वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

अध्यात्म का अर्थ संसार का त्याग नहीं है। 

28 दिसंबर 2023 का ज्ञानप्रसाद

Source: अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए

अध्यात्म के विषय पर अलग अलग दृष्टिकोणों से हमने न जाने कितनी ही गुरुकक्षाएं अटेंड कर लीं हैं, सभी कक्षाओं का उद्देश्य अध्यात्म को जानना, समझना, ह्रदय में उतारना, औरों को समझाना एवं इस विषय के बारे में गलत धारणाओं का निवारण करना है। 

आज की  गुरुकक्षा का विषय  उन भगोड़े मनुष्यों  पर केंद्रित है जो उपहाररुपी प्रदान हुए अमूल्य मनुष्य जीवन के उत्तर्दाइत्वों से डरकर सन्यासी होने का ढोंग रचते हैं। हम अक्सर कहते आये हैं कि ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच पर जो कुछ भी प्रस्तुत हो रहा है  वोह सब परम पूज्य गुरुदेव का ही है एवं उन्हीं  के सूक्ष्म संरक्षण में लिखा जा रहा है। आज एक बार फिर इस तथ्य को प्रमाण मिला जब हमने प्रातःकाल में यह लेख लिखना आरम्भ किया। अभी कुछ ही पंक्तियाँ लिखी थीं कि एक दम 1964 में रिलीज़ हुई मूवी चित्रलेखा का बहुचर्चित गीत “संसार से भागे फिरते हो, भगवान् को तुम क्या पाओगे”,मस्तिष्क में हिलोरें खाने लगा।  साहिर साहिब की लेखनी को नमन किया और निर्णय कर लिया कि भगोड़ों को डांटने के लिए इस गीत से बेहतर कोई गीत हो ही नहीं सकता। एक एक शब्द स्वयं ही लेख के साथ मेल खा रहा है। 

संसार से भागे फिरते हो

भगवान को तुम क्या पाओगे

इस लोक को भी अपना न सके 

उस लोक में भी पछताओगे

ये पाप है क्या, ये पुण्य है क्या

रीतों पर धर्म की मोहरें हैं 

हर युग में बदलते धर्मों को

 कैसे आदर्श बनाओगे

ये भोग भी एक तपस्या है 

तुम त्याग के मारे क्या जानो

अपमान रचयिता का होगा 

रचना को अगर ठुकराओगे

हम कहते हैं ये जग अपना है

तुम कहते हो झूठा सपना है

हम जनम बिताकर जाएँगे

तुम जनम गँवाकर जाओगे

तो साथिओ, आज के ज्ञानप्रसाद लेख में दो प्रज्ञागीत शामिल किये गए हैं ,एक चित्रलेखा मूवी का और दूसरा आदरणीय निशा बहिन जी द्वारा शेयर किया गया गुरु नमन है , बहिन जी का धन्यवाद् । 

अब सीधा गुरुकक्षा की ओर  प्रस्थान का समय है। 

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आध्यात्मिक साधनायें  इतनी सामर्थ्यवान एवं  प्रभावशाली है कि उनके  द्वारा भौतिक विज्ञान से भी  अधिक महत्वपूर्ण सफलतायें प्राप्त  की जा सकती हैं । हमारे देश में अनेकों  ऋषियों, सन्त, महात्माओं , योगी, यतियों का जीवन इसका प्रमाण है। बिना साधनों के उन्होंने आज से हजारों वर्ष पूर्व अन्तरिक्ष, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा आदि के सम्बन्ध में अनेकों  महत्वपूर्ण तथ्य खोज निकाले थे। अनेकों  विद्यायें, कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान में उनकी गति असाधारण थी। बड़े-बड़े राजमुकुट उनके पैरों  में झुकते थे लेकिन आध्यात्म साधना के आगे  वे सब कुछ महत्वहीन समझते थे और निरन्तर अपने ध्येय में संलग्न रहते थे।

ज़्यादा दूर जाने की आवश्यकता ही  नहीं है, हमारे अपने ही गुरु, परम पूज्य गुरुदेव के चरणों में बिड़ला जी द्वारा भेंट किया जाने वाला नोटों से भरा बैग किस से  छिपा हुआ है। गुरुदेव की तप शक्ति से जन्में गायत्री परिवार के बारे में कहा जाता है कि इस परिवार ने आज तक गवर्नमेंट से कभी कोई अनुदान राशि प्राप्त नहीं की है ,इसके उल्ट गवर्नमेंट के कितने  ही कार्यों में यह परिवार सक्रीय है। स्वच्छ गंगा अभियान में यह बात प्रचलित है कि  पीले कपड़ों वाले गायत्री परिवारजन आएंगे ,स्वयं ही सब कुछ कर जायेंगें।    

आज उन्हीं  अध्यात्मवेत्ताओं के देश में इस “महान विज्ञान” की  जितनी दुर्गति हुई है, उस पर किसी भी विचारशील व्यक्ति का दुःखी होना स्वाभाविक ही है। “आध्यात्म विज्ञान” के प्रति आजकल हमारे मूल्यांकन की कसौटी के ढंग इतने बदल से गये है कि हम आध्यात्म विद्या से बहुत दूर भटक गये है। आज स्थिति यह हो चुकी है कि इस महत्वपूर्ण विषय के  वास्तविक मर्म को न जानने के कारण आध्यात्म के नाम पर बहुत से लोग जीवन के सहज पथ को छोड़कर अप्राकृतिक, असामाजिक, उत्तरदायित्वहीन जीवन बिताने लग जाते है।

आध्यात्मिक विज्ञान की जानकारी न होने के कारण आधुनिक युग में आम लोगों में यह धारणा है कि आध्यात्मिक जीवन बिताने का अर्थ  लोकजीवन को त्याग करना  है। अक्सर लोगों में यह धारणा भी कम नहीं फैली है कि यह संसार एक  “मायाजाल”  है और  इसका त्याग करने पर ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। अज्ञान से भरपूर ऐसी धारणा से प्रभावित कितने ही लोग अपना कर्तव्य, अपनी जिम्मेदारियां  छोड़कर सन्यासी ( तथाकथित  अध्यात्मवादी) बनने का ढोंग रचते देखे जा सकते हैं। यहाँ एक अति महत्वपूर्ण बात स्मरण हो आती है कि  यदि घर गृहस्थी को छोड़ना, अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ना ही अध्यात्मवाद  है तो अनेकों ऋषियों को आध्यात्म के विशाल इतिहास में से निकाल देना पड़ेगा क्योंकि लगभग सभी ऋषि/महर्षि गृहस्थ थे, जनसाधारण की भांति जीवन बिताते थे, गुरुकुल पाठशालायें  चलाते थे और धर्म-शिक्षण का कार्य पूरी तरह से निभाते थे।

ऋषियों ने “संन्यास आश्रम” के अंतर्गत  घर छोड़ने की बात अवश्य कही थी लेकिन जीवन के  “तीसरे  पड़ाव,वानप्रस्थ आश्रम में” और वह भी मुक्ति के लिये नहीं बल्कि जीवनभर अर्जित ज्ञान से समाज को लाभान्वित करने और परमार्थ सेवा का जीवन बिताने के लिये । कितनी विडंबना है कि विभिन्न परिस्थितियों से असफल, दुःखी मनुष्य, जीवनरूपी अग्नि में  तपे बिना, बिना संस्कारित हुए,कठिनाइयों के आगे हथियार डाल कर, ईश्वर द्वारा प्रदान बहुमूल्य उपहार रुपी जीवनपथ को छोड़कर संसार को छोड़ने का ढोंग रचाते हैं। ऐसे तथाकथित सन्यसिओं के लिए सन्यास लेना, अपने कर्त्तव्य से,उत्तरदायित्वों से मुंह मोड़ने के सिवा और कुछ नहीं है। ऐसे सन्यासिओं के लिए ऐसी कठोर शब्दावली प्रयोग करना इसलिए अनुचित नहीं है कि इन खोखले व्यक्तित्व एवं कमज़ोर संकल्प वाले मनुष्यों ने जीवन को परिष्कृत करने में कोई प्रयास नहीं किया जिसके कारण उन्हें अशान्ति और असन्तोष का सामना करना पड़ा। इस स्थिति में उन्होंने स्वयं को मिसफिट समझा और स्वयं को एवं संसार को कोसने की प्रवृति अपना ली। अज्ञान के कारण ऐसे अनेकों भटके हुए मनुष्यों ने संसार मे क्षणभंगुरता के पाठ को पढ़कर अपना अमूल्य जीवन नष्ट कर दिया। यह सत्य है कि संसार क्षणभंगुर,परिवर्तनशील है लेकिन यह भी सत्य है कि ईश्वर ने हमें इस संसार में कुछ दाइत्व देकर भेजा है। ईश्वर द्वारा दिए गए दाइत्व की अवहेलना करना, responsibility से भागना नहीं हुआ तो क्या हुआ ?  क्या यह भगोड़ापन नहीं हुआ ?  इस भगोड़ेपन के वशीभूत कितने ही होनहार व्यक्ति संसार के लिए, मानवता के लिए कुछ करने के स्थान पर, उसी पर बोझ बन जाते हैं क्योंकि शरीर रहते कोई कितना ही त्यागी बने उसे भोजन-वस्त्र आदि की नितान्त आवश्यकता तो होती ही है।

मुक्ति प्राप्त करना,जीवनरुपी उपहार के विकास क्रम की वह अवस्था है जहां “मानवीय चेतना” उस  सर्वव्यापी “विश्वचेतना” से जुड़कर vibrate करने लगती है। ऐसी अवस्था प्राप्त कर लेने पर मनुष्य के अंतःकरण में पर॒मार्थ कार्यों का मधुर संगीत गूंजने लगता है और वह  अपने सुख, अपने लाभ, अपनी मुक्ति को भूलकर सबके कल्याण के लिये लग जाता है।  सांसारिक परिस्थितियों में साधनामय जीवन बिताने और दुःख-सुख का सामना करने के बाद ही इस ऊँची मंज़िल तक पहुंचा जा सकता है। इस ऊँची मंज़िल के लिए उदाहरण दिया जा सकता है कि  जिस तरह बिना सीढ़ियों के छत पर नहीं पहुंचा जा सकता उसी तरह संसार में अपने कर्तव्य, उत्तरदायित्वों को पूर्ण किये बिना मुक्ति की मंजिल प्राप्त नहीं हो सकती । ऋषियों ने जीवन के सहज पथ का अनुगमन करके पारिवारिक जीवन मे रहकर ही अपूर्व “आध्यात्मिक उत्कर्ष (Spiritual flourishing)” प्राप्त किया था। यह वही स्टेज है जिसे “ब्रह्म का साक्षात्कार, ईश्वर से इंटरव्यू” का नाम दिया गया है ।

जब तक शरीर है, संसार में रहना है, भूख, प्यास महसूस होती है, तब तक इस संसार को नाशवान, क्षण-भंगुर कह कर लोकजीवन की निंदा करना बहुत बड़ी भूल है,स्वयं  को धोखा देने समान है। ऐसी स्थिति में मुक्ति असम्भव है। अपने वैयक्तिक, सामाजिक तथा सांसारिक उत्तरदायित्वों को त्यागकर जीवन मुक्ति की चाह रखने वाले व्यक्ति को इस सम्बन्ध में निराशा ही हाथ लगे तो कोई आश्चर्य नहीं। 

आध्यात्म शास्त्र के एक्सपर्ट  ऋषियों ने तो मनुष्य को कर्तव्ययुक्त जीवन बिताने का निर्देश दिया था। चार आश्रमों  मे प्रथम ब्रह्मचर्याश्रम में विद्याध्ययन, गुरु सेवा, आश्रम के कार्य, फिर इससे बढ़कर गृहस्थ में परिवार के भरण-पोषण का भार समाज के कर्तव्यों का उत्तरदायित्व सौपा था। उसके बाद वानप्रस्थ और सन्यास लोक-शिक्षण जनसेवा के लिए निश्चित थे। इस व्यवस्था के अनुसार, एक क्षण भी मनुष्य उत्तरदायित्व के बिना  जीवन नहीं बिता सकता। ऐसा था उनका अध्यात्म। 

जो विज्ञान, लोकजीवन को पुष्ट न कर सके, जो व्यक्ति का सर्वागीण विकास न साध सके, जो जगपथ पर चलते हुए मनुष्य को शक्ति प्रेरणा न दे सके जो मनुष्य को व्यावहारिक जीवन का राजमार्ग न दिखा सके, वह “अध्यात्म विज्ञान” हो ही नहीं सकता।

अध्यात्म शास्त्र मे तो अपने लाभ की बात, अपने सुख की इच्छा के लिए बिल्कुल ही स्थान नहीं है, चाहे वह लौकिक हो या पारलौकिक। अध्यात्म में  तो स्वयं  से सब में, संकीर्ण से महान में  ओर सीमित से असीमित  की ओर गति होती है। ऋषि कहते हैं, “मुझे राज्य की, स्वर्ग की एवं  मोक्ष की कोई  कामना नहीं है। मुझे यदि कोई चाह है तो वह दुःखी लोगों की सेवा करने उनके दुःख दर्द को दूर करने की है ।” 

ऐसा  महान था हमारा अध्यात्म शास्त्र जो मोक्ष, स्वर्ग, राज्य की सम्पदाओं को भी ठुकरा देता था। एक हम है कि सन्तान, धन, पद, यश, स्वर्ग की प्राप्ति के लिये अध्यात्मवादी बनने का प्रपंच रचते है, अपनी आत्मा को धोखा देते है। जो अन्तर-बाहिर, लौकिक-पारलौकिक सभी क्षेत्रों में हमे व्यक्तिवाद से हटाकर एकीकृत करे, व्यक्तिगत चेतना से उठाकर विश्वचेतना में गति प्रदान करे वहीं से अध्यात्म की साधना प्रारब्ध होती है। अध्यात्म के नाम पर हमारे यहां गलत आचरण, विचित्र रहन-सहन, अजीब आदतें , कौतूहलपूर्ण हरकतों को भी बड़ा महत्व मिल गया है और इनसे समाज को गलत प्रेरणा भी मिलती है। अक्सर देखा जाता है कि जो अन्न न खाये लेकिन  फल, दूध खूब उड़ाये, लेटे नहीं खड़ा ही खड़ा रहे  भस्म रमाये या तिलक छापे, बढ़िया रेशमी वस्त्रों  से श्रृंगार करे, मौन रहे,बोले नहीं, अलग सा आचरण करे, रहन-सहन आहार-विहार में कोई विचित्रता दिखाए, उसे ही  बड़ा आध्यात्मिक व्यक्ति माना जाता है। ऐसे कई व्यक्ति तो बेहूदी गालियां  भी बकते हैं लेकिन  लोग फिर भी  उनसे चिपकते है, यह कैसा अध्यात्म है ? 

आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने अध्यात्म विज्ञान के महत्व को समझें , उसके बारे में पर्याप्त जानकारी करें और इसके नाम पर जो गलत बातें  प्रचलित हो रही है उनसे अपना बचाव करे।

परम पूज्य गुरुदेव के सूक्ष्म संरक्षण में ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार साथिओं से सहयोग से इसी दिशा में प्रयासरत है। 

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आज 11  युगसैनिकों ने 24 आहुति  संकल्प पूर्ण किया है।संध्या बहिन जी गोल्ड मैडल विजेता है। बहिन जी को  हमारी हार्दिक बधाई एवं संकल्प सूची में योगदान के लिए धन्यवाद्।   

(1)नीरा त्रिखा-24  ,(2) सुमनलता-36 , (3 )अरुण वर्मा-33   ,(4) संध्या कुमार-55,(5) सुजाता उपाध्याय-27,(6)चंद्रेश बहादुर-51,(7)रेणु श्रीवास्तव-24  ,(8))पुष्पा सिंह-25, (9)अनुराधा पाल-49 ,(10) मंजू मिश्रा-24  ,(11  )निशा भारद्वाज-25   सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।


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