1 फ़रवरी 2024 का ज्ञानप्रसाद
Source:दर्पण साधना की बेसिक जानकारी
गुरुवार का दिन, हमारे गुरु परमपूज्य गुरुदेव को पूर्णतया समर्पित होता है, ज्ञानप्रसाद के साथ संलग्न प्रज्ञागीत भी गुरुदेव का ही गुणगान करता है।
तो चलते हैं सीधा गुरुकक्षा की ओर।
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हम में से लगभग हर कोई ही सौंदर्य को निखारने के लिए न केवल दर्पण की सहायता लेता है बल्कि घंटों इसके समक्ष खड़े होकर स्वयं से बातें भी करता है। आज के ज्ञानप्रसाद लेख में इस प्रश्न पर चर्चा की जा रही है कि क्या दर्पण का “अध्यात्मिक कायाकल्प” के लिए भी प्रयोग किया जा सकता है।
अखंड ज्योति फ़रवरी 1986 में प्रकाशित लेख के अनुसार दर्पण साधना के सतत अभ्यास करने पर मनुष्य अपनी आत्मा का प्रतिबिंब देख सकता है क्योंकि दर्पण में सच्ची तस्वीर ही झलकती है। दर्पण साधना की गिनती उच्चस्तरीय साधना में की जाती है। गुरुदेव के अनुसार प्रतक्ष्य स्थूल शरीर के साथ ही मनुष्य का प्राण शरीर भी होता है जिसे ईथरिक (Ethereal) /छाया शरीर भी कहते हैं। छाया शरीर की क्षमता, स्थूल शरीर की अपेक्षा बहुत अधिक होती है।
तैंतीस कोटि देवताओं के बारे में तो सबने सुना ही है,जैन, बौद्ध, आदि सबके अलग-अलग देवता हैं। जनजातियों आदिवासियों में अपने-अपने कबीले और गाँव के अलग-अलग देवता हैं। मिश्र, रोम, जापान, चीन के देवताओं की प्रायः इतनी ही बड़ी संख्या है। इसके अतिरिक्त सतियों, पीरों, ऋषियों की मान्यता भी उसी गणना में सम्मिलित होती है। ग्राम देवताओं या कुल देवताओं क्षेत्र – देवताओं की संख्या इसके अतिरिक्त है। प्रश्न उठता है कि इनमें से किसे पूजा जाये, विशेषकर तब जब एकेश्वरवादी एक ही ईश्वर को मानते हैं। वेदान्त सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य की अपनी आत्मा ही परमेश्वर है।
देव-पूजन की आवश्यकता इसलिये पड़ती है कि विपत्तियों में देवता मनुष्य की सहायता करें और समृद्धियों/ सफलताओं को बढ़ावें। अपनी पीठ पर किसी समर्थ शक्ति की छत्रछाया बनी रहे। यहाँ एक बहुत ही बेसिक प्रश्न उठता है कि जब प्रतिमायें, मूर्तियाँ आदि सब काल्पनिक ही हैं, तो क्यों न अपनी आत्मसत्ता (अपनी स्वयं की सत्ता) को ही “एक स्वतन्त्र देव” मान लिया जाये।
1947 में भारत की जनसँख्या 33 करोड़ थी और मान्यता है कि हिन्दू धर्म में देवी-देवताओं की संख्या भी 33 करोड़ हैं । इसका अर्थ तो ऐसा निकलता है कि हर एक व्यक्ति का अपना एक से अधिक देवी-देवता हो सकता है। ऐसा इसलिए कहना सरल है कि 33 करोड़ जनसँख्या में केवल हिन्दू ही तो नहीं थे, और भी धर्मों के लोग होंगें।
Diversity के कारण जब सृष्टि के प्राणियों में से किसी का चेहरा किसी से भी नहीं मिलता और हर पत्ते की कटाई न्यारी है तो “अपने लिये एक स्वतन्त्र देवता का अस्तित्व” मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं है। वेदान्त दर्शन के अनुसार तो इस मान्यता का समर्थन ही होता है जिसमें सोऽहम् शिवोऽहम्, सच्चिदानंदोऽहम्, तत्त्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म के रूप में परमेश्वर की विवेचना की गई है (लेख के साथ संलग्न चित्र भी देख लें), अन्य सिद्धान्तों की तुलना में वेदान्त का यह सिद्धांत इसलिये भी अधिक उत्तम है कि इससे किसी दूसरे का पराधीन परावलम्बी नहीं होना पड़ता। अपने स्वाभिमान और स्वावलम्बन की रक्षा सहज ही हो जाती है।
जीव को ईश्वर का अंश माना जाता है। उदाहरण के रूप में लहरों पर चमकने वाले सूर्य को एक ही तत्व का प्रतिबिम्ब दिखने की बात कही जाती है। तत्त्वदर्शियों ने इसी प्रकार ब्रह्म की व्याख्या विवेचना भी की है। उपासना की दृष्टि से “आत्म दर्शन, या ईश्वर दर्शन” का यह स्वरूप सर्वोत्तम प्रतीत होता है कि मनुष्य के भीतर के परब्रह्म परमात्मा की झाँकी की जाये।
परब्रह्म की झांकी स्वयं के भीतर कैसे स्थापित की जाये?
परम पूज्य गुरुदेव ने निम्नलिखित पंक्तिओं में बहुत ही सरलता से इस प्रक्रिया का वर्णन किया है :
इस प्रक्रिया का “उपचार माध्यम” यह है कि एक बड़ा सा दर्पण सुसज्जित रूप में अपने सामने रखा जाये और उसमें जो अपने शरीर की छवि दृष्टिगोचर होती है उसे दिव्य देवालय माना जाये। उस देवालय के भीतर निराकार भगवान की स्थापना अपनी प्रखर भावना के आधार पर की जाये।
मनुष्य में कई अवगुण भी होते हैं, उन्हें ठीक उसी प्रकार माना जाये जैसा कि सूर्य, चन्द्र पर कभी-कभी ग्रहण लग जाता है। होली के हुड़दंग में भी कभी-कभी शरीर और कपड़ों पर कीचड़ या रंग पड़ जाते हैं उस समय वह कुरूप लगता है किन्तु जब साबुन लगाकर उस भद्दे रंग को साफ कर डाला जाता है तो वह पहले की तरह अपने प्राकृतिक स्वरूप में आ जाता है। दोष-दुर्गुण आत्मा के स्वभाव में नहीं हैं। वह तो सत्, चित् आनन्द स्वरूप हैं। मलीनतायें प्रकृति की विकृतियाँ हैं। मल मूत्र त्यागते समय मनुष्य गन्दा गलीज लगता है लेकिन जब वह शुद्ध होकर स्वच्छ वस्त्र धारण कर लेता है तो उसके चरण छूने, गले मिलने, गोदी में उठाने से किसी को कोई आपत्ति नहीं होती। यही अवधारण अपने दोष दुर्गुणों के सम्बन्ध में रखनी चाहिये। वे पश्चाताप, प्रायश्चित एवं रीति-नीति बदल देने पर शुद्ध किये जा सकते हैं। ऐसे तो मन्दिर की दीवारें भी ऋतु प्रभाव से मलीन हो जाती हैं। पुताई रंगाई के उपरान्त वे पहले की तरह फिर चमकने लगती हैं।
मनुष्य को चाहिए कि सामने रखे दर्पण में अपनी आकृति को देखते हुए समझना चाहिये कि यह ईंट चूने के द्वारा बनी हुई इमारत है और देवता इस इमारत के अन्दर बैठा है। वह निराकार है तो भी विश्व में, काया में सभी जगह समाया हुआ है। उसे देखने के लिए अर्जुन जैसे दिव्य चक्षुओं को प्रकाशवान बनाना पड़ता है। दूध में मक्खन समाया होता है लेकिन मक्खन की जानकारी आँखों से नहीं, विवेक से ही मिलती है, मन्थन क्रिया द्वारा पृथक किया जाता है। यही बात पांच तत्वों से बनी काया के अन्तराल में समाहित “परमात्मा के प्रतिनिधि आत्मा” की झांकी करने के रूप में सही उतरती है।
काया में आत्मा की उपस्थिति का विश्वास जमाना दर्पण देखने की क्रिया का प्रथम चरण है। द्वितीय चरण में उसे सर्वसमर्थ और स्वभावतः “पवित्र होने की भावना का विकास” करना होता है। मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है, इस सत्य की पुष्टि इसी रूप में होती है कि अपनी आत्मा यदि उच्च दृष्टिकोण मान्यताओं और भावनाओं को अपना ले तो उसके गुण-कर्म-स्वभाव में तद्नुरूप परिवर्तन आरम्भ हो जाता है। उत्कृष्ट चिन्तन, आदर्श कर्त्तव्य और शालीन व्यवहार की रीति-नीति अभ्यास में उतर जाने के उपरान्त व्यक्तित्व निखरना और प्रतिभाओं, विभूतियों के चमकने में देर नहीं लगती। पवित्रता और प्रखरता का उदय होते ही व्यक्ति सामान्य से असामान्य स्थिति में पहुँच जाता है। उसे गई गुजरी स्थिति में डाले रखने का अनाचार तो दुर्गुणों और दुष्प्रवृत्तियों का ही होता है लेकिन साथ ही यह बात भी है कि अनात्म तत्व (जो अपना न हो) से सम्बन्धित होने के कारण उन्हें धोया और हटाया जाता है।
सभी धर्मों में मान्यता है की पूजा वेदी के निकट जाने के लिए सर्वप्रथम काम स्वच्छता का है। पुजारी मन्दिर में प्रवेश करने से पूर्व स्नान करता और धुले हुए कपड़े पहनता है। फिर देवालय में प्रयुक्त होने वाले सभी उपकरणों की सफाई करता है। प्रतिभा के आवरण आच्छादनों को सुव्यवस्थित करता है। देवालयों में बुहारी लगाता है। पूजा पात्रों को मांज -धोकर चमकदार बनाता है, इन सभी क्रियाओं के बाद ही पूजा-कृत्य आरम्भ होता है।
दर्पण में अपनी आकृति देख लेना भर ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उसमें प्राण-प्रतिष्ठा कराने जैसी भावना का समावेश भी करना चाहिये और यह विश्वास गहराई तक जमाना चाहिये कि इस पंचतत्वों से बने शरीर के अन्तराल में दिव्य देवसत्ता विद्यमान है जिसकी सामर्थ्य में कोई कमी नहीं। अपनी सूझ-बूझ और प्रतिभा को निखारते हुए पुरुषार्थ पूर्वक प्रयत्न करने से ही संसार के महामानवों ने स्वयं को श्रेष्ठ, वरिष्ठ एवं सफल बनाया है। हमें भी यही करना है। सर्वप्रथम इस काया के ऊपर छाये हुए कुसंस्कारों को बारीकी से देखना, परखना है और काया की सफाई करनी है। जो दुर्गुण अब तक की आदतों में सम्मिलित रहे हैं, उन्हें गन्दगी मानकर हटाने का प्रबल प्रयास करना है। आरम्भ में यह उत्साह दर्पण देखते समय भावना क्षेत्र में उतारना होता है, संकल्प को सुदृढ़ करना होता है। बाद में तो यह परिमार्जन क्रिया जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग बन जाती है और स्वयं पर सुधार की पैनी दृष्टि रखने का अंश दिनों-दिन बढ़ता जाता है। फिर एक ऐसी स्टेज आ जाती है जब भावना इतनी प्रगाढ़ हो चुकी होती है कि दुष्प्रवृत्तियाँ स्वयं ही घटने/ग़ायब होने लगती हैं।
पूजा का तीसरा चरण है प्रतिमा की सुसज्जा– सद्गुण ही आत्मदेवता की सर्वोत्तम शोभा सज्जा है।
मनुष्य का स्वयं को भगवान का प्रतिनिधि मान लेना और स्वच्छता का उपक्रम पूरा कर लेना आवश्यक तो है, पर्याप्त नहीं। इस कमी को पूरा करने के लिये पूजा उपचार की सामग्री का समर्पण करना, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, जल, अक्षत आदि यह सभी प्रतिमा की सुसज्जा के लिये मन्दिर का वातावरण सुवासित करने के लिये किये जाते हैं। इस स्थूल प्रक्रिया का सूक्ष्म स्वरूप दर्पण साधना के साधक को करना होता है। सद्गुण ही आत्मदेवता की सर्वोत्तम शोभा सज्जा है। संयम, सदाचार, साहस, पराक्रम, पुरुषार्थ जैसी उच्च भावनाओं की दृढ़ता जैसे-जैसे अन्तराल में उपस्थित रहने लगती है, वैसे वैसे आत्मा का सौंदर्य कमल पुष्पवत् निखरने लगता है, भले ही वह शरीर की दृष्टि से काला, कुरूप, रुग्ण या जर्जर क्यों न हो।
हम सब जानते हैं कि बाहरी प्रकाश केवल बाहरी क्षेत्र को ही प्रकाशवान करता है लेकिन आन्तरिक प्रकाश अंतर्मन के क्षेत्र को प्रकाश प्रदान करता है। इस समय उस क्षेत्र की बात हो रही है जिसे आत्मा का नाम दिया गया है जो निराकार है यानि आत्मा का तो कोई आकार ही नहीं है लेकिन आत्मा की कल्पना उपनिषद्कारों ने हृदय में बताई है। अपने शरीर के लक्ष्य की दृष्टि से झाँकी करते हुये आत्मज्योति का दर्शन भाव नेत्रों से हृदय स्थान में करना चाहिये। उसका प्रकाश अंतर्मन की सभी दिव्य विभूतियों, सूक्ष्म शक्तियों को ज्योतिर्मय करता है। वे सब भी प्रकाशित हो उठती हैं और अंतर्मन देवत्व की विशेषताओं से जगमग करने लगता है।
आरम्भ में इतनी सी साधना दस मिनट में की जा सकती है और फिर उसे क्रमशः आधे घन्टे तक बढ़ाया जा सकता है। मन की चंचलता को देखते हुए ध्यान प्रक्रिया एवं भाव साधना को आरम्भ में थोड़े में करके बाद में धीरे धीरे बढ़ाने की परम्परा है। इसी परम्परा का इस प्रसंग में भी पालन होना चाहिए।
गुरुदेव बता रहे हैं कि इस प्रक्रिया में प्रयोग किया जाने वाला दर्पण किसी और कार्य में न प्रयोग किया जाये, मात्र पूजा के लिये ही प्रयुक्त किया जाये। उस पर कपड़े का पर्दा पड़ा रहने दिया जाये। उसे तभी उलटा जाना चाहिए, जब साधना करनी हो । प्रातःकाल का समय सर्वोत्तम है लेकिन जिन्हें कोई अन्य समय उपयुक्त जचता हो तो वह उसका अपना नियम बना सकते हैं।
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आज 12 युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है।चंद्रेश जी को गोल्ड मैडल प्राप्त करने की बधाई एवं सभी साथिओं का संकल्प सूची में योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1)सरविन्द कुमार-35 ,(2)संध्या कुमार-36,(3) अरुण वर्मा-27 ,(4)मंजू मिश्रा-35, (5 ) राम लखनपाल-28,(6) रेणु श्रीवास्तव-40,(7) सुमनलता-37,(8) निशा भारद्वाज-36,(9 ) नीरा त्रिखा-25 ,(10) चंद्रेश बहादुर-45,(11) पुष्पा सिंह-27,(12)वंदना कुमार-27
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।




