वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

अध्यात्मिक जीवन की विशेषताएं एवं उनकी प्रैक्टिस 

4 जनवरी 2024 का ज्ञानप्रसाद

आज गुरूवार है, हमारे गुरु, परम पूज्य गुरुदेव पंडित श्रीराम शर्मा जी का दिन, आदरणीय सुमनलता बहिन जी ( ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की समर्पित सहकर्मी) के सुझाव का पालन करते हुए आज का ज्ञानप्रसाद एवं प्रज्ञागीत दोनों ही गुरुदेव को समर्पित हैं। सुझाव के लिए आदरणीय बहिन जी का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं। 

“आत्मा का वास मस्तिष्क में” होने वाले वैज्ञानिक data ने  अनेकों साथिओं को अचंभित किया, अचंभित होना स्वाभाविक था, हमें इस बात का पहले  से ही आभास था। ऐसा आभास  इसलिए था कि आत्मा को अक्सर ह्रदय के साथ जोड़ा जाता है। जब  कहा जाता है कि तुम्हारी आत्मा नहीं कांपती तो समझा जाता है कि ह्रदय से सम्बंधित है।  यह तो कभी नहीं कहा जाता कि तुम्हारा मस्तिष्क नहीं कांपता। हमारा विवेक तो यही कहता है कि डायरेक्टर तो मस्तिष्क ही है। इस रोचक विषय को और अधिक जानने का आग्रह हुआ है, अवश्य ही पूरा करने का प्रयास करेंगें। परिवार के सुझाव मानना हमारा धर्म है। 

इन्हीं शब्दों के साथ आइए चलें गुरुकक्षा में जहाँ अध्यात्मिक जीवन की विशेषताओं पर चर्चा होनी है। 

ॐ असतो मा सद्गमय ।तमसो मा ज्योतिर्गमय ।मृत्योर्मा अमृतं गमय ।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ 

अर्थात 

हे प्रभु, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो ।मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो ।

मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो ॥ 

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यह विचार निश्चय ही भ्रमपूर्ण है कि धन-वैभव, मान-सम्मान तथा पद प्रतिष्ठा पा लेने पर जीवन सफल एवं सार्थक हो जाता है। यह उपलब्धियां उन उपलब्धियों की तुलना में तुच्छ एवं नगण्य हैं, जिन्हें अध्यात्मिकता से पाया जा सकता है।

समस्त सांसारिक उपलब्धियां अस्थिर एवं  क्षणभंगुर (पल में समाप्त होने वाली) हैं। यह उपलब्धियां हमारे आसपास करोड़ों लोगों को नित्य प्रति मिलती हैं और मिटती भी रहती हैं। इनकी प्राप्ति होने से सुख हो जाता है और चले जाने से दुःख होता है। संसार की यह सारी अस्थिर उपलब्धियां मनुष्य को सुख-दुःख के उतार-चढाव में ठीक उसी तरह झुलाती रहती हैं जैसे दादा जी के कमरे की दीवार पर लटक रहे Wall clock का  pendulum दाएं से बाएं और फिर बाएं से दाएं अनवरत झूलता रहता  है। हमारी युवावस्था अपने दादा जी की देखभाल में व्यतीत हुई है। हम अक्सर दादा जी को अंग्रेज़ों के युग की  Wall clock को चाबी देते देखते थे। आजकल तो इलेक्ट्रॉनिक्स का युग है, LED नहीं तो बैटरी-चलित Wall clock तो अवश्य ही होंगी। 

आज के इस ज्ञानप्रसाद लेख को extra  प्रैक्टिकल बनाने के लिए पेंडुलम आधारित  एक छोटी सी  वीडियो संलग्न की है। गुरुकक्षा के सभी साथिओं से आग्रह  करते हैं कि लेख को आगे बढ़ाने से पूर्व इस वीडियो को देख लें ताकि जीवन के सुख-दुःख का झूलना हमारे अंतःकरण में उतर सके।

 https://youtu.be/qbvP4C6EP-Y?si=9RbDRKD9rNjFyHzl

क्लॉक के पेंडुलम का झूलना बिल्कुल एक समान (uniform) है, जिसका अर्थ है कि बाईं  दिशा से दाईं दिशा की ओर, और फिर दाईं  से बाईं दिशा की ओर जाने में एक समान समय लग रहा है,एक समान दूरी कवर की जा रही है। चाबी कम यां बैटरी weak होने की स्थिति में झूलना कम तो हो जाता है लेकिन समानता में कोई फर्क नहीं पड़ता। 

आइए अब देखें जीवन के सुख दुःख का झूलना। आज लाटरी निकल गयी, शेयर मार्किट में उछाल आ गया, बेटे की शादी में अच्छा दहेज़ मिल गया आदि आदि जैसी परिस्थितिओं में तो मनुष्य सातवें आकाश पर चढ़ गया, King of Share market बन गया। दूसरी तरफ 20 करोड़ डॉलर बैंक में पड़ा हुआ है लेकिन 200 डॉलर का नुकसान हो गया तो हार्ट अटैक, ब्रेन हेमरेज जैसी स्थिति बन जाती है। ऐसी स्थिति केवल उन मनुष्यों की हो सकती जो अध्यात्मिकता से कोसों दूर हैं, जिन्होंने  आत्मबल,आत्म-सन्तुलन के बारे में कभी सुना तक नहीं है, प्रैक्टिस करना तो दूर की बात है। ऐसे मनुष्यों के जीवन का पेंडुलम, जीवन का झूलना ECG/EEG के चार्ट ही बता सकते हैं, इन charts को  देखकर ही पता चलता है इनके ह्रदय और मस्तिष्क में क्या कुछ हो रहा है। जो मनुष्य  भौतिकवाद, प्रतक्ष्यवाद, दिखावे, छलावे आदि से ग्रस्त हो जाते हैं, वोह  मरते दम तक इसी मृगतृष्णा के शिकार होते रहते हैं। ऐसे मनुष्यों में से कुछ एक पर कई बार सद्बुद्धि की देवी माँ गायत्री, गुरुदेव जैसे सद्गुरु की कृपा हो जाती है और उनका कायाकल्प हो जाता है। जो मनुष्य इस अनुदान से वंचित रह जाते हैं उनका चित्त व्याकुल  रहता है, तथाकथित उपलब्धियों के सुख में भी दुःख छिपा रहता है क्योंकि वोह अच्छी तरह जानता है कि यह सब विभूतियां आनी जानी हैं, किसी समय भी नष्ट हो सकती हैं, छोड़ कर जा सकती हैं। 

सभी उपलब्धियां प्राप्त करने के बाद, ऐसा  मनुष्य एक नई  बीमारी से ग्रस्त हो जाता है, “संरक्षण, सुरक्षा-संभाल की बीमारी।” ऐसे मनुष्य को हर समय इन उपलब्धियों को सदा के लिए अपने पास बनाये रखने की चिंता एवं उनको सँभालने की चिंता खाए जाती है, दिन-रात वह इसी कार्य में व्यस्त रहता  है। ऐसी दशा में सुख-सन्तोष अथवा निश्चिन्तता कैसे सम्भव हो सकती है, फिर तो नींद भी Sleeping pills यां किसी और साधन से आती है।  

आज की गुरुकक्षा में अभी तक जो शिक्षा मिली है वोह निम्नलिखित है : 

सांसारिक उपलब्धियों की प्राप्ति एवं अप्राप्ति दोनों ही दुःख का कारण हैं।

तो फिर क्या किया जाए: सन्यासी/संत बन कर भोगविलास वाले संसार में जीवनयापन किया जाए ? नहीं, नहीं कदापि नहीं, इस प्रश्न का उत्तर निम्नलिखित है:  

संसार में रह कर “सांसारिक उपलब्धियां” प्राप्त करने का प्रयास करना कोई बुरी बात नहीं है। हाँ, बुरी बात है इन भौतिक उपलब्धियों के  लोभ में पड़कर  उस “महान लाभ” का त्याग कर देना जो स्थिर एवं शाश्वत सुख की जड़ है। सांसारिक उपलब्धियों के साथ-साथ  मानव-जीवन के सारपूर्ण लाभ प्राप्त करने का प्रयत्न करना ही मनुष्य का सच्चा पुरुषार्थ है। ऐसे पुरुषार्थ से ही पात्रता विकसित होती जाती है, पात्रता विकसित होते ही गुरु स्वयं कोठरी में सर्टिफकेट देने दौड़े आते हैं, इसके बाद तो गुरु जीवन की  डोर अपने हाथों में थाम लेते हैं ; तब आरम्भ होता है रोचक कठपुतली का नृत्य, पतंग की उड़ान। 

आध्यात्मिक जीवन की विशेषताएं  एवं उनकी ट्रेनिंग : 

मानव-जीवन का सर्वोपरि लाभ यही आध्यात्मिक लाभ है । सांसारिक लाभ न होने की स्थिति में आध्यात्मिक लाभ मनुष्य को सुखी बनाने में समर्थ है लेकिन अध्यात्मिक लाभ के अभाव में संसार की समस्त उपलब्धियां भी मनुष्य को सुखी एवं सन्तुष्ट नहीं बना सकतीं, वोह तो उल्टा असुरक्षा एवं विपदा का  जंजाल बन कर चिन्ता में वृद्धि करती हैं।

आध्यात्मवाद जीवन का सच्चा ज्ञान है। इसको जाने बिना संसार के सारे ज्ञान अपूर्ण हैं और इसको जान लेने के बाद कुछ भी जानने को शेष नहीं रह जाता। यह वह तत्वज्ञान एवं महाविज्ञान है जिसकी जानकारी होते ही मानव जीवन अमरतापूर्ण आनन्द से ओत-प्रोत हो जाता है। आध्यात्मिक ज्ञान से प्राप्त  हुए आनन्द की तुलना संसार के किसी आनन्द से नहीं की जा सकती क्योंकि इससे “आत्मा” आनंदित होती है। वस्तुओं से प्राप्त होने वाला आनंद परिवर्तनशील तथा अन्त में दुःख देने वाला होता है और यह  मिथ्या आनन्द वस्तु के साथ ही समाप्त हो जाता है लेकिन अध्यात्मिकता से उत्पन्न हुआ आत्मिक सुख जीवन भर साथ तो रहता ही है,मृत्यु के बाद भी साथ ही जाता है क्योंकि आत्मा अमर,अविनाशी है। ऐसे अविनाशी आनन्द की उपेक्षा करके जीवन को क्षणिक एवं मिथ्या सुखदायी उपलब्धियों में लगा देना और उनमें सन्तोष अथवा सार्थकता अनुभव करना अमूल्य  मानव जीवन की सबसे बड़ी हानि है । 

“जब आनन्द ही मानव जीवन का लक्ष्य है तो  शाश्वत आनन्द के लिये ही प्रयत्न क्यों न किया जाये?”

जीवन को अध्यात्मिक  मार्ग पर नियुक्त कर देने से सांसारिक लाभ तो होता ही है साथ ही मनुष्य अपने परम लक्ष्य आनन्द की ओर भी अग्रसर होता है। अध्यात्मवाद में दोनों लाभ अपनी पराकाष्ठा तक निहित हैं जिन्हें मनुष्य को अपनी क्षमता के अनुसार प्राप्त  करना चाहिए यही उसके लिये  श्रेष्ठ है । आध्यात्मिक जीवन कोई अप्राकृतिक जीवन नहीं है, यही  वास्तविक एवं स्वाभाविक जीवन है। दुःख, क्लेश, चिन्ता के बीच से बहते हुए जीवन प्रवाह को स्वाभाविक नहीं कहा जा सकता है। अध्यात्मवाद का त्याग करके अपनाया हुआ जीवन प्रवाह किसी प्रकार भी निर्मल धारा के रूप में नहीं बह सकता। लोभ, मोह, काम, क्रोध आदि विकार जो सांसारिक जीवन के घटक हैं, मनुष्य को अशान्त एवं असन्तुलित बनायेंगें  लेकिन आध्यात्मिक जीवन से प्राप्त सुख एवं शान्ति में मनुष्य  प्रसन्नतापूर्वक बहता चला जाता है और सभी को  शीतलता प्रदान करता है ।

अध्यात्मिक  जीवन अपनाने का अर्थ है असत् से सत् की ओर जाना, सत्य, प्रेम और न्याय का आदर करना, निकृष्ट जीवन से उत्कृष्ट जीवन की ओर बढ़ना। धनवान्, यशवान होकर भी यदि मनुष्य “आत्मा की उच्च भूमिका” में न पहुंच सका तो क्या वह किसी प्रकार भी महान् कहा जायेगा?  सत्य की उपेक्षा और प्रेम की अवहेलना करके, छल -कपट और दम्भ के बल पर कोई कितना ही बड़ा क्यों न बन जाए लेकिन उसका वह बड़प्पन एक विडम्बना के अतिरिक्त और कुछ भी न होगा।  महानता की वह अनुभूति जो आत्मा को पुलकित  करती है कदापि प्राप्त नहीं हो सकती। यह दिव्य अनुभूति केवल आध्यात्मिक जीवन अपनाने से ही प्राप्त हो सकती है।

आध्यात्मवाद एक ऐसी शिक्षा है, ट्रेनिंग है जो वासनापूर्ण जीवन त्याग कर शुद्ध सात्विक जीवनयापन करने की प्रेरणा देती है। यह ट्रेनिंग मनुष्य को अन्धकार  से प्रकाश  और मृत्यु से अमृत्य  की ओर ले जाती है।अध्यात्मवाद की ट्रेनिंग के बाद सांसारिक सुख, इन्द्रिय भोग की ललक और वस्तुओं के प्रति आकर्षण मनुष्य को ज़रा भी  प्रभावित नहीं कर पाते,ऐसा मनुष्य अन्दर-बाहर एक जैसा, तृप्त,सन्तुष्ट तथा महान कहा जाता  है।

आत्मा में अखण्ड विश्वास रख कर जीवनयापन करने वाला ही अध्यात्मिक कहा जाता है । सिर्फ इतना मान लेना कि आत्मा exist करती है, काफी नहीं है। आत्मा में विश्वास करने के लिए प्रतिक्षण, आत्मिक अनुभूति से ओतप्रोत रहना आवश्यक है।आत्मा संसार में व्याप्त है, परमात्मा का अंश है और इसी अंश से हमारा निर्माण हुआ है। युगतीर्थ शांतिकुंज स्थित  “भटका हुआ देवता” के unique मंदिर के पांच दर्पणों में एक दर्पण “अहं ब्रह्मस्मि” यानि मैं ब्रह्म हूँ का ज्ञानप्रदान कराता है। मनुष्य जो देख रहा है, पंचभौतिक शरीर ही नहीं  बल्कि आत्मरूप में वही है जो परमात्मा है। ऐसी अनुभूति होने से ही मनुष्य स्वयं  को ठीक से पहचान सकेगा, तब कहीं जाकर सत्य, प्रेम, सहानुभूति, दया आदि ईश्वरीय गुणों का आदर कर सकेगा। मनुष्य द्वारा ईश्वरीय  गुणों का सही मायनों में  मूल्यांकन करना एवं इन गुणों को अपने अन्दर विकसित करने की चाह को जगाना ही  अध्यात्म पथ पर चलने का पहला कदम है। 

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आज 13  युगसैनिकों ने 24 आहुति  संकल्प पूर्ण किया है। रेणु जी,सुमनलता जी और चंद्रेश जी तीनों  आज के गोल्ड मैडल विजेता हैं । सभी को हमारी हार्दिक बधाई एवं संकल्प सूची में योगदान के लिए धन्यवाद्।   

(1)सरविन्द कुमार-26,(2) सुमनलता-46, (3 )अरुण वर्मा-25,(4) संध्या कुमार-35,(5) सुजाता उपाध्याय-36 ,(6)चंद्रेश बहादुर-45 ,(7) निशा भारद्वाज-29,(8 ) नीरा  त्रिखा-26 , (9)मंजू मिश्रा-26,(10) अनुराधा पाल-23,(11) पिंकी पाल-27,(12 ) रेणु श्रीवास्तव-47,(13 ) वंदना कुमार-33   

सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।


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