16 जनवरी ,2024 का ज्ञानप्रसाद-अध्यात्म ही मनुष्य जीवन का Standard operating Procedure (SOP) है।
आज सप्ताह का दूसरा दिन मंगलवार है, मंगल के दिन सभी के लिए मंगल कामना करना ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का कर्तव्य है, धर्म है। इसी मंगल धारणा को दर्शाती दिव्य, मंत्रमुग्ध कर रही रामचरितमानस की चौपाई हम सबका मन मोह रही है। आदरणीय सुमनलता बहिन जी के सुझाव अनुसार पहले भजन फिर ज्ञानप्रसाद।
अध्यात्म के जटिल विषय पर आरम्भ हुई लेख श्रृंखला का विवशतावश समापन करना पड़ रहा है। गुरुदेव के किसी भी साहित्य का अध्ययन करना आरम्भ करें तो अनंत ( Unending) होने के कारण हमें कहीं न कहीं तो विराम करना ही पड़ेगा, हमेशा इस बात का भय ही रहता है कि कहीं हमारी बाल बुद्धि विषय की जटिलता के भवंडर में ही न खो जाए, यही होती है हमारी विवशता। अब केवल आने वाले दो दिन (बुधवार और गुरुवार) में ही “अध्यात्म विषय” पर लिखने की योजना है। अगले सोमवार से एक नवीन दिव्य श्रृंखला का शुभारम्भ हो रहा है।
आज का लेख बता रहा है जैसे हर किसी कार्य ( यहाँ तक कि रसोई में खाना बनाने के लिए भी) के लिए स्टैण्डर्ड गाइडलाइन्स होती हैं, अध्यात्म की जटिल प्रक्रिया भी किसी Standard Operating Procedure को फॉलो करने से ही सम्पन्न की जा सकती है। सरलीकरण तो हमारी रुधिर में रच चुका है, उसका पालन करना हमारा परम धर्म है।
इन्ही पंक्तियों से आरम्भ होती है आज की गुरुकक्षा।
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प्राचीन काल की तुलना अगर आधुनिक युग के साथ की जाए तो साक्षात् दिख जाएगा कि पुरातन मनुष्य की शक्ति एवं सामर्थ्य प्रत्येक दिशा में बहुत ही बढ़ी चढ़ी थी। आज के युग के औटोमैटिक मनुष्य के पास क्या नहीं है, घर की सफाई करने से लेकर चपाती पकाने तक एवं बच्चे को सुलाने से लेकर दूध पिलाने तक सब कुछ computerized है और जब भी चार लोग इक्क्ठे होते हैं तो इन्हीं यंत्रों की वाहवाही लूटने के सिवाय और कुछ देखने को नहीं मिलता। जिस अंधकारमय भविष्य की ओर आधुनिक मनुष्य अग्रसर हो रहा है उसके नकारात्मक दृश्य तो आये दिन दिख रहे हैं, आगे और भी भयानक स्थिति मुँह खोले खड़ी है, इस भयानक स्थिति को अगर कोई रोक सकता है तो केवल अध्यात्म।
यह पंक्तियाँ लिखते समय ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का उद्देश्य अपने पाठकों को डराना नहीं है बल्कि सचेत करना है। अपने आसपास कहीं भी दृष्टि उठा कर देखें तो यही प्रश्न उठता है कि मनुष्य किस ओर जा रहा है ?
आज के कुछ ही वर्ष पूर्व वाले मनुष्यों का जीवन अध्यात्म प्रेरणा से अनुप्राणित एवं प्रेरित था । यह वोह समय था जब सब लोग अपनी भावनायें और क्रियायें अध्यात्म मान्यताओं एवं मर्यादाओं के अनुसार ढालते थे, फलस्वरूप उन्हें बाहरी जीवन में किसी प्रकार की असुविधा/संकट का सामना करना ही नहीं पड़ता था।
वैसे तो आजकल Perfume और Body spray का युग है लेकिन मंत्रपूरित हवन की सुगन्धित खुशबु कहाँ कहाँ तक अनुभव की जा सकती है हम सब जानते हैं। अध्यात्म के बारे में भी यही उदाहरण दिया जा सकता है, जिस घर को, परिवार को, समाज को अध्यात्म का आश्रय मिलेगा वहां शक्ति, समृद्धि और सुख शान्ति की परिपूर्णता रहनी ही चाहिये।
पिछले कितने ही दिनों से हम अध्यात्मवाद के विषय पर चर्चा कर रहे हैं और भांति भांति के तर्क देकर भौतिकवाद और अध्यात्मवाद के संतुलन को स्थापित करने का प्रयास का रहे हैं। हमारे साथी अध्यात्मवाद के विषय की जटिलता के बावजूद, सरलीकरण की दिशा में किए जा रहे हमारे अथक प्रयास को बड़ी ही तन्मयता से ग्रहण कर रहे हैं, जिसके लिए सभी का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं। अध्यात्मवाद एक ऐसा जटिल विषय है जिसे कुछ दिनों में यां महीनों में समझ पाना अति कठिन है। हमारे प्रयास से अगर कुछ ही बेसिक बातों की समझ आ जाए, उसे अपने अंतःकरण में उतारने का दृढ़ संकल्प पूर्ण करने का प्रयास किया जा सके तो बहुत बड़ी उपलब्धि होगी ।
हम सबका सौभाग्य है कि जिस भूमि (भारत) पर हमने जन्म लिया है,अध्यात्म उस भूमि की महानतम सम्पत्ति है। यही सम्पति है जिसे मानवता का मेरुदण्ड कहा जा सकता है। मनुष्य के भौतिक एवं आध्यात्मिक चिरस्थायी उत्कर्ष का एकमात्र आधार अध्यात्म ही है। मनुष्य जाति की अनगनित समस्याओं को हल करने और सुख शान्तिपूर्वक जीवनयापन का एकमात्र उपाय अध्यात्म ही है। इस जीवन तत्व की उपेक्षा करने से पतन और विनाश का ही मार्ग प्रशस्त होता है। दुःख और दरिद्र, शोक और सन्ताप इसी उपेक्षा के कारण उत्पन्न होते हैं। मनुष्य के भविष्य को अन्धकारमय बनाने वाला निमित्त इस उपेक्षा से बढ़कर और कोई नहीं हो सकता।
अध्यात्म मानव जीवन के श्रेष्ठतम सदुपयोग की एक वैज्ञानिक पद्धति है। उसे जीवन जीने की विद्या भी कहा जा सकता है। छोटे से छोटे कार्य की भी कोई प्रणाली एवं पद्धति होती है जिसकी guidelines follow करने से ही सफलता मिलती है। अस्त व्यस्त ढंग से कार्य किया जाए तो लाभ के स्थान पर हानि ही होगी। हम चाहे छोटी सी कार्यशाला की बात करें यां फिर विशाल जटिल फैक्ट्री, प्रत्येक बेसिक कार्य करने के लिए एक नियत Standard operating procedure (SOP) के सभी छोटे से छोटे Steps का पालन करना होता है,जिसकी उपेक्षा करने से कुछ भी हासिल नहीं हो पाता।
अपने लेखों में हम बार-बार कहते आ रहे हैं कि ईश्वर ने मनुष्य को मानव जीवन देकर संसार का सर्वोत्कृष्ट वरदान दिया है। ईश्वर ने मनुष्य को केवल ढांचा ही नहीं दिया है बल्कि उसके पास जो कुछ भी विभूतियां थीं वोह सभी उसने मनुष्य शरीर में एक बीज के रूप में भर दी हैं। हम बाज़ार से कोई नया यंत्र (Washer/Dryer) खरीद कर लाते हैं, इस यंत्र के साथ पूरा Instruction manual भी आता है जिसे देखकर,जांचकर एवं समझकर हम एक एक स्टेप फॉलो करते हुए उसे assemble करते हैं और चलाते हैं। कोई भी इंस्ट्रक्शन गलत कर दी तो शायद यंत्र काम ही न करे। ऐसी ही स्थिति मनुष्य जीवन जैसे बहुमूल्य यंत्र की भी है, सब कुछ सही तरीके से फॉलो करने से ही कुछ परिणाम मिलने की सम्भावना हो सकती है। इस बहुमूल्य संयंत्र का सुसंचालन एवं सदुपयोग करने का Standard Operating Procedure अध्यात्म ही है जिसका ज्ञान न होना दुर्भाग्य ही कहा जायेगा।
कृषि, रसायन, शिल्प, चिकित्सा, व्यापार, संगीत आदि सामान्य कार्यों के लिए उनकी निर्धारित पद्धति को अपनाना पड़ता है। राज्य व्यवस्था संविधान एवं कानून पद्धति के अनुसार चलती है। उन व्यवस्थाओं की अज्ञानता एवं उपेक्षा करने वाले व्यक्ति मनमानी करते हुए चलने लगें तो उन्हें असफलता एवं निराशा का ही मुंह देखना पड़ेगा। मानव जीवन तो एक अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं मूल्यवान प्रक्रिया है उसका विज्ञान एवं विधान जाने बिना या जान कर उस पर चले बिना वह आनन्द एवं श्रेय नहीं मिल सकता, जो मनुष्य जीवन जीने वाले को मिलना ही चाहिए।
परम पूज्य गुरुदेव द्वारा रचित विशाल साहित्य में “उच्चस्तरीय सूक्ष्म साधना” को बहुत महत्व दिया गया है जिससे से अनेकों आकर्षक, चमत्कारी एवं आश्चर्यजनक परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं लेकिन उनके लिए समय और परिश्रम की बहुत आवश्यकता है। हम बार-बार इंस्टेंट की बात करते आये हैं, अधिकतर लोग यह आशा करते हैं कि कुछ ही दिन छोटा-मोटा कर्मकाण्ड करके सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है । बरगद का पेड़ बड़ा समृद्धिशाली और चिरस्थायी माना गया है लेकिन हम सब जानते हैं कि उसके उगने, बढ़ने और फलने फूलने की स्थिति तक पहुंचने में कितनी देर लगती है। उतावले होकर हथेली पर सरसों जमाने की बालक्रीड़ा मज़ाक ही सिद्ध होती है। योगाभ्यास की साधना विधियां भले ही बहुत कठिन न हों लेकिन उनके फलित होने लायक साधन की पूर्व भूमिका तो शुद्ध होनी ही चाहिये । यदि मनुष्य का बाहरी जीवन दूषित, कलुषित, निष्कृष्ट एवं अस्तव्यस्त रहेगा तो उसे लौकिक समृद्धि, सफलता एवं सुख शांति भी प्राप्त न हो सकेगी, ऐसी दशा में आत्मबल एवं उच्च विभूतियों की उपलब्धि की आशा करना मूर्खता ही है।
अध्यात्म का सबसे बड़ा नियम नियम यह है कि पहले बाहरी जीवन को सुखमय-शान्तिमय बनाया जाये क्योंकि अगर मन स्थिर नहीं है, किसी भी कारण भटक रहा है तो कुछ भी प्राप्त न होगा। गुरुदेव बताते हैं कि मनुष्य जितनी पूजा पाठ करता है, करता रहे लेकिन ज़्यादा बल बाहरी जीवन को सुसंगत बनाने के लिये ही देना चाहिए । रोज़मर्रा के जीवन को सुविकसित एवं सुसंस्कृत बना लेना भी एक “आध्यात्मिक साधना” ही है। उसका प्रतिफल भी लौकिक सफलताओं के रूप में ही उपलब्ध होता है। जब बाहरी जीवन सुखमय हो जाता है, यह एक बहुत बड़ी सफलता है, इस सफलता के बाद “उच्चस्तरीय आध्यात्मिक साधना” सरल हो जाती है। हमें अनेकों साधक मिल जायेंगें जो जप तप तो बहुत करते हैं, पूजा पाठ, घंटी बजाकर लोगो में बहुत धारणा बना चुके हैं यह बहुत ही उच्कोटि के साधक हैं लेकिन जब उनके घटिया लौकिक जीवन की ओर दृष्टि दौड़ाते हैं तो निराशा के सिवाय और कुछ भी हाथ नहीं लगता।
कई व्यक्ति अपनी पात्रता बढ़ाने पर ध्यान न देकर समर्थ शक्तियों के उपहार स्वरूप विविध विधि वरदान प्राप्त करने के फेर में पड़े रहते हैं। देवताओं की पूजा वे इसी उद्देश्य से करते हैं कि कम समय, कम श्रम, कम खर्च करके बड़ा लाभ प्राप्त कर लें । लाटरी लगाने वालों एवं जुआ खेलने वालों का भी यही उद्देश्य रहता है। ऐसे लोग थोड़ा खर्च करे, बिना श्रम एवं क्षमता के ही विपुल धन राशि प्राप्त करने के सपने देखते हैं। इसमें से किसी विरले की ही कामना पूर्ण होती है अधिकांश तो निराश ही रहते हैं। देवताओं का वरदान वस्तुतः इतना सस्ता नहीं है जितना लोगों ने समझ रहा है। वे दर्शन करने मात्र से प्रसन्न हो जायेंगे या अक्षत, पुष्प जैसी छोटी चीज़ें पाकर अपना अनुग्रह भक्त के ऊपर उड़ेल देंगे, ऐसा सोचना पूर्णतया अनुचित है। पूजा,आराधना का अपना महत्व है, उसका लाभ भी होता है, लेकिन मूल तथ्य पात्रता है। अनधिकारी की,कुपात्र की,प्रार्थना भी सफल नहीं होती । देवता या भगवान को प्रसन्न करने का, उनका अनुग्रह उपलब्ध करने का, सुनिश्चित मार्ग अपनी पात्रता बढ़ाना ही हो सकता है। किन्हीं सिद्ध पुरुषों का समर्थ आशीर्वाद प्राप्त करने के लिये भी यह आवश्यक है कि वे अपना तप या पुण्य दान देकर हमारी सहायता करें, लेकिन उसके लिये हम पहले उपयुक्त अधिकारी तो सिद्ध हों। इस सृष्टि में कोई भी वस्तु मुफ्त नहीं मिलती। हर वस्तु का मूल्य निर्धारित है। उसे चुकाने पर ही कुछ प्राप्त कर सकना सम्भव हो सकता है। सुख और समृद्धि की प्राप्ति “पुण्य फल” की मात्रा पर निर्भर रहती है। दुःख हमारी त्रुटियों और विकृतियों के फलस्वरूप प्राप्त होते हैं। सुख प्राप्त करने और दुःख निवारण के लिये पुण्य एवं तप की अभीष्ट मात्रा चाहिये। हमेशा से इस अटल सत्य को कैसे नकारा जा सकता है “इस हाथ दे, उस हाथ ले।” कुछ भी प्राप्त करने के लिए, बटुआ तो पहले ही ढीला करना पड़ेगा। मूल्य हर हालत में चुकाना पड़ेगा।
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आज 7 युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है। सरविन्द जी को गोल्ड मैडल प्राप्त करने की बधाई एवं सभी साथिओं का संकल्प सूची में योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1)सरविन्द कुमार-41,(2)संध्या कुमार-28,(3 ) अरुण वर्मा-29,(4)मंजू मिश्रा-25, (5 ) सुजाता उपाध्याय-26,(6)विदुषी बंता-24,(7) रेणु श्रीवास्तव-24
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।