18 दिसंबर 2023 का ज्ञानप्रसाद
Source: समस्त समस्याओं का समाधान-अध्यात्म
आज का ज्ञानप्रसाद लेख आरम्भ करने से पहले हम उन सभी साथिओं का हृदय से धन्यवाद् करना चाहते हैं जिन्होंने आदरणीय नीरा जी की भारत यात्रा में आई कठिनाइओं के सम्बन्ध में भाव संवेदना व्यक्त करके एक आदर्श परिवार (ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार) का परिचय दिया है। हमारा परिवार तो बहुत ही छोटा है लेकिन कोई भी परिवार छोटा यां बड़ा नहीं होता, छोटे-बड़े होते हैं उसके आदर्श और मानवीय मूल्य। सभी सोशल मीडिया साइट्स पर इस सम्बन्ध में पोस्ट हुए कमैंट्स ने इस परिवार को मिल रहे गुरुदेव के मार्गदर्शन की सराहना की है, जिसके लिए आप सभी बधाई के पात्र हैं। नीरा जी के साथ घटित सारा विवरण परिवार के समक्ष लाने का एकमात्र उद्देश्य जाग्रति, awareness और ज्ञानप्रसार के इलावा और कुछ भी नहीं था।
आदरणीय पुष्पा सिंह जी की जन्मदात्री माँ की नौंवी पुण्यतिथि कल 17 दिसंबर को थी। यह जानकारी कल न शेयर करने के लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। परिवार की एवं हमारी व्यक्तिगत श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए माताजी से निवेदन करते हैं कि इस परिवार पर अपना अहर्निश आशीर्वाद प्रदान करती रहें। संलग्न फोटो में माताजी की गोद में बहिन पुष्पा जी परम सुख प्राप्त कर रही हैं, माँ मुझे अपने आँचल में छुपा ले – – – – –
आज के ज्ञानप्रसाद लेख में हमें यह जानने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है कि अध्यात्म आर्थिक संतुलन और जनसँख्या वृद्धि जैसी समस्याओं का कैसे समाधान कर सकता है। जो मनुष्य अध्यात्म का अर्थ नहीं जानते उनके लिए, सभी समस्याओं का अध्यात्म द्वारा समाधान किया जाना अविश्वसनीय और आश्चर्यजनक ही लगेगा लेकिन परम पूज्य गुरुदेव ने पहले प्रकाशित हुए लेखों में,पहली तीन समस्याओं का समाधान तो बता ही दिया अब इन दो का भी बता ही देंगें।
आज के लेख में विश्वराष्ट्र की बात की जा रही है,एक ऐसे राष्ट्र की बात जिसमें एक ही धर्म यानि मानवता के धर्म का बोलबाला हो, एक ही संस्कृति यानी मानव संस्कृति की बात हो। ऐसे विश्वराष्ट्र के बारे में सोचना अर्थहीन लगता है जहाँ विघटनकारी शक्तियां अपना अधिपत्य स्थापित करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं लेकिन समाधान केवल यही है। आदरणीय स्वर्गीय पुरषोतम नागर ओक की 2014 में चार खण्डों में प्रकाशित 1627 पन्नों की पुस्तक “वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास” इस विषय पर जानकारी प्राप्त करने के लिए एक मास्टरपीस पुस्तक है। पुरषोतम जी ने घोर रिसर्च करके जनसाधारण को जागृत करने की दृष्टि से अपने जीवनकाल में अनेकों मास्टरपीस पुस्तकों की रचना की है।
इन्हीं शब्दों से, शांतिपाठ के साथ आज की गुरुकक्षा का शुभारम्भ होता है।
ॐ असतो मा सद्गमय ।तमसो मा ज्योतिर्गमय ।मृत्योर्मा अमृतं गमय ।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अर्थात
हे प्रभु, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो ।मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो ।
मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो ॥
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आर्थिक संतुलन :
विश्वव्यापी अर्थसंकट वास्तविक नहीं, पूर्णतया कृत्रिम है। धरती माता की उर्वरता इतनी न्यून नहीं है कि अपनी संतानों का भरण-पोषण न कर सके। कुछ लोगों ने संपत्ति के उपार्जन के साधनों को अपने कब्जे में कर रखा है जिसके कारण सर्वसाधारण को उनसे वंचित रहना पड़ रहा है। अमेरिका,अफ्रीका, आस्ट्रेलिया आदि विशालकाय भूखंडों में खाली जमीनें पड़ी हैं और उस पर बहुत थोड़े से लोगों का आधिपत्य है। यदि मनुष्य और मनुष्य के बीच परस्पर भाईचारा हो ( प्रज्ञागीत-इंसान का इंसान से हो भाईचारा) और प्रकृति-संपदा पर उसके सभी पुत्रों का अधिकार स्वीकार कर लिया जाए, तो उस भूमि से संसार की समस्त आबादी को लाभ मिल सकता है। धनाधीशों के हाथ में रुकी हुई पूँजी यदि सार्वजनिक उद्योगों में लग सके तो उससे संसार के हर मनुष्य को रोजी-रोटी मिल सकती है। जो बुद्धि एवं पूँजी “व्यक्तिगत स्वार्थ साधनों” में लगी है, उसको यदि लोकमंगल के लिए नियोजित किया जा सके तो संसार में अज्ञान और दारिद्रय के टिके रहने का कोई कारण भी शेष न रहे।
क्या ऐसा नहीं हो सकता ? निश्चित रूप से हो सकता है। व्यक्तिवादी स्वार्थपरता की असुरता से यदि “संगठित देवत्व लड़ पड़े और आधिपत्य की आपाधापी आत्मीयता के विराट् विस्तार में लग सके, हर व्यक्ति अपने को समाज का अविच्छिन्न घटक मानकर सर्वहित में अपना हित अनुभव करने लगे तो उसका चिंतन एवं कर्तृत्व लोकमंगल में लगेगा। साधनों को बाँटकर जो आनंद पाया जाता है वह कितना बहुमूल्य है, इसे आज तो समझ पाना कठिन हो रहा है किंतु यदि वह व्यवहार में आने लगे तो उसके सुखद परिणामों को देखकर हम अपनी ही दुनिया की स्वर्गलोक से तुलना करने लगेंगे।
यह कार्य तब तक अतिकठिन बना रहेगा, जब तक इसे कूटनीति एवं अर्थनीति के सहारे हल कर लेने की बात सोची जाती रहेगी। प्रयत्न राजनैतिक भी होते रहें और आर्थिक विकास की चेष्टा भी चलती रहे लेकिन स्थिर समाधान मात्र “अध्यात्मवाद की प्रतिष्ठापना” में देखा जाय। मानवी सत्ता जड़ नहीं, चेतन है। चेतन को चेतना ही उठाती गिराती है। यदि हमारी आस्थाएँ उपभोग की लिप्सा पर अटकी रहें तो धन-संपदा पर किसी एक का ही अधिकार बना रहेगा और वही फिजूलखर्ची करता रहेगा। ऐसा होने से कुछ थोड़े से लोग ही अमीर होंगें और सार्वजनीन अर्थसंकट का अंत न हो सकेगा। उपार्जन वितरण और उपभोग पर यदि अध्यात्मवादी अंकुश रखा जा सके, तो ही हम सब दरिद्रता के अभिशाप से स्थायी मुक्ति पा सकते हैं।
विश्वराष्ट्र की स्थापना से जनसंख्या वृद्धि का समाधान :
बढ़ती हुई जनसंख्या की समस्या के दो पहलू हैं :
(1 ) बढ़ी हुई जनसंख्या की समुचित व्यवस्था तथा (2 ) परिवार नियोजन द्वारा जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण।
जनसंख्या वृद्धि की समस्या के उपयुक्त हल में आध्यात्मिक प्रक्रिया हर दृष्टि से समर्थ है। संसार के विस्तृत भूखंडों और प्राकृतिक संपदा. का उपयोग विवेक सम्मत ढंग से किया जा सके तो वर्तमान जनसंख्या की समुचित व्यवस्था कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन इस व्यवस्था में एकमात्र रुकावट उदार अंतःकरण जैसे आध्यात्मिक गुणों का अभाव ही है।
अक्सर इस मान्यता का बोलबाला है कि अपने रक्त से पैदा होने वाली संतान ही अपनी संतान है और आड़े समय में अपनी संतान ही काम आती है, औरों की नहीं। ऐसी मान्यता एवं भावना के रहते संकीर्ण अपनत्व के विस्तार और अपने अधिकारों की रक्षा के लिए प्रजनन की आवश्यकता अनुभव की ही जाती रहेगी, किंतु यदि आध्यात्मिक स्तर पर अपनत्व की अनुभूति की जा सके तो मनुष्य मात्र ही क्या सभी प्राणी अपने परिवार के रूप में दिखने लगेंगें । फिर किसी अभाव की पूर्ति अथवा भय,आशंका के निवारण के लिए अपनों की संख्या बढ़ाने के प्रयास में निरर्थक प्रजनन सहज ही बंद हो जाएगा । जो कार्य ढेरों शक्ति लगाकर भी असंभव दिखता है, वही आध्यात्मिक दृष्टिकोण विकसित करके सहज ही पूरा किया जा सकता है।
व्यक्तिवादी आपाधापी जितनी बढ़ेगी, विरोध उतना ही बढ़ेगा। उबड़ खाबड़ भूमि की तुलना में समतल भूमि की ही उपयोगता है, उसी में फसल बोई,उगाई जा सकती है और उसी में फल-फूलों से लदे हुए बगीचे लहलहा सकते हैं। अमीरी की चकाचौंध हतप्रभ हो सकती है। गरीबी देखकर आँखें बरस सकती हैं लेकिन इससे अवांछनीयता में तो कोई अंतर नहीं आता।
हमारे प्रयास समतल भूमि बनाने के लिए होने चाहिए। मानव समाज की प्रगति एकता और समता के आधार पर ही संभव है अन्यथा एक ओर अहंकार ज़िद कर रहा होगा तो दूसरी ओर पिछड़ेपन के सींखचे में कसी हुई अधिकांश जनता चीत्कार करती हुई मरती खपती चली जायेगी ।
वियोग के कारण उत्पन्न होने वाले दुःखों को यदि समझा जा सके, तो बुद्धिमत्ता इसी में प्रतीत होगी कि संसार को “एक परिवार” बनाया जाना चाहिए और हर मनुष्य को उसका सदस्य होने का गौरव अनुभव करने दिया जाए। हम में से हर व्यक्ति अपने को “विश्व नागरिक” माने, समस्त संसार को अपना घर और समस्त मनुष्य जाति को एक परिवार के अंतर्गत समेटें, तो वह दिन आ सकता है, जिसमें हम सब “देवजीवन” का आनंद लेते हुए मानवता को धन्य बना रहे हों और सुख-शांति के सुनहरे स्वप्नों को साकार होते हुए देख रहे हों। इंटरनेट के विकास के कारण आज विश्व को एक Global village की परिभाषा तो दे दी गयी है लेकिन अभी सार्थक परिणाम दिखने बाकी हैं।
अलग अलग अपने अस्तित्व के बोलबाले ने धर्मक्षेत्र में अनेकानेक संप्रदाय, मत-मतांतर खड़े किये हैं। क्या यह पृथकता आवश्यक है ? यदि एक सूर्य से संसार भर को प्रकाश मिल सकता है तो फिर एक धर्म समस्त मानव जाति के लिए पर्याप्त क्यों नहीं होना चाहिए ? सभी धर्म ईश्वरकृत का समर्थन करते हैं और ईश्वर एक है का प्रचार करते हैं। ऐसी दशा में एक विश्वधर्म अथवा मानवधर्म होने में किसी को क्या आपत्ति होनी चाहिए। सभी धर्मों का सार एकता अपना लेना ही है तो फिर पक्षपात क्यों बाधक बन रहा है। प्रथा-परंपराएँ तो समयानुसार सदा से बदलती रही हैं और वे कभी स्थिर न रह सकेंगी। परिस्थितियाँ बदलने के साथ-साथ प्रथा-परंपराओं में परिवर्तन होते रहे हैं और होते रहेंगे। आज की परिस्थितियों के अनुरूप आचार संहिता और प्रक्रिया बनाई जा सकती है और धर्म की आत्मा को शाश्वत सनातन रूप में ही शिरोधार्य किया जा सकता है। ऐसा धर्म सार्वजनीन होगा और सार्वभौम बनेगा। भारतीय धर्म का निर्माण इसी आदर्श के अनुरूप हुआ । उसमें मानव धर्म कहलाने की विश्व-धर्म के रूप में स्वीकार किये जाने की परिपूर्ण पात्रता विद्यमान है। समय ने, विवेक ने यदि कुछ परिवर्तन चाहा, तो उसे स्वीकार करने में भी हिचक की आवश्यकता नहीं है।
विश्व की एक मानव-भाषा हो तो दीवारें सहज ही टूट जायेंगी। भाषा की भिन्नता के कारण दो क्षेत्रों के निवासी गूँगे-बहरे की तरह मात्र इशारों से ही थोड़ा-बहुत काम चला सकते हैं। मद्रासी और बंगाली में, मराठी और पंजाबी के बीच भाषा की दीवार मुँह पर पट्टी बाँधने जैसी रोक लगा देती है। अफ्रीकी और रूसी अपनी-अपनी भाषा में एक-दूसरे से बात करने लगें, तो वह उच्चारण निरर्थक ही सिद्ध होगा । दुभाषियों के सहारे काम चलते हैं अथवा किसी जानी पहचानी भाषा का सहारा लेना पड़ता है। यदि यह बाधा न रहे, सर्वत्र एक भाषा बोली जाने लगे, तो सामान्य लोक व्यवहार का वार्तालाप ही नहीं, गंभीर ज्ञान-विज्ञान का आदान-प्रदान भी अति सरल हो सकता है। एक लिपि में लिखी जाने वाली एक विश्व भाषा यदि बन सके तो प्रेस और प्रकाशन उद्योग में आशातीत क्रांति हो सकती है, फिर क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद प्रकाशन की कठिनाई, महत्त्वपूर्ण विचारधारा का एक सीमित क्षेत्र में अवरुद्ध रहने का व्यवधान सहज ही मिट सकता है और देखते-देखते मानवी ज्ञान की परिधि गगनचुंबी हो सकती है।
कल वाला लेख इसके आगे से आरम्भ करेंगें।
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संकल्प सूची को गतिशील बनाए रखने के लिए सभी साथिओं का धन्यवाद् एवं जारी रखने का निवेदन। आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 15 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज बेटी अनुराधा गोल्ड मैडल विजेता हैं ।
(1)वंदना कुमार-30,(2) सुमनलता-31,(3 ) अरुण वर्मा-30 ,(4) संध्या कुमार-47 ,(5) सुजाता उपाध्याय-35 ,(6)चंद्रेश बहादुर-42 ,(7)रेणु श्रीवास्तव-41 ,(8 ) सरविन्द पाल-32 (9 )अनुराधा पाल-56 , (10 ) निशा भारद्वाज-26 ,(11 )पिंकी पाल-31 ,(12 )अरुण त्रिखा-24,(13) विदुषी बंता-24,(14) पुष्पा सिंह-26,(15) स्नेहा गुप्ता-24
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।
