17 जनवरी 2024 का ज्ञानप्रसाद
आज बुधवार का दिन, सप्ताह का तीसरा दिन है, ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के साथिओं की आज्ञा लेकर एक ऐसा लेख प्रस्तुत किया जा रहा है जो अध्यात्म की वर्तमान शृंखला से बिल्कुल भिन्न तो नही है लेकिन वैसा भी नहीं है।
जल्दी से इस लेख की पृष्ठभूमि वर्णन कर दें तो साथिओं को इस बदलाव का कारण और उद्देश्य का ज्ञान हो जायेगा।
कल वाले लेख को पोस्ट करने के बाद लगभग साढ़े पांच शाम का समय होगा, हम आने वाले लेखों के लिए अखंड ज्योति की Surfing कर रहे थे कि जनवरी 1970 के अंक में प्रकाशित लेख ने हमारा मन ही मोह लिया, लेख का शीर्षक था “लड़ रहा हो जब स्वयं विज्ञान से विज्ञान।” विज्ञान तो सदा से ही हमारे ह्रदय के तारों को झंकृत करता आया है लेकिन जब विज्ञान और माँ से प्राप्त हुई धर्म की शिक्षा की बात हो रही हो तो कुछ भी दाव पर लगाया जा सकता है। क्या था इस लेख में और कैसे इसने हमारे ह्रदय को प्रभावित किया, वोह तो साथिओं के समक्ष प्रस्तुत हो ही रहा है लेकिन उससे भी बड़ी बात है परम पूज्य गुरुदेव का सूक्ष्म मार्गदर्शन जिसने आदेश देते हुए कहा कि इस लेख को आज ही लिखना चाहिए- गुरुआज्ञा सदैव शिरोधार्य। 1970 में प्रकाशित इस लेख के तथ्यों को cross check करने की दृष्टि से जब गूगल सर्च किया तो वोह गूगल एंट्री सबसे ऊपर आयी जो कल शाम ही लगभग सात बजे inews के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित हुई थी। अंग्रेजी में प्रकाशित इस आर्टिकल का शीर्षक था “Have you ever seen a girl with high- voltage electricity in her body?”
इससे बड़ा मार्गदर्शन और ऊँगली पकड़ कर चलाना और क्या हो सकता है, आप धन्य हैं गुरुदेव, किन शब्दों में आपका धन्यवाद् करें। यही कारण है कि हम बार-बार कहते आए हैं कि यह सब गुरुदेव का ही किया धरा है। आज सुजाता बहिन जी ने अपनी शांतिकुंज यात्रा की अनुभूति लिख कर भेजी तो हमने रिप्लाई करते हुए लिखा कि आप तो हिंदी जानते ही नहीं हैं तो ऐसी स्पष्ट हिंदी कैसे लिख दी। उन्होंने हमें श्रेय देते हुए रिप्लाई किया तो हमने फिर से अपने गुरु का ही धन्यवाद् किया, वोह मुफ्त में हमारी प्रशंसा कराए जा रहे हैं।
साथिओं ने हमारी दो अनुभूतियाँ पढ़ी हैं, यह अनुभूति भी किसी प्रकार से कम नहीं हो सकती -आश्चर्यजनक, अविश्वसनीय ,किन्तु सत्य। पांच दशक पूर्व प्रकाशित लेख का रेफरन्स उस समय,उसी दिन हमारे समक्ष गूगल पर प्रस्तुत हो जाना, जब हम अगले लेख की योजना बना रहे थे, मात्र संयोग तो हो नहीं सकता, अवश्य गुरु अनुकम्पा ही है।
विज्ञान का विज्ञान के साथ युद्ध तो बिल्कुल “मैं न मानु जैसा” युद्ध है। छोटे बच्चे की भांति अगर उत्तर नहीं मालुम तो रोना शुरू कर दे, यां तो उत्तर देने का समर्था होनी चाहिए नहीं तो चुपचाप मान लेना ही बेहतर है। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक हाल्डेन अगर ईश्वर में विश्वास नहीं करते तो इसका अर्थ यह तो नहीं है कि ईश्वर का अस्तित्व ही नहीं है, इसी अस्तित्व पर मोहर लगने जा रही है आज और कल वाले लेख में।
कहने को तो हम भी छोटे-मोटे वैज्ञानिक हैं, हमारी भी मैं न मानु वाली प्रवृति ही है, कैसे मान लेते कि inews में आज प्रकाशित हुई यह जानकारी Fake नहीं है। इस तथ्य को भी सर्च करने से पता चला कि यह Fake नहीं है।
इसी बैकग्राउंड और जानकारी के साथ अब गुरुचरणों में समर्पित होने का समय आ गया है।
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72 वर्षीय ब्रिटिश-भारतीय सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक जे. बी . एस. हाल्डेन ( JBS Haldane) से एक बार किसी अन्य वैज्ञानिक ने प्रश्न किया, “आप विज्ञान और धर्म में क्या संबंध मानते हैं, क्या विज्ञान के साथ धर्म का भी मानव-जीवन में महत्त्व है?”
वैज्ञानिक हाल्डेन ने हँसते हुए उत्तर दिया,
“विज्ञान की शिक्षा और धर्म की शिक्षा दोनों एक दूसरे से विपरीत हैं। धर्म, विज्ञान के आगे उस भिखारी की तरह है, जो अपने जीवन की रक्षा के लिये विज्ञान से ज्ञान के टुकड़े माँगा करता है, उससे वह अपना पेट पाल सकता है। उद्यम नहीं कर सकता, वह एक परोपजीवी (Parasite) के रूप में स्थित है, जिस प्रकार फर्नीचर (कुर्सी मेज आदि) चारपाई और दीवार की दरारों में खटमल प्रवेश कर जाते हैं, उसी प्रकार विज्ञान की दरारों में धर्म जीवित है।”
हाल्डेन की बुद्धिशीलता पर कोई भी प्रश्न नहीं करेगा क्योंकि उन्होंने अनेकों ही वैज्ञानिक फ़ील्ड्स का अध्ययन किया था, उनके मस्तिष्क की पहुँच का प्रमाण यही था कि उन्होंने कई प्रकार के अनुसंधान भी किए थे, इसलिये विज्ञान के प्रति उसकी आस्था स्वाभाविक थी। विज्ञान के प्रति उनकी आस्था इतनी दृढ थी कि वोह जन्म को भी प्रकृति का कार्य न मान कर नकारते थे। उनकी रिसर्च के अनुसार मनुष्य का जन्म कुछ केमिकल कंपाउंड्स water, carbon dioxide आदि के मिश्रण से हुआ है। 1956 में ब्रिटेन से भारत शिफ्ट होने के पीछे वोह भारत के अनुकूल वातावरण को श्रेय देते हुए कहते हैं कि वोह जिस तरह की रिसर्च करना चाहते हैं भारत में उसकी सम्भावना है। यहाँ पर उन्हें मूल्यवान यंत्र चाहे न उपलब्ध हो पाएं लेकिन पेड़-पौधों, जीव जंतुओं पर रिसर्च करने का बहुत अनुकूल वातावरण उपलब्ध है। भारतीय नागरिकता अपनाने के लिए एक और रोचक कारण भारतीय भोजन था जिसे हाल्डेन अमरीकी भोजन से बेहतर समझते थे। 1964 में कैंसर के कारण भुवनेश्वर में हाल्डेन का निधन हो गया, निधन में भी हाल्डेन का बहुत ही रोचक किस्सा है कि BBC ने उन्ही के द्वारा लिखी गयी स्वयं को दी गयी श्रद्धांजलि को ब्रॉडकास्ट किया।
हाल्डेन के बारे में इतना कुछ ऑनलाइन उपलब्ध है कि इसे summarize करना असंभव है लेकिन इसे यहीं पर रोक कर आगे बढ़ना ही उचित होगा।
हाल्डेन की दृढ वैज्ञानिक आस्था के बारे में कहा जा सकता है कि जिस प्रकार किसी इंजीनियर से तपेदिक के लिए दवा पूछ ली जाये तो वह बेचारा क्या बतायेगा, उसी तरह हाल्डेन धर्म के बारे में क्या बताएंगें। जीवन भर किराने वाले की दुकान पर आटा, चावल बेचने वाले रामदास के लिये यह कैसे सम्भव हो सकता है कि सुनार की दूकान पर रखे हुए जवाहरातों में से हीरा, नीलम, पन्ना, पुखराज, मोती, मूँगे, गोमेद, बदूर्य आदि अलग-अलग निकाल कर रख सके। पारखी के लिये विषय का निपुण भी होना चाहिये। वैज्ञानिक हाल्डेन द्वारा धर्म-तत्त्व का अध्ययन किये बिना एवं धर्म का ज्ञान प्राप्त किये बिना उसे परोपजीवी (Parasite) का स्वरूप देना कुछ ऐसा ही था। यह तो वही बात हो गयी कि जैसे गवर्नर का लड़का गवर्नर से कहे,” पापा,इस कुर्सी पर तुम्हारा नहीं, मेरा अधिकार है।”
डॉ. डेस्काटेंस और प्रसिद्ध वैज्ञानिक हेरबर्ट बटरफील्ड ने हाल्डेन की बात ध्यान से सुनी और फिर उसका प्रतिवाद करते हुए पूछा,
“क्या कोई वैज्ञानिक आज तक फूलों का सा सौन्दर्य बना सका है, क्या वृक्षों की हरियाली और मनुष्य शरीर जैसे कोई सर्वसमर्थ मशीन बना सका है, यदि नहीं तो इन्हें किसने बनाया? संसार में जब तक सौन्दर्य है, व्यवस्था है, तब तक हम ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं कर सकते।
जब तक ईश्वर है, धर्म उसके सर्वसमर्थ पुत्र की भाँति विश्व के सिंहासन पर उसका साम्राज्य बना रहेगा। उन्होंने ने कहा कि पैरासाइट धर्म नहीं, विज्ञान है क्योंकि विज्ञान आज तक अपनी प्रयोगशाला में भावनाएं , संवेदनाएं नहीं बना सका। ऐसी Manufacturing केवल अध्यात्म ही करवा सकता है।”
बहुत से वैज्ञानिक मनुष्य के विचारों और कार्यों पर विज्ञान और धर्म के अन्तरंग प्रभाव के अध्ययन के लिये समय नहीं निकाल सकते, इसीलिए विज्ञान और धर्म दो भिन्न अनुभवों के रूप में दिखाई देते हैं। एक वैज्ञानिक जितना समय “विज्ञान के अध्ययन” के लिये देता है, उतना ही समय यदि वह “धर्म के अध्ययन” के लिए दे सका होता तो वस्तुतः वह अपने ही द्वंद्व-युद्ध से बच गया होता और संसार को भी बचा लिया होता। विज्ञान कितनी ही ज़िद करे, वह “धर्म के अस्तित्व” से इन्कार नहीं कर सकता, क्योंकि उसे यह तो पता ही है कि “विज्ञान के फर्नीचर” में अनेक दरारें हैं और इन दरारों को भर पाना विज्ञान के बस की बात नहीं है, केवल धर्म, अध्यात्म ही इसकी पूर्ति कर सकता है।
सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एडिंगटन का कहना था कि 17वीं शताब्दी से ही बढ़ रहे विज्ञान ने, धार्मिक अंध-विश्वासों और प्राचीन रूढ़ियों का तेजी से विनाश किया है। अंध-विश्वासों की संख्या इतनी तीव्र हो गई थी कि विज्ञान को उस पर शुभचिन्तक की तरह नहीं शत्रु की तरह आक्रमण करना पड़ा। इस आक्रमण का परिणाम यह हुआ कि मिटाना था अंधविश्वास को (जो उचित भी है ) लेकिन ईश्वर,आत्मा,कर्मफल जैसी आवश्यक मान्यताओं का भी सफाया हो गया। उन्होंने लिखा है कि एक वैज्ञानिक के रूप में में भी सर्वप्रथम नास्तिक हूँ, लेकिन हाल्डेन के साथ सहमत होने के लिये मैं बाध्य नहीं हूँ।
आज से 200-300 वर्ष पूर्व विज्ञान ने इतनी प्रगति नहीं की थी और धर्म और ईश्वर को वैज्ञानिक की भांति रिसर्च करके समझना कठिन था लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि जिसको हम स्टडी नहीं कर सकते उसका अस्तित्व ही नहीं है। अगर किसी तथ्य को विज्ञान साबित नहीं कर सकता, हो सकता है उसे धर्म और अध्यात्म साबित कर दे। हम तो कहते हैं कि आज 2024 के युग में “हो सकता” वाली स्थिति नहीं है, अनेकों ऐसे अनुभव हैं, जो वैज्ञानिक ढंग से भी स्पष्ट नहीं किए जा सकते लेकिन धर्म कर रहा है।
एक और वैज्ञानिक डॉ. बरनल भी वैज्ञानिकों की नास्तिकतावादी पंक्ति में ही थे। वह कहा करते थे कि विज्ञान का इतना अधिक विकास होने के बावजूद इस पदार्थवादी संसार में “धर्म और ईश्वर की आवश्यकतायें रद्दी एवं क्षीण” हो चुकी हैं। नास्तिकतावाद, भौतिकतावाद एवं पदार्थवाद ने डॉ बरनल को यहाँ तक कहने के लिए विवश कर दिया है कि हम ईश्वर और धर्म के बिना भी बहुत अच्छे से गुज़र बसर कर सकते हैं।
इस धारणा का उत्तर भी बायोलॉजी के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. कोलिन्स ने दिया है। उन्होंने कहा कि यदि वैज्ञानिक अपने उपयोगितावादी सिद्धान्त का सुधार कर लें और प्राणीओं के प्रति भाईचारे का विश्वास बना लें तो भी मनुष्य को जीवन के मूल प्रयोजन और विश्व की उत्पत्ति जानने के लिये “धर्म और ईश्वर” का ही सहारा लेना पड़ेगा। Biological science का सम्बन्ध तो ईश्वर की कृतिओं से ही है, इसका अध्ययन ईश्वर का स्मरण किए बिना हो ही नहीं सकता। जीव की उत्पत्ति और विकास के उद्देश्य का मूल्यांकन करने के लिये धर्म और ईश्वर की आवश्यकता सदैव ही बनी रहेगी।
शेष अगले लेख में।
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आज 12 युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है। सरविन्द जी को गोल्ड मैडल प्राप्त करने की बधाई एवं सभी साथिओं का संकल्प सूची में योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1)सरविन्द कुमार-52 ,(2)संध्या कुमार-30 ,(3 ) अरुण वर्मा-49 ,(4)मंजू मिश्रा-27, (5 ) सुजाता उपाध्याय-36,(6) रेणु श्रीवास्तव-32 ,(7) सुमनलता-44,(8) निशा भारद्वाज-31, (9 )नीरा त्रिखा-30,(10) चंद्रेश बहादुर-38,(11) साधना सिंह-26,(12)वंदना कुमार-38
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।