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23 जनवरी 2024 का ज्ञानप्रसाद- वानर कहलाने वाले हनुमान जी भगवान् की भांति पूजनीय कैसे हो गए ?

23 जनवरी 2024 का ज्ञानप्रसाद

मंगलवार की मंगलवेला में प्रस्तुत किया जा रहा आज का ज्ञानप्रसाद बजरंगबली, रामभक्त हनुमान जी को समर्पित है। मंगलवार को ही हनुमान जी का जन्म माना गया है तो आज का प्रज्ञागीत भी उन्हीं को समर्पित है।  

यह लेख आदरणीय सरविन्द जी की 22 जनवरी 2024 को अयोध्या श्री राम मंदिर में सम्पन्न हुई प्राणप्रतिष्ठा को समर्पित है जिसे उन्होंने अखंड ज्योति पत्रिका के अप्रैल 2021 अंक का अध्ययन करके समझकर ही हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है l ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के साथिओं के लिए यह लेख एक Eye opener का कार्य कर सकता क्योंकि इस लेख में हमें एक महत्वपूर्ण  प्रश्न का उत्तर मिल रहा है और वह प्रश्न है : 

अधम (Inferior) से कहलाने वाले वानर हनुमान जी, भगवान् की भांति पूजनीय कैसे हो गए?”

आदरणीय सरविन्द जी का  एवं हमारा प्रयास ( निम्नलिखित पंक्तियाँ) तभी सार्थक हो सकता है यदि इस लेख में से समर्पण और पात्रता की शिक्षा गाँठ बाँध ली जाए। 

हम कई बार सोचते हैं कि  मनुष्य से बड़ा बंदर  कौन हो सकता है। नकल करने की बात की जाए तो यह प्राणी जिसे मनुष्य कहा गया है शायद अनेकों बंदरों   को पीछे छोड़ जाए। नक़ल करते-करते, समाज में झूठी प्रतिष्ठा प्राप्त करने के उद्देश्य से मनुष्य इतना गिर जाता है कि क्या कहा जाए। हालाँकि संसार में कोई भी जीव ऐसा नहीं जो जीवन प्रयन्त छलाँगे नहीं लगाता लेकिन विचारणीय बात तो यह है कि छलाँग उत्थान की ओर है  या  पतन की ओर, उठने की ओर है या गिरने की ओर, दैविक छलांग है  या  मायावी छलांग। मनुष्य बंदरों  की भांति माया के विशाल वृक्ष की एक डाल  से दूसरी डाल पर छलांगें लगाए जा रहा है। ऐसे आधुनिक मनुष्य की  झोली में  सत्य, संतोष, शील, दया व क्षमा रूपी रत्न के बजाए, विषय विकार रूपी कंकर ही प्राप्त होते हैं। हनुमान जैसे प्रभु के दूत तो वानर होने के बावजूद, देवताओं जैसे पूजनीय हो गए लेकिन ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति,आज का मानव, मानव होते हुए भी ऐसी निकृष्ट छलाँगें लगा रहा है कि किसी बंदर  से भी गया गुज़रा  बन बैठा है। हनुमान जी ने ऐसी ऊँची छलांग लगाई कि सदा-सदा के लिए भगवान के चरणों में स्थान पा लिया।  यह छलाँग हमें यही तो सिखा रही है, कि माना कि मानव छलाँग लगाने की आदत नहीं छोड़ सकता, कोई बात नहीं, न छोड़े;  हम भी उसकी इस आदत का समर्थन  करते हैं लेकिन उससे बस एक ही निवेदन करते हैं कि अपनी छलांग में  बस एक छोटा सा संशोधन कर ले। कैसा संशोधन ?  संशोधन यह कि अगर छलाँग लगाने की इतनी ही विवशता है, तो वह छलाँग संसार की तरफ न हो कर परमपिता परमात्मा की ओर हो। वानरों की भाँति एक डाल से दूसरी डाल न हो करके, सीधा इस लोक से उस लोक की ओर हो। संसाररुपी कीचड़ से ब्रह्मरुपी स्वर्ग की ओर लगाई गयी छलाँग ही ऐसी छलाँग है, जो आदि से अंत तक सम्मान की सीढ़ियां चढ़ती जाएगी। भ्र्म से ब्रह्म की और लगाई इस सुंदर छलाँग की एक और विशेषता है  कि आधुनिक मनुष्य माया के वशीभूत बंदर की भाँति,मदारी की डुगडुगी पर गली-गली जाकर नाचने के कॉन्ट्रैक्ट से मुक्त हो जाता है। इसलिए भाई साहिब माना कि आपको नाचने की लत लग चुकी है तो फिर प्रभु के समक्ष क्यों नहीं नाचते। ऐसा करने से बार-बार यमराज के समक्ष नाचने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी और प्रभु द्वारा बनाए दूत की ज़िम्मेदारी भी निभाई जा सकेगी  जीवन के सफल सूत्र की यह घूंटी वानरों ने बड़ी अच्छे से पी ली और  परिणाम यह हुआ कि एक  विशाल वानर सेना का गठन हुआ जिसका एक एक सदस्य नर से नारायण की महान यात्रा का महान पथिक हो चला। 

यही है आज के ज्ञानप्रसाद लेख की शिक्षा।             

राम भक्त हनुमान मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम के अनन्य भक्त थे, प्रभु श्री राम को अति प्रिय थे एवं  वे हमेशा प्रभु श्री राम के साथ रहने वाले थे l कहने का तात्पर्य यह है कि प्रभु श्री राम की पंचायत में कुटुम्ब की दृष्टि से तो चारों भाई राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघन व सीता माता  मिलकर पाँच थे और छठे भक्त हनुमान जी थे l स्थापनाओं में हनुमान जी को भी पंचायत में  रखा गया है, इस तरह राम पंचायत में सदस्यों की संख्या पाँच से बढ़कर छः हो जाती है l हनुमान जी का रघुवंशी न होने के बावजूद पंचायत में शामिल होना उनकी भक्ति की परम उपलब्धि है l भगवान श्रीराम के बहुत नजदीकी होना ही आवश्यक नहीं बल्कि भगवान के सूत्राधार व संचालक बन जाना ही इस  उपलब्धि का प्रतिफल है।  यह स्थिति उस चित्र में और भी मुखर है, जिसमें भक्त हनुमान जी को विशालकाय दिखाया गया है और राम-लक्ष्मण हनुमान जी के दोनों कंधो पर छोटे बालकों की तरह दिखाई पड़ते हैं l इसका तात्पर्य यह है कि उन उत्तरदायित्वों को निभाना जो राम-लक्ष्मण द्वारा दिए गए  हैं।  इस साहसिक श्रद्धा व समर्पण का प्रतिफल भी हनुमान जी को व्यापक कृतज्ञता के रूप में मिला है। यह उसी श्रद्धा  का परिणाम है कि आज भारत में पाए जाने वाले राम मंदिरों की तुलना में हनुमान जी के मंदिरों की संख्या कई गुना अधिक  है। इसका अर्थ  यह नहीं कि भगवान श्रीराम के प्रति लोगों की श्रद्धा कम है बल्कि हनुमान जी की भक्ति व निष्ठा के प्रति कृतज्ञता का प्रकटीकरण है। 

हनुमान जी को यह प्रतिष्ठा उपहार में नहीं मिली थी, इसके लिए उन्हें स्वयं को गलाना पड़ा था l हनुमान जी ने भगवान को अपने रोम रोम में बसा लिया था l “राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम” अर्थात भगवान् का कार्य किये बिना मुझे विश्राम कहाँ की रट हनुमान जी के श्वास-प्रश्वास में बसी  रहती थी, और मन में कभी भी किंतु-परंतु का प्रश्न ही नहीं उत्पन्न हुआ l हनुमान जी का मुख्य उद्देश्य अपनी समग्र चेतना व तत्परता के साथ स्वयं को श्री राम के लिए नियोजित किए रहना ही  था और उनकी आत्मा में कोई व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा थी ही नहीं l 

भक्त और भगवान् एवं गुरु और शिष्य के बीच की केमिस्ट्री की चर्चा करता आ रहा है कल का ज्ञानप्रसाद लेख, अगर गुरुदेव का मार्गदर्शन मिल गया तो केमिस्ट्री क्या फिजिक्स ,बायोलॉजी की चर्चा भी कर डालेंगें।  

परम पूज्य गुरुदेव बताते हैं कि “एकात्म (oneness) की स्थिति” में व्यक्तिगत अभिलाषाओं की तिलांजलि देनी ही पड़ती है,स्वार्थपरता और संकीर्णता का विसर्जन करना ही पड़ता है। पात्रता विकसित करने का यही एकमात्र मार्ग है l राम भक्त हनुमान जी ने इस वस्तुस्थिति को एक बार माता सीता को अपना हृदय चीरकर दिखा दिया था। भगवान राम ने बनवास के बाद  अयोध्या लौटने पर गुरू वशिष्ठ के सम्मुख अपनी समस्त सफलताओं का सम्पूर्ण श्रेय हनुमान जी को देते हुए उन्हें अपने भाई भरत की तरह प्राणप्रिय बताया था l मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम और उनके प्राणप्रिय भक्त हनुमान जी के बीच द्विपक्षीय यह  आत्मीयता इतनी घनिष्ठ कैसे हो सकी। इस घनिष्ठता में भावुकता जैसे आधार का कोई कारण नहीं था। अगर कोई कारण था तो मात्र “उपासना, साधना व आराधना” ही था, जो इष्टदेव का ध्यान-पूजन करने तक सीमित नहीं बल्कि इष्ट की इच्छा को अपनी इच्छा समझ कर उसी में स्वयं को खपा देती है, समर्पित कर देती है l 

राम पंचायत में अन्य सदस्य वस्त्राभूषण पहने सम्मानित स्थान पर बैठे दृष्टिगोचर होते हैं, लेकिन पवन पुत्र व रामभक्त हनुमान जी के शरीर पर लज्जावस्त्र की तरह लंगोटी मात्र है और उन्होंने अपना स्थान सबसे नीचे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान के चरणों के समीप बैठने का बनाया है, तभी तो उन्हें प्रभु राम के “प्राणप्रिय भक्त” कहलाने का दर्जा मिला l प्रभु श्री राम से हनुमान जी का जिस दिन से मिलन  हुआ, उस दिन से अंत तक वे उन्हीं  के छोटे-बड़े कार्यो में निरत रहे, उनके जीवन में अंत कभी आया ही नहीं, क्योंकि वह चिरंजीवी हैं l हनुमान जी द्वारा सम्पन्न किये गए  सभी कामों की गिनती कराना  तो कठिन है लेकिन पाँच प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं :   

(1)सुग्रीव को अपनी समस्त सेना राम-काज में लगाने के लिए सहमत कर लेना l 

(2)माता सीता को खोजे बिना वापस न लौटने का संकल्प लेना और उसे निभाना l 

(3) समुद्र लाँघने और लंकादहन का दुस्साहस अकेले ही करना l 

(4)लक्ष्मण जी  को जीवित करने के लिए सुषेण वैद्य को चुराकर लाना और पर्वत समेत संजीवनी बूटी प्रस्तुत करना l 

(5) रामराज्य की स्थापना और अश्वमेघ महायज्ञ सरीखे प्रयोजनों में अंत तक लगे रहना l 

इस तरह के ऐसे और भी अनेकों कार्य   हैं, जिनमें लगे रहने के कारण रामकथा के नायक “राम से अधिक राम के दास” वाली उक्ति दोहराते हैं l 

अवतारी सत्ताएं भूलोक का संतुलन करने के अलावा एक काम अपने सहचरों को श्रेय देने का भी करती हैं l शबरी, केवट, भरत, लक्ष्मण, उर्मिला, विभीषण, रीछ, वानर, गिद्ध, गिलहरी जैसे सहयोगियों के अनुदान-वरदान की चर्चा करते समय भी जन-जन की भाव संवेदना जागृत होती है और अंतःकरण से भाव भरी श्रद्धा उमड़ती है। यदि रामकथा में से इन प्रसंगों को हटा दिया जाए तो फिर उसमें सामान्य हलचल ही रह जाती है और उस अमृत का तो आस्तित्व ही मिट जाता है जिसके कारण रामकथा की महिमा व गरिमा का बखान  किया जाता है l 

हनुमान जी के उपरोक्त पाँचों निर्धारणों को अमल में लाने और सफल बनाने का संकल्प अपने कंधो पर लेना पड़ता है तथा श्रद्धा व समर्पण से प्रेरित इस साहस को प्राथमिकता के आधार पर अपनाने में कितने ही कुसंस्कारों और बाहरी दबावों व अवरोधों  से उसी तरह जूझना पड़ता है जैसा कि पवनपुत्र हनुमान जी को त्रिजटा, सुरसा आदि कुसंस्कारी व आसुरी शक्तियों से जूझना पड़ा था l प्रभु श्री राम को भी तो रोकने के लिए ताड़का, सूर्पनखा बनकर आयी थीं l जब उत्कृष्टता का मार्ग रोके बिना वे दुष्ट शक्तियां नहीं रुकती, तो रामभक्तों  के मार्ग कैसे बचे रह सकते हैं? ऐसी विषम परिस्थितियों में से प्रत्येक सदस्य को अपनी लोभ-लिप्सा से ही नहीं बल्कि आत्मकेन्द्रित व आत्मनिर्भर होकर अपने-अपने तरीके से निपटना पड़ता है; यही अध्यात्म का शाश्वत नियम है  जिसका हम सबको पूर्णतया पालन करना चाहिए और व्यर्थ  के असमंजस में नहीं रहना चाहिए l 

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आज 13  युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है। अरुण  जी और सरविन्द जी, दोनों भाइयों  को गोल्ड मैडल प्राप्त करने की बधाई एवं  सभी साथिओं का  संकल्प सूची में  योगदान के लिए धन्यवाद्।   

(1)सरविन्द कुमार-52,(2)संध्या कुमार-30,(3 ) अरुण वर्मा-49,(4)मंजू मिश्रा-27,(5 ) सुजाता उपाध्याय-36,(6) रेणु श्रीवास्तव-32 ,(7) सुमनलता-44 ,(8) निशा भारद्वाज-31,(9 )नीरा त्रिखा-30 ,(10) चंद्रेश बहादुर-38,(11)वंदना कुमार-38  ,(12 )साधना सिंह-26,(13) स्नेहा गुप्ता-24                          

सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।


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