6 दिसंबर 2023 का ज्ञानप्रसाद
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से पिछले दो दिन से आर्थिक समस्या का आध्यात्मिक निवारण ढूंढने का प्रयास किया जा रहा है। हमारा विश्वास है कि इस परिवार के अधिकतर साथी “जो प्राप्त है वही पर्याप्त” के सिद्धांत का पालन करते हैं और अधिकतर साथी आध्यात्मिक भी हैं, उन्हें तो कभी भी आर्थिक समस्या आ ही नहीं सकती, उनके बैंक कभी खाली हो ही नहीं सकते। अगर किसी विषम परिस्थिति ( Yes, परिस्थिति ) में आर्थिक संकट आ भी गया तो उनका आध्यात्मिक स्तर इस लेवल का है कि परम पूज्य गुरुदेव किसी को भेजकर यह संकट चुटकियों में खत्म कर देंगें। यह पंक्तियाँ मात्र लिखने के लिए, गुरुदेव की विज्ञापनबाजी के उद्देश्य से नहीं लिखी जा रही हैं, ऐसा प्रतक्ष्य घटित हो चुका है, सभी ने देखा है। एक बार नहीं, दो बार आर्थिक संकट का निवारण हुआ है।
आर्थिक समस्या का विषय इतना विस्तृत होने के साथ-साथ इतना कॉमन है कि इसे जितना लम्बा खींचना चाहें खींच सकते हैं। इसलिए यही उचित समझा गया है कि आज की अंतिम पंक्तियों से आर्थिक बिंदु का समापन किया जाए और “आत्मिक समस्या”, इस कढ़ी की अंतिम समस्या की और कदम बढ़ाए जाएँ।
आत्मिक समस्या का सम्बन्ध तो आत्मा से ही है , इसी सम्बन्ध से परमात्मा से जुड़ा जाता है क्योंकि आत्मा परमात्मा का ही तो अंश है। अगर मनुष्य इस सम्बन्ध को जानता है तो फिर किसी प्रकार की आत्मिक समस्या आनी ही नहीं चाहिए , अगर कहीं आ भी रही है तो अज्ञान के कारण ही हो सकती है। आने वाले लेखों में अज्ञान से ज्ञान की यात्रा ही संपन्न करने की योजना है।
इन पांच व्यक्तिपरक समस्याओं के समापन के बाद, समाजपरक समस्याओं की ओर कदम बढ़ाने की योजना है।
आदरणीय चिन्मय जी वीडियो में कह रहे थे कि गुरुदेव इतना कुछ लिख कर दे गए हैं, हमें केवल ढूंढने की आवश्यकता है। हमारे केस में तो गुरुदेव ने और भी सरल कर दिया, बेटी संजना ने इस पुस्तक का रिफरेन्स दिया और जब से आरम्भ किया है न जाने कौन-कौन सी पुस्तकें/ वीडियो स्वयं ही निकल-निकल कर आ रही हैं। यही है गुरु शक्ति, नमन है, नमन है और नमन है।
शांतिपाठ के साथ, यहीं से आज की गुरुकक्षा का, गुरुचरणों में समर्पित होकर शुभारम्भ करते हैं।
ॐ असतो मा सद्गमय ।तमसो मा ज्योतिर्गमय ।मृत्योर्मा अमृतं गमय ।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अर्थात
हे प्रभु, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो ।मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो ।
मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो ॥
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आर्थिक समस्या:
परिवार तो वही धन्य है जो श्रेष्ठ परंपराओं का निर्वाह कर सकने वाले चरित्रवान, आदर्शवादी नररत्नों के जनक हों, जहाँ से संस्कारी आत्माओं का विकास हो सके ,ऐसी आत्माएं जिन्हें देखकर ही गर्व से सीना चौड़ा हो जाए। ऐसे सुसंस्कृत परिवार केवल उसी वातावरण में बन सकते हैं, जहाँ “आध्यात्मिक दृष्टिकोण” को प्राथमिकता दी गई हो। अगर इस दृष्टिकोण को इग्नोर किया जाता है तो फिर यह सोचना व्यर्थ होगा कि “प्राचीन आदर्शों की मूर्तिमान प्रयोगशाला” यहीं भारत में ही थी/है। भारतवर्ष का सौभाग्य है कि स्वर्गीय उल्लास की प्रतिच्छवि प्रस्तुत करने वाले देव मंदिर इन्हीं परिवारों में विकसित हुए, जो समस्त विश्व में चलते फिरते मंदिरों का रूप ले चुके हैं। परम पूज्य गुरुदेव ने बार-बार ऐसे चलते-फिरते देवालयों के विकास की बात की है।
परिवार संस्था को यदि सच्चे अर्थों में जीवित रखना है, उसे मात्र भेड़ों का बाड़ा नहीं रहने देना है, तो रास्ता एक ही है कि उसका सृजन और संचालन आध्यात्मिक आदर्शों को प्रमुखता देते हुए किया जाए। शरीर के अवयवों जैसा पारस्परिक सघन सहयोग घर के सदस्यों के बीच पनपे, अधिकारों के बजाय कर्त्तव्यों के प्रति जागरूकता का आदर्श यदि परिवार का हर व्यक्ति निबाहे, तो उस उद्यान के सभी पेड़-पौधे शोभा-वैभव से हरे-भरे दिखाई पड़ेंगे। अपने सुगंध-सौंदर्य से सारे वातावरण को हर्षोल्लास से भर देंगें ।
अध्यात्म के विषय में परम पूज्य गुरुदेव ने बार-बार समझाने का प्रयास किया है, बार-बार चेतावनी दी है कि जितना यह महत्वपूर्ण है कि मैंने अनेकों अनुष्ठान किये हैं ,प्रतिदिन यज्ञ करता हूँ, प्रतिदिन 20-30 माला जपता हूँ उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है कि आपने आत्मशोधन,आत्मपरिष्कार,आत्मविकास की दिशा में क्या कदम उठाए हैं। पिछले वर्ष 25 जुलाई को हम आत्मपरिष्कार पर “पूजा-पाठ केवल चम्मच तश्तरी है, आत्म-परिष्कार दाल रोटी है” शीर्षक से एक विस्तृत लेख लिख चुके हैं।
जहाँ हमारा सौभाग्य है कि ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार को आध्यात्मिक दृष्टिकोण का पालन कर रही अनेकों महान आत्माएं शोभायमान कर रही हैं वहीँ हमारा cross reference देकर विषय से कनेक्ट कराना भी कर्तव्य बनता है।
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आत्मिक समस्या
व्यक्तिगत जीवन की पाँचवीं समस्या “आत्मिक विकास” की है। अगर मनुष्य को आत्मिक जीवन में आंतरिक शांति, आत्मसंतोष एवं आत्मलाभ की तृप्ति होती है तो इसे परमात्मा का अनुग्रह ही माना जाता है। सिद्धियाँ और चमत्कार इसी स्तर पर पहुँचे हुए व्यक्तियों में देखे जाते हैं और ऐसे ही मनुष्य महामानव बनते हैं। महात्मा और देवात्मा जैसे विशेषण का लाभ इसी मार्ग पर चलते रहने वालों को प्राप्त होता है। स्वर्ग और मुक्ति का आनंद इसी प्रगति के साथ सम्बंधित है। जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिए आत्मशक्ति का प्राप्त होना बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए पूजा-उपासना के उपचार काम में लाये जाते हैं, जो उचित भी हैं और आवश्यक भी, लेकिन एक बात जिसका ध्यान में रखा जाना बहुत ज़रूरी है वोह यह है कि यह “उपचार के लिए प्रयोग किए जाने वाले कर्मकांड केवल साधन ही हैं। इन साधनों का उद्देश्य अंतरात्मा के गहन स्तर में अध्यात्म की आस्थाओं के लिए जगह बनाना और उन आस्थाओं के विकास के लिए पृष्ठभूमि बनाना मात्र है। कर्मकांड करने वाले सभी मनुष्यों को इस बात को गांठ बाँध लेना चाहिए कि चापलूसी करने, प्रलोभन देने या रिझाने से, बड़े-बड़े दान पुण्य आदि करने से, उस परमात्म सत्ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। परमात्मा तो सर्व-अंतर्यामी है, मनुष्य की अंतरात्मा में तो विराजमान है, अंतरात्मा का सर्वज्ञान रखता है और सृष्टि का संचालक होने की महानता धारण किए हुए है। परमात्मा को उपचारात्मक बालक्रीड़ाओं से वश में नहीं किया जा सकता।
ईश्वरीय अनुग्रह प्राप्त करने का,अंतरात्मा में परमात्मा के अवतरण का एकमात्र आधार एक ही है: आत्मा और परमात्मा,दोनों का स्तर एक जैसा हो, दोनों एक ही लेवल पे हों क्योंकि विज्ञान का सिद्धांत भी यही कहता है कि सजातीय ही आपस में घुलते हैं। दूध में पानी मिल सकता है लेकिन तेल पानी के ऊपर तैरता ही रहता है। संतों का “संत समागम” होता है और दुष्टों की दुर्जन-गोष्ठी दुरभिसंधियाँ रचती हैं। ईश्वर की समीपता का लाभ पाने के लिए ईश्वरीय स्तर की मनोभूमि बनाए बिना कभी संभव नहीं हो सकता। आत्मिक प्रगति और आत्मशक्ति के अनुदान प्राप्त होते ही दिव्य जीवन का लाभ मिलता है और उसी के सहारे ऐसी विभूतियों की उपलब्धि होती है जो ईश्वरीय अनुग्रह के कारण मिलने वाली फलश्रुतियों के रूप में समझी और समझायी जा सकती हैं ।
आत्मा और परमात्मा के बीच खड़ी दीवार की चिनाई राग द्वेष जैसी ईंटों से की गई है। आत्मा और परमात्मा, दोनों अति समीप होते हुए भी अति दूर इसीलिए बने हुए हैं कि मनुष्य द्वारा अपनाई गयी असुरता खाई बनकर बीच में रुकावट बनी खड़ी है। इस खाई को पाटे बिना आत्मा से परमात्मा का मिलन संभव ही नहीं है। अंगारों पर राख की परत जम जाती है, तो वोह काले दिखने लगते हैं लेकिन राख की परत को हटा दिया जाय तो अंगारे फिर पूर्व स्थिति में आ जाएंगें और फिर पहले जैसी चमक तथा गर्मी दृष्टिगोचर होगी। आत्मा परमात्मा का अंश है। अंश में अंशी की सारी विशेषताएँ विद्यमान हैं, दोनों में किसी प्रकार का अंतर् तो नहीं होना चाहिए, लेकिन क्यों होता है। ऐसा क्या कारण है कि मनुष्य,जिसे परमात्मा ने अपना अंश, अपना सर्वश्रेष्ठ राजकुमार बनाकर इस संसार में भेजा और वह क्या से क्या बन गया। माया, भ्रांति, अवांछनीयता आदि दुष्प्रवृतिओं के कारण ही यह मनुष्य परमात्मा से इतना भिन्न हो गया। आज “विकास के चरम” नामी युग में बच्चे की parenthood का ज्ञान DNA टेस्ट से होता है, तो क्या मनुष्य का पिता (परमात्मा) जानने के लिए भी DNA टेस्ट कराना चाहिए और देखना चाहिए कि मनुष्य के Genes परमात्मा के Genes से मेल खाते हैं?
वेदांत फिलोसोफी के अनुसार “परिष्कृत आत्मा” ही ब्रह्म है। परिष्कृत का अर्थ Refined यानि शुद्ध होता है। ब्रह्मविद्या की विस्तारपूर्वक चर्चा करने पर एवं गहराई से अध्ययन करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि अंतःकरण पर चढ़ी हुई “दुष्प्रवृत्तियों” को मिटाने और उनकी जगह पर “उच्चस्तरीय आस्थाओं” को प्रतिष्ठापित करने के लिए आध्यात्मिक शिक्षा की बहुत बड़ी आवश्यकता है। दुष्प्रवृत्तिओं को मिटाकर, उच्चस्तरीय आस्थाओं की प्रतिष्ठा करने के कार्य की तुलना, मेडिकल साइंस में Blood transfusion से की जा सकती है, चाहे यह तुलना पूरी तरह से वैसी तो नहीं है लेकिन उदहारण के लिए अनुचित भी नहीं है।
यही एक मार्ग है जिस पर चलते हुए आत्मा को परमात्मा बनने का अवसर मिलता है। अपनी संकीर्णताओं और दुर्बलताओं की बेड़ियाँ काट डाली जाएँ और अंतःकरण में उत्कृष्ट आदर्शवादी मान्यताएँ प्रतिष्ठापित कर ली जाएँ, तो ही नर से नारायण, अणु से विभु यानि छोटे से कण से महान विभूति और आत्मा से परमात्मा बना जाता है, क्योंकि मनुष्य की मूल सत्ता तो आत्मा ही है।
पूजा-पाठ की प्रक्रिया को आरंभिक और योग तप की प्रक्रिया को उच्चस्तरीय उपासना पद्धति बताया गया है। गहराई से देखने पर इस समूची प्रक्रिया का उद्देश्य आत्म सुधार और आत्म परिष्कार के लिए अभीष्ट पृष्ठभूमि बनाना भर है। इस प्रक्रिया के परिणाम हर किसी के लिए अलग-अलग ही होते हैं। जिस मनुष्य की उपासना इस मूल प्रयोजन को जितनी मात्रा में पूरा कर देती है, उसे उतनी ही मात्रा में आत्मोत्कर्ष का लाभ मिलता है। इस आत्मोत्कर्ष को ही दूसरे शब्दों में आत्म-साक्षात्कार एवं ईश्वरीय अनुग्रह के नाम से पुकारा जाता है। दूसरी तरफ जिस मनुष्य की उपासना इस मूल प्रयोजन को पूरा नहीं करती, रिझाने वाले उपचारों तक भटकती रहती है, उसके पल्ले कुछ भी पड़ता नहीं। साधना की निरर्थकता का रोना रोते और असफलता की शिकायत करने वाले ऐसे ही लोग होते हैं। पूजा उपचारों से देवता के प्रसन्न होने और मनचाहे वरदान देने की आशा लगाये रहने वाले मनुष्य भ्रांतियों की भूल-भुलैया में ही चक्कर काटते रहते हैं और उन्हें वह लाभ नहीं मिलता जो आत्म-साधना से मिल सकता है/ मिलता रहा है।
शेष अगले लेख में।
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संकल्प सूची को गतिशील बनाए रखने के लिए सभी साथिओं का धन्यवाद् एवं जारी रखने का निवेदन। आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 10 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज सरविन्द जी गोल्ड मैडल विजेता हैं।
(1)अरुण वर्मा-25 ,(2 ) सुमनलता-24 ,(3 )अनुराधा पाल-25,,(4) संध्या कुमार-39 ,(5) सुजाता उपाध्याय-36 ,(6) नीरा त्रिखा-25 ,(7)चंद्रेश बहादुर-28 ,(8)रेणु श्रीवास्तव-32 ,(9 )मंजू मिश्रा-25 ,(10 ) सरविन्द पाल -47
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।