29 नवंबर,2023 का ज्ञानप्रसाद
Source: समस्त समस्याओं का समाधान-अध्यात्म
कुछ दिन पूर्व आरम्भ हुई लेख शृंखला “समस्त समस्याओं का समाधान-अध्यात्म” के अंतर्गत दूसरी समस्या यानि मानसिक समस्या का आज समापन हो रहा है। हमारे साथिओं को स्मरण कराना आवश्यक है कि इस लेख शृंखला में पांच तरह की समस्याओं पर चर्चा हो रही है: शारीरिक,मानसिक,आर्थिक,पारिवारिक और आत्मिक। हमारे विवेक के अनुसार समस्या चाहे किसी भी श्रेणी की हो “मन” का विचलित होना तो स्वाभाविक एवं प्राकृतिक है अर्थात मानसिक समस्या किसी न किसी ओर से आ ही जाती है। बार-बार हम परम पूज्य गुरुदेव के अमृत वचन “हम सुधरेंगें युग सुधरेगा, जो प्राप्त है वही पर्याप्त है, यह अंतरात्मा की बात है” आदि दोहरा रहे हैं लेकिन हम भी आखिर इंसान ही हैं, संसार की चमक दमक देखकर हमारा मन भी तो ललचा सकता है, इस मृगतृष्णा की दौड़ में हम कहाँ पर खड़े हैं, क्या हम ज्ञानप्रसाद लेख केवल इसलिए पढ़ रहे हैं कि इन्हें पढ़ना हमारा कर्तव्य है, धर्म है ,गुरु के प्रति समर्पण है यां सीधे हमारे अंतर्मन में उतर रहे हैं ? इन सभी प्रश्नों का उत्तर केवल गुरुचरणों में समर्पित होकर ही मिल सकता है, वहीं सम्पूर्ण शांति है,समाधान है, उन्होंने ने ही अध्यात्म की परिभाषा से परिचित कराना है। समाधान अध्यात्म ही है लेकिन अध्यात्म का अर्थ तो समझ में आ जाए।
इन लेखों में इसी विषय पर concentrate करने का प्रयास किया जा रहा है। विषय जटिल है लेकिन हमारे सहपाठी अपने अपने विवेक से,कमैंट्स के माध्यम से इसे समझाने का प्रयास कर रहे हैं, सभी का बहुत बहुत धन्यवाद्।
मंजू बहिन जी ने “तेरे फूलों से भी प्यार, तेरे काँटों से भी प्यार” गीत का रेफरन्स देकर हमारी स्वर्गीय माँ को स्मरण करा दिया। आज आँख खुलते ही शुभ दिन की शरुआत इस गीत से होना हमारे लिए कितना सुखदायक था, शब्दों में वर्णन करना कठिन है। 1954 में रिलीज़ हुई फिल्म नास्तिक का यह सुपरहिट गीत लता जी की आवाज़ में, नलिनी जयवंत पर फिल्माया गया था और कवि प्रदीप की लेखनी ने कमाल किया था। प्रदीप जी ने जितने भी गीत लिखे हैं सभी एक से बढ़कर एक हैं। मेरी माँ अक्सर यह गीत गाया करती थीं, इन गीतों की आयु हमारी आयु से भी अधिक हैं लेकिन आज भी remix पे remix बने जा रहे हैं। ईश्वर की भक्ति और माँ का प्यार, दोनों की भावना से अश्रुधारा का बह जाना स्वाभाविक है। बहुत बहुत बहुत धन्यवाद् मंजू बहिन जी। आज का प्रज्ञा गीत यही है।
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वस्तुओं की Dark side का दर्शन करने, दूसरों के दोष देखने, प्रतिगामी दृष्टिकोण के अभ्यास करते रहने पर थोड़े समय के बाद ऐसी स्थिति हो जाती है कि बाहरी कारण न पाकर, मनुष्य अपने बुरे विचार, असद्भावों एवं दूषित दृष्टिकोण का केंद्र स्वयं को ही बना लेता है। यह बड़ी जटिल स्थिति हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप गंभीर “शारीरिक/मानसिक” रोग हो जाते हैं। इस तरह के लोग मेलेन्कोलिया’ Melancholia जैसे रोगों से पीड़ित हो जाते हैं। यह एक ऐसी बीमारी है जिसमें बिना किसी कारण ही दुःखी रहना एक शौक बन जाता है। एक ऐसी आदत बन जाती है जिसके वशीभूत सदा बुझे-बुझे रहना, दूसरों से sympathy बटोरना एक hobby सी बन जाती है। अगर यह स्थिति ज्यादा देर तक चलती है तो दूसरों से लड़ने की आदत पक्की हो जाती है। इस बीमारी का सबसे बड़ा प्रभाव तब होता है जब मनुष्य को अपने सामने लड़ने का कोई आधार नहीं मिल पाता, तो वह स्वयं से ही लड़ने लगता है। जो व्यक्ति अपनी शक्ति के दिनों में दूसरों को मारते-पीटते हैं, बच्चों पर लात घूँसे और बेंत उठाते हैं, वे वृद्धावस्था में असमर्थ हो जाने पर अपना ही सिर फोड़ते हैं, शरीर को ताड़ना देते हैं और यहाँ तक कि कई व्यक्ति आत्महत्या तक कर लेते हैं। आत्महत्या अपने प्रति घृणा, हीनभाव दोष-दर्शन की चरमावस्था है।
इसके विपरीत सद्भावना और उच्च विचारों वाला मनुष्य हर परिस्थिति में शांति, संतोष एवं प्रसन्नता अनुभव करता है। उसके विचारों से स्वयं उसका ही नहीं वरन् अन्य लोगों का भी हितसाधन होता है। भला मनुष्य चारों ओर भलाई की सुगंध बिखेरता है और बुरा मनुष्य बुराई का गंदा कीचड़ ही उछालता रहता है। भलाई, उत्कृष्टता, स्वच्छता आदि सब ईश्वर, प्रकृति, नैतिक विधान की धरती पर मिलते हैं, वे अनादि हैं, स्थिर हैं, अनंत हैं। सृष्टि की रचना में कहीं भी गंदगी, बुराई, अपवित्रता नहीं है। संसार के तत्त्व चिंतकों, दार्शनिकों, हमारे ऋषियों ने यह सब अनुभव किया और कहा:
“मंगलमय भगवान् की मंगलमय कृति यह सृष्टि है”, फिर भला दूषित, अपवित्र तत्त्व कहाँ से आये ?”
हम अपने भीतरी दृष्टिकोण को बदलें तो बाहर जो कुछ भी दिखाई पड़ता है, वह सब कुछ बदला-बदला दिखाई देगा। आँखों पर जिस रंग का चश्मा पहना होता है, बाहर की वस्तुएँ उसी रंग की दिखाई पड़ती हैं। अनेक लोगों को इस संसार में केवल पाप और दुर्भाव ही दिखाई पड़ता है। सर्वत्र उन्हें गंदगी ही दिख पड़ती है। इसका प्रधान कारण अपनी आंतरिक मलीनता ही है। इस संसार में अच्छाइयों की कमी नहीं, श्रेष्ठ और सज्जन व्यक्ति भी सर्वत्र भरे हैं, फिर हर व्यक्ति में कुछ न कुछ अच्छाई तो होती ही है। छिद्रान्वेषण यानि हर किसी के दोष निकालने के बजाए यदि गुण-अन्वेषण करने का अपना स्वभाव बना लिया जाए, दूसरों के गुणों के ओर ही ध्यान दिया जाए तो घृणा और द्वेष के स्थान पर प्रसन्नता प्राप्त करने लायक भी बहुत कुछ इस संसार में मिल जायेगा । बुराइयों को सुधारने के लिये भी हम घृणा का नहीं, सुधार और सेवा का दृष्टिकोण अपनाएँ तो वह कटुता और दुर्भावना उत्पन्न न होगी, जो संघर्ष और विरोध के समय आमतौर से हुआ करती है।
दूसरों को सुधारने से पहले हमें अपने सुधार की बात सोचनी चाहिए। दूसरों से सज्जनता की आशा करने से पूर्व हमें स्वयं को सज्जन बनाना चाहिए। दूसरों की दुर्बलताओं के प्रति एकदम आग बबूला हो उठने से पहले हमें यह भी देखना चाहिए कि अपने भीतर कितने दोष दुर्गुण भरे पड़े हैं। बुराइयों को दूर करना एक प्रशंसनीय प्रवृत्ति है। अच्छे काम का प्रयोग सदैव स्वयं से ही आरंभ करना चाहिए।
हम सुधरें, हमारा दृष्टिकोण सुधरे तो दूसरों का सुधार होना कुछ भी कठिन न रह जायेगा । हमारे गुरु का अति प्रचलित सन्देश ही यही है,”हम सुधरेंगें, युग सुधरेगा”
दूसरों ने हम पर जो उपकार किये हैं यदि हम उनका विचार करते रहें तो यही अनुभव होगा कि हमारे निकटवर्ती सभी लोग बड़े उपकारी, सेवाभावी और स्वर्गीय प्रकृति के हैं। इनके साथ रहने से अपने को सुख ही सुख अनुभव करना चाहिए। इसके विपरीत यदि उनके दोष ढूँढ़ने लगें और उन घटनाओं का स्मरण किया करें, जिनमें उन्होंने कुछ अपकार( wrong doings) किये हों तो हमें अपने सभी स्वजन संबंधी बड़े दुष्ट प्रकृति के अपकारी, असुर एवं शत्रु प्रतीत होंगे और ऐसा लगेगा कि इन लोगों का संपर्क हमारे लिए नरक के समान दुःखदायी है।
इस संसार का निर्माण सत् और तम, शुभ और अशुभ, अच्छे और बुरे तत्त्वों से मिलकर हुआ है। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो पूर्णतः बुरा या पूर्णत: भला हो । समय-समय पर यह भली-बुरी परिस्थितियाँ दबती और उभरती रहती हैं। धूप-छाँह की तरह प्रिय और अप्रिय अवसर आते-जाते रहते हैं। इनमें से किसे स्मरण रखा जाये और किसे भुलाया जाए , इसका ठीक से चयन करना ही बुद्धिमत्ता की निशानी है। यदि हम दुःखों को, अभावों को, असफलताओं को, दूसरे के अपकारों को ही स्मरण करते रहें , तो यह जीवन नरकमय दुःखों से भर जायेगा। हर घड़ी खिन्नता, निराशा और असंतुष्टि चित्त में छाई रहेगी लेकिन यदि दृष्टिकोण बदल लिया जाय और प्रिय प्रसंगों, सफलताओं, प्राप्त साधन-संपदा के लाभों और दूसरों के किये हुए उपकारों को स्मरण किया जाये तो प्रतीत होगा कि आज भले ही थोड़े अभाव हों लेकिन अभावों की तुलना में सुखदायक वातावरण अधिक ही है, दुर्भाग्य की अपेक्षा सौभाग्य की स्थिति ही अपने को अधिक उपलब्ध है।
जीवन को सुख शांतिमय बनाने के लिए सुविधा-सामग्रियों की आवश्यकता अनुभव की जाती है, सो ठीक है। इसके लिए भी प्रयत्न करना चाहिए लेकिन यह भी भूल नहीं जाना चाहिए कि जो प्राप्त है, उसका सदुपयोग किया जाय। यदि हम उपलब्ध साधनों का सदुपयोग करना सीख जाएँ, हर वस्तु का मितव्ययितापूर्वक (किफ़ायत पूर्वक) उपयोग करें, उसका पूरा-पूरा लाभ लें तो जो कुछ प्राप्त है, वही हमारे आनंद को अनेकों गुना बढ़ा सकता है। जितनी आजीविका आज हमें प्राप्त है, यदि उसके खर्च की विवेक और समझदारी से, किफ़ायत से ऐसी योजना बनाई जाय कि प्रत्येक पैसे से अधिकाधिक लाभ उठाया जा सके, तो यह आज की थोड़ी आजीविका भी आनंद और सुविधाओं में अनेक गुनी वृद्धि कर सकती है। इसके विपरीत यदि अपना दृष्टिकोण अस्त-व्यस्त है, तो बड़ी मात्रा में सुख-साधन उपलब्ध होते हुए भी वे कुछ लाभ न पहुँचा सकेंगे, बल्कि “जी के जंजाल” अर्थात व्यर्थ की परेशानियाँ और उलझनें ही उत्पन्न करेंगे।
सुखी जीवन की आकांक्षा सभी को होती है। वह उचित और स्वाभाविक भी है लेकिन उसकी उपलब्धि तभी संभव है, जब हम अपने “दृष्टिकोण की त्रुटियों को समझें” और उन्हें सुधारने का प्रयत्न करें। सुधरा हुआ दृष्टिकोण स्वल्प साधनों और कठिन परिस्थितियों में भी शांति और संतोष को कायम रख सकता है। गरीबी में भी लोग स्वर्ग का आनंद उपलब्ध करते देखे जाते हैं लेकिन यदि दृष्टिकोण अनुपयुक्त है, तो संसार के समस्त सुख-साधन उपलब्ध होते हुए भी हम सुखी न रह सकेंगे। इसलिए आवश्यक है कि सुखी जीवन की आकांक्षा करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अपने दृष्टिकोण को परिमार्जित बनाने के लिए निरंतर प्रयत्न करते रहना चाहिए।
Summary:
मनुष्य की दूरदर्शिता जब कभी गंभीरता पूर्वक आजीवन प्रसन्नता बनाये रहने का उपाय खोजेगी, तब उसे एक ही मार्ग मिलेगा और वोह मार्ग है “अध्यात्मवाद”, अध्यात्मवाद की नीति अपना कर और मनःक्षेत्र को परिष्कृत किया जाए।
आत्मिक दृष्टिकोण मानसिक संतुलन की दृष्टि से परिष्कार की प्रेरणा देता है। यदि उसे अपनाया जा सके तो मनुष्य जीवन में शोक-संतापों की, उद्वेगों की समस्या का सहज ही समाधान हो संकता है। यह कार्य इच्छित परिस्थितियाँ बना देने से संभव नहीं हो सकता। इच्छाओं की कोई सीमा नहीं, एक की पूर्ति होते ही दूसरी उससे भी बड़ी दिखाई देती है और अभाव,असंतोष जहाँ का तहाँ बना रहता है। यदि साधन जुटा देने भर से सुख-संतोष प्राप्त करना संभव रहा होता तो सभी साधन संपन्न व्यक्ति संतुष्ट पाये जाते, किंतु वे तो अभावग्रस्त लोगों की अपेक्षा और भी अधिक विक्षुब्ध पाये जाते हैं।
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संकल्प सूची को गतिशील बनाए रखने के लिए सभी साथिओं का धन्यवाद् एवं जारी रखने का निवेदन। आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 11 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज चंद्रेश जी आज भी गोल्ड मैडल विजेता हैं।
(1)वंदना कुमार-33,(2 ) सुमनलता-31,(3 )अनुराधा पाल-26,(4) संध्या कुमार-36 ,(5) सुजाता उपाध्याय-46 ,(6) नीरा त्रिखा-26,(7)चंद्रेश बहादुर-64,(8)रेणु श्रीवास्तव-44,(9 ) विदुषी बंता-28, (10)मंजू मिश्रा-25,(11)सरविन्द पाल -45
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।