31 जनवरी 2024 का ज्ञानप्रसाद
Source: मनुष्य स्वयं से ही डरा हुआ क्यों है ?- पार्ट 2
कल वाले लेख में मृत्यु जैसे महत्वपूर्ण विषय एवं उससे सम्बंधित दृष्टिकोण पर चर्चा की गयी थी। आज उसी लेख को आगे बढ़ाते हुए इस विषय का समापन हो रहा है। आज के लेख में भी बहुत कुछ जानने को मिल रहा है।
अखंड ज्योति फ़रवरी 1986 में प्रकाशित दिव्य लेख का स्वाध्याय करने एवं समझने के उपरांत, बिना किसी तोड़ मरोड़ के, अपनी योग्यता अनुसार, सरलीकरण के बाद परम पूज्य गुरुदेव के विचार ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच पर प्रस्तुत हैं । गुरुकुल की आज की गुरुकक्षा में हम सभी शिष्य गुरुदेव के चरणों में समर्पित होकर इस लेख का अमृतपान करने को उत्सुक हैं।
आज के लेख की सबसे महत्वपूर्ण बात है कि जीवनलोक की यात्रा पूर्ण करके मनुष्य मृत्युलोक की ओर अग्रसर तो होता है लेकिन मृत्युलोक ही यात्रा का अंत नहीं है। सुप्रसिद्ध मनोचिकित्सक Carl Jung द्वारा 1933 में प्रकाशित पुस्तक “Modern man in search of Soul” में एक ऐसे
“रहस्यमय वातावरण” की बात की गयी है जिसका आधार आत्मा बताया गया है। डॉक्टर Jung लिखते हैं कि मनुष्य ने अपनी भौतिक क्षमता से सकारात्मक एवं नकारात्मक, दोनों की प्रकार की उपलब्धियां प्राप्त की हैं, उन्हीं उपलब्धिओं के आधार पर मनुष्य ने अपनी बुद्धि का विकास इस स्तर का कर लिया है कि अब वह आत्मा के स्तर की बात करने में सक्ष्म है। डॉक्टर Jung के अनुसार इस “रहस्यमय वातावरण” का आधार विश्व के विवेक सम्मत संगठन (उदाहरण के लिए UNO) एवं अन्य संगठनों में मनुष्य का विश्वास खोना है। मनुष्य का स्वर्ण युग का स्वप्न जिसमें सुखी, समृद्ध व आदर्श जीवन की कल्पना की गई थी, वह अब तक केवल मृग मरीचिका ही सिद्ध हुआ है, इस स्थिति का निवारण केवल वैज्ञानिक अध्यात्मवाद से ही संभव है।
शब्द सीमा आज कुछ भी कहने को Stop sign लिए खड़ी है, उचित यही होगा कि गुरुचरणों में समर्पित हुआ जाए।
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इस लेख के पार्ट 1 में व्यक्त किये गए विचारों पर अविश्वास करके उन्हें टाला भी नहीं जा सकता क्योंकि अनेक असाधारण अन्तर्ज्ञानियों ने समय-समय पर मृत्यु एवं उससे सम्बंधित तथ्यों की पुष्टि की है। अगर पुष्टि न की गयी होती तो इस प्रकार के विचारों के अस्तित्व का आज कोई अर्थ ही नहीं रहता । मृतात्माओं का किसी माध्यम से प्रकटीकरण और उनके द्वारा अनेक सार्वजनिक रूप से ज्ञात व अज्ञात असाधारण स्मृतियों को व्यक्त करने से भी इन विचारों को बल मिलता है। परामनोवैज्ञानिक (parapsychologist) इन घटनाओं में पुनर्जन्म की सम्भावनाओं को खोजने का प्रयास करते हैं।
मनुष्य जब मृत्यु यां उससे सम्बंधित कोई भी बात करता है तो उसे भय का आभास होना स्वाभाविक है। अगर इसे अज्ञान कहा जाए तो शायद ग़लत न होगा क्योंकि मानव जीवन के अन्य सभी क्रियाकलापों पर चर्चा करने से तो मनुष्य को कोई आपत्ति नहीं है तो फिर मृत्यु से जैसे अटल सत्य से आपत्ति क्यों? मृत्यु तो जीवन यात्रा का एक पड़ाव है उससे डरना कोई समझदारी नहीं है।
मनुष्य यह सोच कर डरता रहता है कि उसके भौतिक जीवन का अंत होने वाला है,उसे डर लगता है कि मृत्यु के बाद उसका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा एवं उसकी चेतना का अंत हो जाएगा। सभी सुख सम्पदाओं को भोग लेने के बाद भी अगर “मृत्यु की चिन्ता” मनुष्य को डरा रही है, उसे एकाकी बना रही है तो समझ लेना चाहिए कि यह सब अज्ञानतावश हो रहा है। मनुष्य के हाथ में हो तो वह कभी मरने की बात ही न सोचे, सदैव जीना ही चाहे। असाध्य रोगों से ग्रसित रहते हुए, कष्टमय जीवन जीते हुए भी अनेकों लोग मरने की इच्छा नहीं जताते हैं, हाँ कई बार कुछ एक लोगों को ऐसा कहते हुए अवश्य देखा गया है “ भगवान् अब इस दुनिया से उठा ले” लेकिन ऐसे बहुत ही कम हैं।
ईश्वर ने तो मनुष्य को पूरी तरह समझा बुझाकर, अपना सर्वश्रेष्ठ राजकुमार बना कर, मृत्यु के सत्य का बोध कराकर इस पृथ्वी पर भेजा था लेकिन यह “मनुष्य जीवन की दुर्गति” ही है कि जिस मिलनसार आकर्षक विश्व में वह एक सामाजिक प्राणी है, हँसी ख़ुशी भिन्न भिन्न परिस्थितिओं में जीवनयापन करता रहता है, उसका अंत इतना कारुणिक और दुःखद होता है। इस दुःखद अंत की एक और विशेषता है कि (दुर्घटना आदि को छोड़ कर) मनुष्य को मृत्यु का कड़वा घूँट अकेले ही पीना पड़ता है। उसे उसकी मृत्यु शैया से उठने में न तो कोई उसकी सहायता ही करने आता है न ही कोई स्वागत समिति उसके हाथ में हाथ देने को तत्पर रहती है। उसे नव-जीवन की देहरी का मार्गदर्शन कराने भी कोई नहीं आता। वास्तव में मनुष्य मृत्यु के भय से इतना भयभीत नहीं होता जितना कि इस संसार को,सगे सम्बन्धिओं को, ज़मीन जायदाद को अकेले ही पीछे छोड़कर जाने की चिंता से भयभीत होता है।
यहाँ यह बताना अनावश्यक न होगा कि सन्तजन जिन्हें इस संसार से किसी भी प्रकार का लगाव,मोह नहीं होता, जो एकाकी जीवन जीते हैं, उन्हें अपने वैराग्य जीवन के कारण न तो अकेलेपन का भय रहता है और न ही इस बात की चिंता सताती है कि मेरी मृत्यु के बात पीछे वालों का क्या होगा। हमारे साथिओं को परम पूज्य गुरुदेव के मथुरा विदाई के वोह संस्मरण अवश्य ही याद होंगें जब उन्होंने सब कुछ वहीँ छोड़ कर एक संत की भांति दादा गुरु के निर्देश अनुसार हरिद्वार के लिए प्रस्थान किया था, सारे मथुरा में एक ही बात की चर्चा थी कि ऐसा संत शायद सदियों में भी न देखा हो।
मनुष्य अपने अस्तित्व की समाप्ति और अकेलेपन की चिन्ता पर इस आशा और विश्वास के आधार पर विजय प्राप्त कर सकता है कि मृत्यु के पश्चात् भी उसका अस्तित्व किसी न किसी रूप में अवश्य ही जीवित रहेगा। मृत्यु से तो केवल उसके हाड़-माँस के शरीर का ही नाश होगा, इस शरीर से मुक्त होने पर वह एक “नये स्वतंत्र जीवन” की राह पर चल सकेगा। इंद्रियों के सीमित बन्धनों से मुक्त होकर अन्ततः मनुष्य अपनी विशुद्ध आत्मा को जान लेता है, वह अपने शारीरिक बन्धनों की सीमा से परे भारहीन होकर अपनी पूर्णता की सम्भावना का अनुभव करता है।
मनुष्य ने इस आशा को बल देने का और इस विश्वास में सुदृढ़ता लाने का प्रयास किया है किन्तु इस गूढ़ विषय को समझने की क्षमता के अभाव में और इस पर चिन्तन करने में अपने को अयोग्य मानकर उसने ईश्वर का मानवीकरण कर लिया है। उसने ईश्वर के मानवाकारी (मानव जैसा) काल्पनिक रूप की रचना कर ली है ताकि उसकी शरण में पहुंचकर वह अनश्वर बना रह सके। मनुष्य ने ही एक ऐसे स्वर्गलोक की भी कल्पना की है जहाँ उसकी आत्मा विश्राम करने के अतिरिक्त उसे देवदूत, सन्त जैसे मित्रों का साथ भी प्राप्त है । उसने एक काल्पनिक नरकलोक की भी सृष्टि की है जहाँ बुरे कर्मों के लिये यथायोग्य यातनाओं की भी व्यवस्था है ।
वास्तव में हमारी इस ज्ञात सृष्टि के विपरीत “रहस्यमय वातावरण” की एक और सृष्टि भी है। इस सृष्टि के रहस्य अचानक प्रकट हो जाने से मनुष्य के मन में भय और भ्रम दोनों का ही संचार होता है।
आधुनिक सभ्यता के इस युग में अब मनुष्य ने अपने अंतर्मन में उठ रहे ऊर्जा प्रवाह को अत्यन्त गम्भीरता से लेना आरम्भ किया है। Carl Jung नामक स्वीडन के एक मनोचिकित्सक ने 1933 में एक पुस्तक की रचना की जिसका टाइटल है “Modern man in search of Soul”, अब तक इस पुस्तक के कितने ही संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इस पुस्तक में Jung लिखते हैं कि आधुनिक मानव ने मनोविज्ञान को समझने में बहुत श्रम और प्रयास किये हैं और अब वह अतीन्द्रिय क्षमताओं और उनकी शक्तियों को स्वीकार करने से इन्कार नहीं करता। हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि अचेतन की उत्तेजित क्रियाओं में क्रियाशील शक्तियाँ होती हैं। Jung की इन स्वीकारोक्तियों से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि मनुष्य ने अब इस दिशा में सोचने और समझने का प्रयास किया है कि अतीन्द्रिय क्षमताएं कहीं बाहर से नहीं वरन् मनुष्य के इस भौतिक शरीर के भीतर से ही प्रस्फुटित होती हैं।
आज के विश्व की स्थिति जिसमें युद्ध, युद्ध की धमकियां, संधियों का टूटना, सर्वोच्च अन्तर्राष्ट्रीय और राजनैतिक स्तर पर किये गये वायदों से मुकरना, सच्चे व निष्कपट नेताओं का अभाव आदि समस्याओं के कारण आज का मानव अपनी दैहिक, आर्थिक व साँस्कृतिक सुरक्षा के लिए बड़ा शंकित हो उठा है। आधुनिकरण के साथ साथ मनुष्य ने जिस मानवीय सुहृदयता की आशा की थी वह बालू से तेल प्राप्त करने के समान असफल ही सिद्ध हुई है, अपनी इस घोर असफलता से उसे बहुत निराश होना पड़ा है। Jung ने इसे इन शब्दों में व्यक्त किया है।
“मनुष्य ने अब विश्व के किसी विवेक सम्मत संगठन (उदाहरण के लिए UNO) के गठन की सम्भावनाओं में अपना विश्वास खो दिया है। स्वर्ण युग का हमारा पुराना स्वप्न जिसमें सुखी, समृद्ध व आदर्श जीवन की कल्पना की गई थी, वह अब केवल मृग मरीचिका ही सिद्ध हुआ है। भावी राजनीति और भावी विश्व के सुधार के प्रति सशंकित आधुनिक मानव को अपने अंदर सुप्त अलौकिक क्षमताओं को खोजकर उन्हें जागृत करने को बाध्य किया है, जिससे वह ऐसी सृष्टि को आकार देने में समर्थ हो सके, जिसमें अपने भविष्य का वह स्वयं निर्माण और नियन्त्रण कर सकें। अब हम ऐसी स्थिति में पहुँच चुके हैं जहाँ से मानसिक या अतीन्द्रिय सामर्थ्य की क्रियाशील शक्तियों के अस्तित्व को नकारना सम्भव नहीं है और यही कारण है कि अब अति असामान्य, अनोखी अतीन्द्रिय क्षमता, दिव्य दृष्टि, मनोगति, अज्ञात स्मृति, पुनर्जन्म आदि के मूल्याँकन ने इस समय को पूर्वकाल की अपेक्षा और कहीं अधिक विशिष्ट बना दिया है।”
Jung ने आगे लिखा है कि आधुनिक मानव अब केवल विश्वास के आधार पर ही किसी धर्म सिद्धान्त को स्वीकार करने वाला नहीं है। वह किसी धर्म के मूल्यों को तब ही स्वीकार करेगा जबकि वह उसके स्वयं के आत्मिक जीवन के गहन अनुभवों से मेल खाने की पात्रता रख सके।
इस सम्बन्ध में अब दो राय नहीं रह गई हैं कि मनुष्य के जीवन में आत्मिक तथ्यों ने एक विशिष्ट स्थान बना लिया है, यह उसकी इस ओर की अभिरुचि में अभिवृद्धि से स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है, मनुष्य ने अपने भौतिक ज्ञान का और उसके द्वारा प्राप्त शक्तियों का उपयोग और दुरुपयोग करके उसे दोनों प्रकार से परखा है किन्तु उनके द्वारा न तो उसे शान्ति और न सुरक्षा ही मिल सकी है। अब वह उस प्रतीयमान, पराभौतिक परमसत्ता की शरण में जाकर आशा करता है कि वह अपनी प्रवीणता से ऐसे वातावरण की सृष्टि करेगा जिससे अविश्वास और अनिश्चितता का वातावरण समाप्त होकर रहेगा।
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आज 14 युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है। सरविन्द जी को गोल्ड मैडल प्राप्त करने की बधाई एवं सभी साथिओं का संकल्प सूची में योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1)सरविन्द कुमार-54,(2)संध्या कुमार-33,(3) अरुण वर्मा-35,(4)मंजू मिश्रा-28, (5 ) सुजाता उपाध्याय-42,(6) रेणु श्रीवास्तव-30 ,(7) सुमनलता-35 ,(8) निशा भारद्वाज-31 ,(9 ) नीरा त्रिखा-25 ,(10) चंद्रेश बहादुर-28 ,(11) पुष्पा सिंह-24,(12)वंदना कुमार-25 , (13)विदुषी बंता-25,(14 )राम लखनपाल-25
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।
