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पूर्णरूपेण भौतिकवादिओं को चेतावनी 

26 दिसंबर 2023 का ज्ञानप्रसाद

Source:अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए

https://youtu.be/IsNKPYpHDWE?si=dOmFHvRT1quC5BU1 (आज के प्रज्ञागीत के लिए आदरणीय नीरा जी का धन्यवाद)

भौतिकवादिता और आध्यात्मिकता का बैलेंस बनाकर जीवनयापन करना ही सबसे बड़ी समझदारी है। परम पूज्य गुरुदेव द्वारा दिए गए इस सूत्र को जीवन में उतारने से जीवन जितना आनंदमय हो जाता है उसकी कल्पना से ही सुखद आनंद की प्राप्ति होती है। 

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से  समय समय पर  नियमितता का मूलमंत्र स्मरण कराया जाता है, इस मूलमंत्र को एक और स्टेप आगे बढ़ाते हुए आइए परम पूज्य गुरुदेव से सामूहिक प्रार्थना करके “नियमितता के आर्शीवाद” की याचना करें। हमारा अटूट विश्वास  है कि कृपानिधान गुरुदेव अपने बच्चों को निराश नहीं करेंगें। 

भौतिकवाद पर चल रही लेख श्रृंखला में प्रस्तुत किये जा रहे लेखों को देखकर ऐसा सोचा जा सकता है कि यह तो हम सब पहले से ही जानते हैं लेकिन ऐसा नहीं है। गुरुदेव के सूक्ष्म मार्गदर्शन में प्रत्येक लेख का एक एक शब्द बड़े ही ध्यानपूर्वक चिंतन-मनन से लिखा जा रहा है और additional जानकारी से रोचक और ज्ञानवर्धक बनाने की चेष्टा की जा रही है। कल वाले लेख में  पोस्ट हुए विस्तृत कमैंट्स ज्ञानप्रसाद की सार्थकता को प्रमाणित कर रहे हैं जिसके लिए साथिओं का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं।

इन्हीं ओपनिंग रिमार्क्स के साथ, शांतिपाठ के साथ  आज की गुरुकक्षा का शुभारम्भ होता है। ॐ असतो मा सद्गमय ।तमसो मा ज्योतिर्गमय ।मृत्योर्मा अमृतं गमय ।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ 

अर्थात 

हे प्रभु, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो ।मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो ।

मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो ॥

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पूर्णरूपेण  भौतिवादिओं को चेतावनी : 

भौतिकवादी और अध्यात्मवादी में परस्पर विरोध है। पूरी तरह से  भौतिकतावादी होने का सबसे बड़ा दण्ड यह है कि ईश्वर के प्रति मनुष्य की आस्था शिथिल हो जाती है। निश्चित है कि जो भौतिकवादी होगा उसकी  दृष्टि संसार तक ही सीमित रहेगी और जो ईश्वरवादी है उसकी दृष्टि संसार तक ही सीमित न रहकर लोक-परलोक, पाप-पुण्य और परमात्मा तक जाने की कोशिश करेगी ही। 

“खाओ पियो और मौज करो”  Eat, drink and be merry का सिद्धांत :  

“खाओ पियो और मौज करो”  के  सिद्धान्त पर आचरण करने वालों के लिए पास समय ही कब रहता है कि वह आत्मा-परमात्मा के विषय में कुछ सोच सकें। सोमवार ऑफिस आते ही शनिवार की पार्टी, get-together आदि की योजना बननी शुरू हो जाती है। इस सिद्धांत के लोगों का सारा समय ऐसी ही योजनाएं बनाने में नष्ट होता जाता है । ऐसे लोगों की  बुद्धि, विद्या और सारा परिश्रम ऐसी ही योजनाओं में खर्च होता रहता है क्योंकि भौतिक ही सही, कोई भी उपलब्धि शक्तियों को केन्द्रित किये बिना नहीं हो सकती। ‘खाओ पियो और मौज करो” की वृत्ति एक ऐसी वृति है जिसकी कभी भी तृप्ति ही नहीं होती है। ऐसे लोग  कितनी ही सम्पत्ति क्यों न संचित कर लें ,कितने ही साधन इकट्ठे कर लें,उन्हें कभी भी  तृप्ति नहीं हो सकती।

इस अतृप्ति के दो कारण हैं: पहला कारण  तो यह है कि यह  वृत्ति स्वयं ही असंतोषजनक  होती है दूसरे कारण है कि  भौतिक भोगों में तृप्ति कहां है ? आज के साधन कल पुराने हो जाते हैं और समाज की रेस में  नये साधनों की लालसा जाग पड़ती है, लेकिन नए  भी जल्दी ही पुराने हो जाते हैं। इस प्रकार नए/ पुराने,फैशन, समाज आदि का चक्र निरन्तर रूप से रात दिन चलता रहता है। ऐसी दशा में मनुष्य का पूरा जीवन खाओ पियो और मौज करो के साधन जुटाते जुटाते ही समाप्त हो जाता है। भौतिकता से ग्रसित मनुष्य के पास इतना समय  ही नहीं बचता  कि वह परमात्मा के विषय में कभी  सोच भी  सके।

भौतिक साधनों  का संचय करते-करते और उसकी और आकर्षित होते-होते मनुष्य जल्दी ही ईमानदारी और धर्म की सीमा छोड़कर अनुचित एवं असत्य की रेखा में चला जाता है। तब एक स्टेज ऐसी भी आ जाती है कि तीव्र गति से बढ़ती हुई भौतिक पदार्थों की संचय वृति  उसे आत्मा-परमात्मा से इतनी दूर ले जाती है, जहां उस शक्ति की न तो आवाज़  सुनाई देती है और न ही झलक दिखाई देती है। 

इस प्रकार भौतिकता की भयानक लिप्साएं, ईश्वरीय निष्ठा को इस सीमा तक नष्ट कर देती हैं कि मनुष्य अनजान में ही पूरा “नास्तिक” बन जाता है। ऐसा मनुष्य ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार भी करता रहे लेकिन वह आस्तिक नहीं रह पाता । ऐसे मनुष्य का ईश्वर की  अनुभूति से रहित हो जाना, सर्वशक्ति के प्रति विनम्र न होना, उसका सहारा छोड़ देना ही  विशुद्ध नास्तिकता है। 

सच्ची आस्तिकता की पहचान क्या है ?

सच्ची आस्तिकता की पहचान गुण-अवगुण ही हैं। ईश्वर के अस्तित्व के बारे  में केवल दो ही options हैं, तीसरी कोई नहीं। पहली option “ईश्वर है” , दूसरी option, “ईश्वर नहीं है”   “खाओ पियो और मौज करो” वाला  सिद्धान्त तृष्णा के कारण हर पदार्थ,हर अवसर, हर  रस चखने की प्रेरणा देता है जिससे मनुष्य का गलत खान-पान एवं गलत कार्यों के प्रति आकर्षित होना स्वाभाविक है। शराब और सुन्दरीयां  भोगवादियों के दो ऐसे उपकरण हैं जिनसे कोई ही  भाग्यवान बच सका होगा। मर्यादाओं का हनन करते हुए जीवनयापन करने वाले भोगवादिओं को जिन दुष्परिणामों को भोगना पड़ता है, वोह किसी से छिपे  नहीं है। 

आज हम अपने आस पास देखें तो जो जितना सम्पन्न है,जिसके पास जितनी  साधन-सामग्री की सुविधा है, मृगतृष्णा के कारण वह उसी अनुपात में असन्तुष्ट एवं अशांत है। Gun man और security की आवश्यकता अमीरों को, बड़े लोगों को ही है। गरीब  तो निश्चिन्त है, संतुष्ट है,असुरक्षित भी नहीं है क्योंकि वोह जितना कमाता है उसमें से भी बचा लेता है, अवांछित संचय उसकी प्रवृति में ही नहीं है।    

भोगवादिओं के जीवन में आशंका, सन्देह, तनाव, भय तथा युद्धोन्माद चिन्तन धारा का अंग बन गये हैं। अगर सब कुछ  विनाश और स्वार्थ को सामने रखकर ही किया जाए तो क्या कहा जाए। ऐसी स्वार्थी प्रवृति के लोगों के समक्ष जब शांति और  निःशस्त्रीकरण की कल्याणकारी बात सामने आती है तो उनका अस्तित्व कांप  उठता है कि शांति/निःशस्त्रीकरण से कहीं हम इतने कमजोर न हो जायें कि कोई दूसरा हमारे भोग-उपभोगों/साधनों  को छीन ले । भौतिक भोगों के रोगियों के पास आत्मबल अथवा आत्म विश्वास कहां होता है। ऐसे लोगों के पास Selflessness वाली दृष्टि कहाँ होती है जिसके आधार पर वोह सोच सकें कि भोग साधन निर्जीव हैं, उनमें कोई जीवन शक्ति नहीं होती। ऐसे भौतिकवादी चाहते हैं कि बाकी  सारा संसार नष्ट  हो जाए  तो हमारे भोग साधन निरापद एवं निष्कंटक हो जाते और तब हम उन्हें आंख मूंद कर इस प्रकार भोगते जैसे  अब तक भोग नहीं पाये हैं और इसी निश्चिन्तता अथवा निष्कंटकता को वे “विश्व शांति” की संज्ञा देना चाहते हैं किन्तु अध्यात्मिकता का मीठा फल ‘शांति’ इन विचारों एवं कार्यों में कहाँ  है। 

आज सभी विकसित देशों में भोगवाद और  भौतिक साधनों  की दौड़ लगी  है। ऐसे देशों में  प्रचुर धन-सम्पत्ति है,अनगनित  उद्योग, विशालकाय कारखाने तथा वैभव की असीम चकाचौंध है। मनुष्य  का  काम Robots  करते हैं, होटल, रेस्ट्रां, सिनेमा, पार्क, नाचघर, नाटकशाला तथा एंटरटेनमेंट की भरमार है। हर व्यक्ति की आय व्यय से कहीं अधिक है। ऐसा लगता है कि संसार के सारे साधन, सारी सामग्री और सारी लक्ष्मी इन्हीं  कुछ एक  देशों में  सिमट कर आ गई है लेकिन ऐसा नहीं है। सम्पन्नता की स्थिति के बावजूद,यहाँ के लोगों का  जनजीवन कितना अतृप्त, कितना अशांत, कितना व्यग्र,कितना बोझिल है, इसका अनुमान प्रतिवर्ष होने वाली आत्महत्याओं की संख्या में लगाया जा सकता है। अगर बाकी parameters को छोड़ कर केवल आत्महत्या पर ही अपना ध्यान केंद्रित करें तो स्पष्ट दिखता  है कि यह भयानक संख्या अशांत एवं असफल जनजीवन को स्पष्ट कर देने के लिए पर्याप्त है। आत्महत्याओं के अनेक कारण हो सकते हैं लेकिन निराशा,पारिवारिक कलह, आर्थिक कठिनाई, शराब आदि मुख्य कारण हैं । 

क्या यह सब पूर्ण (पूर्ण !) भौतिक भोगवाद की ही देन नहीं है ?

अगर यह विकसित देश, सारे विश्व में शक्ति सम्पन्न होने की डींगें मारते रहते हैं तो फिर निराशा का क्या कारण है ? इसका उत्तर है कि “भोगवाद का अन्त निराशा में ही होता है ।” भोगवादी मनुष्य शीघ्र ही मिथ्या एवं नश्वर सुखों में अपनी सारी शक्तियां नष्ट कर देते  हैं और खोखले होकर निर्जीव हो जाते हैं। ऐसी दशा में न तो उनके लिये किसी वस्तु में रस रहता है और न ही  जीवन में रुचि । स्वाभाविक है उन्हें एक ऐसी भयानक निराशा आ घेरती है  जिसके बीच जी सकना मृत्यु से भी कष्टकर हो जाता है। भोगवादी प्रायः स्वार्थी तथा दूसरों के प्रति निरपेक्ष रहा करते हैं। घर में कोई बीमार है, दुःखी है, सन्तप्त है लेकिन  ऐसे लोग उसकी उपेक्षा करते अपने मनोरंजनों में लगे रहते हैं। दूसरे का दुःख बटाना उनके सिद्धान्त में ही नहीं होता । 

विकसित एवं  सम्पन्न देशों  की जनता को भला आर्थिक कठिनाई कहाँ  हो सकती है,सही मायनों में  होती भी नहीं है लेकिन  भोगवाद का प्रदर्शनपूर्ण जीवन, स्पर्धापूर्ण रहन सहन और अधिकाधिक की होड़ उनकी आवश्यकताओं को पूरा ही नहीं होने देती। एक कार से दो कार, एक मकान, दूसरा मकान की होड़ उनकी आर्थिक कठिनाई को इस हद तक बढ़ा देती है कि पूर्ति असम्भव हो जाती है और व्यक्ति अपने को असफल मानकर जीवन से छुट्टी ले लेता  है।

शराब जहां साक्षात् विष है वहां “खाओ पियो और मौज करो” के सिद्धान्त का एक अनिवार्य अंग है। जीर्ण भोगों को नवीन बनाने, जीवन में रस लाने और असफल प्रेम की पीड़ा भुलाने के लिए भौतिकवादियों के पास शराब के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय ही नहीं होता।   हर्ष, शोक, जिन्दगी तथा मनोरंजन के लिये शराब को अनिवार्यता देने से शरीर एवं मस्तिष्क की स्थिति इतनी कमजोर हो जाती है कि जीवन बोझ लगने लगता है और तब एक छोटी-सी भी अप्रियता आत्महत्या के लिए प्रेरित कर देती है।

अध्यात्मवादी मनुष्य को आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व  में विश्वास होता है। वह इस अस्तित्व के आधार पर संसार में सब ओर से निराधार होकर भी जिन्दगी की नाव को पार करा ही लेता है। जिन अभागों के पास यह आधार नहीं होता उनकी जिन्दगी टूटी नाव की तरह एक छोटी-सी लहर से ही अतल में बैठ जाती है। अनीश्वरवादी ( नास्तिक) छोटी सी बात पर इतनी बड़ी सीमा तक निराश, निरुत्साह, नीरस तथा निरुपाय हो जाते हैं कि उन्हें  आत्महत्या ही एकमात्र ऐसा उपाय सूझता है कि जिसके आधार पर वह शान्ति पा जाने की आशा करते हैं। 

आज के ज्ञानप्रसाद लेख का समापन इसी विचार से करना उचित होगा कि “भौतिक आवश्यकताओं के साथ आध्यात्मिक आस्था” ही जीवन को सुखी, शान्त तथा सम्पन्न बना सकती है।  

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आज 13 युगसैनिकों ने 24 आहुति  संकल्प पूर्ण किया है। अनुराधा बेटी और सरविन्द जी दोनों गोल्ड मैडल विजेता हैं । पिता-पुत्री जोड़ी को हमारी हार्दिक बधाई एवं संकल्प सूची में योगदान के लिए धन्यवाद्।   

(1)वंदना कुमार-30 ,(2) सुमनलता-32, (3 )अरुण वर्मा-44 ,(4) संध्या कुमार-51  ,(5) सुजाता उपाध्याय-39  ,(6)चंद्रेश बहादुर-37 ,(7)रेणु श्रीवास्तव-27 ,(8) सरविन्द पाल-73 , (9)अनुराधा पाल-72  ,(10) नीरा  त्रिखा-24,(11 )मंजू मिश्रा-30 ,(12 )निशा भारद्वाज-31 ,(13) विदुषी बंता-25 सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।


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