वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

हमारे प्राचीन ऋषियों का अध्यात्मवाद 

8 जनवरी 2024 का ज्ञानप्रसाद

आज एक बार फिर हम सप्ताह के प्रथम दिन सोमवार का स्वागत कर रहे हैं। सोमवार को भगवान् शिव की आराधना का बहुत बड़ा महत्व है, आज का प्रज्ञा गीत वर्षा श्रीवास्तव जी की दिव्य वाणी में बहुचर्चित शिव आरती है जिसे हम एवं हम जैसे अनेकों साथी बचपन से गा रहे हैं।

आज के ज्ञानप्रसाद लेख में अध्यात्मवाद की उस शक्ति का वर्णन है जिससे  हमारे ऋषिओं ने विश्वभर के जनसाधारण को परिचित कराया।  इन ऋषिओं की साधना ने इस तथ्य को प्रमाणित करके दिखाया कि  “अध्यात्म एक सत्य सिद्ध विज्ञान है” जिसके लिए मनुष्य का शरीर स्वयं ही प्रयोगशाला है। अगर कोई मनुष्य अध्यात्म को घृणा की दृष्टि से देखता है तो उसका केवल एक ही कारण है कि उसे इस विस्तृत विज्ञान की A,B,C का भी ज्ञान नहीं है, लेकिन एक बात तो सत्य है कि अगर वोह अपनी नासमझी के कारण इसको नकार रहा है तो इसके महत्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला। यह तो वही बात हुई कि ईश्वर के प्रति  नास्तिक भावना रखने से ईश्वर का महत्व समाप्त तो नहीं हो जाता। 

हमारी गुरुकक्षा के सभी विद्यार्थी बहुत ही intelligent हैं, इस विषय पर अवश्य ही अपने विचार रखेंगें। 

तो ठीक है, करते हैं शांतिपाठ और चलते हैं गुरुकक्षा की ओर, गुरचरणों में नतमस्तक होने के लिए। 

ॐ असतो मा सद्गमय ।तमसो मा ज्योतिर्गमय ।मृत्योर्मा अमृतं गमय ।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ 

अर्थात 

हे प्रभु, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो ।मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो ।

मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो ॥    

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प्राचीनकाल में भारत अपनी उन्नति के चरम शिखर पर विराजमान था। यह ऋषि मुनियों का देश विश्वगुरु कहा जाता था। किसी देश का वास्तविक गौरव उसकी भूमि, वनस्पति, प्राकृतिक वैभव अथवा जलवायु के आधार पर निश्चित नहीं होता है। वह होता है, वहां के जनगण के विकास, उनके आचार-विचार और आचरण के आधार पर। प्राचीनकाल में इस देश के निवासी आध्यात्मिक जीवन पद्धति अपनाकर नर-रत्नों, महापुरुषों, पराक्रमियों सद्गुणियों के रूप में सुखी, सम्पन्न और दीर्घ जीवन का गौरव पाते थे। गरीब से लेकर अमीर तक और श्रमिक से लेकर शासक वर्ग तक ऐसा कदाचित ही कोई व्यक्ति होता था, जो जीवन में अध्यात्मवाद का समावेश करके न चलता हो। इसी आध्यात्मिक जीवन पद्धति के कारण यहां के लोग बड़े ही आदर्श और उच्चभावी होते थे और अपने साथ-साथ अपने देश को भी गौरवान्वित करते थे।

अध्यात्म, मानव-जीवन की सफलता का बहुत बड़ा आधार है। जीवन में अध्यात्म का समावेश किये बिना कोई मनुष्य सच्ची सफलता का अधिकारी नहीं बन सकता। लौकिक अथवा भौतिक विभूतियों की उपलब्धि ही जीवन की सफलता नहीं है। सही मायनों में देखा जाए वास्तविक सफल उसी मनुष्य को कहा जा सकता है जिसे सुख-शान्ति एवं सन्तोष की सम्पदा उपलब्ध है । अंतर्मन की यह मांगलिक स्थिति मनुष्य के “आत्मिक स्वास्थ्य, Spiritual health”  पर निर्भर है। आत्मिक स्वास्थ्य के बिना बाहरी जीवन नितान्त असफल एवं सन्ताप युक्त ही रहता है, फिर चाहे उसमें भौतिक विभूतियां और लौकिक सम्पदायें ( धन,गाड़ी, बंगला आदि) कितनी ही प्रचुर मात्रा में क्यों न उपलब्ध हों।

भारतीय समाज के  हितैषी ऋषि-मुनि मनुष्य की वास्तविक सफलता और उसके लिये अध्यात्मवाद की आवश्यकता एवं उसके महत्व  से भलीभांति  अवगत थे। वे अवश्य ही चाहते थे कि जनसाधारण “अध्यात्म के अलौकिक स्तर”  पर भले ही न पहुंचे तथापि वे अपने जीवन में इतना अध्यात्म तो अवश्य ही ग्रहण करें, जिससे वे अपने सामान्य जीवन में पूरी तरह से सुखी, सन्तुष्ट और शान्त रह सकें। इसी उद्देश्य  के अन्तर्गत उन्होंने अपने जनगण के लिये सामान्य साधना, स्वाध्याय और प्रातः तथा सायंकालीन संध्या वन्दन का “नियम” अनिवार्य बना दिया था। जो लोग आलस्य वश  इस अनिवार्य नियम का पालन नहीं करते थे, उन्हें या तो समाज से बाहर माना जाता था अथवा पतित तथा पापी समझा जाता था । 

आधुनिक भारतीय समाज जिस हीन अवस्था में दिखाई दें रहा है, उसका कारण यही है कि उसने अपने जीवन से “आध्यात्मिक आदर्शों एवं मानवीय मूल्यों  का एक प्रकार से बहिष्कार कर दिया है। कोरे भौतिक आदर्श को अपनाकर चलने से जीवन के हर क्षेत्र में उसकी गतिविधि दूषित हो गई है। आधुनिक मनुष्य का चरित्र और आचरण इतना निम्न कोटि का हो गया है कि  क्या कहा जाए। इस आदर्शहीन जीवन का जो परिणाम होना चाहिए, वह रोग-दोष, शोक सन्ताप के रूप में हम सभी के समक्ष है। साधन, सामग्री और अवकाश व अवसर आदि सब कुछ होने के बावजूद भी चारों चारों ओर त्राहि त्राहि मची पड़ी है, सुख-शांति के दर्शन नहीं हो रहे हैं। हो सकता है हमारे साथी इस त्राहि-त्राहि वाली स्थिति से सहमत न हों क्योंकि मनुष्य की प्रवृति है कि सुखशांति का मूल्यांकन साधनों एवं सामग्री के पुलंदों से किया जाता है। कोई बात नहीं, यह उनकी अपनी सोच है जिसका सम्मान करना हमारा परम कर्तव्य एवं धर्म है लेकिन अगर यह संपन्न भौतिकवादी इतने सुखी हैं तो जब कभी भी किसी समस्या के समाधान की बात आती है तो सबसे अधिक Stressed, Loose Tempered, Aggressive,यही लोग ही  क्यों होते हैं ? इसका कारण यह है कि यह मशीनी युग के लोग हैं,अंदर से बिल्कुल खोखले हैं, आधुनिकता का मौखटा पहने हुए हैं, सहनशक्ति,शालीनता आदि से कोसों दूर हैं ,ठीक से नींद न आई तो दुःखी,खाने के लिए पसंद की डिश न मिली तो दुःखी, और न जाने क्या क्या। इस तरह की आधुनिक,विकसित पीढ़ी को अगर बताया जाए  कि इस स्थिति का एकमात्र कारण अपनी भारतीय, सनातन संस्कृति से दूर भागने के कारण ही हुआ है तो शायद ही कोई माने, क्योंकि भारतीयता से तो उन्हें घृणा है और सनातन का तो ज्ञान ही नहीं है। हमारा भी एक दिन मन हुआ कि “सनातन” शब्द के ऊपर रिसर्च करके कुछ लिखा जाए तो जो कुछ हमें प्राप्त हुआ,अध्यात्म की ही भांति एक  विशाल ग्रन्थ लिखा जा सकता है। गुरुकुल की  गुरुकक्षा के सभी शिष्य जानते हैं कि इतने दिन अध्यात्म के विषय पर चर्चा करने के बाद भी बहुत कुछ जानना अभी बाकी है, अभी तो मात्र Introductory जानकारी ही प्राप्त  हुई है। 

यह चर्चा कहाँ जाकर समाप्त होगी कुछ कहा नहीं जा सकता, हर रोज नया  ही ग्रहण हो रहा है।                     

दुर्भाग्य से आज हमारे देश में उल्टी विचारधारा चल पड़ी है। इसी विचारधारा,अंग्रेजी सभ्यता को दर्शाती एक वीडियो इस लेख के साथ संलग्न की है जिसे हमारे साथी  इस लिंक को क्लिक करके देख सकते हैं। 

बचपन से सुनते आये हैं कि शिक्षक/आचार्य हमारे भविष्य के निर्माता होते हैं। शिक्षक यानि समाज का वोह सदस्य जो हमें विवेक एवं बुद्धि का प्रयोग करके, उचित/अनुचित का चयन करने की शिक्षा देता  है। आचार्य शब्द तो स्वयं ही आचरण से जुड़ा हुआ है। एक ऐसा व्यक्तित्व जो अपने आचरण से हमारा मार्गदर्शन करता है यानि उसे पथ प्रदर्शक, torch bearer, Role model आदि जैसे कितने ही विशेषणों से अलंकृत किया गया है लेकिन वीडियो की शिक्षिका कुछ और ही शिक्षा दे रही है। 

वीडियो में दर्शाए गए संस्कार बच्चे ने अपने दादा दादी से सीखे हैं और पिता को बच्चे पर गर्व है। हम विश्वास से कह सकते हैं कि हमारी सनातन संस्कृति का इतना  विनाश होने के बावजूद आज भी संयुक्त परिवारों में संस्कार एवं मानवीय मूल्य सुरक्षित बने हुए हैं। बात हो रही थी अपने पूर्वज ऋषिओं की, लेकिन अफ़सोस से कहना  पड़ता है कि ऋषि पूर्वजों की बात तो बहुत दूर की है, विदेशी सभ्यता में रंगी हुई पीड़ी को मात्र एक पीढ़ी पीछे, अपने दादा-दादी, नाना-नानी आदि के नाम तक मालूम नहीं  हैं। क्या ऐसा होता है विकास ? धिक्कार है ऐसे विकास को जो हमें जड़ों से ही अपरिचित कर दे।    

पुराने समय की बात है कि जो लोग  अध्यात्मवाद का आश्रय लेकर चलते थे, वे ही सभ्य, शिष्ट और सुसंस्कृत माने जाते थे, लेकिन आज सभ्यता का मैडल  उन लोगों के पास माना जाता है, जो अध्यात्म के प्रति उपेक्षा और तिरस्कार का भाव रखते हैं। जो कोई भी अध्यात्म की, लोक-परलोक की, धर्म-कर्म की बात करता है, उसे मूर्ख, प्रतिगामी और पिछड़ा हुआ समझा जाता है। आध्यात्मिक विचारधारा के लोगों का उपहास किया जाता है। जिस समाज की विचारधारा इस प्रकार प्रतिकूलतापूर्ण हो गई हो,उसके सुख का सूर्यास्त होना ही उचित है ।

अध्यात्मवाद की उपेक्षा का मुख्य कारण अगर यह है कि लोग अज्ञानवश भौतिकवाद के वशीभूत हो गए हैं, उन्हें विषय-वासना और भोग, एषणाओं ने बुरी तरह जकड़ लिया है, वहीँ  एक कारण यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि आज अध्यात्मवाद का सच्चा स्वरूप लोगों की समझ से परे है। यदि कोई आज भी प्राचीनअध्यात्मवाद उपस्थित कर सके, इसका  वास्तविक स्वरूप और सच्चा महत्त्व प्रकट कर सके तो निश्चय ही समाज की सारी उपेक्षा और तिरस्कार भाव तिरोहित होते देर न लगे। लेकिन सत्य से मुँह मोड़ लेने से, सत्य सिद्ध विज्ञान का न तो महत्त्व ही घट जाता है और न ही उसकी उपयोगिता नष्ट हो जाती है। “अध्यात्म एक सत्य सिद्ध विज्ञान है।” उसका महत्त्व सदा बना रहेगा। यह मध्यकालीन अन्धकार शीघ्र ही दूर होगा और अध्यात्मवाद मानव जीवन में अपना समुचित स्थान पाकर समाज का शोक सन्ताप हरेगा। कोई भी अध्यात्मवादी व्यक्ति इस विश्वास से मुँह नहीं मोड़ सकता।

भारतीय अध्यात्मवाद कितना शक्तिशाली विज्ञान है,यदि इसका प्रमाण पाना है तो भारतीय ऋषियों, तपस्वियों और साधकों का जीवन एवं  उनकी घटनाओं को देखना होगा। भारतीय ऋषि-मुनि यदा-कदा आवश्यकता पड़ने पर ऐसे-ऐसे विलक्षण और आश्चर्यजनक कार्य कर दिखाते थे, जिन्हें चमत्कार कहा जा सकता है। उनके आशीर्वाद से दूसरों का भला और शाप से अहित होने के असंख्यों उदाहरण पुराणों और इतिहासों में भरे पड़े हैं। महात्माओं की आध्यात्मिक शक्ति से भयभीत रहकर बड़े-बड़े बलधारी राजा-महाराजा उनकी प्रसन्नता के लिए विविध उपचार करते रहते थे।

हमारे अपने ही गुरु, परम पूज्य गुरुदेव से सम्बंधित सैंकड़ों संस्मरण “आश्चर्यजनक, अविश्वसनीय किन्तु सत्य” पुस्तक श्रृंखला को सुशोभित का रहे  हैं।   

अध्यात्म, और सदाचरण ( सादा आचरण) एक दूसरे के  प्रेरक मित्र हैं । सदाचरण अध्यात्मवाद का सक्रिय रूप है और अध्यात्मवाद सदाचरण की घोषणा है। सदाचारी आध्यात्मिक तथा आध्यात्मिक व्यक्ति का सदाचारी होना अवश्यम्भावी है। भौतिक लोभ-लिप्सा को त्याग कर निर्विकार अध्यात्म पथ का अवलम्बन करने से मनुष्य स्वभावतः आन्तरिक संतोष, प्रेम, आनन्द एवं आत्मीयता की दिव्य  सम्पदायें  प्राप्त कर लेता  है और यह स्थिति प्राप्त होते ही  उसे और कुछ प्राप्त करने  की अभिलाषा ही नहीं रह जाती। 

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आज 18  युगसैनिकों ने 24 आहुति  संकल्प पूर्ण किया है। इस प्रभावशाली सूची के लिए सभी का धन्यवाद्। संध्या जी  और चंद्रेश जी आज के गोल्ड मैडल विजेता हैं । सभी को हमारी हार्दिक बधाई एवं संकल्प सूची में योगदान के लिए धन्यवाद्।   

(1)सरविन्द कुमार-24 ,(2) सुमनलता-42 , (3 )अरुण वर्मा-37 ,(4) संध्या कुमार-67 ,(5) सुजाता उपाध्याय-41  ,(6)चंद्रेश बहादुर-62  ,(7) निशा भारद्वाज-24 ,(8 ) नीरा  त्रिखा-32  , (9)मंजू मिश्रा-42 ,(10) अनुराधा पाल-27 ,(11) पिंकी पाल-24 ,(12 ) रेणु श्रीवास्तव-46 ,(13 ) वंदना कुमार-31 ,(14) संजना कुमारी-24,(15) विदुषी बंता-25,(16) प्रेरणा कुमारी- 25 ,(17)राजकुमारी कौरव-24,(18)  स्वस्तिक-24        

सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।


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