5 फ़रवरी 2024, सोमवार के पावन दिन की मंगलवेला में ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के प्रत्येक सदस्य के मंगल की कामना करते हैं। शनिवार के विशेषांक में साथिओं के साथ शेयर किया था कि फ़रवरी का सम्पूर्ण माह गुरुवर के आध्यात्मिक जन्म दिवस को समर्पित करने का संकल्प है, समर्पित साथिओं के सहयोग एवं गुरुवर के मार्गदर्शन में यह छोटा सा संकल्प अवश्य पूर्ण होगा ऐसा हमारा अटल विश्वास है।
इसी संकल्प का प्रथम लेख अखंड ज्योति के फ़रवरी 2019 में प्रकाशित लेख पर आधारित है। आज के लेख में अनेकों भावनाएं और शिक्षाएं हैं जिन्हें हमने commas में अलग से लिखा है ताकि साथी आसानी से देख लें और अंतःकरण में उतार लें।
फ़रवरी माह हम सबके लिए निम्नलिखित जैसे अनेकों संकल्प लेने का स्वर्ण अवसर हैं, न कि केवल अपनी समस्याओं का पुलिंदा गुरुदेव के ऊपर उड़ेलने का।
“हे गुरुदेव ! हमारे जीवन का प्रत्येक क्षण आपको अर्पित है । हमारे कर्म, हमारी भावनाएँ, हमारे विचार, हमारी प्रतिभा यदि कुछ हैं तो वे आपके श्रीचरणों में समर्पित हैं। गुरुदेव,हमें व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठाकर व्यापकता प्रदान कीजिए, हमारा प्रत्येक क्षण अपने कार्यों में नियोजित कीजिए। हम अपनी चेतना को आप में विसर्जित करते हैं,अब आप हमें भी वासंती रंग में रंग दें, गुरुदेव,हम भी साधना का वसंत हो जाएँ। यही भावना, यही प्रार्थना, यही समर्पण हम बारंबार आपको अर्पित करते हैं।”
इन्ही शब्दों के साथ साथिओं की आज्ञा से इस पावन लेख श्रृंखला का शुभारम्भ होता है।
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मौसम प्रकृति के बदलाव का अहसास दिलाता है। हर बदलती हुई ऋतु अपने साथ एक संदेश लेकर आती है। भारत की प्रकृति के अनुसार हमारे यहां 6 ऋतुएं प्रमुख रूप से मानी गई है। हेमंत, शिशिर, वसंत, ग्रीष्म, वर्षा व शरद ऋतु। इनमें वसंत को सबका राजा यानि ऋतुराज कहा गया है।
वसंत को ऋतुओं का राजा कहने के पीछे कई कारण हैं जैसे फसल तैयार रहने से उल्लास और खुशी के त्यौहार, मंगल कार्य, विवाह , सुहाना मौसम, आम की मोहनी खुशबू, कोयल की कूक, शीतल मन्द सुरभित हवा, खिलते फूल, मतवाला माहौल, सुहानी शाम, फागुन के मदमस्त करने वाले गीत सब मिलकर अनुकूल समां बाधते है। यही कारण है कि वसंत को ऋतुराज की संज्ञा दी गई है।
भागवदगीता में वसंत
वसंत को ऋतुओं का राजा इसलिए कहा गया है कि इस ऋतु में धरती की उर्वरा शक्ति यानि उत्पादन क्षमता अन्य ऋतुओं की अपेक्षा बढ़ जाती है। यही कारण है कि भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में स्वयं को ऋतुओं में वसंत कहा है। जिस प्रकार भगवान् कृष्ण सभी देवताओं और परम शक्तियों में सबसे ऊपर हैं वैसे ही वसंत ऋतु भी सभी ऋतुओं में श्रेष्ठ है।
गुरुदेव,वसंत की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वसंत उल्लास है, वसंत सुगंध है, वसंत मुस्कान है, वसंत सौंदर्य है, वसंत प्रकृति है, वसंत संगीत है और सर्वोपरि वसंत साधना है, जीवन का उत्कर्ष है। यह उत्कर्ष परमपूज्य गुरुदेव के माध्यम से गायत्री परिवार के परिजनों एवं संपूर्ण मानव जाति के जीवन में वसंत के रूप में ही प्रकट एवं प्रविष्ट हुआ। गुरुवर के अंतःकरण की उत्पादन युक्त भूमि में साधना के बीज, वर्ष 1926 की वसंत को बोए गए, जिसकी लहलहाती फसल आज भी विश्व धरा पर लहलहा रही है ।
पूज्य गुरुदेव जैसा अद्भुत व्यक्तित्व एवं असामान्य कृतित्व देखकर कोई भी भ्रमित हो सकता है कि यह किसी दैवी अनुदान मात्र की ही परिणति हो सकती है, किंतु इस अनुदान के पीछे पात्रता की साधना के स्वरों को सुनना प्रत्येक के वश की बात नहीं है। गुरुदेव का वासंती जीवन किसी चमत्कारी वरदान या संयोगवश की प्रतिभा की परिणति नहीं था। इसके लिए उन्होंने तपस्या की दिव्य अग्नि में स्वयं को जलाकर, तपाकर कुंदन बनाया, जीवन के पल-पल में संयम की साधना की , जीवनशैली के अनुशासनों का पालन किया, पवित्रता का निरंतर वरण किया , स्वयं को निरंतर गलाया एवं सजल संवेदना से सींचा ।
वसंत के पावन पर्व पर परमपूज्य गुरुदेव की तपश्चर्या की विधा को समझने के लिए यदि समय-समय पर उन्हीं के ह्रदय के उबालों की,उफानों की सहायता ली जाए तो परिजनों को असीम लाभ प्राप्त होने की संभावना होगी । बुद्धि-से-बुद्धि तक संदेश पहुँचाने के लिए कलम तो चलाई जा सकती है, लेकिन हृदय से ह्रदय तक सन्देश केवल भावनाओं के माध्यम से ही अभिव्यक्त किये जा सकते हैं। गुरुदेव ने अपने अनेकों बच्चों के हृदयों को अपने ह्रदय के साथ जोड़ने के दिव्य प्रयास स्वयं अपने साहित्य के माध्यम से अनेकों बार व्यक्त किए हैं एवं आज भी अनवरत यह प्रयास किये जा रहे हैं।
संयम की साधना के संदर्भ में गुरुदेव ने लिखा है:
“हमने स्वयं को कितना कसा है, शरीर व इंद्रियों को कितना कसा है, व्यवहार को कितना साधा है, अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं और महत्त्वाकांक्षाओं को चूर-चूर करके फेंक दिया है, सभी लोग इससे भलभाँति परिचित हैं। स्वयं को धोने के लिए, परिष्कृत करने के लिए हमने धोबी के तरीके से बेरहमी के साथ स्वयं को पीट-पीटकर धोया है, धुनिये की बेरहम मार कुटाई से स्वयं को धुना है यानि जिस प्रक्रिया से कपास को पौधों से निकाल कर,धुन कर,पीट कर,कात कर, सूत (धागा) बनाकर फैक्ट्री में भेजी जाती है और सुन्दर आकर्षक वस्त्र बनाए जाते हैं ठीक उसी प्रकार हमने स्वयं को अपने गुरु के आदेश पर धुना है।”
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का एक-एक सदस्य जानता है कि परम पूज्य गुरुदेव ने यह कठिन साधना अपने स्वयं के, व्यक्तिगत हित के लिए नहीं की,बल्कि स्वयं को परिमार्जित कर लोकहित में नियोजन के लिए की। गुरुदेव की साधना में सिद्धि की चाह न होकर अंतर्मन की पवित्रता का महत्वपूर्ण लक्ष्य था। वे कहते हैं:
“मेरी साधना का उद्देश्य किसी मोक्ष या निर्वाण की खोज नहीं बल्कि इसका मुख्य लक्ष्य जीवन एवं अस्तित्व का परिवर्तन है।”
अक्सर यह धारणा है कि तपस्वी स्तर के व्यक्ति समस्त संवेदनाओं से विरक्त (दूर) रहते हैं यानि तपस्वी वही है, जिसमें तटस्थता हो, जिसका व्यवहार सिद्ध की भाँति हो, लेकिन परम पूज्य ने इस धारणा के विपरीत तपस्या करके संवेदनाओं का निर्झर खोल कर रख दिया था। पूज्यवर का कहना है कि
” यदि कोई चमड़ी उधेड़ कर भीतर का अंतरंग परखने लगे तो उसे एक ही तत्त्व उफनता दृष्टिगोचर होगा- असीम प्रेम। हमने जीवन में एक ही उपार्जन किया है और वह है प्रेम। हमनें एक ही रस चखा है, वह है प्रेम का रस।”
गुरुदेव का यह प्रेम विश्वव्यापी था/है। जब भी वोह किसी दुःखी, निस्सहाय को देखते थे तो विकल हो जाते थे। पीड़ित मानवता के लिए कुछ करने की उत्कंठा उन्हें सदैव बेचैन किए रहती थी, उनकी प्रार्थना में भी यही भाव समाहित थे। जब-जब भी प्रार्थना का समय आया, तब-तब भगवान से यही निवेदन किया कि हमें चैन नहीं वह करुणा चाहिए, जो आँखों से आँसू पोंछने की हमारी सार्थकता को सिद्ध कर सके। अपने करुणापूर्ण हृदय की भावभरी अभिव्यक्ति का वर्णन करते हुए गुरुदेव कहते हैं,
“हमारी कितनी रातें सिसकते बीती हैं, कितनी बार हम बालकों की तरह बिलख-बिलख कर, फूट-फूटकर रोए हैं, इसे कोई कहाँ जानता है। लोग हमें सिद्ध, ज्ञानी मानते हैं; कोई हमें लेखक, विद्वान, वक्ता समझता है, लेकिन काश कोई हमारा अंत:करण खोलकर पढता, समझता तो जान जाता कि मानवीय व्यथा-वेदना की अनुभूतियों की करुण कराह से हाहाकार करती इन हड्डियों के ढाँचे में बैठी हुई एक उद्विग्न आत्मा भर दिखाई पड़ती।”
ऐसे तपस्वी एवं संवेदनशील गुरुदेव के प्रति ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के सभी शिष्यों को अपना दायित्व समझना चाहिए। गुरुदेव जैसे दिव्य व्यक्तित्व के प्रति केवल श्रद्धा के कुछ शब्दों को व्यक्त करना पर्याप्त नहीं होगा, मात्र जय गुरुदेव लिख कर अपनी ड्यूटी पूरा करने तक सिमट जाना कोई बुद्धिमता नहीं होगी। यदि प्रत्येक परिजन इस वसंत पर गुरुदेव की पीड़ा, करुणा का हिस्सेदार बन जाए तो इस पर्व को मनाने की सार्थकता होगी। हम सब गुरुदेव की तपस्या के प्रतिफल में तो हिस्सेदारी चाहते हैं, उनसे अपने कार्य भी करवाना चाहते हैं, अपने कष्ट भी दूर कराने के लिए लालायित रहते हैं, लेकिन आज, इस वसंत पर गुरुदेव के लिए कुछ करने का भाव जगाएँ। हमारा तो ऐसा कहना है कि वसंत पर्व तो वर्ष में एक बार ही आता है, कईं वर्षों से आ रहा है, क्यों न हम सदा के लिए ही गुरुदेव की उत्कृष्ट, आज्ञाकारी संतान होने की संकल्प लें और स्वयं को गुरुदेव के चरणों में समर्पित कर दें।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के प्रत्येक परिजन को आज सौभाग्य प्राप्त हुआ है कि वह स्वयं से निम्नलिखित प्रश्न पूछे:
1.क्या वास्तव में वह गुरुदेव जैसे महान गुरु का शिष्य होने योग्य है ?
2.क्या उसके भीतर उनके कार्य को आगे बढ़ाने की ज्वलंत अग्नि भड़क रही है ?
3.क्या किसी पद की लालसा, स्वार्थ या अहं की पूर्ति में उसका शिष्यत्व कहीं खो तो नहीं रहा है?
पूज्य गुरुदेव ने गायत्री परिवार की स्थापना बड़ी आशाओं से की है, उन्होंने अपने प्राणों से इस विश्व्यापी परिवार का अभिसिंचन किया है, संवेदना की आधारशिला स्थापित की है तथा अपने तप से सभी को एक “सुरक्षा चक्र” का संरक्षण प्रदान किया है। गुरुदेव की चेतना आज भी हमें निहारती है,उनकी करुणा हमें दुलराती है। उन्होंने कहा भी है,
“हमारी प्रबल इच्छा है कि अपना हृदय कोई बादल जैसा बना दे और उसमें स्नेह का इतना जल भर दे कि जहाँ से एक बूँद स्नेह की मिली हो वहाँ एक प्रहर वर्षा करने का सुअवसर मिल जाए।”
वैसे तो परम पूज्य गुरुदेव कहीं गए नहीं हैं, हम सबके बीच ही हैं, सदैव हमारे साथ ही हैं लेकिन फिर भी हम श्रद्धा एवं विश्वास से कह सकते हैं वोह अपने बच्चों को आश्वस्त कर गए हैं कि
“जिन लोगों की आँखों में हमारे प्रति स्नेह और हृदय में उन सबकी तस्वीर हम अपने कलेजे में छिपाकर ले जाएँगे और उन देवप्रतिमाओं पर निरंतर आँसुओं का अर्घ्य चढ़ाया करेंगे, वे हमें भूल सकते हैं लेकिन हम अपने किसी स्नेही को कभी भी भूलेंगे नहीं।”
आइए हम भी अपने गुरु को कभी न भूलने का आश्वासन दें। हम में से प्रत्येक की अंतरात्मा उनसे कहे कि
“हे गुरुदेव ! हमारे जीवन का प्रत्येक क्षण आपको अर्पित है । हमारे कर्म, हमारी भावनाएँ, हमारे विचार, हमारी प्रतिभा यदि कुछ हैं तो वे आपके श्रीचरणों में समर्पित हैं। गुरुदेव,हमें व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठाकर व्यापकता प्रदान कीजिए, हमारा प्रत्येक क्षण अपने कार्यों में नियोजित कीजिए। हम अपनी चेतना को आप में विसर्जित करते हैं,अब आप हमें भी वासंती रंग में रंग दें, गुरुदेव,हम भी साधना का वसंत हो जाएँ । यही भावना, यही प्रार्थना, यही समर्पण हम बारंबार आपको अर्पित करते हैं।”
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आज 12 युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है।चंद्रेश जी को गोल्ड मैडल प्राप्त करने की बधाई एवं सभी साथिओं का संकल्प सूची में योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1)सरविन्द कुमार-25 ,(2)संध्या कुमार-38,(3) अरुण वर्मा-27 ,(4)मंजू मिश्रा-35 , (5 )सुजाता उपाध्याय-44 ,(6) रेणु श्रीवास्तव-47,(7) सुमनलता-52 ,(8) निशा भारद्वाज-32 ,(9 ) नीरा त्रिखा-35 ,(10) चंद्रेश बहादुर-65 ,(11)वंदना कुमार-38 ,(12 ) विदुषी बंता-29,34
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।