वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

आध्यात्मिक और भौतिक समृद्धि के सम्मिश्रित मार्ग पर चलें। 

25 दिसंबर,2023 का ज्ञानप्रसाद

Source: अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए

शब्दसीमा के कारण आज सीधा लेख की ओर ही चलना होगा। 

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पुराणकारों  का कहना है कि भारत ही ऐसा देश है जहाँ भगवान भी जन्म लेने की इच्छा प्रकट करते हैं। पुरातन भारत में भौतिक और आध्यात्मिक सम्मिश्रण के कारण लौकिक जीवन तो सुख और शान्ति से पूरित हुआ ही करते थे, पारलौकिक अनुभूतियां भी यहां उपलब्ध हुआ करती थीं। 

बहुत आवश्यक है कि हम भौतिक मान्यताओं  से बाहर निकलकर विवेकशील मनुष्य बनें, अपने दृष्टिकोण को परिष्कृत करें । मनुष्य जीवन को सच्चे दृष्टिकोण से देखने की दार्शनिक बुद्धि विकसित किये बिना मानवीय प्रगति सम्भव हो ही नहीं सकती । पूर्णतया भोगवादी जीवन के परिणाम दुःखदायी ही होते हैं। हम आध्यात्मिक और भौतिक समृद्धि के सम्मिश्रित मार्ग को समझे और उस पर चले तो मानव जीवन का सच्चा आनन्द प्राप्त कर सकते हैं। यही हमारी परम्परा है और इसी राह पर चलने के लिए समुन्नत होना चाहिए ।

जिस तेज़ी से भौतिक सभ्यता का अनुकरण हो रहा है उसी गति से लोगों का नैतिक पतन भी हो रहा है। स्वामी विवेकानन्द ने वर्षों पहले चेतावनी देते  कहा था:

भौतिकता के प्रभाव ने इस समाज का इतना  पैशाचिक उत्पीड़न किया है कि देखने वालों का दम घुटा जा रहा है। चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ है। क्या यही हमारी सभ्यता है? इसी को ससंस्कृत कहते हैं ? हमारे गौरव, हमारी कीर्ति और हमारी सम्पन्नता का भारतवर्ष यह नहीं है। यह तो बहका हुआ कदम है जो विदेशियों की राह पर चल रहा है। भारतीय सभ्यता  वह थी  जो “जीवन-सिद्ध” को साकार रूप दे चुकी थी । यहां दाम्पत्य प्रेम, पितृ भक्ति, मातृ-पूजा, मातृ स्नेह सभी एक से एक बढ़ चढ़कर थे। लोगों के आहार कितने सरल और सात्विक थे। संयम और ब्रह्मचर्य की गरिमा से चेहरे प्राणवान्, कान्तियुक्त तथा ओजस्वी हुआ करते थे।  सदाचार और आत्मीयता की भावनाओं के कारण सभी ओर सुख और सन्तोष छाया रहता था। 

भौतिक और आध्यात्मिक विचारधारा  में एक बेसिक अंतर् है। आध्यात्मिक मनुष्य का जीवन अन्य प्राणियों की अपेक्षा श्रेष्ठतर माना जाता है और ऐसे मनुष्य से जीवन की फिलॉसोफी  समझने की आशा की जाती है। मानवीय सद्गुणों से समृद्ध, शुद्ध जीवन जिसमें  आत्मकल्याण के निजी उद्देश्य के साथ विश्वकल्याण की आदर्श भावना सन्निहित है, ही दिव्य जीवन है। मनुष्यों के बल, बुद्धि और पराक्रम को श्रेष्ठ साधन मानते हुए  भी प्राणिमात्र के प्रति आत्म भावना ही विशेषता होती  है। आध्यात्मिक विचारधारा में किसी के उत्पीड़न का कहीं भाव तक नहीं आता। विश्वसुख और विश्वशान्ति का इससे बढ़कर दूसरा आदर्श कोई  हो नहीं सकता। सरल शब्दों में आध्यात्मिकता का अर्थ सांसारिक सुखों का उपयोग और आत्मकल्याण की दृढ़तर भावना ही है। इसी भावना  से मानवीय हितों की रक्षा सम्भव हो सकती है।

भौतिकतावादी मान्यता का रूप कुछ दूसरा ही  है। भौतिकवादिता की  सम्पूर्ण परम्परायें, रीति और रिवाज, बाहरी सुखों को प्राप्त करने के साधन मात्र हैं। इस मान्यता के अनुसार मनुष्य को सुख चाहिए, वाहवाही चाहिए, वह किसी से छीन कर प्राप्त की जाए  अथवा मनुष्येत्तर प्राणियों की हिंसा करके प्राप्त हो। ऐसे सुख की प्राप्ति के लिए दुष्ट कार्य गलत नहीं बुद्धिमत्ता मानी जाती है। मनुष्य के  प्रति सद्भावना की कमी, सामाजिक जीवन में स्वार्थपरता, बेईमानी, चोरी, झूठ, छल कपट, आडम्बर, छोटी छोटी बातों में कानून की धौंस , धन का अपव्यय और उसे प्राप्त करने के लिये अनैतिक तरीके अपनाना, अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के लिये पशु पक्षियों तक का हाड़-मांस और खून चूस लेने में ही अपनी विशेषता समझना भौतिकवाद है। 

ऐसी घृणित परम्परायें जिस समाज तथा राष्ट्र में फैल रही हों, उनका आत्मकल्याण क्या  होगा। ऐसी अवस्था में धर्म और अध्यात्मवाद को दोषी ठहराना  उचित नहीं हैं। दुःख के परिणाम हमने स्वयं पैदा किये हैं। मनुष्य को किसी दूसरे को दोषी ठहराने का कोई अधिकार नहीं है।

मनुष्य ने रहना तो संसार में ही है तो संसार के बगैर (अकेले) कैसे जीवन काटा  जा  सकता है। सांसारिक बंधनों में लिप्त होना, संसार की घिसी पिटी प्रथाओं को सहन करना/समर्थन करना भी मनुष्य के लिए एक दुविधा भरी स्थिति बन चुकी है। लोग क्या कहेंगें ? परिवार क्या कहेगा? समाज क्या कहेगा ? करना पड़ता है, जैसे अनेकों प्रश्न हैं जिनसे डर  कर मनुष्य इस सांसारिक दुनिया में हथियार डाल चुका है। दरअसल मनुष्य स्वयं ही सांसारिक बंधनों में लिप्त होना चाहता है, इस दलदल से बाहिर नहीं निकलना चाहता और समाज, परिवार आदि पर  ठीकड़ा फोड़ता  है। ऐसे मनुष्य के लिए तो एक और प्रज्ञागीत की  पंक्तियाँ फिट बैठती हैं  “मैं हूँ संसार के हाथों में, संसार तुम्हारे हाथों में। अब सौंप दिया इस जीवन का, सब भार तुम्हारे हाथों में, है जीत तुम्हारे हाथों में, और हार तुम्हारे हाथों में । मुझ में तुझ में बस भेद यही, मैं नर हूँ तुम नारायण हो। सांसारिक दलदल में डूब जाना और उससे किनारा कर लेना, सीमाबद्ध करना केवल मनुष्य के हाथों में ही  है  

मनुष्य के  जीवन को रसपूर्ण और आलराउंड रखने की दृष्टि से सांसारिक सुख  उपयोगी हो सकते हैं किन्तु उन्हें ही सब कुछ  मान लेना आत्म-कल्याण की दिशा में  सबसे बड़ी बाधा है। मनुष्य के दुःखों तथा गिरावट  का कारण बाहरी सुखों की अनियन्त्रित, अतृप्त आकांक्षा के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। मनुष्य का  पतन इसीलिये नहीं हुआ कि हमारे पूर्वजों के बनाए  हुए रीति-रिवाज और सामाजिक प्रतिबन्ध कठोर थे, खराब थे, बल्कि  इसलिये हुआ  कि उनके  सात्विक लक्ष्य पर पहुंचने के लिये जिस वातावरण और साधनों की आवश्यकता थी  उनको नकार दिया  गया। जब तक हमारी परम्परायें, आत्मज्ञान और अन्तःदर्शन की आवश्यकता की पूर्ति के आर्ष-सिद्धान्तों ( यानि ऋषि सिद्धांतों ) के अनुसार रहीं तब तक बाहरी और आन्तरिक जीवन में सुख शान्ति और सन्तोष की परिस्थितियां बनी रहीं, लेकिन  जैसे ही बाहरी  सुखों की प्रधानता बढ़ी, क्लेश, कलह और कटुता के  दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम दिखाई देने लगे। यह हमारी अन्धानुकरण (Blind copy)  की प्रवृत्ति के कारण हुआ। हमारे पांव पश्चिमी  संस्कृति की ओर इस तरह बढ़े कि हमारे अपने आदर्श और सिद्धान्त पूर्णतया भौतिकवादी सिद्धान्तों में  विलीन हो गये। भौतिकसुखों को प्रधानता दी जाने लगी। परिणाम स्वरूप “आध्यात्मिक जीवन” का ढांचा ही लड़खड़ा गया।

भावनाओं की गहराई में जाकर जब “मानव जीवन की सार्थकता” पर विचार करते हैं तो यह स्पष्ट रूप से ज्ञान हो जाता है कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य बाहरी  सुख, भोग विलास  तक ही सीमित नहीं है। आत्मज्ञान प्राप्त करना मानव जीवन का मूल लक्ष्य है । यह संसार कैसे बना ? पदार्थों का आदि कारण क्या है? शरीर और अस्थि, मांस और रक्त आदि की क्या विभिन्नता है और इन सब से आत्मा कैसे अलग है ? मनुष्य को इस सब का ज्ञान अवश्य प्राप्त करना चाहिए । मनुष्य को परमात्मा द्वारा दिए गए सर्वश्रेष्ठ उपहार की बात करें तो “मानव तन” से ऊपर कोई भी उपहार नहीं  है । पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार, न जाने कितनी योनियों में भटकने के पश्चात हमें यह मानव शरीर मिला है । संसार में किसी भी प्राणी के  शरीर की  रचना इतनी उत्कृष्ट नहीं है जितनी मनुष्य की है । मनुष्य को ही परमेश्वर ने सर्वगुण संपन्न शरीर दिया है और  इसका एक-एक अंग, एक-एक इंद्रि  (Sense) अपनी कार्यक्षमता में अद्वितीय है ।
इतना कुछ मिलने के बावजूद मनुष्य शरीर को ही सब कुछ मान लेता है  और इसके आगे सोचने की आवश्यकता ही नहीं समझता ।हाड़-मांस के  शरीर को सजाते संवारते और इन्द्रियों को तृप्त करने में सारा जीवन निकल जाता है। जीवन की भागदौड़ और रेस में शरीर रुपी कलेवर में  विद्यमान आत्मा को मनुष्य अक्सर भूल जाता है और अज्ञानवश इस तथ्य को  भी भूल जाता है  कि शरीर तो नश्वर है और आत्मा अजर है,अमर है। मनुष्य यह भी भूल जाता है कि कुछ समय के लिए दिया गया शरीर तो मात्र एक साधन  है जिसमें आत्मा का वास  है।

जीवन का एकमात्र लक्ष्य हमारे भीतर के अव्यक्त देवत्व को दृढ़ता पूर्वक व्यक्त करना और अपनी वास्तविक सत्ता का साक्षात्कार करना है। एक ही परमात्मा सबके भीतर बैठा है, वही सब की अंतरात्मा है और वही कर्मफल दाता है। प्रत्येक मनुष्य देवता का स्वरूप है लेकिन  परिस्थितिवश वह अपने मार्ग से भटक गया है, देवत्व से भटक गया है । इस महान सत्य को जानकर, इस देवत्व को अपने आचरण में उतार लेना ही मनुष्य का परम लक्ष्य है । 

इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, इस आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए, मन, वाणी और कर्म से पवित्र हुए बिना सम्भव नहीं है । मन तो चंचल है, कभी खाली नहीं बैठता। रश्मि घई जी  हमें अपने प्रज्ञागीत के माध्यम से प्रतिदिन समझा रही हैं “शुरू से है यह ताना बाना, आने के संग जाना”, आज भी कह रही हैं अरे मनुष्य समझ जा, मेरी द्वारा गायी जा रही पंक्तियों को अंतरात्मा में उतार कर चिंतन कर। मेरा गीत सुनने में तो बहुत ही मधुर लग रहा होगा (धन्यवाद्) लेकिन ह्रदय में उतर पाए तभी इसकी सार्थकता की प्रमाणिकता होगी।  

मनुष्य के  चंचल मन को  यां  तो  पापकर्मों का रसास्वादन करने की लालसा रहती है यां सत्कर्म की सुगंध फैलाने की उत्कण्ठा, इच्छा । मन में उठने वाले यही विचार उसकी वाणी को प्रभावित करते हैं और उसके अनुसार ही उसके कर्म भी होते हैं । 

परम पूज्य गुरुदेव की प्रथम उत्कृष्ट रचना मात्र 48 पन्नों की  “मैं क्या  हूँ” पुस्तक है। इस  पुस्तक में “आत्मज्ञान (Knowledge about  yourself) के विषय को बहुत ही सरलता से समझाया गया है। आत्मज्ञान होने के बाद ही मनुष्य में पवित्र विचार जागृत होते हैं। 
अहंकार को त्यागकर “आत्मवत् सर्वभूतेषु” की भावना से संसार की समस्त प्राणियों में ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर लेने से ही मनुष्य पापकर्मों से बचा रहता है तथा अपने दैवीय  गुणों का संचार एवं अभिवृद्धि करता है। “आत्मज्ञान” को प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है।

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आज  16 युगसैनिकों ने 24 आहुति  संकल्प पूर्ण किया है। अनुराधा बेटी फिर से  गोल्ड मैडल विजेता है ।   

(1)वंदना कुमार-33,(2) सुमनलता-26 ,40 (3 )अरुण वर्मा-38 ,(4) संध्या कुमार-59 ,(5) सुजाता उपाध्याय-24 ,(6)चंद्रेश बहादुर-35 ,(7)रेणु श्रीवास्तव-51,(8) सरविन्द पाल-47 , (9)अनुराधा पाल-81 ,(10) नीरा  त्रिखा-25 ,(11 )मंजू मिश्रा-26,(12 )स्नेहा गुप्ता-25                    (13) पुष्पा सिंह-24,(14) निशा भारद्वाज-67,(15) संजना कुमारी-24,(16)प्रेरणा कुमारी-26, सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।                         


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