ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार में लिए गए संकल्प के अंतर्गत 6 फ़रवरी 2024 का यह ज्ञानप्रसाद लेख इस संकल्प का दूसरा अद्वितीय लेख है। सम्पूर्ण फ़रवरी माह में मंगलवेला के ज्ञानप्रसाद से लेकर शुभरात्रि सन्देश तक समस्त योगदान परम पूज्य गुरुदेव को ही समर्पित करने का संकल्प लिया गया है, गुरुदेव इसे पूर्ण करने में अवश्य मार्गदर्शन करेंगें, ऐसा हमारा अटूट विश्वास है।
फ़रवरी 2002 की अखंड ज्योति में प्रकाशित लेख जिस पर आज का ज्ञानप्रसाद आधारित है, एक ऐसा लेख है जिससे हमें अपने गुरु के सही रूप को जानने का दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। गुरुदेव के विशाल साहित्य के माध्यम से हमें उनके बारे में कुछ-कुछ जानकारी तो अवश्य है लेकिन क्या गुरुदेव के बारे में उतना ही जानना पर्याप्त है ? नहीं। आज के लेख में 1986 की वसंत पंचमी के दिव्य मिलन का आँखों देखा हाल, एक चलचित्र की भांति वर्णित किया गया है। यह वोह दिव्य दिन था जिस दिन गुरुदेव ने कठिन सूक्ष्मीकरण साधना से बाहिर आकर परिजनों को दर्शन दिए थे और गायत्री परिवार द्वारा हर वर्ष मनाए जाना वाला वसंत पर्व केवल एक साधारण पर्व न रहकर “एक आध्यात्मिक पर्व” से परिभाषित हुआ।
साथिओं से करबद्ध आग्रह है कि इस लेख में डूब जाने के कम में कोई विकल्प नहीं है।
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वर्ष 1926 के पुण्य पर्व वसंत पंचमी के दिन हिमालयवासी सद्गुरु (दादागुरु) ने एक 15 वर्षीय किशोर को अपनी पहचान कराई। उन पुण्य क्षणों में गुरुता प्रकट हुई और शिष्यत्व सार्थक हुआ। साथ ही वसंत पंचमी के महत्त्व को दर्शाने वाली एक बहुत प्यारी और मीठी कथा इस महापर्व से जुड़ गई। हालाँकि इस शुभपर्व का महत्त्व बताने वाली अनेकों अन्य कथाएँ भी हैं, जिनमें से कुछ पुराणों में हैं, तो कुछ संस्कृत कवियों के कोश में। कई कथाएँ कही सुनाई बातों के रूप में भी प्रचलित हैं, लेकिन इनमें से प्रायः किसी से भी “आध्यात्मिक भाव” नहीं झरते, आध्यात्मिक सरिता की वेगवती धारा नहीं उफनती। न तो इनमें से किसी से सद्गुरु का प्रेम प्रकट होता है और न ही शिष्य का अपने सद्गुरु के प्रति समर्पण। लेकिन वर्ष 1926 की वसंत पंचमी के ब्रह्ममुहूर्त की जो इतिहास कथा लिखी गई उसने आध्यात्मिक भावों का सैलाब ही ला दिया।
उस दिन से लेकर हर वर्ष प्रत्येक वसंत पंचमी को इस महान पर्व में नए से नए आयाम जुड़ते गए। एक-एक करके 60 वर्ष बीत गए और वर्ष 1986 की वसंत पंचमी का आगमन हुआ। इस आगमन वेला की प्रतीक्षा असंख्य हृदयों को थी। सभी आशा और उल्लास के हिंडोले में डोल रहे थे। सभी को गुरुदेव के दर्शनों की आशा थी, अपने गुरुदेव के अमृत वचनों को सुनने का उल्लास था। वर्षों की प्यासी आँखें आज तृप्त होना चाहती थीं क्योंकि यह बहुत ही विरल क्षण थे । वर्षों की सूक्ष्मीकरण साधना के बाद परम पूज्य गुरुदेव आज दर्शन देने वाले थे। 1986 का वर्ष शांतिकुंज के कण-कण में अनूठा उल्लास लिए था,उस में एक अनूठी उमंग थी। इस दिन जिन्होंने भी गुरुदेव को देखा है, वे जानते हैं और जिन्होंने सुना है, वे मात्र अनुमान लगा सकते हैं। जो इन पंक्तियों को पढ़ रहे हैं, वे उस घटना को अपनी मन की आँखों से निहार सकते हैं ।
नवागंतुक का अद्भुत सपना :
हाँ तो, उस वसंत पंचमी के कुछ दिनों पूर्व से ही समूचा वातावरण एक विशेष प्रकार की चेतना के स्पंदनों से स्पंदित था । जो ग्रहणशील थे, वे इन्हें ग्रहण भी कर रहे थे। ऐसे ही एक ग्रहणशील नवागंतुक ने उन्हीं दिनों एक स्वप्न देखा । यह स्वप्न बड़ा ही पुलकन भरा मधुर था। स्वप्न में उसने देखा कि वह गुरुदेव के ऊपर वाले कमरे में गया हुआ है,कमरे में एक सोफा है, इसके बगल में गुरुदेव का पलँग है। गुरुदेव स्वयं सोफे पर बैठे हुए हैं। उसने गुरुदेव को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया, साथ ही अपने साथ लाए हुए सुर्ख गलाब के फूल अपने दोनों हाथों से गुरुवर के चरणों में चढ़ाए। गुरुदेव ने एक नज़र उठाकर उसकी ओर देखा और गंभीरतापूर्वक बोले,
“तुम आ गए बेटा, तुम्हें मैंने ही बुलाया है। ठीक से रहना, मैं हमेशा तुम्हारा ध्यान रखूँगा। अच्छा अब जाओ ।”
गुरु आज्ञा पाकर जब वह वापस चलने लगा, तो गुरुदेव ने उसे एक बार फिर टोका और कहा,
“नीचे जाकर सबको बता देना कि मैं मिलूँगा, सबसे मिलूँगा । इतना ही नहीं, मैं सबको अपनी पहचान भी कराऊँगा। सबको बताऊँगा कि मैं कौन हूँ।”
इसी के साथ स्वप्न टूट गया लेकिन चिंतन की कड़ियाँ नहीं टूटीं। स्वप्न देखने वाले के मन में अनेकों विचार थे जैसे कि क्या गुरुदेव सचमुच मिलेंगे और वे कौन हैं। इस नवागंतुक ने जून 1984 एवं अप्रैल 1985 की अखण्ड ज्योति पढ़ रखी थी, जिसमें गुरुदेव की जीवन-कथा- वृत्तांत प्रकाशित हुआ था और उन्होंने अपने तीन जन्मों की कथा भी लिखी थी। अपने सद्गुरु (दादागुरु) से मिलन और स्वयं की जीवन-साधना के बारे में बताया था। तो क्या इस सब विवरण के इलावा भी गुरुदेव की कोई पहचान है ?
प्रश्न उसके मन को कुरेदते रहे । उसने शांतिकुंज के एक-दो वरिष्ठ कार्यकर्त्ताओं से अपने इस अजीबोगरीब स्वप्न की चर्चा भी की लेकिन उन्होंने उसे यही बताया कि अभी गुरुदेव साधना में हैं और उनका बाहर आने का कोई कार्यक्रम नहीं है । परम पूज्य गुरुदेव 1984 की रामनवमी से 1986 की वसंत पंचमी तक सूक्ष्मीकरण साधना में रहे।
गुरुदेव का सूक्ष्मीकरण से बाहिर आना एवं अपने असली स्वरूप के दर्शन कराना :
1986 की वसंत पंचमी से दो-चार दिन पूर्व हल्के स्वरों में ही सही यह लगने लगा था कि गुरुदेव मिलेंगे, अवश्य मिलेंगे। एक दिन पहले से ही शांतिकुंज में भीड़ उमड़ने लगी थी। सभी अनजाने ही एक आशा, एक विश्वास लेकर आ रहे थे कि उनके प्रभु उनसे मिलेंगे। वसंत पंचमी के दिन से पूर्व वाली रात्रि में जो परिजन शांतिकुंज आए थे, जो उपस्थित थे, उनमें से अधिकतर लोग सो नहीं सके थे । सभी परिजनों के हृदयों में उमड़ती उमंगों का सैलाब निद्रा को दूर भगा रहा था। उस दिन सुबह का यज्ञ भी अति शीघ्र हुआ और सभी प्रवचन हाल में आ बैठे। यद्यपि उस दिन भीड़ इतनी थी कि सभी को बैठने की जगह सुलभ नहीं हो सकी। फिर भी सभी उपस्थित थे और सभी सुखी थे। हों भी क्यों नहीं, जब मन में खुशी छलक रही हो तो तन की सुधि भला किसे रहती है।
ठीक समय पर परमपूज्य गुरुदेव वंदनीय माताजी के साथ प्रवचन मंच पर आए। असंख्य जोड़ी आँखें दोनों पर टिक गईं। हमेशा अपनी चंचलता के लिए प्रसिद्ध मन आज अनायास ही स्थिर हो गया। यह भावदशा किसी एक की नहीं, एक साथ सभी की थी। सुदीर्घ और कठोर साधना के पश्चात् गुरुदेव पहली बार सर्वसाधारण के सामने पधारे थे। गुरुदेव के मुखमंडल से ही नहीं, बल्कि प्रत्येक रोम से तप की ऊर्जा का प्रेरक प्रवाह बह रहा था एवं आनंददायी उपस्थिति से सभी परिजन स्वयं को धन्य और कृतकृत्य अनुभव कर रहे थे। गुरुदेव कुछ बोल रहे थे, कुछ कह रहे थे, लेकिन केवल शब्दों से नहीं वरन् प्राणों से कह रहे थे। गुरुदेव जैसे महाप्राण व्यक्तित्व का तपप्राण बह रहा था और परिजनों की अनेकों मचलती हुई लघु प्राणधाराएँ उसमें विलीन हो रही थीं। प्राण-प्रत्यावर्तन का यह संयोग बहुत ही अद्भुत और सुखद था।
गुरुदेव की वाणी में सद्गुरु का सजल वात्सल्य था लेकिन साथ ही महातपस्वी का प्रचंड प्रकाश, ओज एवं तेज़ भी था, गुरुदेव की वाणी में प्रेम के अमृत बिंदु थे, तो तप की धधकती ज्वालाएँ भी थीं। आश्चर्यजनक, अविश्वसनीय किंतु सत्य तीनों एक साथ थे । एक पल गुरुदेव अपने विशाल शिष्य समुदाय को दुलारते, उन्हें अपनी सहायता का आश्वासन देते, तो दूसरे ही पल कालनेमि की कुटिल चालों पर बरस पड़ते। एक पल वह दुनिया के उज्ज्वल भविष्य की सुखद तस्वीर प्रस्तुत कर देते, तो अगले ही पल उनकी गर्जना सुनाई देती कि इन दिनों दुनिया को नष्ट कर देने के लिए जो स्टारवार की तैयारी हो रही है, मैं इस स्टारवार को पाँवों से मसलकर रख दूँगा। मैं चेलेंजर को धूल में मिला दूँगा । शैतान की ताकत से हज़ारों गुना बड़ी भगवान् की ताकत होती है । दुरभिसंधियाँ (Wrong treaties) चलने नहीं दी जाएँगी। दुनिया को मिटाने का ख्वाब देखने वाले खुद मिटेंगे । गुरुदेव की वाणी से दिया सन्देश किसी विद्वान् मनीषी के विचारों का ताना-बाना न होकर एक साधनासंपन्न ऋषि की उज्ज्वल दृष्टि थी। उनके हर शब्द में उनके महान् तप की अलौकिक प्रभा झलक रही थी।
इस वसंत पंचमी को गुरुदेव द्वारा इस तरह का अमृत कण और अग्नि स्फुल्लिंग एक साथ बरसते रहे। प्रभुमूर्त गुरुदेव एक ही समय पर, एक साथ अनेकों रूप में,अनेकों को दिखाई देते रहे ,कोई पहचान न पाया कि उनके प्रभु का, उनके आराध्य का सच्चा और वास्तविक स्वरूप क्या है। बात भी सही है, भगवत्स्वरूप की सही पहचान क्या इतनी आसान है। यह तो केवल और केवल भगवत्कृपा से ही संभव है ? तभी तो गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने रामचरितमानस में बिना किसी लाग-लपेट के कह दिया है,
“सो जानहि जेहि देहु जनाई” अर्थात् वही जान पाता है प्रभु तुम्हें, जिसे तुम खुद अपनी पहचान करा दो ।
वर्ष 1986 की वसंत पंचमी को ठीक 1926 जैसी ही घड़ी आई। 60 वर्ष पूर्व के वही क्षण फिर से दृश्यमान हो गए। इतिहास ने गुरुकृपा की वैसी ही कथा फिर से लिख डाली । गुरुदेव ने शिष्य समुदाय के समक्ष अपनी पहचान प्रकट करते हुए कहा,
“बेटा! जिसने माताजी को देख लिया, उसने मुझे देख लिया और जिसने मुझे देख लिया, समझो उसने गायत्री माता को देख लिया।”
बड़े ही सीधे सरल और सुस्पष्ट शब्दों में गुरुदेव ने अपने शिष्यों को अपने स्वरूप का बोध करा दिया। हाँ यह अलग बात है और पात्रता के स्तर पर निर्भर है कि किसे यह सत्य स्मरण रहा और किसने इस महासत्य को अपने जीवन की भूल-भुलैया में भुला दिया लेकिन साधकों का अनुभूतिपूर्ण सत्य यही है कि
“ईश्वरीय सत्ता ही हमारे अपने गुरुदेव के रूप में आई थी। उनकी उस अमर और अमिट वाणी के कुछ अंश तो थोड़े ही दिनों बाद सच हो गए, जब दुनिया भर के अखबारों ने चेलेंजर (स्पेस शटल) और स्टारवार के खत्म होने की खबर सुर्खियों में छापी और जैसा कि गुरुदेव ने कहा था, दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के महानतम् वैज्ञानिक भी इसका कारण नहीं खोज सके। उनकी वाणी शिव वाणी है। उन्होंने जो कुछ कहा, समय आने पर वह अवश्य सत्य सिद्ध होगी। यदि हम इस शिव वाणी को समझ सके, उन्होंने अपनी जो पहचान हमें बताई उस पर हम अपना ध्यान टिका सके, तो यह वसंत पंचमी हमारे लिए भी वैसी ही इतिहास-कथा लिख सकती है।”
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आज 16 युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है।संध्या जी को गोल्ड मैडल प्राप्त करने की बधाई एवं सभी साथिओं का संकल्प सूची में योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1)सरविन्द कुमार-26,(2)संध्या कुमार-51,(3) अरुण वर्मा-37,24 ,(4)मंजू मिश्रा-30 , (5 )सुजाता उपाध्याय-28 ,(6) रेणु श्रीवास्तव-44,(7) सुमनलता-26 ,(8) निशा भारद्वाज-25 ,(9 ) नीरा त्रिखा-28 ,(10) चंद्रेश बहादुर-46 ,(11)वंदना कुमार-26 ,(12 ) विदुषी बंता-29, (13)अनिल मिश्रा-33,(14)पुष्पा सिंह-26, (15)आयुष पाल-26,(16)राम लखनपाल-25
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।