ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवारजनों ने परमपूज्य गुरुदेव का आध्यात्मिक जन्मदिन मनाने हेतु सम्पूर्ण फ़रवरी माह में मंगलवेला के ज्ञानप्रसाद से लेकर रात्रि को पोस्ट होने वाले शुभरात्रि सन्देश तक समस्त योगदान परम पूज्य गुरुदेव को ही समर्पित करने का संकल्प लिया है।
इसी संकल्प के अंतर्गत 12 फ़रवरी 2024 का यह ज्ञानप्रसाद लेख इस संकल्प का पांचवां अद्वितीय लेख है जो अखंड ज्योति के दिसंबर 1989 और जनवरी 1990 अंकों पर आधारित है। वैसे तो गुरुदेव का जीवन अनंत है लेकिन गुरुदेव के ही अनुसार 1990 वाला लेख अंतिम लेख था। 1990 में वसंत पंचमी 31 जनवरी को आई थी और उसी वर्ष भर में संपन्न होने वाले 60 विशिष्ट सत्रों का वर्णन करता यह अद्वितीय लेख आज की मंगलवेला में प्रस्तुत है।
शब्द सीमा सीधा लेख की ओर ही जाने का निर्देश दे रही है।
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इक्कीसवीं सदी का गंगावतरण एक सुनिश्चित तथ्य है। इसमें भागीदारी लेने के श्रेय से किसी भी प्रज्ञा परिजन को चूकना नहीं चाहिए। यह एक ऐसा विशेष ऐतिहासिक और अविस्मरणीय अवसर है जिस के लिए ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवारजनों को अपनी-अपनी मनःस्थिति और परिस्थिति के अनुसार रीछ, वानर, ग्वाल-बाल, बौद्ध परिव्राजक को अनुकरणीय आदर्श मानते हुए किसी-न-किसी रूप में सहभागी बनना ही चाहिए। हर समय अपने गुरु के निर्देश की अवहेलना करना और कोई न कोई बहाना बना कर मूकदर्शक बने रहने से घाटे का सौदा ही होगा, ऐसे लोगों को गुरुदेव से कुछ भी आशा नहीं रखनी चाहिए।
वर्ष 1990 के दो विशिष्ट प्रयास :
1.भविष्य को समझने का प्रयास:
हम सबका प्रथम प्रयास भविष्य को समझने एवं उसके अनुरूप अपना चिंतन और व्यवहार बदलने के लिए तैयारी करनी चाहिए। भविष्य यानि Future को समझने की इस प्रक्रिया को फ्यूचरोलॉजी (Futurology) के नाम से जाना जाता है जिसके अंतर्गत वैज्ञानिकों/मनीषियों/ नेतृत्ववेत्ताओं ने भी चिंतन किया है तथा समय-समय पर उनके अधिवेशन भी होते रहते हैं। इन अधिवेशनों में प्रस्तुत किए गए शोधपत्रों एवं लिखित पुस्तकों को न केवल शांतिकुंज में एकत्र किया गया है, बल्कि पत्र व्यवहार द्वारा संपर्क भी स्थापित किये हैं जिनसे यह जानने का प्रयास किया जा रहा है कि आज की परिस्थितियों व मानवी पराक्रम की भावी संभावनाओं को देखते हुए “नवयुग की संरचना किस प्रकार संभव है।” यह एक ऐसा विषय है, जिसे अभी तक आँकड़ों व वैज्ञानिक तथ्यों की भाषा में ही समझाया जाता रहा है, लेकिन आने वाले समय में अध्यात्म का विषय जो “भविष्य के विज्ञान” से संबंधित हैं उसकी सहायता भी ली जाएगी। गुरुदेव बताते हैं कि अखंड ज्योति के लेखों के माध्यम से यह जानने का प्रयास किया जायेगा कि अलग-अलग विषयों के विशेषज्ञ, आज के मानव को एवं भविष्य को किस रूप में विनिर्मित करने की कल्पना कर रहे हैं।
2. दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रयास जो इस पत्रिका में Preference पाने जा रहा है, वह है, अनुकरणीय आदर्शनिष्ठ जीवन चरित्रों को प्रकाशित करना। हम सब जानते हैं कि मनुष्य स्वभाव से अनुकरणप्रिय है। यहाँ यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि नक़ल करने में मनुष्य की तुलना में सभी प्राणी पीछे ही रह जाएंगें । मनुष्य की इस विशेषता के अनेकों उदाहरण हम प्रतिदिन देखते रहते हैं।
प्राचीनकाल में आदर्शवादिता और परमार्थ परायणता के अनेकों उदाहरण अपने संपर्क क्षेत्र में ही प्रचुर मात्रा में मिल जाते थे, इसलिए जनसाधारण को ऐसे आदर्शों को अपनाने में किसी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता था । सतयुगी वातावरण इसी आधार पर विनिर्मित हुआ था एवं भारतभूमि “स्वर्गादपि गरीयसी” ( स्वर्ग जैसी) इसी आधार पर बन सकी थी। इसी प्रक्रिया को अपनाने के कारण भारतभूमि के निवासी विश्व भर में देवमानव के नाम से प्रसिद्ध हुए थे।
आज आदर्शवादियों के उदाहरण सामने न रहने के कारण एक प्रकार से मानवी गरिमा पर ग्रहण ही लग गया है। इस सामयिक कठिनाई का समाधान इस प्रकार ढूँढा गया है कि पिछले दिनों भारत में या संसार में अन्यत्र कहीं भी आदर्शवाद के क्षेत्र में बढ़-चढ़कर पुरुषार्थ करने वालों के जीवन- वृतांत और संस्मरण ढूँढ निकाले जाएँ और इन्हें अखण्ड ज्योति के पृष्ठों पर निरंतर प्रस्तुत किया जाता रहे । यों तो वर्त्तमान का अपना महत्त्व है लेकिन भूतकाल की प्रेरणाएँ भी ऐसी नहीं है, जिनका भावभरा स्मरण करने पर अंतराल में उस दिव्य धारा को अपनाने की उमंग-तरंग न उठे। गांधी जी बचपन में देखे गए हरिश्चंद्र नाटक से ही सत्यनिष्ठ होने को संकल्पित हो गए थे।
इन संस्मरणों के प्रस्तुतीकरण के संबंध में एक और भी सहमति अपनाई गयी है, कि जिन संस्मरणों को उभारा जाए, वे ऐसी दिशा लिए हों, जो आज की परिस्थितियों में सामयिक कहलाएँ। इतिहास में राजा-रानियों की, मार-काट करने वाले योद्धाओं की कथा-गाथाओं का ही बाहुल्य है। अखण्ड ज्योति के नए निर्धारण में उन घटनाओं का ही संकलन किया जाएगा, जिनमें आज की परिस्थिति में जो किया जाना आवश्यक है, उसी को प्रधान रूप में प्रस्तुत किया जा सकें।
उपरोक्त दोनों विषय इस पत्रिका की पाठ्य सामग्री में विशेष रूप से तो प्रतिष्ठित होते ही रहेंगे लेकिन इसके अतिरिक्त “अध्यात्म फिलोसॉफी” जैसे विषय भी रहेंगे। इन सब के प्रभाव से यह होने की आशा है कि सामयिक उज्ज्वल भविष्य की संरचना में अपनी आज की भूमिका के संबंध में किसी उपयोगी निष्कर्ष पर पहुँचा जा सके।
इस अनोखे ढंग के प्रस्तुतीकरण में संपादन तंत्र पर कितना अधिक भार पड़ेगा और उसका परिणाम कितने अधिक दूरगामी सत्परिणाम उत्पन्न करने वाला सिद्ध होगा, इसका अनुमान जो लगा सकें,उन भावनाशीलों से अनुरोध है कि अखण्ड ज्योति का प्रवाह क्षेत्र बढ़ाने में अपने साधारण स्तर का नहीं बल्कि असाधारण समझी जा सकने योग्य भूमिका संपन्न करने में जुटें।
दिसम्बर 1989 की अखंड ज्योति में प्रकाशित इस पैम्फलेट के आधार पर जनवरी 1990 के अंक में गुरुदेव लिखते हैं :
गत मास की पत्रिका से जुड़े हुए पत्रक में अखण्ड ज्योति परिजनों को कुछ विशेष उद्बोधन दिए गए हैं और उनके संबंध में कुछ अतिरिक्त विवरण पूछे गए हैं। प्रसन्नता की बात है कि उस सामयिक सूचना को न केवल समुचित उत्साह और ध्यानपूर्वक पढ़ा गया बल्कि उत्तर और परिचय भी आने शुरू हो गए हैं।
गुरुदेव लिखते हैं : वर्ष 1990 में वसंत पंचमी 31 जनवरी को पड़ रही है इस दिन से ही परिजनों के लिए लगाए जाने वाले पाँच-पाँच दिवसीय विशेष सत्रों का शुभारंभ हो जाएगा। इन सत्रों को एक ही वर्ष में ही पूरा किए जाने का निर्धारण है। पाँच लाख स्थाई सदस्यों को एक ही वर्ष में इस अभिनव प्रयोग के लिए किस प्रकार शांतिकुंज बुलाया जाए एवं उनके लिए आवश्यक व्यवस्था करना एक अत्यंत काम्प्लेक्स कार्य है। आसपास के क्षेत्र में खाली भूमि न मिल पाने के कारण तत्कालिक यही निर्णय किया गया है कि शान्तिकुंज में जितनी भी जगह है, उस सबको तीन मंजिले भवनों में बदल दिया जाए। इन दिनों इसी प्रकार की तोड़-फोड़ और नई संरचना तेजी से चल पड़ी है।
वर्ष 1990 अपने ढंग का विलक्षण वर्ष है, विशेषतया अखण्ड ज्योति परिजनों के लिए, क्योंकि उनमें से अधिकांश को अगले दिनों अपने-अपने स्तर के अनेक उत्तरदायित्व निबाहने पड़ेंगे। जिस प्रकार हमें ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार से बड़ी आशाएं होती हैं, गुरुदेव को भी अखंड ज्योति परिवार से आशा थी/है।
इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि अतिरिक्त जिम्मेदारियाँ,अतिरिक्त शक्ति भी चाहती है। अतिरिक्त निर्माण, अतिरिक्त क्रियाकलापों को संपन्न करने के लिए नए स्तर का नया मार्गदर्शन भी आवश्यक होता है। समय की माँग को ध्यान में रखते हुए वर्ष 1990 में जो पाँच-पाँच दिन के प्रायः 60 सत्र संपन्न होने जा रहे हैं, उसकी गरिमा और उपयोगिता गंभीरतापूर्वक समझी जानी चाहिए। एक महीने में पांच-पांच दिन के 5 सत्र अर्थात एक वर्ष में 60 सत्र आयोजन करने के पीछे गुरुदेव की दूरदर्शिता प्रतक्ष्य दिख रही थी। इसलिए गुरुदेव ने लिखा कि जिन परिजनों को सूत्रसंचालक से कुछ पाने की उमंग व ललक हो, वे इस वर्ष की महत्ता को समझें और शान्तिकुंज आना सुनिश्चित करें। स्थान की व्यवस्था और परिजनों की संख्या को देखते हुए अनुभव किया जा रहा है कि इतने सीमित समय में प्रायः एक-चौथाई से भी कम लोगों को स्थान मिल सकेगा। शेष को बुला सकने के संबंध में अभी तो विवशता ही दिखती है,आने वाले दिनों में कोई आकस्मिक प्रबंध हो जाए, तो बात दूसरी है।
गुरुदेव कहते हैं कि नई सत्र-व्यवस्था में सम्मिलित होने के लिए समीपवर्त्ती परिजनों को कह दिया गया है कि वे उपरोक्त 60 सत्रों में से, जिनमें भी चाहें अपने स्थान रिजर्व करा लें।शिक्षार्थिओं की संख्या पूरी होते ही बाद में आने वाले आवेदन-पत्रों को रद्द कर देने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता। सीमित स्थान और सीमित समय में जो किया जा सकता है, वही तो हो सकेगा।
1990 के वर्ष में सैलानियों, पर्यटकों को साथ लाने पर पूर्ण प्रतिबंध है। शक्तिसंचय और गंभीर विचार-मंथन के बीच यह संभव नहीं हो पाएगा कि घुमक्कड़ लोग शान्तिकुंज को धर्मशाला समझकर वृद्धों, अशिक्षितों, बच्चों आदि को लेकर यहाँ आ डटें और जिन्होंने भावनापूर्वक प्रशिक्षण के लिए स्थान रिजर्व कराए हैं, उनके लिए कुछ भी पा सकना असंभव कर दें। यही कारण है कि वर्ष 1990 में पर्यटक आगंतुकों के लिए शांतिकुंज आना पूरी तरह निषिद्ध कर दिया है। धर्मशाला आदि में ठहरने के बाद ही वे शान्तिकुंज दर्शन आदि के लिए आएँ ।
जिन सत्रों की गुरुदेव बात कर रहे हैं उनमें “साधना के माध्यम से दैवी चेतना का वर्चस्व प्राप्त करने को प्रमुखता” दी गई है। शिक्षण की दृष्टि से एक घंटे का प्रवचन ही पर्याप्त माना गया है। शेष समय में आत्मचिंतन और अंतराल का समुद्र-मंथन ही प्रधान कार्यक्रम है एवं उसी के अनुसार नियमोपनियम भी बनाए गए है। संभवतः शान्तिकुंज की परिधि में रहकर यह पांच दिन उसी प्रकार काटने होंगे, जिस प्रकार बच्चा माँ के पेट में ही निर्वाह करता है। माँ के पेट के अंदर बच्चा जिस भरण-पोषण के निर्धारित अनुशासन का पालन करता है, इन सत्रों में इसी प्रकार के अनुशासन का पालन करना अनिवार्य है । इस साधना को समझाते हुए गुरुदेव बताते हैं कि जिस प्रकार अविष्कार के लिए वैज्ञानिकों को अपनी प्रयोगशाला में, योगियों को ध्यान-साधना के लिए अपनी कुटिया में, कायाकल्प- प्रक्रिया संपन्न करने वालों को एक छोटी कुटिया में रहना पड़ता है, लगभग वैसी ही स्थिति साधकों की रहेगी। यही कारण है कि साधकों को वैसी ही मनोभूमि बनाकर आने के लिए कहा गया है।
गुरुदेव के अनुसार उनके जीवन के अंतिम वर्ष के यह विशिष्ट साधना सत्र थे जिनमें देने व लेने की एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया संपन्न होने जा रही थी।
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आज 14 युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है। सरविन्द जी को गोल्ड मैडल प्राप्त करने की बधाई एवं सभी साथिओं का संकल्प सूची में योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1)सरविन्द कुमार-62,(2)अनुराधा पाल-32 ,(3) अरुण वर्मा-27,(4)मंजू मिश्रा-29,(5 )रेणु श्रीवास्तव-57,(6) मीरा पाल-30, (7) सुमनलता-49,(8) निशा भारद्वाज-41,(9) नीरा त्रिखा- 32 ,(10) चंद्रेश बहादुर-35,(11)वंदना कुमार-30,(12) विदुषी बंता-36,(13)आयुष पाल-26,(14) अनुराधा पाल- 32
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।