वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

“मैंने कुछ लिखने वाली उँगलियाँ तैयार कर दी हैं”

लेखनी की साधना में लीन एक समाधियोगी-

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवारजनों ने परमपूज्य गुरुदेव का आध्यात्मिक जन्मदिन मनाने हेतु  सम्पूर्ण फ़रवरी माह में मंगलवेला के ज्ञानप्रसाद से लेकर रात्रि को पोस्ट होने वाले शुभरात्रि सन्देश तक समस्त योगदान परम पूज्य गुरुदेव को ही समर्पित करने का संकल्प लिया है, गुरुदेव इसे पूर्ण करने में अवश्य मार्गदर्शन करेंगें, ऐसा  हम सब का  अटूट विश्वास है। 

इसी संकल्प के अंतर्गत 8  फ़रवरी 2024 का यह ज्ञानप्रसाद लेख इस संकल्प का चौथा  अद्वितीय लेख है। आज का लेख वर्ष 2002 में प्रकाशित हुई अखंड ज्योति के फ़रवरी एवं सितम्बर अंकों पर आधारित है। आज के लेख में जहाँ हम उस अविस्मरणीय क्षण का चित्रण कर रहे हैं जब सुबह 5:00 बजे से भी पहले अपने गुरु एवं गुरुमां को प्रणाम एवं चरण स्पर्श के लिए लम्बी सी लाइन लगती थी, वहीँ उस महान योगी,तपस्वी, ऋषि की लेखनी के बारे में भी जानने का भी प्रयास कर रहे हैं।  

बार- बार साथिओं से आग्रह कर रहे हैं  कि जिस श्रद्धा,उत्साह और प्रसन्नता से आज कल के लेख लिखे जा रहे हैं, उससे अनेकों गुना प्रसन्नता से इन्हें पढ़ा जाए, तभी हमारा प्रयास सफल होगा, गुरुचरणों में यही सच्ची भक्ति होगी।

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इसी तरह की अनेकों सुरलहरियों के बीच  प्रणाम और दर्शन का कार्यक्रम शुरू होता था । प्रातः 5:00  बजे से भी कुछ पहले प्रतीक्षालय के पास शिष्यों,भक्तों एवं कार्यकर्त्ताओं की लाइन लगना शुरू हो जाती। हर एक के अंतर्मन  में अपने आराध्य के दर्शनों की उत्सुकता  रहती थी । ऊपर का दरवाज़ा  खुलते ही सभी पंक्तिबद्ध सधे कदमों से एक-एक करके आगे बढ़ते, सीढ़ियाँ चढ़ते और अखण्ड दीप के दर्शनों के साथ ही परमपूज्य गुरुदेव, वंदनीय माताजी के चरणों को स्पर्श करने का सौभाग्य प्राप्त करते। आजकल  जहाँ भोजन बनता है, वहीं पास से गुजरते हुए एक बार फिर से खुली  खिड़की से “लेखनी की साधना में लीन” परमपूज्य गुरुदेव  के दर्शन होते। 

यह दर्शन साधकों को ब्रह्मानुभूति से कम नहीं लगते थे। वैसे तो गुरुदेव से प्राप्त किसी भी अनुभूति का ठीक-ठीक वर्णन करने में  शब्द अधिकतर कम ही रह जाते हैं लेकिन इस प्रातःकाल वाली अनुभूति का वर्णन  तो और भी कठिन है। गुरुदेव के यह दर्शन  बिना किसी विघ्न-बाधा के रोज अविरल भाव से मिलते थे। सोफे पर बैठे अपने एक पाँव के ऊपर दूसरा पाँव चढ़ाए, उनके हाथों में सधी लेखनी, भावों और विचारों का अविरल प्रवाह राइटिंग पैड में लगे हुए पन्नों पर बहता रहता। इसी बीच कभी कभार दृष्टि उठाकर देख लेते । वह दृष्टि भी बहुत  ही अमृतवर्षिणी होती थी, जिस पर पड़ती वह निहाल हो जाता और जो वंचित रह जाता, वह मन-ही-मन उनसे अगले दिन इस कृपा के लिए प्रार्थना करता ।

वह स्वयं अनेकों हृदयों की पुकार को सुनते, स्वीकारते अपने लेखन में तल्लीन रहते। 

जो परिजन इस समय यह पंक्तियाँ पढ़ रहे हैं, हो सकता है उनमें से अनेकों के मन में प्रश्न उठ रहा होगा  कि लेखन तो अनेकों लोग करते हैं, गुरुदेव के लेखन में  ऐसी कौन सी विशेषता है? अवश्य ही विशेषता है, एक ऐसी  विशेषता जिसका  सत्य बहुत  ही अनुभूतिपूर्ण और अनुभवगम्य है । 

गुरुदेव के लेखन में और सामान्य लेखन में वही अंतर था/है जो एक मनीषी और ऋषि के जीवन में होता है। मनीषी के लेखन में सिर्फ और सिर्फ बुद्धि की विचारशीलता तरंगित होती है लेकिन ऋषि की चेतना तो बुद्धि की कक्षा से बहुत दूर अपनी गहन समाधि में किसी सत्य को देखती है और वही सत्य शब्द बनकर उसकी लेखनी से झरते हैं। परमपूज्य गुरुदेव का लेखन कुछ ऐसा ही था। उन्होंने जो कुछ भी लिखा वह मात्र  बुद्धि से उपजा और कल्पनाओं के धागे से गूँथा गया शब्द श्रृंगार भर नहीं है। यह लेखन तो वहाँ से अवतरित हुआ है जहाँ न मन पहुँच सकता  है और न ही बुद्धि । उनका लेखन अनुमान एवं  कल्पना भरे  विचारों का ढेर नहीं बल्कि उनकी समाधि चेतना से उपजे समाधान हैं। गुरुदेव सही मायनों में “लेखनी की साधना में लीन समाधियोगी” थे। गुरुदेव इस तथ्य को कभी-कभी स्वयं भी बताया करते थे। ऐसे ही एक अवसर पर उन्होंने कहा था, 

उनकी इन बातों की सार्थकता उनके स्वयं के जीवन में थी। वह संत, ऋषि और तपस्वी एक साथ थे। उनकी साधना ही उनका लेखन बन गई थी। इसे यों भी कह सकते हैं कि उनका लेखन ही उनकी साधना बन गया। सच तो यह है कि इन दोनों में भेद कर पाना असंभव है। गोस्वामी तुलसीदास जी की भाषा में, “गिरा अरथ जल वीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न ।” यानि जल और जल की लहर दोनों कहने भर को अलग भले हों लेकिन  सही मायनों में  अलग थे ही नहीं। कई बार गुरुदेव बातचीत के दौरान बताते थे कि मैं लेखन का कार्य एक प्रकार की उपासना मानकर करता हूँ। एक बार तो उन्होंने ऐसा  भी  कहा, 

परमपूज्य गुरुदेव की ऐसी बातें सुनकर, परिजनों  का मन विकल हो उठता और हर कोई कहता, काश मैं भी अपने गुरु के,अपने प्रभु के,अपने इष्ट और आराध्य के गीत गा सकता 

लेकिन यह संभव नहीं था क्योंकि गुरुदेव के गीत भी गुरुदेव की भांति अद्भुत हैं। गुरुदेव की ही भांति उनके लेखन की भी अनगनित विशेषताएँ थीं। इन विशेषताओं में से बहुत सारी तो अदृश्य थीं,कुछ एक ही दृश्यमान थीं।

दृश्य विशेषताओं में जो सबसे चौंकाने वाली बात थी वह यह थी कि गुरुदेव लेखन करते  हुए लोगों से मिल भी लेते थे । प्रणाम और दर्शन के अंतिम पलों में कुछ एक  लोगों से मिलने का भी क्रम रहता। यह वोह लोग होते थे जो प्रायः दुःख-आपत्ति से पीड़ित होते थे। वंदनीय  माताजी उन पर कृपा करके, उनकी बात सुनने के बाद  गुरुदेव से मिलने के लिए भेज दिया करती थीं। ये लोग मिलने के लिए जाते, बातचीत चलती रहती और गुरुदेव का  लेखनकार्य चलता रहता । सामने खड़े लोगों से एक-एक करके हाल पूछते और लेखन कार्य चलता रहता। ये लोग गुरुदेव के  चरणों में माथा टेककर प्रणाम भी करते लेकिन ऐसा प्रतीत होता था कि  उनकी लेखनी को कोई बाधा नहीं आ रही। गुरुदेव लिखते लिखते ही  एक पल के लिए  अपनी आँखें ऊपर उठाते और पूछते, “हाँ बेटा, बताओ तुम्हें क्या परेशानी है। बताने वालों में से कोई कहता, गुरुजी ! मेरी बेटियों की शादी नहीं हो रही है, तो  कोई अपने किसी संबंधी अथवा स्वयं की  असाध्य बीमारी की बात कहता, कभी अपने घर/दफ्तर की पीड़ा से परेशान व्यक्ति अपनी परेशानी सुनाता। वह इनमें से हर एक की बात सुनते और उसकी पीड़ा, परेशानी से द्रवीभूत हो जाते। यदा-कदा तो गुरुदेव की स्वयं की आँखें भी छलक आतीं लेकिन अगले ही पल वह उसे आश्वस्त करते कहते, 

उनका आश्वासन पाकर दुःखीजन मुस्करा उठते और इन सबके बीच उनकी लेखन साधना अविराम चलती रहती।

गुरुदेव कहा  करते थे, 

 गुरुदेव का  यह कथन अक्षरशः सही सिद्ध हुआ। वर्ष 1990  की वसंत पंचमी से वह एकांत में तो गए लेकिन लेखन बंद नहीं हुआ। उनकी समाधि चेतना से झरने वाला चिंतन कागज के पन्नों पर, अक्षरों, शब्दों, वाक्यों और पंक्तियों में प्रकट होता रहा। 

28 अप्रैल 1990 को गुरुदेव ने ब्रह्मदीप यज्ञों का निश्चय किया। अपने एकान्तवास के बावजूद उन्होंने इस दिन कुछ निकटवर्ती कार्यकर्त्ताओं की गोष्ठी बुलाकर,स्वयं एक पैम्फलेट तैयार किया और  यह तय किया था  कि 7-8 जून को ज्येष्ठ पूर्णिमा के अवसर पर भोपाल, कोरबा, मुजफ्फरपुर, अहमदाबाद, लखनऊ एवं जयपुर में ब्रह्मदीप यज्ञ आयोजित किए जाएँ। इसी के साथ गुरुदेव ने लेखनी साधना को विराम दे दिया। यह विराम स्थूल जीवन और उसकी साधना को विराम देना था। इसी के साथ स्थूल देह से और स्थूल जगत् से उनकी जीवन चेतना सिमटने लगी। अनुशासित परिजन अपने सद्गुरु के आदेश को शिरोधार्य करके 2 जून, 1990 को उनके महाप्रयाण का समाचार मिलने के बावजूद सौंपे गए कार्य को पूरा करने के लिए जुटे रहे। सभी की भावनाएँ कसमसायी, छटपटायी, तड़फड़ाई तो बहुत, लेकिन  गुरुदेव का आदेश सर्वोपरि था। किसी ने भी इसका पालन करने में कोई कोताही नहीं बरती। हालाँकि हर एक के मन में यह बात थी कि वह शांतिकुंज जाकर अपने प्रभु को श्रद्धाञ्जलि अर्पित करे,उन्हें अपने भाव-सुमन चढ़ाए।

गुरुदेव बहुत समय पहले से ही अपने स्थूल शरीर को त्यागने की घोषणा करते आ रहे थे, वसंत पंचमी 1990  में एकांत में जाने के पूर्व वह क्षेत्र के अपने सभी परिजनों को विशेष रूप से बुलाकर उनसे अंतिम बार मिल भी चुके थे। 

2  जून 1990, गायत्री जयंती के दिन परमपूज्य गुरुदेव ने स्थूल  देह का त्याग कर दिया। उनकी आत्मज्योति ब्रह्मदीप यज्ञों के माध्यम से एक साथ अनेकों स्थानों पर प्रकाशित हो उठी। लेखनी की साधना में लीन समाधियोगी अब साकार से निराकार हो गया। हालाँकि उन्होंने अपने पाठकों, परिजनों को भरोसा दिलाया कि मैंने काफी कुछ लिखकर रख दिया है, जो मेरे न रहने पर भी तुम सबको पढ़ने के लिए मिलता रहेगा।

इसी के साथ ही गुरुदेव ने यह भी कहा कि मैंने कुछ लिखने वाली उँगलियाँ तैयार कर दी हैं, लिखने वाला चाहे जो कोई भी हो, उसमें  विचार प्रवाह मेरा ही बहेगा और यही हो भी रहा है। अपने जीवन काल में लेखनी की साधना में लीन रहने वाले उन समाधियोगी की चेतना अभी अखण्ड ज्योति के पृष्ठों में सतत प्रतिमास प्रकाशित होती है और आगे भी शाश्वत रूप से ऐसा होता रहेगा। उनकी समाधि चेतना से उपजे शब्द जन-जन को समाधान देते रहेंगे ।

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आज 14  युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है।रेणु जी और चंद्रेश जी को गोल्ड मैडल प्राप्त करने की बधाई एवं  सभी साथिओं का  संकल्प सूची में  योगदान के लिए धन्यवाद्।   

(1)सरविन्द कुमार-32,(2)संध्या कुमार-42 ,(3) अरुण वर्मा-36,(4)मंजू मिश्रा-32,(5 )रेणु श्रीवास्तव-53,(6) मीरा पाल-35, (7) सुमनलता-30,(8) निशा भारद्वाज-38 ,(9 ) नीरा त्रिखा- 36 ,(10) चंद्रेश बहादुर-52,(11)वंदना कुमार-27,(12 ) विदुषी बंता-28, (13)पुष्पा सिंह-24  , (14 )आयुष पाल-32                       

सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।


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