरंभ में राई के बराबर होता है लेकिन कुछ ही समय में विशालकाय बरगद वृक्ष की तरह उत्कर्ष के उच्च शिखर तक जा पहुँचता है। ईश्वर का अजस्र अनुदान प्राप्त करने का एक ही तरीका है और सदैव रहेगा कि स्वार्थ को परमार्थ में बदल दिया जाए । धर्मधारणा और सेवा साधना को जीवनचर्या का अविच्छिन्न अंग बनाया जाय। भिखारी बनकर नहीं, उदारचेता दानवीर बनकर भगवान के दरवाजे पर पहुँचा जाय और ईश्वर से प्राप्त हुए अनुदान का प्रतिदान असंख्यों गुनी मात्रा में वापस लौटाया जाय।

“साधना से सिद्धि” प्राप्त होने के रहस्य का उद्घाटन करने के इच्छुकों में से प्रत्येक को यही जताया और बताया गया है कि “सत्प्रवृत्तियों के धन” हेतु स्वयं  को प्रखर, प्रामाणिक और साहसी, उदारचेता बनाया जाय तो उतने भर से अनेकानेक कर्मकाण्डों की आवश्यकता पूरी हो जाती हैं और बदले में वह मिल जाता हैं जो सच्चे भगवद् भक्तों को मिलना चाहिए। साधना स्वयं को  संयमी और सुसंस्कृत बनाने के लिए की  जाती हैं। इसके लिए स्रष्टा की एकमात्र इच्छा को पूरा करना पड़ता है  कि संयमशील, उदारचेता स्तर का परमार्थ परायण जीवन जिया जाय। साधु ब्राह्मण, सन्त, सुधारक और शहीद इसी स्तर के होते रहे हैं। उनकी साधारण सी पूजा उपासना भी तिल से ताड़ और राई से पर्वत बनती देखी जा सकती हैं, ईश्वर समर्पित मनुष्य ही देवमानव कहलाते हैं। ऐसे ही देवमानवों में वे सिद्धियाँ विभूतियाँ प्रकट होती हैं जो समर्पित व्यक्तिओं के माध्यम से ऐसे कार्य कर जाते हैं जिनकी आए दिन तक चर्चा होती रहती है।”

वैसे तो ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से हमेशा ही गुरुदेव के साहित्य का प्रचार/प्रसार किया जा रहा है, पात्रता अर्जित करने पर बल दिया जा रहा है लेकिन ऊपर लिखी पंक्तियाँ ऐसे पाठकों एवं साथिओं के अनेकों प्रश्नों का समाधान कर सकती हैं जिन्हें परम पूज्य गुरुदेव की शक्ति पर ज़री सी  भी शंका है। 

आदरणीय महेंद्र शर्मा जी ने भी अपनी एक वीडियो में शंका की बात की है। इस वीडियो में शर्मा जी बता रहे हैं की लोग तो मानते ही नहीं हैं कि गुरुदेव ने इतना विशाल साहित्य रचा है। अक्सर कहते हैं  किसी से लिखवा लिया होगा। इस सन्दर्भ में हमारी  व्यक्तिगत प्रतिक्रिया तो यही हो सकती है कि कहीं शंका-शंका में ही प्रदान हुए  दुर्लभ सौभाग्य से प्राप्त होने वाले लाभ से वंचित न रह जाएँ। 

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आज 15   युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है। सरविन्द जी, संध्या जी और चंद्रेश जी   को गोल्ड मैडल प्राप्त करने की बधाई एवं  सभी साथिओं का  संकल्प सूची में  योगदान के लिए धन्यवाद्।   

(1)सरविन्द कुमार-46,27 (2)संध्या कुमार-50 ,(3) अरुण वर्मा-27,(4)मंजू मिश्रा-25 ,(5 )रेणु श्रीवास्तव-40,(6) मीरा पाल-30, (7) सुमनलता-29,(8) निशा भारद्वाज-25 ,(9) नीरा त्रिखा- 26,(10) चंद्रेश बहादुर-46 ,(11)वंदना कुमार-30,(12) विदुषी बंता-26,(13)आयुष पाल-28 ,(14) अनुराधा पाल-25,(15) सुजाता उपाध्याय-26    

सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।  


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