24 जनवरी 2024 का ज्ञानप्रसाद
एक दुसरे के प्रति केमिस्ट्री एक होने की आधुनिक युग में बहुत चर्चा होती रहती है। जब हमने इस शब्द को पहली बार सुना तो केमिस्ट्री के क्षेत्र में वर्षों का अध्ययन होने के कारण सिर खुजलाना स्वाभाविक था। फिर क्या था- केमिस्ट्री क्या हमने तो फिजिक्स और बायोलॉजी आदि सभी विज्ञान को इस में शामिल कर लिया।
जब गुरु और शिष्य की केमिस्ट्री एक होती है तो शिष्य के अंदर Feel-good केमीकल्स (Endorphins) का प्रसव होता है जिससे शिष्य प्रसन्नता अनुभव करता है, जब शिष्य प्रसन्न होता है तो उसकी चाल-ढाल में भी अंतर् आ जाता है, यह फिजिक्स है और प्रसन्नता में रक्त प्रवाह भी तेज़ हो जाता है -यह बायोलॉजी है।
आज फिर शब्द सीमा सीधा गुरुकक्षा की ओर जाने का निर्देश दे रही है।
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एकात्मता की प्रक्रिया:
सद्गुरु सच्चिदानंद का स्वरूप बनकर शिष्य के जीवन में उतरता है। इस मिलन और अवतरण में शिष्य का जीवन धन्य हो जाता है और वह गुरुमय-परमात्मामय हो जाता है। उसके रोम-रोम, कण-कण में गुरु की चेतना उफनती- लहराती रहती है। अपना सर्वस्व समर्पण कर शिष्य गुरु की कृपा का पात्र बनता है । फिर एक ऐसी प्रक्रिया आरम्भ होती है जिसके अंतर्गत गुरु शिष्य के अंतःकरण में एवं शिष्य गुरु के गर्भ में एकाकार-तदाकार हो उठते हैं । अनुभवातीत है यह संबंध, मूक है इसकी भाषा । This is the Process of Oneness -एकात्म की प्रक्रिया यानि एक होने की प्रक्रिया।
सद्गुरु को ब्रह्माग्नि की उपमा दी गई है और शिष्य को सूखी लकड़ी के समान माना गया है, ताकि अग्नि के संपर्क में आते ही लकड़ी जल उठे। इसी तथ्य को विश्वगुरु स्वामी विवेकानंद ने कुछ इस प्रकार शब्दांकित किया है,
“जिस व्यक्ति की आत्मा से दूसरी आत्मा में शक्ति का संचार होता है, वह सद्गुरु कहलाता है और जिसकी आत्मा में यह शक्ति संचरित होती है, उसे शिष्य कहते हैं। किसी भी आत्मा में इस प्रकार शक्ति संचार करने के लिए आवश्यक है कि पहले तो जिस आत्मा में यह संचार होता हो, उसमें स्वयं इस संचार की शक्ति विद्यमान रहे और दूसरे, जिस आत्मा में यह शक्ति संचरित हो जाए, वह इसे ग्रहण करने योग्य हो ।”
अतः गुरु असीम सामर्थ्यवान् होता है और शिष्य सुपात्र ।
गुरु का अनुदान-वरदान क्या होता है ?
उर्वर भूमि में ही बीज का अंकुरण एवं विकास होता है। बीज चाहे कितना ही बढ़िया किस्म का क्यों न हो, यदि भूमि बंजर हो तो बीज के विकास की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। यदि भूमि उपजाऊ और उर्वर हो तो,बीज ठीक न हो, तो भी अंकुरण और विकास संभव नहीं होता। इसलिए ज़रूरी है कि समुचित विकास के लिए बीज का गुण और भूमि का उपजाऊपन दोनों का होना अनिवार्य है। इस प्रकार गुरु बीज होता है और शिष्य भूमि । गुरु और शिष्य के अंतःकरण का इस प्रकार सम्मिलन होता है कि शिष्य के साथ सम्बन्ध जुड़ते ही गुरु के सद्गुणों और सत्प्रवृत्तियों में अभिवृद्धि होने लगती है। यही सच्ची संपदा है। जैसे-जैसे शिष्य की मनोभूमि परिष्कृत होती जाती है, गुरुरूपी बीज की कोपलें फूटने लगती हैं। सद्गुरु शिष्य को विद्या का दान देता है। विद्या वही है, जो सत्प्रवृत्तियों को उभार दे, सद्भावनाओं को समर्थ कर दे। इसी में आत्मिक विकास की समस्त संभावनाएँ सन्निहित होती हैं। “यही है गुरु का अनुदान-वरदान जिसे पाकर शिष्य का जीवन महान् हो जाता है और गुरु भी गर्व का अनुभव करता है।
ऐसा शिष्य सदैव सत्पथ पर बढ़ता जाता है, वह कुमार्गगामी नहीं होता यानि ग़लत रास्ते पर नहीं चल सकता, अनर्थमूलक चिंतन नहीं करता यानि ग़लत बातों का चिंतन नहीं करता और सदा अपने गुरु को ब्रह्म के रूप में स्मरण करता है। ऐसे शिष्य को कुसंग ( ग़लत लोगों की संगत) में अरुचि उत्पन्न होती है और सत्संग में तो वह ऐसा खो जाता है कि उसे अपने अस्तित्व तक का ख्याल ही नहीं रहता । गुरु से प्राप्त अनुदान से शिक्षित हुआ ऐसा शिष्य अपनी सामर्थ्य एवं शक्ति को फिज़ूल के कार्यों में खर्च नहीं करता। वह कभी अपनी इच्छा, आकांक्षा एवं कामना के लिए कुछ भी नहीं करता। वह तो अपने गुरु का मात्र एक यंत्र ही होता है, एक ऐसा यंत्र जिसे गुरु कभी भी किसी भी तरह Tune कर सकता है। ऐसे शिष्य को जितना कहा जाए, उतना ही करता है, जो कहा जाए वही करता है, उसे हर हालत में अपने गुरु का हर आदेश शिरोधार्य होता है। इसके लिए वह समय के एक-एक क्षण की प्लानिंग करता है तथा उसके सदुपयोग में निरंतर तत्पर बना रहता है। गुरु मार्गदर्शक सत्ता है और वह शिष्य को सतत मार्गदर्शन देता रहता है। शिष्य का कर्त्तव्य है गुरु की आज्ञा का पालन करना। ऐसा शिष्य अपनी समस्त सामर्थ्य लगाकर गुरु-आज्ञा का निर्वाह करता है। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का एक एक शिष्य एकलव्य और आरुणि के आज्ञाकारी समर्पण से भलीभांति परिचित है। एकलव्य ने अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर देने में रंचमात्र भी संकोच नहीं किया तो शिष्य उस आरुणि ने गुरु आज्ञा का पालन करने के लिए स्वयं के शरीर को खेत की मेड़ में लिटा दिया। ऐसा शिष्यत्व केवल ग्रंथों आदि में ही नहीं मिलता, हम सबके गुरुदेव परम पूज्य गुरुदेव इसी शिष्यत्व का जीता जागता उदाहरण है जिसे हम में से अनेकों सौभाग्यशाली मनुष्यों ने देखा है। जो लोग दुर्भाग्यवश परम पूज्य गुरुदेव के साक्षात् सानिध्य से वंचित रह गए, उनके लिए इस मंच से लगातार उन्ही का स्वरूप, उन्हीं द्वारा रचित दिव्य साहित्य के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है जिसे ग्रहण करने के लिए, प्रचार-प्रसार के लिए लगातार आग्रह किया जाता रहता है।
गुरु के अनुदान प्राप्त करने के लिए सच्चे समर्पण शर्त निश्चित रूप से अत्यंत कठोर है लेकिन इसी के माध्यम से कुछ प्राप्त किया जा सकता है।
एक बार एक युवक ने स्वामी विवेकानंद से अपना शिष्य बना लेने का आग्रह किया। स्वामी जी मौन थे। वह जानते थे कि शिष्यत्व का पालन करना कोई आसान कार्य नहीं है, परंतु अधिक अनुनय-विनय करने पर स्वामी जी ने अपनी आग्नेय वाणी में युवक से कहा:
“क्या तुम मुझे अपने सर्वस्व का दान कर सकते हो, कर सकते हो तो जो मैं कहूँ उसे पालन कर सकोगे? यदि मैं तुम्हें आसाम के चाय बागान में मजदूर बनाकर बेच दूँ और समुद्र में शार्क मछलियों के हवाले कर दूँ तो बिना भय के तैयार हो सकोगे ?”
भला इससे कम में कैसे कोई गुरु अपने शरीर के रक्त बूँदों से अर्जित की गयी तपशक्ति से शिष्य की आत्मा को सींच सकता है। सद्गुरु-प्राप्ति के लिए अपने अहंकार को गलाकर उसके हर निर्देश का पालन एवं निर्वहन ही “दीक्षा संकल्प” है। इस संकल्प से संकल्पित शिष्य उसकी प्रेरणा को सच्चे हृदय से अनुगमन करता है। ऐसी गुरुभक्ति को ईश्वर भक्ति के समान माना गया है। न जाने कितने ही लोग युगतीर्थ शांतिकुंज जाकर दीक्षा ले आते हैं और फिर आकर गर्व से सभी को बताते भी हैं कि हमने दीक्षा ली हुई है, चाहे दीक्षा के समय बताए गए किसी भी निर्देश का कभी पालन ही न किया हो, गुरु दीक्षा इतनी सस्ते में प्राप्त करने वाली सम्पदा नहीं है ,यह कोई किसी Fake यूनिवर्सिटी की डिग्री नहीं है कि कुछ पैसे देकर प्राप्त कर लिया और अपना स्वार्थ पूर्ण कर लिया। यह एक बहुत ही दिव्य प्रक्रिया है, जिसका दुरूपयोग करने से परहेज़ करना चाहिए।
सद्गुरु कैसा होता है ?
सद्गुरु की प्राप्ति से ही “आत्मकल्याण का पथ” प्रशस्त होता है। जो जीवन को अमृत से भर दे, हृदय के घने अंधकार को हटाकर उसे ज्योतिर्मय कर दे और सांसारिक आकर्षणरूपी राग को मिटाकर ईश्वर के प्रति अनुरागी बना दे वही सद्गुरु है। सद्गुरु के मिलने से वैराग्य का भाव पनपने लगता है, वैराग्य अर्थात् विशेष राग । संसार के मोह- मायारूपी रागों की तुलना में “ईश्वर का अनुराग” अधिक आकर्षक होता है और यही सच्चा वैराग्य है। जो वैराग्य का दान दे, ईश्वर की ओर उन्मुख कर दे ऐसे सद्गुरु के लिए ही गुरुनानक ने सौ-सौ जन्म चुकाने का उपदेश दिया है। शिष्य सद्गुरु का मानसपुत्र होता है। वह उसे अपने तपोमय गर्भ में गढ़ता है। शिष्य कच्ची मिट्टी के कुंभ के समान होता है, इसीलिए तो कबीरदास ने गुरु को कुंभकार के रूप में अलंकृत किया है, जो उसकी कुवृत्तियों, खराब आदतों एवं कुसंस्कारों को ठोंक-पीटकर ठीक करता है, उसे नया आकार प्रदान करता है तथा भट्टी में पकाकर नवसृजन ( New creation) करता है। ऐसा गुरु ही शिष्य को सही मार्ग की ओर ले जाता है और उसके प्रत्येक ज्ञात-अज्ञात कर्मों का साक्षी होता है।
सद्गुरु अपने अनुभव के आधार पर शिष्य को अपार आश्वासन देते हुए कहता है,
“मैं सर्वदा तुम्हारे पास हूँ । जब तुम्हारे पापों के जाल कसने लगें तथा गहन अंधकार में कष्ट पा रहे हों, तब यह ध्यान रखो कि वहाँ भी मैं तुम्हारे साथ तुम्हारे महापराधों के कष्टों को भोगने में सहभागी हूँ। तुम्हारी अंतरात्मा के कार्यों को भलीभाँति जानने के कारण मैं तुम्हारी अंतरात्मा के संबंध में सजग हूँ। मैं सर्वव्यापी हूँ,मुझसे तुम कुछ भी छिपा नहीं सकते,यहाँ तक कि तुम्हारे द्वारा छिपाये गए विचारों का छोटा सा अंश भी नहीं क्योंकि मैं तुम में हूँ, तुम्हारी अंतरात्मा में हूँ। मैं तुम्हें भलीभाँति जानता हूँ, मेरे बिना न तो तुम हिल ही सकते हो, न ही साँस ले सकते हो । स्मरण रखो मैं तुम्हारी आत्मा के सदृश्य हूँ। तुम जहाँ जाते हो वहाँ मैं जाता हूँ, तुम जहाँ रुकते हो वहाँ मैं रुकता हूँ। आओ मेरे हृदय से अपना हृदय मिला लो, उसे अपना बना लो, ऐसा मिलन होते ही सब ठीक हो जाएगा। तुम्हारी हृदय की छाया और शांति में मेरा ही निवास है।”
जब शिष्य को गुरु के इस आश्वासन पर विश्वास हो जाता है तभी गुरु अपना आदेश सुनाता है :
“अब जाओ संसार में निकल पड़ो और मेरी वाणी का इतना व्यापक प्रचार करो, जितना व्यापक आत्मा का प्रसार है, क्योंकि वही मेरा जीवन है। मेरा सर्वसमन्वित प्रेम तथा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है। तुम्हारे प्रति मेरा प्रेम माँ के प्रेम जैसा है, वोह प्रेम जैसा एक कबूतरी अपने नवजात बच्चों को करती है, वैसा ही प्रेम मेरा तुम्हारे प्रति है । जब कष्ट आते हैं या विपत्तियाँ तुम्हें भयभीत करती हैं तब स्मरण रखना कि मैं तुम्हारा सहायक हूँ। तुम्हारी आत्मा का प्रेमी हूँ।”
इस प्रकार एक समर्थ गुरु शिष्य के सभी पाप संतापों को धो डालता है तथा अपने सान्निध्य से तदाकार होने का आनंद प्रदान करता है। उस परमानंद का अनुभव प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि
“गुरु-कार्य के प्रति अपना सर्वस्व समर्पण करने का साहस जुटाया जाए, सच्चे शिष्य की भाँति इन्हीं पलों में समर्पण द्वारा कटिबद्धता और प्रतिबद्धता से मुँह न मोड़ा जाए और सर्वस्व के समर्पण द्वारा अपने अंदर के शिष्यत्व को जगाया जाए तथा अपने महान् गुरु के कार्य को आगे बढ़ाया जाए।”
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आज 13 युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है। रेणु जी को गोल्ड मैडल प्राप्त करने की बधाई एवं सभी साथिओं का संकल्प सूची में योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1)सरविन्द कुमार-44,(2)संध्या कुमार-35 ,(3) अरुण वर्मा-45 ,(4)मंजू मिश्रा-30,(5 ) सुजाता उपाध्याय-27 ,(6) रेणु श्रीवास्तव-59,(7) सुमनलता-32,(8) निशा भारद्वाज-28 ,(9 )नीरा त्रिखा-27,(10) चंद्रेश बहादुर-29,(11)वंदना कुमार-25,(12 ) विदुषी बंता-26,(13) पुष्पा सिंह-26
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।

