वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

पारलौकिक जीवन के लिए अध्यात्मिकता की आवश्यकता

10 जनवरी 2024 का ज्ञानप्रसाद 

Source: अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए

सप्ताह का तीसरा दिन बुधवार, गणेश जी को समर्पित है तो फिर “जय गणेश, जय गणेश” से बढ़कर और दिव्य एवं बढ़िया क्या हो सकता है। आज हमारी समर्पित बहिन रेणु श्रीवास्तव जी की बड़ी बेटी शिल्पा श्रीवास्तव का 50 वर्षीय जन्म दिवस है, ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की ओर  से इस “स्वर्ण जयंती जन्म दिवस” की हार्दिक शुभकामना एवं बधाई। शिल्पा जी एवं उनके  परिवार पर परम पूज्य गुरुदेव के अनुदान अनवरत बरसते रहें।       

परम पूज्य गुरुदेव की दो उत्कृष्ट रचनाएँ “समस्त समस्याओं का समाधान-अध्यात्म” और “अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए” जिन पर वर्तमान ज्ञानप्रसाद लेख श्रृंखला आधारित है, एक असमाप्त लेख श्रृंखला साबित हो रही है। हर लेख को लिखने की उत्सुकतावश  न जाने कितनी ही बार पन्ने पलट कर देख चुके हैं कि आगे क्या आने वाला है, तो जो मिला है आँखें खोलने वाला ही मिला है। आदरणीय लीलापत शर्मा जी के शब्द एकदम मन मस्तिष्क में उतर आते हैं, “ऐसा लेखक मैंने आज तक नहीं देखा है।” शत प्रतिशत सही थे यह शब्द।

आज के लेख में लौकिक और पारलौकिक यानि इस लोक और परलोक की चर्चा की गयी है। लेख में यह दर्शाने और समझने का प्रयास किया गया है कि मनुष्य जिस जीवन के लिए अपना सर्वस्व ही न्योछावर किए जा रहा है कितना क्षणभंगुर है, कितना Short-lived है। इस 100/50 वर्ष के जीवन के लिए सब कुछ ही दाव पर लगा देना कोई समझदारी नहीं है।  कुछ अगले जीवन के लिए, परलोक के लिए भी करने का प्रयास करना चाहिए, यह केवल अध्यात्म से ही संभव है। 

तो आइए सभी शिष्य अपने महान गुरु के चरणों में समर्पित होकर गुरुकुल की गुरुकक्षा की और प्रस्थान करें, याद रहे प्रसाद उसी को  मिलेगा जो गणेश जी का भजन करेगा।  

हम सब मनुष्यों की एक बहुत बड़ी कमज़ोरी है कि हम इसी जीवन को अपना समस्त जीवन मान बैठे हैं लेकिन सच्चाई तो यह है कि इस जीवन के बाद मनुष्य का एक और (एवं अनेकों) भी जीवन है जो कि इस जीवन से लाखों करोड़ों गुना लम्बा है। मात्र कुछ ही गिने चुने वर्षों के इस छोटे से जीवन के बाद आने वाला जीवन कितने वर्षों, युगों और कल्पों तक होगा, कोई भी अनुमान लगाने में असमर्थ है। यही कारण है कि अपनी अपरिमित (Limitless) अवधि के कारण आने वाले जीवन को  “अनन्त और अमर” कहा जा सकता है। इसी जीवन को “पारलौकिक जीवन” कहा गया है जो मनुष्य द्वारा व्यतीत किए  जा रहे “लौकिक जीवन” से अल्ग है। इसे लोक, परलोक की दृष्टि से भी समझा जा सकता है,यानि जो जीवन बिताया जा रहा है वह लौकिक है और आने वाला परलोक का जीवन पारलौकिक है   

आधुनिक युग में विज्ञान की प्रगति के कारण पारलौकिक जीवन के विश्वास में अब  सन्देह की गुंजाइश बिल्कुल नहीं रह गई है। आज का विज्ञान भी “मनुष्य रहस्यों” को खोजता हुआ, कुछ ऐसे निष्कर्ष पर पहुंच रहा है, जिसमें पारलौकिक जीवन के प्रमाण मिले हैं। Professor Stuart Hameroff की शोध जिसमें उन्होंने आत्मा का निवास स्थान मस्तिष्क बताया है, OGGP के मंच पर कुछ दिन पूर्व ही चर्चा की गयी थी। कहने का अर्थ है कि चेतना, आत्मा, भाव संवेदना आदि की बातें वैज्ञानिकों ने करनी आरम्भ कर दी हैं, किन्तु जो बातें वैज्ञानिक आज कर रहे हैं, भारतीय ऋषि मुनि अपनी साधना,अपने ज्ञान और अपनी तपस्या के आधार पर बहुत पहले पता लगाकर घोषणा कर चुके थे। यही कारण है कि सारा भारतीय जीवन ऋषि मुनियों की घोषणाओं को मानकर ही निर्धारित किया गया है। पारलौकिक जीवन को अदृष्टिगोचर करके लौकिक जीवन नहीं जिया जा सकता और जो ऐसा करते हैं, अनियोजित जीवन जीते हैं वे धोखा खाते हैं। ऐसे मनुष्य आने वाले अनंत जीवन के लिए कांटे बो लेते हैं। 

समझदार मनुष्य वही है जो वर्तमान लौकिक जीवन को पारलौकिक(आने वाले) जीवन की तैयारी के गोल्डन अवसर का सदुपयोग करता है। जो मनुष्य इसी जीवन को अन्तिम जीवन मान कर, अपनी मनमानी करते हैं, ईश्वर द्वारा  निर्धारित किये गए मापदंडों की अवहेलना करते हैं, खाओ पियो, ऐश करो वाला जीवन व्यतीत करते हैं, Live for today-कल किसने देखा है, वाले सिद्धांत के अनुसार जीवनयापन कर रहे हैं, बहुत बड़ी भूल कर रहे हैं।  ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का प्रत्येक सदस्य इस तथ्य से भलीभांति परिचित है कि वर्तमान जीवन में किये गए पाप- पुण्य, दुःख-सुख, भलाई-बुराई, स्वार्थ-परमार्थ सभी संचय होकर, “संचित कर्म की परिभाषा” से पारलौकिक जीवन में फलित और  प्रस्फुटित हैं। कर्मफल के सिद्धांत पर तो आए दिन इस मंच से कुछ न कुछ लिखा ही जाता है क्योंकि कर्मों  के अनुरूप ही मनुष्य अनन्तकाल तक सुख-दुख अथवा स्वर्ग-नरक भोग करता है। वर्तमान जीवन ही आने वाले  जीवन की तैयारी का एक गोल्डन अवसर है, इस तथ्य को भूलना ही सबसे बड़ी अज्ञानता है 

हम सबको इस बात का भलीभांति  ज्ञान है कि मनुष्य का लौकिक जीवन अविश्वसनीय एवं  नश्वर है, उसे तो  नष्ट होना ही है। हम में से किसी को भी पता नहीं कि हम सौ वर्ष तक जिएँगें यां इसी क्षण अथवा अगले क्षण हवा हो जायेंगें। इस नश्वरता और क्षणिकता के प्रमाण बनकर न जाने कितने ही अकस्मात हमारी आँखों के सामने छोड़ गए  हैं। सोते हुए, खाते- पीते हुए, हंसते-बोलते हुए, खेलते और काम करते हुए, न जाने कितने जीवन नित्य ही इहलीला समाप्त कर अपने “दीर्घकालीन पारलौकिक जीवन” में प्रवेश करने और यहां का लेखा जोखा भोगने के लिये चल देते हैं। बच्चे,सगे सम्बन्धी,सम्पत्ति और सचित किया गया भारी अम्भार ज्यों ही धरा का धरा रह जाता है।भगवान्  की आवाज़ लगते ही पंछी आधी-अधूरी योजनायें, कार्यक्रम, बातचीत और व्यवहार  सब कुछ छोड़कर उड़ जाता है। 1957 में रिलीज़ हुई भाभी मूवी का सुपरहिट  गीत “चल उड़ जा रे पंछी कि अब यह देश हुआ बेगाना” यहाँ पर सटीक फिट होता है। 

इस जीवन का कुछ पता नहीं कि “सबसे बलवान समय” कब अपनी गति बदल दे और पीछे रहने वालों को यह कहने पर विवश कर दे, “बाबू मोशाय,हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं, जिनकी डोर ऊपर वाले की  उंगलियों में बंधी है। कब कौन कैसे उठेगा, ये कोई नहीं बता सकता।

इसलिए मनुष्य की बुद्धिमानी इसी में है कि इसकी क्षणभंगुरता को स्वीकार कर तुरंत इसी क्षण से अपने पारलौकिक जीवन की तैयारी में संलग्न हो जाए क्योंकि जो बिना संबल, संचित कर्म  किये अनन्त प्रवास में चला जायेगा, उसे अनन्त कष्ट होंगे, यह निश्चय है। परलोक का जीवन इस लौकिक जीवन से बिल्कुल ही भिन्न है, वहाँ ऐसी कोई स्वाधीनता और सुविधा नहीं कि यहां से कुछ ले जाएँ , वहां बना लें, संचय कर लेंगे। वहां तो केवल यहाँ किये गए कर्मों के आधार पर ही समय काटना पड़ेगा। वहां न सत्कर्म का अवसर मिलेगा और न अपकर्म का, वहां तो केवल इसी जन्म  के कर्मों के अनुसार मनुष्य को अपना Deposit ब्याज के साथ दे दिया जाता है। यही वोह अनमोल सम्पति (Deposit) है  जिसके आधार पर मनुष्य को आनन्द की प्राप्ति होती है यां फिर यातनाएं भोगने के लिए विवश होना पड़ता है। भाई-बंदी, मिनिस्टरों की सिफारशें, पैसे और पद का रौब और धौंस सब इधर ही चलता है, उस लोक में नहीं।  

इस लोक  का संचय किया हुआ वह सम्बल क्या है, जो परलोक में  काम आना है? वह सम्बल है, पुण्य-परमार्थ, निर्मोह और निर्लिप्तता । पुण्य परमार्थ का अर्जन, सत्कर्मों और उसके साथ लगी हुई, सद्भावना से होता है। यदि सत्कर्म के साथ सद्भावना का संयोग नहीं है तो उस सत्कर्म का पुण्य परास्त हो जायेगा। एक मनुष्य किसी दुःखी की सहायता करता है लेकिन भावना यह रखता है कि ऐसा करने से यह मनुष्य मुझे अमीर बनाएगा और उदार समझेगा, मेरा आभारी होगा और यथासम्भव मेरी पूजा-प्रतिष्ठा करेगा। समाज में जो देखे, सुनेगा, वह मुझे सम्मान देगा, मेरा आदर करेगा, जिससे समाज में मेरा स्थान बनेगा। ऐसा सोचते ही उसका सत्कर्म दूषित हो गया, उसका पुण्य कर्ज़दार  हो गया, ऐसा सत्कर्म पारलौकिक जीवन में सम्बल बन कर काम नहीं  आ सकेगा। मनुष्य द्वारा किया गया कोई  भी पुण्यकार्य  सम्बल तभी  बनेगा, जब सहायता करने के पीछे कोई स्वार्थ भाव न  रहे, कोई इच्छा, आकांशा न रहे। अगर भावना रखनी ही है तो केवल इतनी ही रखी जानी चाहिए कि सहायता लेने वाला व्यक्ति हमारी ही तरह एक मनुष्य है, हमारा भाई है; उसकी आवश्यकता, उसकी तकलीफ और उसका कष्ट, हमारा कष्ट है। हमारी सहायता  पाना उसका नैसर्गिक अधिकार है और सहायता करना हमारा नैतिक कर्त्तव्य है। मेरे पास जो कुछ है, वह सब प्राणी मात्र की धरोहर है, जो सबको उचित प्रकार से मिलनी ही है। मेरा इस पर कोई आभार नहीं, बल्कि उसका मुझ पर आभार है जो उसने मुझे सेवा का, सहायता का अवसर दिया। इस प्रकार अधिकार रहित सन्दर्भ ही पारलौकिक जीवन के सम्बल बना करते हैं।

यहाँ एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न  उठता है कि ऐसी   निस्वार्थ  भावना प्राप्त कैसे हो? 

इसके लिए वर्षों से परखा (Tried and tested) उपाय करना होगा और वह उपाय है उपासना । ईश्वर में विश्वास, ईश्वर की उपस्थिति;  सम्पूर्ण आत्म-समर्पण के साथ ईश्वर  की उपासना करते-करते जब व्यक्ति के हृदय में ईश्वर- प्रकाश आ विराजेगा, तब उसे सारा जड़-चेतनामय संसार परमात्म-रूप ही दिखने और अनुभव होने लगेगा। उसका ‘स्व’ सर्वव्यापी  हो जाएगा। ऐसी स्थिति में उसे किसी से अलग होने  का अनुभव ही न होगा। स्वयं, सहायक, सहायतार्थी, सहायता और परिणाम सबका सब ईश्वर-रूप ही दिखाई देगा। ऐसी दशा में ऐसे न तो यह पता चलेगा कि वह किसी की सहायता कर रहा है या कोई उससे सहायता पा रहा है, उसे “मैं तुझमें और तू मुझमें” वाली स्थिति का आभास होना आरम्भ हो जाएगा।  

पारलौकिक जीवन की तैयारी में निर्मोह, निर्लिप्तता अथवा अनासक्ति की साधना भी आवश्यक है। इस असार संसार से मोहमाया  लेकर जाने वाले उस पार के अपार जीवन में बड़ी सघन यातना के भागीदार बनते हैं, मोहमाया  के कारण रो-रो कर, रुक रुक कर  प्राण छोड़ते हैं  और तड़प-तड़प कर संसार से विदा होते हैं।  वे वहां भी अपनी उस अंतिम स्थिति के अनुसार रो- रो कर और तड़प-तड़प कर ही जीवन बितायेंगे। 

अगर मनुष्य  हंसता-खेलता हुआ गया, तब तो समझना चाहिये कि वहां भी  हंसता-खेलता ही रहेगा और यदि रोता सिसकता हुआ, विदा हुआ तो वहां भी रोता सिसकता ही रहेगा। इसमें दो सम्भावनायें नहीं हो सकतीं।

कौनसा मनुष्य रोकर जायेगा और कौनसा मनुष्य हँसता खेलता जाएगा, यह किस पर निर्भर करेगा और  इसके लिए क्या करना चाहिए; यह ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तर अवश्य ही मिलने चाहिए। हमारे साथी  भलीभांति इन प्रश्नों से भलीभांति परिचित हैं लेकिन फिर भी कल वाले लेख में प्रयास करेंगें, कमैंट्स भी बहुत कुछ ज्ञान प्रसार कर जाते हैं।

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आज 10 युगसैनिकों ने 24 आहुति  संकल्प पूर्ण किया है।आज अरुण जी बड़े दिनों  के बाद गोल्ड मैडल विजेता हैं । सभी को हमारी हार्दिक बधाई एवं संकल्प सूची में योगदान के लिए धन्यवाद्।   

(1)सरविन्द कुमार-30  ,(2) सुमनलता-33  , (3 )अरुण वर्मा-60 ,(4) संध्या कुमार-36  ,(5) सुजाता उपाध्याय-40,(6)चंद्रेश बहादुर-28,(7)नीरा  त्रिखा-25, (8 )मंजू मिश्रा-28 ,(9 ) रेणु श्रीवास्तव-48,(10) वंदना कुमार-26        

सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।


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