29 जनवरी 2024 का ज्ञानप्रसाद
Source: जीवन को वातानुकूलित बनाने की प्रक्रिया क्या है ?
सप्ताह के प्रथम दिन सोमवार को सबसे पहले हम गुरुकक्षा के सभी शिष्यों से हाथ जोड़कर क्षमाप्रार्थी हैं कि आज आरम्भ होने वाली लेख श्रृंखला को शिफ्ट करना पड़ रहा है। परम पूज्य गुरुदेव के आध्यात्मिक जन्म दिवस के लिए स्वध्याय करते हुए हमारी दृष्टि कुछ ऐसे लेखों पर पड़ी जिसने हमें आकर्षित सा कर दिया, उसी समय संकल्प लिया कि अकेले पढ़ने के बजाए गुरुकक्षा में, गुरुदेव के चरणों में, सामूहिक पढ़ा जाए तो उचित होगा। यह लेख अखंड ज्योति जनवरी 1986 अंक पर आधारित है।
आधुनिक समय में शायद ही कोई ऐसा मनुष्य होगा जिसे आवेश और अवसाद ने प्रभावित न किया हो और कभी न कभी उसे डॉक्टर की आवश्यकता न पड़ी हो। इसी गंभीर स्थिति से निवारण करवा रहा है आज का यह ज्ञानप्रसाद लेख, लेख का शीर्षक ही अपने में आकर्षक है।
ॐ असतो मा सद्गमय ।तमसो मा ज्योतिर्गमय ।मृत्योर्मा अमृतं गमय ।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अर्थात
हे प्रभु, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो ।मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो ।
मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो ॥
आज 29 जनवरी वाले दिन हमारी मैरिज एनिवर्सरी है और हम दोनों, साथिओं से आशीर्वाद की आशा कर रहे हैं।
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अगर हम अपने मस्तिष्क पर ज़ोर डालें तो वातानुकूलित का अर्थ वातावरण के अनुकूल होना चाहिए। वातानुकूलित घर या रेल के डिब्बे इत्यादि इसलिए बनाए जाते हैं कि उनमें निवास करने वालों/यात्रा करने वालों पर मौसम का यानि सर्दी-गर्मी का अनावश्यक दबाव न पड़े और उनकी यात्रा सुखद हो। चाहे ऋतु के कारण बेआरामी हो या किसी अन्य कारण से, एक सीमा तक ही सहन होती है,अति की स्थिति में भी किसी प्रकार जिया तो जा सकता है लेकिन उस स्थिति में काम करना उतना उत्साहपूर्ण नहीं हो सकता, जितना कि होना चाहिए अर्थात मनुष्य की कार्यक्षमता कम हो जाती है। वैसे तो शिकायत करना मनुष्य की फितरत है, जिस समय हम यह पंक्तियाँ लिख रहे हैं भारत में शिशिर ऋतू चल रही है, हर किसी के होंठों पर एक ही बात है, “बहुत सर्दी है” कुछ ही समय बाद “बहुत गर्मी है” शब्द इनका स्थान ले लेंगें, धन्य हैं ईश्वर जो मनुष्य की शिकायतें सुनते रहते हैं।
परम पूज्य गुरुदेव ने इस लेख की रचना आज से लगभग 38 वर्ष पूर्व जनवरी 1986 की अखंड ज्योति में की थी, इन 38 वर्षों में कितना कुछ बदल गया है, कितना विकास हो गया है,सुख सुविधाओं की दृष्टि से मनुष्य को क्या कुछ उपलब्ध हो गया है, यह हम सब देख ही रहे हैं।
गुरुदेव वातानुकूलित का उदाहरण देकर हमें संतुलन का महत्व समझा रहे हैं। संतुलन बनाए रखना, “वातानुकूलित घर, Centrally-cooled.centrally-heated” मे रहने जैसा है, जिसमें व्यक्ति सुखी और संतुष्ट रहता है, संतुष्ट होने के कारण काम का अनुपात एवं स्तर भी बढ़ जाता है।
बेचैनी मात्र ऋतु के कारण ही नहीं, अन्य कारणों से भी होती है। ईश्वर ने मनुष्य के शरीर की रचना इस प्रकार की है विभिन्न परिस्थितिओं में उसका Body temperature 98.5 ही रहता है लेकिन तापमान बढ़ने पर कई बार ज्वर आ ही जाता है और शीत ऋतू में ठंड लग ही जाती है।मौसम अनुकूल न होने के कारण कमज़ोर लोगों के ब्लड प्रेशर का कम होना /बढ़ना भी एक विपत्ति बन जाता है । इसी प्रकार मन पर आवेश का छा जाना, अवसाद के कारण निराश हो जाना ऐसी स्थिति है, जिसमें व्यक्ति “असंतुलित” हो जाता है। जीवन का अंसतुलन ही तनाव को जन्म देता है। तनाव दो प्रकार के होते हैं : एक आवेशजन्य (क्रोध के कारण), दूसरे अवसादजन्य( Stress के कारण)। क्रोध जैसी स्थिति को आवेश कहते है और निराशा/ निष्क्रियता को अवसाद। यह दोनों ही असंतुलन मनुष्य के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को गड़बड़ा देते है और एक ऐसी अस्वाभाविक स्थिति बना देते हैं, जिसमें कुछ भी सोचते-समझते करते धरते नहीं बनता। ऐसे मनुष्य की गणना एक प्रकार के मरीजों में होती है, जो स्वयं भी हैरान रहते हैं और संपर्क में आने वालों को भी हैरान करते हैं ।
संसार की बनावट ऐसी है जिसमें परिस्थितियों का क्रम ज्वार-भाटे जैसा चलता है। कभी अनुकूलता आ जाती है तो कभी प्रतिकूलता का सामना करना पड़ता है। ऐसे अवसरों पर हलके, उथले, ओछे, बचकाने लोग उखड़ जाते हैं लेकिन जो स्ट्रांग हैं , चट्टान की तरह अपनी जगह पर जमे रहते हैं, वे जीवन के उतार-चढ़ावों को खिलाड़ी की दृष्टि से देखते रहते हैं , जिसमें कभी जीतना/ कभी हारना पड़ता है।
असंतुलन एक ऐसा रोग है जो प्रत्यक्षतः तो नहीं दिख पड़ता लेकिन भीतर ही भीतर मरोड़कर रख देता है । यह प्रभाव न केवल स्वास्थ्य पर बल्कि क्रियाकलापों पर भी पड़ता है। सोचना और करना यदि मनोयोगपूर्वक न हो तो उसके सही होने की आशा नहीं की जा सकती। जो मन में उद्विग्न है, वह आज नहीं तो कल बीमार होकर ही रहेगा।
परिस्थितियाँ सदा अनुकूल ही रहें, यह हो नहीं सकता। जब परिवर्तन संसार का नियम है तो सदैव अनुकूलता की ही आशा करना व्यर्थ है। यह हो सकता है कि कटीली राह पर चलना पड़े तो जूते का प्रबंध करे और तेज धूप पड़ रही हो तो छाता लगाकर चले। मनःस्थिति गड़बड़ाने से पूर्व हमें ऐसा अभ्यास कर लेना चाहिए कि बुरा समय आने पर अपना बचाव हो सके।
अनुपयुक्त स्थिति के दबाव को कम करने के लिए हमें “शिथिलीकरण” का अभ्यास करना चाहिए। शिथिलीकरण साधना अर्धनिद्रा का काम दे जाती है और थकान को घटाती है। यो चिंतामुक्ति तो सर्वथा तभी मिलती है, जब गहरी नींद आए या मृत्यु इस संसार से उठा ले ।
चिंता और असंतुलन से छुटकारा पाने के लिए गुरुदेव द्वारा सुझाए गए दो अभ्यास बहुत ही लाभदायक हैं :
पहले अभ्यास के अंतर्गत मनुष्य को चाहिए कि वह अपने दैनिक व्यायामों, योगाभ्यासों में शिथिलीकरण भी सम्मिलित कर ले । शरीर को शिथिल और मन को नींद की अवस्था में ले जाने की क्रिया कठिन नहीं है। कोमल बिस्तर पर लेटकर अपने को रुई जैसा हलका या नींद अनुभव करने से यह स्थिति कुछ दिन के अभ्यास से बन जाती है कि अपने को संकल्पबल के सहारे अर्धनिद्रित स्थिति में ले जाया जाए।
दूसरा अभ्यास यह है कि “मन, वचन और शरीर” को एक ही काम पर एकाग्र किया जाए। इन तीनों शक्तिओं को बिखरने न दिया जाए। एकाग्रता यानि Concentration की महिमा सभी बताते है और उसके प्रयोग भी सुझाते हैं लेकिन सबसे सरल और उपयोगी तरीका यह है कि हाथ में लिए हुए काम को सबसे महत्वपूर्ण माना जाए और उसे सही रीति से करने को “प्रतिष्ठा का प्रश्न” बनाया जाए। जो पूरे मन और पूरे श्रम से काम करता है, उसकी वाणी भी इधर-उधर की बात नहीं करती । शाक्तियों को बिखेरने में, इधर-उधर की बेतुकी बातें करना एक बहुत बड़ा दुर्गुण है। इसके कारण हर कार्य अधूरा रह जाता है। बचपन से माता पिता यही शिक्षा देते आए हैं कि भोजन करते समय बातें नहीं करनी चाहिए।जिस प्रकार भोजन एवं पूजा पाठ के समय मौन व्रत रखा जाता है उसी प्रकार अपने हर छोटे-बड़े काम में तत्परता और तन्मयता बरतनी चाहिए और बोलने पर कण्ट्रोल रखना चाहिए।
कई बार मनुष्य को असहिष्णुता (Intolerance) और अतिवादिता (Extremism) भी तिल का ताड़ बनाती है। तिल का ताड़ बनाना एक बहुचर्चित मुहावरा है जिसका अर्थ होता है हर छोटी-सी कठिनाई, हानि या असफलता को बड़ा बनाकर बयान करना। यह एक ऐसी स्थिति होती हैजिसमें मनुष्य स्वयं तो चिंतित और अपसेट होता ही है, दूसरों से भी आशा करता है कि बजाए कोई समाधान बताने के, दूसरे उसके साथ सिर पकड़ कर बैठ जाएँ। उस कुटेव का उपचार यह है कि सदा हँसने-मुस्काने की आदत डाली जाए। मुस्कान सबसे बड़ा सौंदर्य-प्रसाधन (Cosmetic) है। इसको अपनाते ही कुरूप भी सुंदर लगने लगता है और मन का बोझ उतर जाता है। हल्की -फुल्की, हँसती-हँसाती जिंदगी जीना एक उच्चस्तरीय कला है। इसे नित्यप्रति के अभ्यास में सम्मिलित करके स्वयं को निश्चिंत रह कर जीवनयापन करने की आदत डालनी चाहिए। छोटी सी बात के लिए आसमान सिर पर उठा लेना कोई समझदारी नहीं है।
कुछ लोग कुविचारों, कुकर्मों और मनोरोगों से ग्रसित होते हैं और फलतः उन्हें पग-पग पर असहयोग और अपमान का सामना करना पड़ता है। ऐसे लोगों के लिए उचित है कि सफल- सम्मानित मनुष्यों के गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता का चिंतन किया करें और अपने को उसी ढाँचे में ढालने का प्रयत्न किया करें। आत्मसुधार का, आत्मनिरीक्षण का क्रम चल पड़ने पर व्यक्तित्व निखरने और सुधरने लगता है।
“गुण, कर्म, स्वभाव में शालीनता की अभिवृद्धि करते चलने वाला व्यक्ति आमतौर से मनस्वी होता है. संतुष्ट रहता और सम्मान पाता है।”
कुछ व्यक्ति लोभ, मोह में अत्यधिक व्यस्त रहते हैं और ठाट-बाट बनाने की सनक में इतने डूबे रहते हैं कि आत्मिक आवश्यकता, मानवी गरिमा और सामयिक कर्त्तव्यों को एक प्रकार से भुला ही देते हैं । ऐसे लोगों को आत्मा और शरीर की भिन्नता का अभ्यास करना चाहिए, इस विषय पर हम कितनी बार चर्चा कर चुके हैं।
गुरुदेव ने बहुचर्चित रचना की है जिसका सार हम निम्नलिखित प्रस्तुत का रहे हैं :
प्रातःकाल उठते ही “एक दिन की जिंदगी बालजन्म” मिलने की भावना करनी चाहिए और साथ ही सोचना चाहिए कि ईश्वर की “सर्वोपरि महत्त्व की कलाकृति” उसे किस शर्त पर प्रदान हुई है। जीवन का स्वरूप, लक्ष्य और सदुपयोग क्या है? इसी निष्कर्ष के आधार पर ऐसी दिनचर्या बनानी चाहिए, जिसमे शरीर यात्रा के अतिरिक्त, दैनिक कर्तव्यों के अतिरिक्त आत्मा के उत्कर्ष, लोक-मंगल में प्रवृत्ति और ईश्वरीय इच्छा की पूर्ति होती रहे।
रात को सोते समय “निद्रा को मरण” की रिहर्सल मानते हुए संकल्प लेना चाहिए कि जो-जो भूलें शरीर के साथ पक्षपात और आत्मा के साथ अन्याय के रूप में आज हुईं वे भविष्य में न होने पाएँगी। इस संध्यावंदन का निश्चित प्रभाव यह होता है कि “जीवन संपदा के दुरुपयोग” पर कण्ट्रोल लगता और वह प्रयास चल पड़ता है, जिससे जीवन को सार्थक बनाया जा सके।
हर दिन अपनी सुविधा अनुसार आत्मनिरीक्षण, आत्मसुरक्षा,आत्मनिर्माण और आत्मविकास के चारों विषयों पर गंभीर विचार करना चाहिए, भौतिक क्षेत्र में आगे बढ़ने और आत्मिक क्षेत्र में ऊँचा उठने की योजना बनानी चाहिए।
महानता के पक्षधर कार्य इसलिए नहीं हो पाते कि शाक्तियों का अधिकांश भाग असंयम के छिद्रों में होकर बह जाता है और कुछ उत्कृष्ट कर सकने लायक सामर्थ्य बचती ही नहीं है। आवश्यक है कि इंद्रिय संयम यानि इन्द्रियों का कण्ट्रोल, अर्थ संयम यानि धन आदि का कण्ट्रोल, समय संयम यानि समय का सदुपयोग और विचार संयम पर निरंतर ध्यान रखा जाए। और इस प्रकार बचे हुए वैभव को उन कार्यों में लगाया जाए, जिनसे आत्मकल्याण और लोकमंगल के दोनों प्रयोजन सधते है।
जीवन को वातानुकूलित बनाने की यही प्रक्रिया है।
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आज 15 युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है। सरविन्द जी, संध्या जी और रेणु जी, तीनों को गोल्ड मैडल प्राप्त करने की बधाई एवं सभी साथिओं का संकल्प सूची में योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1)सरविन्द कुमार-58 ,(2)संध्या कुमार-58 ,(3 ) अरुण वर्मा-32 ,(4)मंजू मिश्रा-25, (5 ) सुजाता उपाध्याय-40,(6) रेणु श्रीवास्तव-54,(7) सुमनलता-34,(8) निशा भारद्वाज-24,(9 ) नीरा त्रिखा-30,(10) चंद्रेश बहादुर-37,(11) पुष्पा सिंह-29 ,(12)वंदना कुमार-26, (13) प्रेरणा कुमारी-34 ,(14 )राम लखनपाल-29 ,(15 ) सुधा बर्णवाल-24
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।
