19 दिसंबर 2023 का ज्ञानप्रसाद
Source: “समस्त समस्याओं का समाधान-अध्यात्म”
हमारी सबकी प्रिय बेटी संजना के सुझाव पर आरम्भ की गयी वर्तमान लेख शृंखला का यह अंतिम लेख है।हम सबने परम पूज्य गुरुदेव द्वारा रचित “समस्त समस्याओं का समाधान-अध्यात्म” पुस्तक के एक-एक पन्ने का, एक समर्पित शिष्य की भांति अमृतपान किया लेकिन यह अमृतपान बेसिक जानकारी प्राप्त करने में ही सहायक हो सकता है। अध्यात्म के विषय को जानना, समझना, अपने जीवन में apply करके, अन्यों के समक्ष एक Role Model प्रस्तुत होने के बाद ही कहीं धुँधली सी अध्यात्म की छवि समझने की सम्भावना दिखने लगेगी। इस तथ्य को समझना ही समझदारी है कि यह एक बहुत ही पेचीदा विषय है और समझने के लिए अथक प्रयास करना पड़ता है।
कल पोस्ट हुए कमैंट्स में आदरणीय संध्या बहिन जी ने विश्वराष्ट्र को परिभाषित करते हुए लिखा कि सारा संसार पुन: एक राष्ट्र बनेगा( मानव का राष्ट्र), जिसमे एक भाषा (मानव बोली), एक जाति (मानव जाति), एक धर्म (मानव धर्म) रहेगा, यह अध्यात्म से ही संभव है। यही परिभाषा सबसे सटीक और क्लियर है।विपरीत सोच वाले बोल सकते हैं कि आज दो सदस्यों का परिवार तो संगठित रह नहीं पा रहा तो विश्व कहां से एक सूत्र में बंध सकता है। इसके बारे में यही कहा जा सकता है कि यह ईश्वर द्वारा निर्धारित की गयी योजना है और इसे वही अनंतकाल से चला रहे हैं, चलाते रहेंगें, हमें मात्र उनके आदेशों को मानना है।
पिछले दिनों अध्यात्म जैसे कठिन विषय हमें जो कुछ भी जाना, उसे मध्यांतर कहा जा सकता है। कल से एक नए विषय का शुभारम्भ हो रहा है। आध्यात्मिक भौतिकता का बहुचर्चित विषय दो विपरीत दिशाओं वाला विषय है; क्या भौतिकता को तिलांजलि देकर दूर हिमालय स्थित गुफाओं-कंदराओं में डेरा जमा लिया जाए ? क्या यही अध्यात्म है ? क्या भौतिकता के साथ-साथ आध्यात्मिकता का पालन किया जा सकता है ? क्या भौतिकता निंदनीय है ? आने वाले दिनों में गुरुदेव द्वारा ही रचित पुस्तक “आध्यात्मिकता ही अपनाई जानी चाहिए” एवं अनेकों अन्य Sources से ऊपर लिखित प्रश्नों के उत्तर पाने की योजना है।
आज का प्रज्ञागीत आदरणीय वंदना बहिन जी का योगदान है जिसके लिए हम उनका धन्यवाद् करते हैं ,संयोगवश पुष्पा जी ने भी वही गीत एक अलग शैली में भेजा है।
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विश्व-राष्ट्र के अंतर्गत समस्त देश एकजुट होकर रहने का प्रयास करें,इन देशों की सीमा रेखाएँ भौगोलिक आधार पर नये सिरे से निर्धारित कर ली जाएँ तो उसमें किसी का भी कोई हर्ज़ नहीं होगा। विश्वराष्ट्र की सेना ही सर्वत्र सुरक्षा व्यवस्था की उत्तरदायी होगी और भिन्न-भिन्न देशों के बीच आये दिन होते रहने वाले युद्धों के लिए कहीं कोई कारण शेष नहीं रहेगा। भूमि पर, प्रकृति-संपदा पर, किसी एक क्षेत्र के निवासी, अपना अधिकार न रख सकेंगे। तब ऐसी दशा में किसी क्षेत्र को अमीरी, किसी को गरीबी, किसी को अधिक खाने के कारण अपच से, किसी को भुखमरी से मरना नहीं पड़ेगा। जलमार्ग, थलमार्ग, नभमार्ग से सर्वत्र सबको जाने की सुविधा होगी। जनसंख्या की सुविधा-साधनों के अनुरूप बाँट की जाए। खनिज तथा दूसरे प्रकृति-साधनों का उपयोग सभी लोगों के लिए सुलभ बनाया जाए। हर किसी को श्रम करना पड़े और हर किसी को उत्पादन में हिस्सा मिले तो फिर विषमता कहीं रहेगी ही नहीं। तब विद्रोह के कारण ही बचे नहीं रहेंगे तो कोई भी युद्ध नहीं करेगा।
आज की सर्वनाशी युद्ध विभीषिका में अणु अस्त्रों का समावेश हो जाने से मानव के अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। इनकी सामयिक रोकथाम जिस किसी भी उपाय से संभव हो, की जानी चाहिए लेकिन इस तथ्य को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि विश्वशांति की स्थापना, युद्धों की पूर्णतया समाप्ति “विश्वराष्ट्र” के निर्माण से ही संभव हो पाएगी ।
एक धर्म, एक संस्कृति, एक भाषा, एक राष्ट्र की आवश्यकता पर जितनी गंभीरता से विचार किया जायेगा उतनी ही उसकी उपयोगिता सिद्ध होती चली जायेगी। यह अध्यात्म का प्रतिपादन है। अद्वैत-सिद्धांत (Principle of Non-duality) के अनुसार सर्वत्र एक ही आत्मा का अस्तित्व माना गया है। सबमें एक ही आलोक के प्रतिबिंब जगमगा रहे हैं। हम सब मणि-माणिकों की तरह पृथक् होते हुए भी एक सूत्र में बँधे हुए हैं। एक एकात्मक भाव ही आत्मविकास की स्थापना है। अध्यात्म तत्त्वज्ञान ने, बांटने की संकीर्ण (Narrow mindedness) स्वार्थपरता की पग-पग पर निंदा की है और उसके असीम दुष्परिणामों का बार-बार विस्तारपूर्वक विवरण दिया है। तंगदिली ही असंख्य समस्याएँ उत्पन्न करती है। उसी के कारण मानवी गरिमा का नाश होता है और अनेकानेक संकट खड़े होते हैं। स्नेह-सौजन्य एवं एकता और समानता की नीति अपनाई जा सके तो वर्तमान साधनों से ही अपने संसार में, अपने युग में, सुख-संपदा का बाहुल्य और आनंद का सर्वत्र हर्षोल्लास बिखरता देखा जा सकता है।
कमी साधनों की नहीं है, समस्या संकटों की नहीं है; कठिनाई केवल एक ही है कि आध्यात्मिक दृष्टिकोण का अनादर किया गया और उसका मज़ाक बनाया गया है । यों तो अभी भी अध्यात्म की चर्चा खूब होती है,उसके नाम पर आडंबर भी बहुत बनते हैं लेकिन उस रीति-नीति को व्यावहारिक जीवन में उतारने का प्रयास नहीं किया जाता। अध्यात्म को व्याख्याओं से धूमिल कर दिया गया है और वह मात्र भ्रांतियों का केंद्र बनकर रह गया है। आवश्यकता इस बात की भी है कि अध्यात्म के वास्तविक स्वरूप से जन साधारण को परिचित कराया जाए।
प्रत्येक मनुष्य को इस तथ्य को अच्छी तरह समझकर हृदय में उतारना चाहिए कि उत्कृष्ट चिंतन के आधार पर परिष्कृत व्यक्तित्व बनाने वाले दृष्टिकोण का नाम अध्यात्म का तत्त्वदर्शन है। आदर्शवादी गतिविधियों को कार्यान्वित करने की प्रखर कार्य पद्धति को, वैयक्तिक और सामाजिक क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाली उदात्त कर्त्तव्य-परायणता को अध्यात्म का व्यावहारिक पक्ष कह सकते हैं। यही यह आधार है, जिसे अपनाकर व्यक्ति और समाज की समस्त समस्याओं का हल पाया जा सकता है और समूची मानव जाति को स्थायी सुख-शांति से लाभान्वित किया जा सकता है।
अनेकों बार कहा जा चुका है कि संसार के सामने अपराध, युद्ध, अभाव, अशिक्षा एवं स्वास्थ्य आदि जैसी विशालकाय समस्याएँ हैं। इन समस्याओं की उत्पति परिस्थितिवश मानी जाती है जबकि यह बिगड़ी हुई मनःस्थिति की उपज हैं । सुधार उद्गम केंद्र का किया जाना चाहिए। समस्याओं की जड़ काटी जानी चाहिए।
मानवी मस्तिष्क यदि दुर्बुद्धिग्रस्त रहेगा और दुष्प्रवृत्तियों का बोलबाला होगा तो असंख्य समस्याओं के रूप लगातार उसी प्रकार बने रहेंगें जैसे आज बने हैं। बाहरी उपचारों से क्षणिक सहायता तो मिल सकती है लेकिन स्थायी समाधान नहीं निकल सकेगा। यह तो वही बात हो गयी कि रोगी कड़वी दवा खाकर पूरी तरह से रोगमुक्त होने से कतराता है और डॉक्टर Strong antobiotics देकर रोग को दबा कर शीघ्र रोकमुक्त होने का नाटक खेलता है। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें रोगी और डॉक्टर की मिलीभगत है, रोगी के पास समय नहीं है और डॉक्टर ने डिग्री लेने के समय जो शपथ ली थी उसे दरकिनार किया जा रहा है। आज इस बात को समझने का आवश्यकता है कि हम में से कितनों को सही अध्यात्म का ज्ञान है, इसको समझने के लिए A,B,C से यानि नर्सरी कक्षा से आरम्भ करना होगा। यह बात निराशा उत्पन्न करने और मनोबल गिराने के लिए नहीं कही गई है। यह तो वस्तुस्थिति का विश्लेषण मात्र है।
प्रगति पर प्रसन्नता व्यक्त करना अच्छी बात है। आज का मानव प्रगति की जिस दिशा में बढ़ा है उसकी सराहना करना स्वाभाविक है। इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकतीं कि भौतिक साधनों को बढ़ाने की दिशा में आशाजनक सफलता मिली है लेकिन यह भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि साधनों के बढ़ने के साथ-साथ उनके सदुपयोग का उत्तरदायित्व भी हमारे कन्धों पर आन पड़ा है। भौतिक प्रगति के समानांतर आत्मिक प्रगति भी होनी चाहिए, अन्यथा उपभोग का संकट उत्पादन की उपलब्धियों को लाभदायक होने के स्थान पर और भी अधिक हानिकारक बना देगा। एयर कंडीशन की सुविधा कुछ समय पूर्व केवल अमीरों को ही उपलब्ध थी, आज अनेकों को उपलब्ध है। सभी को मालूम है कि इसके दुरूपयोग से कौन- कौन से समस्याओं की उत्पति होती है।
सामाजिक सुख-शांति की धुरी भी आध्यात्मिकता ही है। आध्यात्मिकता को व्यावहारिक जीवन में उतारा जाना चाहिए न कि एक कान से सुना और दूसरे से निकाल दिया। प्राचीन ग्रंथों और पुराणों की सहायता से आध्यात्म सिखाया ही जाना चाहिए लेकिन अगर उसे सुनने-सुनाने की सीमा में बांधने के बजाए प्रत्येक मनुष्य के जीवन में अपनाया जाए तभी कोई लाभ मिलने की आशा की जा सकती है। आजकल तो मात्र श्रवण और पठन तक ही अध्यात्मवादी आदर्शों का माहात्म्य मान लिया गया है। कथा सुनने और सुनाने भर से ही लोग स्वर्ग जाने की उपहासास्पद आशा करते हैं, जबकि वह प्रशिक्षण विशुद्ध रूप से व्यावहारिक जीवन की रीति-नीति में समाविष्ट किए जाने के लिए ही विनिर्मित हुआ है। उसका मर्म समझे बिना, तत्त्व अपनाए बिना ही आध्यात्मिकता की दुहाइयाँ देने से कोई भी और लाभ नहीं निकल सकता। ऐसा करने वालों से तो अधिकतर लोग दूर भागते ही देखे गए हैं।
अध्यात्म को उसके सही स्वरूप में समझा और समझाया जाना चाहिए। यदि ऐसा हो सके तो हर क्षेत्र में इस “ऋषि आधारित पद्धति” का लाभ उठाया जाना संभव है। ऐसा लाभ उठाने के लिए आदर्श जीवन अपनाना चाहिए। यदि यह तथ्य समझ लिया जाए, अध्यात्म का सही रूप समझने-समझाने एवं व्यवहार में लाने का क्रम चल पड़े तो व्यक्तिगत उलझनों एवं सामाजिक समस्याओं के स्थायी समाधान मिल सकते हैं। ओंकार जी का बहुचर्चित प्रज्ञागीत “सही रूप उभरेगा उस दिन मानव के उत्थान का, जिस दिन होगा मिलन विश्व में धर्म और विज्ञान का” यहाँ पर बिल्कुल फिट बैठ रहा है। हम उस गीत का यूट्यूब लिंक यहाँ दे रहे हैं। लगभग 20 मिंट की इस वीडियो के अंत में 15 मिंट पर इस प्रज्ञागीत का आनंद प्राप्त किया जा सकता है।
https://youtu.be/1pVvfXRe-Rc?si=hmif6OHVwXBvPzNe
वस्तुएँ अथवा भौतिक उपलब्धियाँ तभी लाभदायक होती हैं, जबकि उनके समानांतर आत्मिक प्रगति के प्रयास भी किये गये होंगे। यह कला अध्यात्मवाद के अपनाने से ही सीखी जा सकती है और उसी आधार पर समस्त समस्याओं का हल किया जा सकता है। हमारी आस्थाएँ बदलें, उनमें श्रेष्ठता का अधिकाधिक समावेश हो और उनका प्रतिफल व्यक्तित्व के स्तर में होती हुई वृद्धि के रूप में दिखाई दे, तो मनुष्य में देवत्व का उदय हो सकता है और धरती पर स्वर्ग अवतरित हो सकता है।
विज्ञान के विकास से लेकर अर्थ साधन बढ़ाने तक के अनेकानेक प्रयत्न समस्याओं के समाधान के लिए चल रहे हैं, यह सब उचित है और यह चलते भी रहने चाहिए लेकिन सबके ध्यान में यह महत्वपूर्ण तथ्य बना ही रहना चाहिए कि “अध्यात्म का आश्रय लिए बिना न तो व्यक्तिगत उलझनें सुलझेंगी और न ही सामूहिक समस्याओं का समाधान निकलेगा।”
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संकल्प सूची को गतिशील बनाए रखने के लिए सभी साथिओं का धन्यवाद् एवं जारी रखने का निवेदन। आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 15 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज बेटी अनुराधा एवं चंद्रेश जी गोल्ड मैडल विजेता हैं ।
(1)वंदना कुमार-27 ,(2) सुमनलता-46 ,(3 ) अरुण वर्मा-26 ,(4) संध्या कुमार-53 ,(5) सुजाता उपाध्याय-57 ,(6)चंद्रेश बहादुर-65 ,(7)रेणु श्रीवास्तव-43 ,(8 ) सरविन्द पाल-44, (9 )अनुराधा पाल-68 , (10 ) निशा भारद्वाज-31 ,(11 )नीरा त्रिखा-30 ,(12 ) पुष्पा सिंह-31 ,(13) स्नेहा गुप्ता-24,(14) मंजू मिश्रा-31
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।