15 जनवरी 2024 का ज्ञानप्रसाद
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार नामक गुरुकुल की सप्ताह की प्रथम गुरुकक्षा में शब्द सीमा के कारण प्रज्ञागीत के लिए आशीष जी का धन्यवाद् ही कर सकते हैं।
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यह संसार दो रूपों में बटा हुआ है: दृश्य जगत और अदृश्य जगत। दृश्य जगत स्थूल नेत्रों से दिखाई देने वाला “सम्पूर्ण भौतिक जगत” है। अदृश्य जगत का “तत्व” परमात्मा है जो प्राण रूप में सर्वत्र व्याप्त होकर भिन्न भिन्न क्रीड़ाओं की रचना करता है। अगर प्राण ही परमात्मा है तो फिर इस विषय पर चर्चा करने का कोई औचित्य नहीं होना चाहिए क्योंकि परमात्मा के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाना तथाकथित ( so called) ज्ञानी एवं पढ़े लिखों का कार्य है। मृत्युशया पर पढ़े हुए रोगी को बचाने के लिए भी बड़े-बड़े डॉक्टर यह कहते हुए सुने गए हैं कि अब इसे परमात्मा ही बचा सकते हैं। कहने का अभिप्राय केवल इतना ही है कि डॉक्टर जानते हैं कि “परमात्मा (प्राण )” नाम की कोई शक्ति तो है लेकिन उस शक्ति को मानना शायद उनकी फितरत में नहीं है। ऐसी फितरत केवल डॉक्टरों में ही नहीं, लगभग सभी पढ़े लिखे लोगों में होना स्वाभाविक है क्योंकि भौतिकता की काली पट्टी ने उन्हें इस विषय से विमुख रखा हुआ है। अभी कल ही किसी के बात हो रही थी कि “क्या आप आत्मा में विश्वास रखते हैं ?”, तो तपाक से उत्तर मिला था कि आत्मा आदि का कोई अस्तित्व नहीं है, दाहसंस्कार के बाद शमशान में ही आत्मा स्वाहा हो जाती है। भौतिकता की पट्टी के इलावा, ऐसे उत्तरों के मात्र दो ही कारण हो सकते हैं- अज्ञानता एवं “मैं न मानूं” प्रवृति। प्राण शक्ति का ज्ञान केवल ऋषियों मुनियों के गूढ़ ज्ञान में ही सन्निहित है जिसे समझ पाने के लिए घोर इच्छा शक्ति एवं समय की आवश्यकता होती है,आज के मानव के पास दोनों में से एक भी नहीं है। ऋषिओं की शिक्षा, सानिध्य आदि हथेली पर सरसों जमाना, और चुटकी बजाते ही सब कुछ दृश्यमान हो जाने से कहीं दूर की बात है- यही है सही मायनों में अध्यात्म की शिक्षा का प्रथम चरण।
परमात्मा, जिसे हम कई बार परम आत्मा भी कह कर सम्बोधन करते हैं, सब कालों में एक सी स्थिति में रहते हैं,लेकिन प्रकृति परिवर्तनशील है,उसका स्वरूप बदलता रहता है। यही कारण है इस सदैव बदलती प्रकृति को “मिथ्या” कहा है। मिथ्या का अर्थ झूठ, बनावटी, कृत्रिम, असत्य आदि कहा गया है, अंग्रेजी में इसे falsified कहते हैं। सही मायनों में यह एक बहुत ही गूढ़ ज्ञान है क्योंकि जिसे अक्सर मिथ्या कहा गया है, भौतिक कहा गया है उसी से तो सारा जीवन चल रहा है और जीवन ही प्राण है, लाइफ है। हम इस चर्चा को मात्र अद्वैत (जो अपनेआप में ही एक अलग सा विषय है) कह कर ही बंद करना उचित समझते हैं एवं किसी उचित समय पर विस्तार से अध्ययन करेंगें।
भौतिक पदार्थों की वासना,लालच और उनसे प्राप्त होने वाले सुख को मिथ्या कहना अनुचित नहीं है क्योंकि इस लालच और तृष्णा में जब मनुष्य भटक जाता है, तब उसे ऐसा प्रतीत होता है कि यह संसार भ्रम (Illusion) है, धोखा है, मृग मरीचिका है। मिथ्या की परिभाषा को समझने के लिए उस मनुष्य का उदाहारण दिया जा सकता है जो अँधेरे में,अनजाने रास्ते पर भटक चुका है और उसे अपने घर का एड्रेस भी भूल गया है, फ़ोन की saved contact list का तो कहना ही क्या, वहां तो फ़ोन भी काम नहीं कर रहा। तो हुआ न सब झूठ और मिथ्या।
मनुष्य बार-बार ऐसी स्थिति को कोसता है और इससे निकलने का मार्ग ढूंढता है, प्रकाश की किरण मिल जाने पर,मार्ग मिल जाने पर, घर वापसी पर मनुष्य के मुख से केवल यही शब्द निकलते हैं,शुक्र है उस परमात्मा का जिसने घर वापसी करा दी। अन्धकार से, मिथ्या से दूर रहने में ही कल्याण है।
हमारे शास्त्रकारों ने इसी तथ्य को मछली का उदाहरण देकर समझाने का प्रयास किया है। मछली को कांटे के ऊपर लगा हुआ भोजन तो दिखाई देता है लेकिन लालचवश भोजन के नीचे छिपा हुआ कांटा दिखाई नहीं देता जिसके फलस्वरूप उसमें फँस कर वह अपना जीवन गँवा देती है जिसका अंत डाइनिंग टेबल पर किसी की प्लेट में ही होता है। भौतिकता के वशीभूत मनुष्य के जीवन का परिणाम भी ऐसा ही होता है जब उसकी दृष्टि भौतिकता के पीछे छिपे मिथ्यात्व (झूठ) पर बिल्कुल नहीं पड़ती। कृत्रिम(!) झूठ की मृगतृष्णा में मनुष्य ऐसा भटक जाता है कि तरह तरह के कुकर्म करने लग पड़ता है। मनुष्य अपने जीवन लक्ष्य से पतित होकर, इस जन्म का तो क्या, आने वाले अनेकों जन्मों का सर्वनाश कर डालता है। अभी हमने पिछले ही लेख में अमृतपान किया है कि मनुष्य-जन्म मात्र यही एक संक्षिप्त ( 100- 150 वर्ष) का जीवन नहीं है, इससे बड़े और कईं जीवन हैं।
मनुष्य को चाहिए कि मात्र सत्य प्रतीत होने वाली चीज़ को सत्य न माना जाए । स्वप्न में प्राप्त होने वाला स्वर्ग, मात्र स्वप्न ही है क्योंकि आँख खुलते ही कुछ भी शेष नहीं रहता। स्वप्न की तरह संसार भी मात्र एक रंगमंच का लगातार बदलता “दृश्य” मात्र है। अभी इसे जिस दृश्य के रूप में देखते हैं, पलक झपकते ही क्या से क्या हो जाते हैं, हम सब इस तथ्य से भलीभांति परिचित हैं
पिछले लेख में भी देहात्म का बात की गयी थी आज फिर उसे दोहराते हुए कह रहे हैं कि ज्यों ज्यों मनुष्य की देहात्मबुद्धि बढ़ती जाती है त्यों त्यों वह अपने शरीर को अधिक प्यार करता चला जाता है, इसी को नहलाने-धुलाने, खिलाने-पिलाने, सजाने-संवारने आदि के चक्र में ही सारा जीवन बर्बाद कर देता है। मनुष्य को इस बात का आभास तो होता है कि जिस शरीर को इतना अधिक महत्व दे रहा है और जिसके लिए सब कुछ दाव पर लगा रहा है, “जीवन धारण” के पूर्व उसकी स्थिति शरीर नहीं थी और मृत्यु के बाद भी शरीर शेष नहीं रहता। यह शरीर-रुपी नाटक तो जीवन के कुछ ही क्षणों के लिए सत्य जैसा प्रतीत होता है। यही कारण है कि धर्माचार्यों ने बार-बार समझाया है कि यह संसार और इसमें प्राप्त होने वाली सभी वस्तुएं प्रपंच हैं, इन प्रपंचों से धोखा नहीं खाना चाहिए। साधनों को नाशवान समझ कर उनके पीछे भागने के बजाए दुर्लभ मानव जीवन को सार्थक बनाने का प्रयत्न किया जाना चाहिये।
सती मदालसा ने अपने बच्चों को बड़ा धार्मिक उपदेश दिया है जो निम्नलिखित है :
“हे पुत्र, तू मेरे वचन को सुन: तुम स्वरूप से शुद्ध, बुद्ध मुक्त हो। इस मायावी,राक्षस-रूपी संसार के साथ गठबन्धन से तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं है। यह दिखाई देने वाला संसार मात्र स्वप्न है इसलिये मोहरूपी निद्रा का परित्याग कर अपने “शाश्वत स्वरूप” को पहचानने का प्रयत्न करो।”
वास्तव में यह उपदेश हम में से प्रत्येक के लिये सारपूर्ण है। जब तक हम स्वयं को नहीं पहचानते तब तक इस मनुष्य शरीर का कुछ उपयोग नहीं है। इसलिये उचित है कि विषय विकारों का परित्याग कर पारलौकिक जीवन की रिसर्च एवं अन्वेषण की तरफ अपने कदम बढ़ाएं। परम पूज्य गुरुदेव की उत्कृष्ट प्रथम रचना “ मैं क्या हूँ ?” इस दिशा में अनेकों का मार्गदर्शन कर चुकी है, हमारा/आपका भी अवश्य ही करेगी। इसी प्रकार स्वयं से परिचित होने के लिए गुरुदेव ने विश्व का एकमात्र यूनिक “भटका हुआ देवता” युगतीर्थ शांतिकुंज में स्थापित किया है। पांच दर्पणों के समक्ष खड़े होकर, पांच अमृत वचनों से मनुष्य स्वयं को पहचान सकता है।
परम पूज्य गुरुदेव बताते हैं कि ऐसी बात नहीं है कि हमें परिवर्तन दिखाई नहीं देते हैं, अवश्य दिखते हैं लेकिन दुःख तो इस बात का है कि उन परिवर्तनों पर विचार नहीं किया जाता। शरीर की तीन अवस्थायें, जन्म, वृद्धि और मरण के अनेकानेक दृश्य प्रत्येक को, प्रतिदिन देखने को मिलते हैं। सभी इस तथ्य को भी जानते हैं कि मृत्यु के मुख से कोई नहीं बच पाता, फिर भी पारलौकिक जीवन की तरफ कोई-कोई ही उन्मुख होता है। अधिकांश लोग काम, क्रोध, मोह, लोभ और शोक के पीछे भटकते-भटकते ही जीवन व्यतीत कर देते हैं। परिणाम स्वरूप जीवात्मा को जन्म से लेकर मृत्यु तक इस संसार की भटकन में ही रहना पड़ता है। जीवन का अंत निकट आते समय बड़ी अशान्ति व असन्तोष होता है लेकिन तब तक मानव जीवन का स्वर्ण अवसर हाथ से निकल गया होता है और पश्चाताप के सिवाय और कुछ हाथ नहीं लगता है।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार में अनेकों साथिओं से सुनने में आता है कि हमने गुरुचरणों में समर्पित होने में इतनी देर क्यों लगा दी। ऐसे भी अनेकों मनुष्य मिलते रहते हैं जिनके ह्रदय में भावनाओं का अथाह सागर ठाठें मार रहा है कि हमें गुरुचरणों में स्थान प्राप्त करने का सौभाग्य कब प्राप्त होगा।
इस सन्दर्भ में हमारा यही कहना है कि दृश्यवान संसार की हवा में एक विषैला नशा है। सौन्दर्य की चमक-दमक में कुछ अजीब सा आकर्षण है जिससे अनेकों मनुष्य धोखा खा जाते हैं और सर्प को रस्सी समझ बैठते हैं।आकर्षण का एक रूप समाप्त हुआ ही होता है कि दूसरा नया, उससे भी आकर्षक रूप सामने आ जाता है। न पहले से तृप्ति होती है और न ही दूसरे से तृष्णा समाप्त होती है। बावला इन्सान इसी छल कपट की भूल भुलैयों में गोते मारता रहता है। उसे अपने मूल रूप की ओर ध्यान देने का अवसर भी नहीं मिल पाता और जीवन का अंत दस्तक दे मारता है
वेदान्त दर्शन का मत है कि आंख से दिखाई देने वाले दृश्य, नाक से सूंघे जाने वाली गन्ध, जीभ से चखा जाने वाला स्वाद, यह सभी मिथ्या हैं, परिवर्तनशील हैं। फूल देखने में बड़ा सुन्दर लगता है किन्तु मुरझा जाने पर वही कूड़ा करकट सा लगता है। तब उसकी सुगन्ध भी लुप्त हो जाती है। इसी तरह वृक्ष, वनस्पति, नदी, पहाड़, पशु, पक्षी सभी बदलते रहते हैं, एक रूप में स्थिर रहने वाली कोई भी वस्तु दिखाई नहीं देती। सूर्य चन्द्रमा तक की विभिन्न कलायें प्रदर्शित होती हैं। अगर किसी मनुष्य के माया मोह के विचार सहज न छूट रहे हों, उसे यह सोचना चाहिए कि इस किराये के मकान में अनेकों किरायेदार आए /गए हैं, हमारा भी कॉन्ट्रैक्ट शीघ्र ही समाप्त होने वाला है।
इसलिए आवश्यक है कि निम्नलिखित को अंतःकरण में उतारते हुए अध्यात्म का मार्ग अपनाया जाए :
मनुष्य इस संसार को परमात्मा का ही प्रतिरूप समझकर निष्काम भाव से अपने कर्तव्य कर्मों का पालन करता रहे। इस तरह वह सुगमता से इस लोक के सुख और अगले जन्म की शान्ति उपलब्ध कर सकता है।
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आज 13 युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है। दोनों भाई सरविन्द जी और अरुण जी आज गोल्ड मैडल विजेता हैं। सभी को हमारी हार्दिक बधाई एवं संकल्प सूची में योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1)सरविन्द कुमार-48 ,(2) सुमनलता-31,24,(3 )पुष्पा सिंह-27,(4) संध्या कुमार-41(5) अरुण वर्मा-49,(6)चंद्रेश बहादुर-39,(7)नीरा त्रिखा-26, (8 )मंजू मिश्रा-28 ,(9 ) रेणु श्रीवास्तव-32,(10) वंदना कुमार-39,(11) सुजाता उपाध्याय-25, (12)राधा त्रिखा-24,(13 ) राम लखनपाल-26,
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।