30 जनवरी 2024 का ज्ञानप्रसाद
Source:मनुष्य स्वयं से ही डरा हुआ क्यों है ?
कल वाले लेख की ओपनिंग पंक्तियों में लिखा था कि परम पूज्य गुरुदेव के अध्यात्मिक जन्म दिवस के लिए स्वाध्याय करते समय कुछ लेखों ने हमें इतना आकर्षित किया था कि इन लेखों का परिवार के मंच पर, गुरुकक्षा में गुरुदेव के चरणों में ही अध्ययन किया जाए तो उचित रहेगा।
इन्हीं स्पेशल लेखों की शृंखला के दुसरे लेख का पार्ट 1 आज प्रस्तुत किया जा रहा है, फरवरी 1986 की अखंड ज्योति में प्रकाशित इस लेख का शीर्षक ही इतना आकर्षक है तो सारा लेख क्या कुछ कहने वाला है, साथी स्वयं ही समझ जाएंगें क्योंकि हमारे परिवार में बहुत से ज्ञानी एवं शिक्षित सदस्य हैं जिन पर गर्व करना हमारा सौभाग्य है।
कल इसी शीर्षक का दूसरा पार्ट प्रस्तुत करके समापन तो हो ही जायेगा लेकिन परसों वाला लेख इससे भी अधिक आकर्षक है।
आदरणीय रेणु बहिन जी,आदरणीय सरविन्द जी एवं आदरणीय अरुण वर्मा जी का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं जिन्होंने अपनी अनुभूतियाँ कल ही भेज कर हमारे निवेदन का सम्मान किया है। आदरणीय सुमनलता बहिन जी अपने कमैंट्स और विचारों के माध्यम से अनेकों को प्रेरित कर चुकी हैं/कर रही हैं लेकिन बहिन जी की पूर्व आज्ञा से एक निवेदन कर रहे हैं: बहिन जी स्वयं ज्ञान का भंडार हैं अगर हमारे लिए कुछ लिखें तो बहुत कृपा होगी -इसे हमारी व्यक्तिगत अभिलाषा ही समझ लें तो हमारा सौभाग्य ही होगा ।
कुमोदनी बहिन जी आजकल नियमितता से व्हाट्सप्प पर thumbs up लगाकर उपस्थिति दर्ज करा रही हैं।
मैरिज एनिवर्सरी पर दी गयी सभी शुभकामनाओं के लिए ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं
इन्हीं शब्दों के साथ, शांतिपाठ करते हुए गुरुकक्षा की ओर प्रस्थान करते हैं।
ॐ असतो मा सद्गमय ।तमसो मा ज्योतिर्गमय ।मृत्योर्मा अमृतं गमय ।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अर्थात
हे प्रभु, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो ।मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो ।
मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो ॥
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मनुष्य जीवन में मृत्यु जैसे अटल सत्य की समय-समय पर पुष्टि की गयी है। मृत्यु एक ऐसा अटल सत्य है जिसे कभी भी नकारा नहीं जा सकता। मनुष्य को मृत्यु विष जैसी लगती है जिसके भय से एवं भौतिक जीवन के अस्तित्व की समाप्ति आदि से सदैव ही भय लगता है। मनुष्य की चेतना के अन्त की चिन्ता उसे बिल्कुल अकेला बना देती है। यदि कहा जाये कि मानव एक प्रोसेस के अनुसार जीवन त्याग कर मृत्यु का वरण करता है तो न तो इसे उपयुक्त ही कहा जाएगा और न ही तर्क संगत। इसका कारण यह है कि हममें से अनेक लोग असाध्य रोगों से ग्रसित रहते हुए, कष्टमय जीवन जीते हुए भी अपनी इच्छा से मरना नहीं चाहते । यह तो मनुष्य जीवन की दुर्गति ही है कि जिस मिलनसार,आकर्षक विश्व में वह एक सामाजिक प्राणी के रूप में जीवनयापन करता रहता है, उस मिलनसार जगत में से उसका इतना कारुणिक और दुःखद अन्त होता है जहाँ से उसे अकेले ही प्रस्थान करना पड़ता है। मनुष्य की स्थिति तो इतनी करुणामय और बेबस होती है कि उसे उसकी मृत्यु शैया से उठने में न तो कोई उसकी सहायता ही करने आता है और न ही नए जगत में कोई स्वागत समिति उसके हाथ में हाथ देने को तत्पर रहती है। उसे नव-जीवन की देहरी का मार्गदर्शन कराने भी कोई नहीं आता। वास्तविक सच्चाई यही है कि मनुष्य मृत्यु के भय से इतना भयभीत नहीं होता जितना कि इस संसार को, भरे-पूरे परिवार को अकेले ही छोड़कर जाने के मोह से ग्रसित होकर चिंतित होता है। जिस मनुष्य ने परिवार का समस्त सुख सम्पदा, बेटे, बहुएं,नाती, पोते आदि का सुख भोग लिया हो उसकी भी अंतिम इच्छा यही रहती है कि जो एक नाती/पोता अविवाहित है उसका भी विवाह देख लेता तो कितना अच्छा होता, स्वयं चाहे अनेकों बीमारीओं से ग्रस्त मृत्यु शैय्या पर पड़ा हो, उसने भी शायद ही कभी ईश्वर से इस नरकरूपी जीवन से मुक्ति के लिए प्रार्थना की होगी।
यही है मनुष्य का सबसे बड़ा भय जिसका जन्म अज्ञानता से, मोह से होता है।
मनुष्य के जन्म का प्रकटीकरण होते ही वह एक निश्चित “समय की परिधि” में बंध जाता है और उसी समय से ही उसका अनवरत नाश होता रहता है। कुछ वर्षों पूर्व तक ऐसी मान्यता थी कि जब तक “देह का विकास” होता रहता है, तब तक उसका नाश नहीं होता लेकिन ऐसा नहीं है। हमारे शरीर का नित्य प्रतिदिन नाश होता रहता है और यह नाश हस्पताल के पालने में पहले दिन से ही आरम्भ हो जाता है।
लाखों कोशिकाएँ प्रतिदिन नष्ट होती रहती हैं और लाखों ही नई बनती भी रहती हैं। वैज्ञानिकों के कठिन परिश्रम एवं शोध के आधार पर यह कहा जाता है कि मानव शरीर में लगभग 30 ट्रिलियन ( 30,000,000,000,000) कोशिकाएं होती हैं , एक सेकंड में 110 से 150 लाख कोशिकाओं का नाश होता है और न जाने कितनी ही नई कोशिकाओं का उत्पादन होता रहता है। अगर उत्पादन न हो, केवल नाश ही होता रहे तो मानव के अस्तित्व पर अनेकों प्रश्नचिन्ह खड़े हो जायेंगें।
इस नाश-उत्पादन की अनवरत प्रक्रिया के बावजूद मानव के जन्म से ही उसका भौतिक शरीर एक कठोर नियति द्वारा, निर्धारित नियम अनुसार, मृत्यु की ओर अग्रसर होता ही रहता है। जैसे-जैसे मनुष्य की आयु में वृद्धि होती जाती है, उसे इस रहस्य का स्पष्ट रूप से बोध होता जाता है।
क्या कोई भी मनुष्य इस स्थिति को, मृत्यु के अटल सत्य को, मनुष्य के अस्तित्व की दुर्गति कह सकता है ? कभी नहीं। जन्म और मृत्यु की जिस “सीमित स्थिति” में मनुष्य स्वयं को पाता है, वह उसे बिल्कुल ही नहीं सुहाती क्योंकि मृत्यु किसे अच्छी लगेगी। वह धीरे-धीरे समझने लगता है कि जिस “सुपरिचित सृष्टि” में वह अनेकों वर्षों से सुखी/ दुःखी, हंसी/मज़ाक की स्थिति में जीवनयापन करता रहा है, यह सुपरिचित सृष्टि एक अटल नियम के अंतर्गत निश्चित रूप से अलग होकर ही रहेगी। ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कलाकृति (मानव) एक असहाय प्राणी की भांति, इस आत्मचेतन जीवन को अन्ततः समाप्त होते हुए, बिना किसी प्रकार का अवरोध उत्पन्न किए,असहाय,बेबस, दीन-हीन बने हुए देखती रहती है और एक दिन वोह भी आता है जब उसके प्राण पखेरू उड़ जाते हैं।
देखा जाए तो मनुष्य की स्थिति इतनी दयनीय होती है कि अगर उसकी तुलना पिंजरे में कैद पक्षी से की जाए तो शायद कुछ भी अनुचित न लगे। मनुष्य अपने आसपास के वातावरण की “सृष्टि के बन्दीगृह” में कैद है। इस कैदखाने का एक सजग/दुष्ट पहरेदार है जिसका नाम “मृत्यु” है। मनुष्य इस कैदखाने में न केवल एक बंदी की तरह रहता है बल्कि अपनी भावनाशील प्रवृति होने के कारण मोह,माया,ममता,लालच आदि के बंधनों में भी लगातार बंधा रहता है, ढिंढोरा तो सभी के आगे पीटता फिरता है कि I am concerned about myself only, मुझे कोई मोह माया, आसक्ति आदि नहीं है लेकिन जब भी मौका मिले, चोरों की भांति इन इन्द्रियों का अपहरण करने से बाज़ नहीं आता, बेचारा समाजिक प्राणी जो ठहरा, कहाँ तक अपने ऊपर अंकुश लगाएगा, रहना तो इसी समाज में है, नहीं तो समाज वाले disown कर देंगे, फारगति दे देंगें।
इस स्थिति को सपोर्ट करता हुआ गीत जिसे कवि प्रदीप की लेखनी और वाणी ने सुशोभित किया है, आज के लेख का प्रज्ञागीत ही समझा जाए तो अनुचित नहीं होगा। 1957 में रिलीज़ हुई बॉलीवुड मूवी “नाग मणि” का यह प्रेरणादायक गीत अनेकों बार रीमिक्स हुआ लेकिन जो ओरिजिनल है उसकी किसी से तुलना नहीं की जा सकती। कवि प्रदीप की जितनी भी सराहना की जाय कम ही रहेगी।
मनुष्य को सजीव व निर्जीव ( Living और non living) के बीच की पतली सी लाइन का ज्ञान तो है, उसे इस तथ्य का भी ज्ञान है कि जीवन और मृत्यु के बीच कुछ क्षण का ही फासला है। अक्सर कहा जाता है: अभी अभी तो बातचीत चल रही थी-सजीव थे, लेकिन एकदम निर्जीव हो गए। पतली सी लाइन जिसकी चर्चा इन पंक्तियों में की जा रही है ,मृत्यु की ही प्रतीक है। लगभग सभी मनुष्यों को जीवन की क्षणभंगुरता (पलक झपकते ही उड़ जाना), जीवन के सत्य का बोध तो होता ही है, लेकिन अधिकतर मनुष्यों की प्रवृति ऐसी है कि किसी भी प्रकार के सद्विचारों द्वारा पाटा जाना सम्भव नहीं होता है। यह स्थिति मनुष्य की ज्ञानहीनता को ही प्रकट करती है।
मनुष्य द्वारा स्वयं create की गयी परिस्थितियों को पूरी तरह से नियन्त्रित करने के प्रयास में मानव को अनेकों शक्तिशाली अवरोधों (Speed breakers) का सामना करना पड़ता है, जिनसे उसे अपने सीमित जीवन एवं उसकी क्षणभंगुरता का बोध होता है। वह कभी किसी विशिष्ट दबाव के सामने घुटने न भी टेके, फिर भी उसे अस्तित्ववादियों के अनुसार इस तथ्य के प्रति कि जीवन क्षणभंगुर है, उसे अपनी अयोग्यता को स्वीकार करना ही होगा। यह स्थिति प्रायः अपराध और मृत्यु के समय देखी जा सकती है, जब मनुष्य सब कुछ मानने को बाधित होता है। अदालत के कठघरे में, जज के समक्ष अपराधी सब कुछ मानने को तैयार होता है, मृत्यु के समय तो “राम नाम सत्य है” की ही धुन गायी जाती है, मृतक तो सुन नहीं सकता , उसके संगी साथी गा तो अवश्य ही रहे होते हैं लेकिन केवल शमशान भूमि तक ही, घर आते ही फिर वही इन्द्रियों का बंधन और मनुष्य उसी पिंजरे में बंद जिसका सजग प्रहरी “मृत्यु” है।
अस्तित्व विज्ञानिओं ने मानव की दुःखती रग पर हाथ रखकर पहिचान लिया है और बलपूर्वक कहा है कि मनुष्य चाहे अपने मार्ग के अवरोधों से लोहा लेने में सफल हो भी जावे, किन्तु उसकी अन्तिम परिणति, उसकी सुनिश्चित मृत्यु को टाला नहीं जा सकता। मृत्यु के पश्चात एक शून्य? एक ऐसी अभेद्य दीवार मानव बुद्धि के सम्मुख एक प्रश्न चिन्ह के रूप में खड़ी है। जीवन के सम्पूर्ण ढांचे पर से मृत्यु का अवलोकन करने पर वह मानव के उच्च मनोभावों का एक संकटकालीन क्षण प्रतीत होता है, जब मनुष्य एकान्त में अपनी स्वयं की देह रूपी कारागृह की दीवारों पर दस्तक देता है और प्रत्युत्तर के अभाव में, निराशा की नीरवता में वह उन मित्रों और प्रिय स्वजनों को याद करता है जिन्होंने ऐसी ही असहाय स्थिति में उसके सामने ही देखते-देखते उस शून्य को भरने के लिए अन्तिम प्रयाण किया था और वह उनसे पुनर्मिलन की सुखद कल्पना तरंगों में खो जाता है।
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आज 10 युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है। 40 और उससे अधिक अंक प्राप्त करने वाले साथिओं को गोल्ड मैडल प्राप्त करने की बधाई एवं सभी साथिओं का संकल्प सूची में योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1)सरविन्द कुमार-34 ,(2)संध्या कुमार-38 ,(3 ) अरुण वर्मा-46 ,(4)मंजू मिश्रा-31 , (5 ) सुजाता उपाध्याय-41 ,(6) रेणु श्रीवास्तव-45 ,(7) सुमनलता-34,(8)नीरा त्रिखा-46 ,(9 )वंदना कुमार-40 , (10) राम लखनपाल-26