वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

आपका अंतःकरण ही मानसिक अन्वेषण का स्थान है 

27 दिसंबर 2023 का ज्ञानप्रसाद

Source: भौतिकता ही नहीं, आध्यात्मिक प्रगति भी आवश्यक

आज का ज्ञानप्रसाद लेख मनुष्य के “मन की रिसर्च” पर आधारित है। जिसने अपने मन को जान लिया, जीत लिया, उसका अन्वेषण कर लिया तो उसी में (मन में)  स्वर्ग है,स्वर्ग में ही मनुष्य का वास है। आध्यात्मिकता और भौतिकता का बैलेंस कराता आज का लेख, आधुनिक युग की समस्याओं का एकमात्र समाधान जुटा रहा है। कैसा अद्भुत संयोग है कि जब अंतःकरण की, मन की बात हो रही है तो आदरणीय पुष्पा बहिन जी द्वारा भेजा गया प्रज्ञागीत “तोरा मन दर्पण कहलाए” ज्ञानप्रसाद के साथ संलग्न हो रहा है। 1965 की बहुचर्चित बॉलीवुड मूवी “काजल” के इस गीत का एक एक शब्द चिंतन करने योग्य है, अनेकों प्रश्नों के उत्तर मिल सकते हैं।  साहिर जी  की लेखनी को नमन करते है।

आने वाले सोमवार को 1 जनवरी है,हर बार की तरह 2024 भी नई आशाओं के साथ दस्तक देगा लेकिन उस दिन आदरणीय चंद्रेश जी द्वारा भेजा गया युगनिर्माण योजना दिसंबर 2023 में  प्रकाशित लेख की चर्चा करने की योजना है। भाई साहिब का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं। 

इन्हीं पंक्तिओं के साथ शांतिपाठ के साथ, गुरुचरणों में समर्पित होकर गुरुकुल की आज की गुरुकक्षा का शुभारम्भ करते हैं।

ॐ असतो मा सद्गमय ।तमसो मा ज्योतिर्गमय ।मृत्योर्मा अमृतं गमय ।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ 

अर्थात 

हे प्रभु, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो ।मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो ।

मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो ॥

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अगर हम अपने आस पास दृष्टि दौड़ाएं तो अनेकों संयुक्त परिवार मिल जायेंगें जिनमें प्रेम, सद्भाव, मानवीय मूल्यों के संरक्षण के प्रयास किये जा रहे हैं, और यह प्रयास सफल भी हो   रहे हैं। इन परिवारों को देखकर अनुमान लगाया  जा सकता है कि अभी भी इतनी नकारात्मक स्थिति नहीं आयी है कि सब कुछ नरक जैसा ही लगे। ऐसे ही संयुक्त परिवारों का एक तथ्य लेखक के अन्तःकरण में उभरा तो ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के सुशिक्षित मंच पर शेयर करना उचित समझा। 

 वैसे तो  किसी भी समय की किसी दुसरे समय के साथ तुलना हो ही नहीं सकती फिर भी ऐसे संयुक्त परिवारों में जब कभी भी परिवार के वरिष्ठ अपने समय की तुलना आज के समय के साथ करते हैं तो युवापीढ़ी की प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है क्योंकि दोनों पीढ़ियों के बीच लगभग 25-30 वर्ष का अंतर् तो होता ही है। 25 वर्ष में विकास कहाँ से कहाँ तक पंहुच जाता है और वरिष्ठ पुराने तथ्य लेकर बैठे रहें, उन्ही के साथ बंधे रहें, अनुचित नहीं है क्या ? समय के साथ बदलने वाला मनुष्य ही सफल माना जाता है, लेकिन सब कुछ दांव पर लगाकर नहीं। अक्सर कहा जाता है कि पूर्वकाल में साधनों का इतना बोलबाला नहीं था फिर भी जीवन बहुत ही सुखद था। दुःख, दोष, द्वन्द्व, द्वेष एवं  सन्तापों का बोलबाला कम ही था।आज के युग में सब कुछ होने के बावजूद, असुरक्षा, अभाव, असन्तोष, अल्पता, असहनीयता, अहंकार,अबोधता, असत्य अथवा शोषण,छल-कपट, छीना-झपटी, स्वार्थ एवं संकीर्णता अधिकतर लोगों की चिंता का विषय है। सब कुछ होते हुए भी आज का मनुष्य जितना अशान्त एवं अभावग्रस्त है, उतना पहले कभी नहीं रहा।

इसका एक ही logical और वैज्ञानिक कारण है कि जिसे हम “सब कुछ” की परिभाषा दे रहे हैं उस “सब कुछ” का तो अंत ही नहीं है। “जो प्राप्त है वही पर्याप्त” के सिद्धांत में कहीं तो सीमा लगाई जा सकती है, लेकिन “सब कुछ” वाला सिद्धांत तो असीमित है, उसमें तो Sky is limit, आकाश के तारे तोड़ लाने की आकांशा है।      

संयुक्त परिवारों में वर्तमान विषय पर चर्चा के विरोधाभास का क्या कारण हो सकता है? इसका एक ही कारण है: ज्यों-ज्यों मनुष्य भौतिकता को प्रमुखता देकर बाहरी  साधनों की गुलामी स्वीकार करता गया त्यों-त्यों उसका मानसिक पतन होता चला गया और धीरे-धीरे वोह  स्टेज आ गयी जिसमें मानवीय गुणों से खाली होकर मनुष्य एक Robotic  machine  बन कर रह गया। ऐसा मनुष्य Robots को promote करने, उसकी प्रशंसा करने में बड़ा गर्व महसूस करता है। ऐसे Robot inspired मनुष्यों में प्रेम,सौहार्द तथा मानसिक संबंध लुप्त होते गए और वोह संकीर्ण, स्वार्थी, लोभी तथा लालची बनता गया। ऐसी ही मनःस्थिति का मनुष्य किसी भी छोटी से छोटी समस्या का समाधान Excel sheet, numbers, computer formulas और computer programs में ढूढ़ता रहा जबकि सामने बैठे बुज़ुर्ग उँगलियों पर ही समाधान दे देते हैं। 

इस प्रकार की दूषित मनःस्थिति में सुख, सन्तोष तथा हंसी-खुशी की सम्भावना हो भी कैसे सकती है? आज जहां एक ओर राजनीतिक, सामाजिक शैक्षणिक तथा औद्योगिक प्रगति की ओर शक्तियों तथा साधनों को केन्द्रित किया जा रहा है वहीँ  “मानसिक क्षेत्र” को  सर्वथा नकारा जा रहा है। जितना महत्व  इन  योजनाओं को दिया जा रहा है, यदि उसका कुछ थोड़ा सा अंश मानसिक विकास  की ओर ,मनोभूमि को शुद्ध बनाने की ओर दिया जाने लगे तो कोई कारण नहीं कि अनेकों  सन्तापों की समस्या दूर तक हल न हो जाये।

जीवन की वास्तविक प्रसन्नता तथा हंसी-खुशी के लिये किए जाने वाले बाहरी प्रयासों  के साथ-साथ यदि मानसिक विकास की योजना का गठबन्धन कर दिया जाये तो आज के सारे साधन मनुष्य की प्रसन्नता बढ़ाने में चार चांद की भूमिका निभा सकते हैं, नहीं तो  यह बढ़े हुए  भौतिक साधन लोभ,लालच, तृष्णा आदि की वृद्धि करने के अतिरिक्त मनुष्य को कोई भी पुरस्कार न दे सकेंगे। 

अगर यह गठबंधन न हुआ तो आज का मनुष्य उसी  तरह पागल होकर भागता रहेगा, जिस तरह बेचारा मृग नाभि में कस्तूरी होने के बावजूद जंगलों में घास पत्तों को सूंघता फिरता है। भौतिक विकास के साथ-साथ जब तक मानसिक विकास की योजना नियोजित नहीं की जायेगी, मनुष्य के लिये वास्तविक प्रसन्नता पा सकना सम्भव नहीं।  साधनों की एकांगी बढ़ोत्तरी मनुष्य को अधिकाधिक आलसी, प्रमादी, अकर्मण्य ईर्ष्यालु तथा स्वार्थी बनाने के साथ-साथ अतृप्त एवं तृष्णाकुल बना देगी। साधनों के साथ-साथ मनुष्य की कामनायें और अधिक बढ़ती हैं, जिनकी पूर्ति सम्भव नहीं और ऐसी दशा में मनुष्य का असन्तुष्ट रहना स्वाभाविक है। 

यहाँ एक बात बड़े ही ध्यान से समझने और गाँठ बांधने वाली है कि साधनों से आवश्यकताओं की संतुष्टि नहीं, वृद्धि होती है। संतोष हृदय का गुण है, मनोभूमि की उपज है,उसे ह्रदय में ही जगाना और उगाना चाहिए, तभी मनुष्य को वह प्रसन्नता नसीब हो सकती है जिसकी खोज में वोह मारा मारा भटक रहा है। जिस मनुष्य ने  अपने संयम,अभ्यास एवं प्रयास से “मानसिक स्वास्थ्य एवं उसके विकास” की ओर प्रगति कर ली है उसके लिए साधनों जैसे खिलौनों से दिल बहलाना कोई महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत नहीं कर सकते। मनुष्य जब मन से स्वस्थ होता है, उसे किसी भी बनावटी सहारे की आवश्यकता नहीं होती। उसकी मनोजन्य हंसी खुशी उसके जीवन में चांदनी की तरह प्रकाश एवं शीतलता बिछाये रखती है। जीवन की अनिवार्य आवश्यकतायें और रहन-सहन के कतिपय साधन ही उसको स्वर्गीय सुख देने के लिये पर्याप्त होते हैं। बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें ऊंची-ऊंची कोठियां, मोटर, जहाज और हवाई जहाज उसके लिए कोई महत्व नहीं रखते। वह बैंक की ओर तृष्णा भरी आंखों से नहीं देखता, उस आत्म-संतुष्ट  योगी और मानसिक महारथी को न तो कोई अभाव सताता है और न साधन ललचाते हैं।

परम पूज्य गुरुदेव बताते हैं कि मनुष्य को अपनी समस्याओं का समाधान साधनों में नहीं, अपने अन्दर खोजना चाहिए। अपना अंतःकरण ही “मानसिक स्वास्थ्य के अन्वेषण” का स्थान है। उसे खोजने के लिए आपको किसी की आवश्यकता नहीं, आप स्वयं ही काफी हैं। 

अनजाना स्वर्ग कहीं नहीं है : 

अनेक ऐसे लोग भी होते हैं, जो वास्तविक प्रसन्नता का निवास सांसारिक साधनों में तो नहीं मानते किन्तु यह अवश्य मानते हैं कि इस संसार से अलग कोई एक ऐसा लोक अवश्य है, जहां जीवन की सफलता एवं स्वर्ग को प्राप्त कर लिया जाए तो वास्तविक प्रसन्नता अनायास ही सदा- सर्वदा मिल जाएगी । तब न तो कुछ करना होगा और न संघर्ष की आवश्यकता पड़ेगी, नितान्त निष्क्रिय रूप से यों ही बैठे-बैठे सब प्रकार के आनन्दों का भोग करते रहेंगे। अपनी इस धारणा के आधार पर वे संसार से ही रूठ बैठते हैं और अंधेरे में तीर चलाने की तरह एक अनदेखे तथा “अनजाने स्वर्ग का अन्वेषण” किया करते हैं। मनुष्य की यह धारणा भी बुद्धिमत्ता पूर्ण नहीं कही जा सकती। उसका सारा जीवन और सारी शक्तियां यों ही किसी “काल्पनिक स्वर्ग” की खोज में नष्ट हो जाती हैं, किन्तु हाथ में कुछ भी नहीं लगता और पता ही नहीं चलता कि कब जीवन के अंत ने दस्तक दे दी। 

आज के लेख की सबसे बड़ी शिक्षा यही है कि मनुष्य अपने मस्तिष्क से इस धारणा को दूर भगा दे कि मन मंदिर के बाहर स्वर्ग नाम का कोई ऐसा स्थान/ लोक है जिसे  प्राप्त कर लेने पर उसकी “स्थायी प्रसन्नता की समस्या” सदा के लिये हल हो जायेगी। मनुष्य का स्वर्ग उसके “हृदयलोक/ मन मन्दिर” में ही विराजमान है जिसे  कभी भी अपने वांछित प्रयत्नों से बाहर प्रतिबिम्बित किया जा सकता है। इस ह्रदयलोक में  प्रेम, पवित्रता, सदयता, सहयोग, त्याग एवं उदारता का वातावरण मौजूद है। स्थाई स्वर्ग मनुष्य के अन्दर-बाहर सर्वत्र बिखरा पड़ा है लेकिन असन्तोष, ईर्ष्या-द्वेष, पाप आदि की चितायें उस स्वर्ग को मरघट बनाए जा  रही हैं।  वासनाओं का धुआँ,भौतिकता की चमक,साधनों का लोभ मनुष्य को सार्वत्रिक स्वर्ग का  अनुभव ही नहीं होने  देते। मनुष्य को चाहिए कि वह अपने मस्तिष्क में दिव्य  भावनाओं की खेती करे, अपने चारित्रिक विकास से देवों की स्थिति प्राप्त करे और फिर देखे  कि स्वर्ग आप में और स्वर्ग में आप ही निवास कर रहे हैं।अंतःकरण का शुद्धिकरण होते ही स्वर्गीय सुख का प्रसाद प्राप्त होना आरम्भ हो जायेगा। जो कुछ प्राप्त है, उसमें सन्तुष्ट रहिये,मानसिक विकास का  प्रयास करते रहिए, अतिकामनाओं के अभिशाप से अपनी रक्षा कीजिये, जीवन के प्रति रुचि, सन्तोष और आस्था की भावना रखिये और अभाव के भाव को अपने निकट मत फटकने दीजिए। सभी के साथ प्रेम एवं सहानुभूति का व्यवहार कीजिये और श्रद्धापूर्वक अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हुए जीवनयापन करिये और फिर देखिये कि स्वर्गीय जीवन है कि नहीं। 

यही है आधुनिक युग की समस्या का यही एकमात्र  समाधान।

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आज 12  युगसैनिकों ने 24 आहुति  संकल्प पूर्ण किया है। अनुराधा बेटी  गोल्ड मैडल विजेता है । बेटी को  हमारी हार्दिक बधाई एवं संकल्प सूची में योगदान के लिए धन्यवाद्।   

(1)वंदना कुमार-24  ,(2) सुमनलता-38 , (3 )अरुण वर्मा-43  ,(4) संध्या कुमार-55   ,(5) सुजाता उपाध्याय-29 ,(6)चंद्रेश बहादुर-35  ,(7)रेणु श्रीवास्तव-28  ,(8) सरविन्द पाल-32, (9)अनुराधा पाल-56   ,(10) मंजू मिश्रा-24  ,(11  )निशा भारद्वाज-27 ,(12 ) विदुषी बंता-32  सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।

 


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