11 जनवरी 2024 का ज्ञानप्रसाद
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गुरुवार का शुभ दिन हम सभी शिष्यों के लिए एक नई ऊर्जा लेकर आता है क्योंकि हम सारा सप्ताह आज के लेख के साथ संलग्न करने वाले गुरुगीत का चयन करते रहते हैं। “एक ही आधार गुरुवर” प्रज्ञागीत अनेकों ने सुना होगा/ देखा होगा, हमने पहली बार देखा, उसी समय save कर लिया।
कल वाले ज्ञानप्रसाद लेख का समापन हमने जिन पंक्तियों से किया था,आज का ज्ञानप्रसाद लेख उन्हीं के समाधान का प्रयास है। उन पंक्तियों का भाव था कि इस संसार में से किस मनुष्य की अंतिम विदाई दुःखद और रोते हुए होगी और इस दुःखद अंत का सबसे बड़ा कारण क्या है। क्या मनुष्य के जीवन का अंत सुखद हो सकता है, अगर हो सकता है तो कैसे ? इसमें अध्यात्म का क्या योगदान है ?
तो चलते है आज की गुरुकक्षा की ओर।
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इस जीवन के दुःखद अन्त का सबसे बड़ा और अचूक कारण है “आसक्ति।” इसी के कारण सम्बन्धियों के बिछुड़ने पर वियोगजन्य दुःख झेलना पड़ता है। आसक्ति के कारण ही थोड़ी सी असफलता, निराशा की घटायें घेर लाती है।आसक्ति के कारण ही ज़रा सा अनादर प्रतिहिंसा की आग जला देता है और आसक्ति के कारण ही धन वैभव के लिए मनुष्य पाप कर्मों में संलग्न हो जाता है, इसलिए आसक्ति ही को सारे दुःखों का मूल कारण मानना और उससे छूटने का उपाय करना चाहिये।
आगे चलने से पहले “आसक्ति” का अर्थ समझना बहुत ही आवश्यक है। तो आइए जाने आसक्ति का अर्थ क्या होता है
आसक्ति शब्द में ही इसका अर्थ छुपा हुआ है। आसक्ति अर्थात जो मनुष्य के पास “आ तो सकती” है लेकिन जब उसके जाने का समय आता है तो बहुत ही दुःखद पल होता है, इसे यूं कहना कि आसक्ति ही सब दुःखों का मूल कारण है, शायद गलत न हो।
मोह और माया क्या है ? यह जानने के बाद इन पर नियंत्रण रखना संभव हो सकता है । चूंकि मोह और माया दोनों ही ऐसे कांसेप्ट हैं जिनकी कोई शक्ल सूरत तो है नहीं, इसलिए इनको लक्षणों से ही पहचाना जाता है। सिगरेट या किसी भी व्यसन से मुक्त न हो पाना एक प्रकार का मोह है। माया साधन है साध्य नहीं। धन,वैभव,लक्ष्मी आदि को माया कहा जाता है क्योंकि निर्धन के पास तो धन ही नहीं है तो वोह क्या व्यसन करेगा। हाँ बहुत सारे निर्धन भी व्यसन में लिप्त रहते हैं, इसी स्थिति में अज्ञानता हावी हो जाती है। मुंबई को अक्सर मायानगरी कहा गया है, इसका सम्बन्ध शायद भ्र्म से हो सकता है यानि जो दिख रहा है, वोह नहीं है। फिल्में मात्र कल्पना ही तो हैं। फिल्म आरम्भ होने से पूर्व दर्शाया गया सर्टिफिकेट यही तो दिखाता है कि यह एक “काल्पनिक” कहानी है।
मोह और माया को अक्सर साथ जोड़ कर “मोहमाया” प्रयोग किया जाता है। यही है आसक्ति, मोहमाया, अटूट बंधन, स्नेह, प्यार इत्यादि, चाहे जो कुछ भी नाम दे लें, एक ऐसा दलदल जिसमें मनुष्य फँस कर कूप मंडुक ( कुएं का मेंढक) सा बन जाता है। एक स्टेज ऐसी आ जाती है जब वह उसका इस दलदल से दूर रहना संभव ही नहीं हो पाता और इसका प्रभाव मनुष्य पर हावी होने लगता हैं। इसी दलदल को दर्शाता लेख के साथ एक चित्र दिखाया गया है जिसमें एक बच्ची खिलौनों के दलदल में डूबी पड़ी है, इतने खिलोने होने के बावजूद भी उससे एक भी मांग के देख लें तो पता चल जाएगा कि उसे इनके साथ कितना मोह है, लेकिन यह “बालबुद्धि” की सोच है, हम तो grown up मनुष्य हैं, हम क्यों भांति भांति के खिलौनों के मोह में फँस जाते हैं और जीवन को दुःखी बनाते हैं। मनुष्य स्वयं को जितना “जीवन के खिलौनों” से दूर रखेगा, आसक्ति रहित जीवन व्यतीत करेगा, अध्यात्मवादिता का पालन करेगा, उतना ही सुखी रहेगा।
लेकिन इस चर्चा में एक बहुत महत्वपूर्ण तर्क सामने आ रहा है कि जिसे हम मोह और माया कह रहे हैं उन्हीं से तो जीवन चल रहा है। क्या बच्चों से, परिवार से ,अपने जॉब से , पद आदि के प्रति मोह न किया जाए ? अगर जॉब के प्रति निष्ठा और मोह नहीं होगा तो मनुष्य के मन मे काम करने की इच्छा ही नहीं होगी, जीवन ठहर सा जाएगा। मनुष्य अपने परिवार के साथ, अपने बच्चों के साथ, स्वयं से भी अधिक प्यार करता है। पत्नी को खुश करने के लिए तो आकाश के तारे भी तोड़ लाने की कहावत को साकार करने का प्रयास करता है, कड़ी मेहनत करता है, दिन रात परिवार के लिए पैसा कमा कर जीवन को सुंदर बनाने की होड़ में स्वयं त्यागमय जीवन जी कर भी खुशी महसूस करता है ।
यह सब ठीक है, यही है आसक्ति, यही है मोहमाया जिसके लिए मनुष्य अपना सर्वस्व दाव पर लगा देता है लेकिन ऊपर दिए गए तर्क का उत्तर यही है कि अगर यह मोह एक सीमा तक ही हो तो शायद स्थिति कुछ और ही हो। किसी के जीवन से चले जाने के बाद भी उसके “मोह” में फंसे रहना सही नहीं है, मनुष्य शमशान में जिसका दाह संस्कार करके आया है, वोह एक शरीर था, आत्मा तो अमर है, उससे प्यार करना है तो उसकी आत्मा से प्यार करना चाहिए, उसके आदर्शों से प्यार करना चाहिए, उसके आदर्शों को प्रमोट करना चाहिए, अध्यात्म स्वयं ही हो जायेगा क्योंकि आत्मा से प्रेम ही परमात्मा से प्रेम है। उस अतिप्रिय सदस्य के जाने के बाद भी जीवन में बहुत कुछ करने को है क्योंकि जीवन केवल उतना ही नहीं है जितना तथाकथित दुःखी मनुष्य सोच रहा है। जीवन को नए सिरे से देखना, unfold करने में कोई बुराई नहीं है। अगर इस सोच को धारण करके आगे बढ़ने का धारणा बनाई जाए तो ठीक है, नहीं तो ट्रेजेडी हीरो की भांति अकेले में, अँधेरे में बैठ कर यही गीत गाना पड़ेगा “सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया।” क्योंकि मोह अगर बोझ बन जाए तो सच में ऐसी आसक्ति से, दलदल से बाहिर निकलना ही बेहतर होगा।
आसक्ति का ही एक और bye product है -अपराध। किसी वस्तु,मनुष्य,पद प्रतिष्ठा के साथ मोह होने के कारण मनुष्य इतना स्वार्थी हो जाता है कि अपराथ एवं अनैतिक कृत्य करने में भी घबराता नहीं है। ऐसे मोह से तो भगवान ही बचाएं।
तो साथिओ हमने देख लिया कि आसक्ति का अर्थ क्या है और कितना बड़ा भयंकर रोग है। यह आसक्ति चाहे पुत्र/पत्नी के प्रति हो, धन दौलत के प्रति हो, सुहृद सहचरों के प्रति हो, देह के प्रति हो, इस रोग से बचकर ही मनुष्य एक निरामय एवं निर्भय जिन्दगी जी सकता है।
जब आसक्ति की बात हो रही है तो देहासक्ति को कैसे छोड़ा जा सकता है। देहासक्ति यानि अपनी देह के साथ,अपने शरीर के साथ मोह,आसक्ति। मनुष्य सारा जीवन इस देह के रंजन, मंजन, सुंदरता में ही लगा रहता है। उसे डर रहता है कि यह मिट्टी की काया कहीं बूढ़ी न हो जाये, कहीं भोग वासना के अयोग्य न हो जाये। इसी भय के कारण मनुष्य इस काया की, देह की, विविध पदार्थों और परिधानों के साथ पूजा अर्चना करता रहता है, पुष्प अर्पण करता रहता है। जिस ईश्वर ने उसे पैदा किया, जिसकी वोह संतान है, जिसके प्रति मनुष्य के अनेकों कर्तव्य हैं, जिसकी वोह आत्मा है,उसकी आराधना करे न करे,लेकिन नश्वर मिट्टी जो एक दिन मिट ही जानी है, इसके लालन पालन में ही सारा जीवन व्यतीत किये जाता है। मनुष्य को समझ लेना चाहिए कि इस काया पर कितना भी चन्दन वन्दन क्यों न चढ़ाया जायें, कितनी ही मनौती और मिन्नतें क्यों न की जाएँ, समय आने पर इसने बूढ़े और कुरूप होना ही है।
आवश्यकता से अधिक शरीर को मान्यता देने का कारण यह देहासक्ति ही है।
इस देहासक्ति के कारण मनुष्य न तो दृढ़तापूर्वक,संकल्पित होकर साधना कर पाता है और न नियम-संयम का निर्वाह। मनुष्य ने भांति भांति की धारणाएं बनाई हुई हैं कि समय के अभाव में इस शरीर को अधिक साधने से कहीं यह निर्बल न हो जाये,अधिक संयम, नियमों से इसको कष्ट होगा, परमार्थ पथ पर डाल देने से मनुष्य के भोग विलास के अधिकार छिन जायेंगे आदि आदि। यह सारे बहाने मनुष्य को देहधारक यानि देह के लिए ही जीना बना देता है।
देहासक्ति से भयंकर हानि :
देहासक्ति से मनुष्य की भयंकर हानि होती है। देह को प्रधानता मिलते ही आत्मा पीछे रह जाती है। आत्मा के गौण होते ही अज्ञान का घना अन्धकार घेर लेता है और तब उस अन्धकार में मनुष्य जीवन की जो जो दुर्दशा होती है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। उसे भय, संशय, सन्देह तथा आशंकाओं की डायनें हर समय सताया करती हैं, तृष्णायें उसे एक क्षण भी विश्राम नहीं लेने देतीं, आस्तिकता, आस्था और अनागत भविष्य के सारे दीप बुझ जाते हैं और मनुष्य एक अंधेरा अन्त पाकर, अनन्त अंधकार में जाकर युग कल्पों के लिये डूब जाता है।
शरीर और कुछ नहीं एक साधन मात्र है, आत्मा के उद्धार के इस साधन की खोज-खबर रखनी तो चाहिये,लेकिन उसी सीमा तक जहां तक यह साधन रूप में “आत्मोद्धार” में सहायक हो सके। इसे स्वस्थ तथा सशक्त बनाये रखने के लिये जो भी जरूरी हो करना चाहिए लेकिन इसकी इन्द्रिय लिप्सा की जिज्ञासा का कभी भी रंजन नहीं होना चाहिए । विषय भोग और आराम, विश्राम जिन्हें मनुष्य मांगता फिरता है, इसके लिये घातक तथा अनावश्यक है। इनकी सुविधा पाकर यह शरीर आलसी, प्रमादी और ढीठ बन जाता है और तब हर उस साधना में आनाकानी करने लगता है, जो आत्मा के उद्धार में आवश्यक होती है । अस्तु देहाभिमान अथवा आसक्ति से सदा सावधान रहकर दूर रहना चाहिये।
देहासक्ति छूटते ही बाकी सारी आसक्तियां स्वयं ही छूट जाती हैं। इसका पोषण करते हुए इसको ठीक वैसे ही भूले रहिये, जैसे जीव इसका विसर्जन हो जाने के बाद भूल जाता है। ममता, मोह और माया के सारे सम्बन्ध देह तक ही हैं और जिस प्रकार इसके छूट जाने से सम्बन्ध भी टूट जाते हैं, ठीक उसी प्रकार इसका विस्मरण किये रहने में सारी आसक्तियां छूट जायेंगी और तब अन्तिम समय में उनकी अनुभूति भी साथ लगी हुई न जायेगी। जीव निर्लिप्त और निर्मोहपूर्वक जाकर अनन्त जीवन को ग्रहण कर लेगा।
मनुष्य का वर्तमान जीवन ही अन्तिम नहीं है, इसके बाद एक दीर्घकालीन जीवन भी है, जिसके यापन में आवश्यक पुण्य का सम्बल इस जीवन में संचय करने के लिए अनासक्ति भाव से कर्म करते हुए, जीवन चलाइये और बाद में मायामोह तथा आसक्ति से निर्बन्ध होकर संसार से यात्रा कीजिये। तभी वहां जाकर दीर्घकालीन सुख, सन्तोष की प्राप्ति होगी।
इन्हीं गोल्डन शब्दों के साथ आज की गुरुकक्षा का समापन होता है, कल वीडियो कक्षा में मुलाकात होगी।
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आज 14 युगसैनिकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है। अरुण जी फिर से अपने पुराने संकल्प को कायम रखते हुए गोल्ड मैडल विजेता हैं । सभी को हमारी हार्दिक बधाई एवं संकल्प सूची में योगदान के लिए धन्यवाद्।
(1)सरविन्द कुमार-24 ,(2) सुमनलता-45 , (3 )अरुण वर्मा-70 ,(4) संध्या कुमार-58 ,(5) सुजाता उपाध्याय-37,(6)चंद्रेश बहादुर-25 ,(7)नीरा त्रिखा-26, (8 )मंजू मिश्रा-25 ,(9 ) रेणु श्रीवास्तव-40 ,(10) वंदना कुमार-24 ,(11)अनुराधा पाल-25 ,(12) निशा भारद्वाज-24, (13)पुष्पा सिंह- 25, (14) संजना कुमारी-24
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।
