23 नवंबर 2023 का ज्ञानप्रसाद
परम पूज्य गुरुदेव को समर्पित गुरुवार का ज्ञानप्रसाद लेख अपने साथिओं की सेवा में प्रस्तुत है। आज के दिन का प्रज्ञागीत भी गुरुदेव-आधारित ही होता है, इस सुझाव के लिए आदरणीय बहिन सुमनलता जी का धन्यवाद करते हैं।
कल हमने शारीरिक समस्या का अध्यात्म द्वारा समाधान देखा था, आज का विषय मानसिक समस्या है, मन और आत्मा का बंधन तो अटूट है, तो मानसिक समस्याओं का अध्यात्म द्वारा निवारण होने के विषय को समझना कोई कठिन नहीं होना चाहिए। बहुत ही सरल भाषा में आज प्रस्तुत किया गया ज्ञानप्रसाद अनेकों साथिओं को कहने पर विवश करेगा- “ऐसा ही तो हो रहा है।”
तो शांतिपाठ के साथ शुभारम्भ होती है आज की गुरुकुल कक्षा।
ॐ असतो मा सद्गमय ।तमसो मा ज्योतिर्गमय ।मृत्योर्मा अमृतं गमय ।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अर्थात
हे प्रभु, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो ।मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो ।
मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो ॥
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2. मानसिक समस्या
स्वास्थ्य समस्या के समान ही मानसिक समस्या भी मनुष्य जीवन की दूसरी बड़ी समस्या है। शांत, संतुष्ट, संतुलित और प्रसन्न रहने वाले व्यक्ति बिरले ही दिखाई देते हैं। अधिकांश व्यक्तियों के माथे पर त्यौरियाँ चढ़ी होती हैं, आँखों में बुझायन, चेहरे पर stress , वाणी में निराशा, मस्तिष्क में अस्थिरता और हृदय में अशांति के बादल घटाटोप छाये रहते हैं। निराशा, क्षोभ, असंतोष की छाया मन-मस्तिष्क में अंधकार फैलाए रहती है, और उस उल्लास का दर्शन कहीं भी नहीं होता, जो “परमात्मा के ज्येष्ठपुत्र और सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ प्राणी” के नाते दिखाई देना चाहिए।
मानसिक अशांति के लिए दूसरों के व्यवहार और परिस्थितियों को भी सर्वथा निर्दोष तो नहीं कहा जा सकता लेकिन यह स्वीकार करना ही होगा कि इसमें बहुत बड़ा कारण स्वयं के “चिंतन तंत्र की दुर्बलता” ही है। हम चाहते हैं कि दुनिया हमारी तरह चले, हर परिस्थिति को अपनी मर्जी के अनुसार चलने की आशा करते हैं। यह भूल जाते हैं कि यह संसार हमारे लिए ही नहीं बना है, इसमें व्यक्तियों का विकास अपने क्रम से हो रहा है और परिस्थितियाँ अपने प्रवाह से बह रही हैं। हमें उनके साथ तालमेल बिठाने की कुशलता प्राप्त करनी चाहिए।
अक्सर लोगों से सुना जाता है कि हम तो प्रसन्न और प्रफुल्लित रहने के बहुत प्रयत्न करते हैं, दुःख और उदासी को कौन पसंद करता है लेकिन परिस्थितियाँ ही ऐसी बन जाती हैं कि हमें चिंता और व्यथा होने लगती है। दूसरे लोग हमें खुश देखना पसंद नहीं करते इसलिए वे हमारे सामने तरह-तरह की समस्याएँ खड़ी कर देते हैं। बात ठीक भी लगती है और मनुष्य को परिस्थितियों तथा दूसरों के व्यवहार से एक सीमा तक प्रभावित होना भी पड़ता है लेकिन परम पूज्य गुरुदेव के अनुसार सबसे बड़ा कारण हमारी “चिंतन शैली” का त्रुटिपूर्ण होना है।
इन तथ्यों को समझने के लिये कुछ उदाहरण लेना उचित रहेगा। पहले “परिस्थितियों के कारण उत्पन्न होने वाले असंतोष” को ही लें।
मनुष्य की सदा से तुलना करने की प्रवृति रही है। अपनी तुलना यदि अपने से अच्छी स्थिति वालों के साथ की जाए तो स्थिति गरीबों जैसी प्रतीत होगी ही और यदि अपने से निम्न स्थिति वाले से तुलना की जाये, तो अपनी स्थिति कितने ही व्यक्तियों से अच्छी दिखाई देगी। देखा जाये तो गरीबी और अमीरी सापेक्ष शब्द हैं। अधिक संपन्न व्यक्ति की तुलना में प्रत्येक व्यक्ति गरीब ठहरेगा और अधिक गरीब की तुलना में प्रत्येक व्यक्ति संपन्न अनुभव करेगा। यदि अपने दृष्टिकोण को इस सिद्धांत के अनुसार ढाल दिया जाये, तो परिस्थितियों के कारण होने वाले असंतोष और घुटन से बचा जा सकता है।
दुःखद परिस्थितियों में भी मानसिक शांति बनाए रखना संभव है। सुखों की अपनी उपयोगिता है। साधन-संपन्नता के सहारे प्रगतिक्रम से सुविधा होती है, यह सर्वविदित है; लेकिन यह भी भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि कठिनाइयों की आग में पककर ही खरा और सुदृढ़ बना जाता है। सोने को अग्निपरीक्षा में और हीरे को खराद पर चढ़ने में कठिनाई का सामना तो करना पड़ता है लेकिन उसका मूल्यांकन उससे कम में हो भी तो नहीं सकता।
कठिनाइयों के कारण मनुष्य में धैर्य, साहस, कौशल, पराक्रम जैसे कितने ही सद्गुण विकसित होते हैं, जागरूकता बढ़ती है और बहुमूल्य अनुभव एकत्रित होते हैं। अभावों और संकटों में दुर्बल मनःस्थिति के लोग तो टूट जाते हैं लेकिन जिनमें जीवनी शक्ति है वे चौगुनी-सौगुनी शक्ति के साथ उभरते देखे गये हैं। संपन्नता की अपनी उपयोगिता है, विपन्नता का अपना महत्त्व है। यदि दोनों का समुचित लाभ उठाया जा सके तो यह दोनों तरह के अनुदान प्रगति के पथ पर अग्रसर करने के लिए अपने-अपने ढंग से सहायता करते दिखाई पड़ेंगे।
विपरीतताओं और अनुकूलताओं का समन्वय ही संसार है :
नमक और चीनी एक दूसरे के विरोधी हैं, तो भी उनसे “स्वाद संतुलन” (Taste balance) बनता है। तानों और बानों के धागे एक-दूसरे से विपरीत दिशा में चलते हैं लेकिन उनका गुंथन उपयोगी वस्त्र बनकर सामने आता है। रात और दिन की स्थिति में भिन्नता ही नहीं विपरीतता भी है लेकिन उनके समन्वय से ही “समय का चक्र” घूमता है । विपरीतताओं और अनुकूलताओं का समन्वय ही संसार है। जीवन श्रृंखला इन विचित्रताओं की कड़ियों से मिलकर बनी है। हमें दोनों की उपयोगिता समझनी चाहिए।
पुण्यात्माओं से बहुत कुछ सीखा जाता है और पापियों को सुधार की नीति अपनाकर आत्म परिष्कार करते हुए अपनी करुणा, सहृदयता, सेवा भावना को विकसित होने का अवसर मिल सकता है। दोरंगी दुनिया की विचित्रता से विचलित होने के बजाए, यह अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण है कि उसके सहारे खट्टे-मीठे अनुभव प्राप्त किये जाएँ और इन परस्पर विरोधी परिस्थितियों से भिन्न-भिन्न प्रकार के लाभ प्राप्त किए जाएँ। ऐसे साहसी लोग जिनका चिंतन आध्यात्मिक स्तर का होगा, वे समुद्र में आने वाले ज्वार भाटे से भी भयभीत नहीं होंगे, वोह तो केवल इतना ही सोचेंगे कि अचानक आन पड़ी स्थिति का किस प्रकार सामना किया जाए और उससे क्या शिक्षा प्राप्त की जाए।
यह मानसिक स्तर का ही परिचय है।
संसार में कोई व्यक्ति ऐसा नहीं, जिसे सब सुख हो और उसे कभी कोई कष्ट/दुःख न हो । सारी परिस्थितियाँ मनोनुकूल ही हों, कोई कष्ट न हो, कभी असफलता न मिले, कोई विरोधी न हो, ऐसा मनुष्य इस पृथ्वी पर ढूँढ़ेने से भी नहीं मिलेगा। ईश्वर ने अपने सर्वश्रेष्ठ राजकुमार को अनेकों सुख-साधन प्रदान करते हुए कुछ थोड़े से अभाव भी रखे हैं। विवेकशील व्यक्ति की मनःस्थिति सदैव सकारात्मक ही होती है। ऐसे व्यक्ति जीवन में उपलब्ध सुख-सुविधाओं का अधिक चिंतन करते हैं, और उन उपलब्धियों पर संतोष प्रकट करते हुए प्रसन्न रहते हैं, और उस कृपा के लिए ईश्वर का सदैव धन्यवाद करते रहते हैं।
गायत्री परिवार के परिजनों में किसी से भी जब कभी भी बात हुई तो उनका यही कहना था “ यह सब तो गुरुदेव को ही समर्पित है, वही सब कुछ कर रहे हैं”
इसके विपरीत अनेकों लोग उपलब्ध सुख-साधनों को तुच्छ मानते हैं और जो थोड़े-से कष्ट हैं, उन्हें ही पर्वत तुल्य मानकर स्वयं को भारी विपत्तिग्रस्त अनुभव करते हैं। ऐसे लोग निरंतर असंतुष्ट रहते हैं, अपने सभी संबंधित लोगों पर दोषारोपण करते हैं। ईश्वर को गाली देते हैं कि उसने हमें अमुक अभाव क्यों दिया, भाग्य को कोसते हैं,माता-पिता और अभिभावकों को बुरा कहते हैं कि उन्होंने अमुक साधन नहीं जुटाये, जिससे हम उन्नतिशील स्थिति में होते। मित्रों और अफसरों को कोसते हैं कि उन्होंने उन्नति के लिये असाधारण सहयोग देकर बड़ा क्यों नहीं बना दिया।
ऐसे लोगों की अधिकांश मानसिक शक्ति इसी रोने-धोने में चली जाती है। उनके बहुमूल्य समय का बहुत सा भाग इस कोसते रहने की प्रक्रिया में ही नष्ट हो जाता है, वोह बहुमूल्य समय जिसका उपयोग वे अपनी कठिनाइयों को पार करने के उपाय सोचने और प्रयत्न करने में कर सकते थे, हाथ से निकल जाता है। रोने- धोने में जीवन व्यतीत करने में कुछ भी लाभ नहीं बल्कि उन बहुमूल्य शक्तियों का नष्ट होना ही है जिन्हें यदि बचा लिया होता तो कठिनाइयों का बहुत बड़ा भाग आसानी से हल हो गया होता।
जीवन को शांतिपूर्वक व्यतीत करने का तरीका यह है कि हम अपनी कठिनाइयों का मूल्यांकन बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बल्कि उतना ही समझें जितना वास्तव में हैं। ऐसा करने से हमारी अनेकों दुषचिंताएं आसानी से नष्ट हो सकती है।
एक विद्यार्थी परीक्षा में अनुत्तीर्ण होता है। फेल होने के समाचार से उसका मानसिक संतुलन डगमगा जाता है। वह इस असफलता को वज्रपात जैसा मानता है और सोचता है कि सारी दुनिया मुझे धिक्कारेगी, मूर्ख या आलसी समझेगी, मित्रों के सामने मेरी सारी प्रतिष्ठा धूल में मिल जायेगी, अभिभावक भला बुरा कहकर मेरा तिरस्कार करेंगे। इन सारी कल्पनाओं से ग्रसित विद्यार्थी स्वयं को इतना कमज़ोर समझता है कि उसके चित्त में भारी क्षोभ उत्पन्न होता है और रेल के आगे कटकर आत्महत्या कर लेता है। घर में कुहराम मच जाता है, माता-पिता रो-रोकर अंधे हो जाते हैं, एक उल्लासपूर्ण हँसते-खेलते घर का वातावरण शोक, क्षोभ और निराशा में बदल जाता है। इस विपन्न स्थिति को उत्पन्न करने में सारे का सारा दोष उस ग़लत “निराशावादी दृष्टिकोण” का है ,एक ऐसा दृष्टिकोण जिसने एक छोटी सी असफलता का इतना बढ़ा-चढ़ाकर मूल्यांकन करवाया |
एक दूसरा विद्यार्थी भी उसी कक्षा में अनुत्तीर्ण होता है। उसे भी दुःख तो होता ही है लेकिन वह इस स्थिति का सही मूल्यांकन कर लेता है और सोचता है कि इस वर्ष बोर्ड का परीक्षाफल 43 % ही तो रहा है, 57 % तो मेरी तरह फैल होने वाले छात्र थे, यानि पास होने वालों की तुलना में फेल होने वाले छात्र अधिक थे। पास होना, फेल होना एक relative term है। अनुतीर्ण होने में सदा विद्यार्थी ही दोषी नहीं होता, शिक्षकों की लापरवाही, बिना पढ़े हुए प्रश्नों का पर्चे में आ जाना और नंबर देने वालों की लापरवाही भी कारण होती है। इस विद्यार्थी ने stable एवं mature होकर सोचा कि इस वर्ष अनुत्तीर्ण हो गये तो कोई बात नहीं, अगले वर्ष अधिक परिश्रम करेंगें और सभी को दिखा देंगें।
यही है विचारधारा, यही है विचार क्रांति, यही है Thought revolution .
दो बच्चों ने परीक्षा में भाग लिया, दोनों अनुतीर्ण हुए, एक ने आत्महत्या करके जीवन समाप्त कर लिया लेकिन दूसरा शूरवीर की भांति खड़ा रहा क्योंकि उसकी मनःस्थिति, उसका अंतःकरण उसे मार्गदर्शन देता रहा कि “जीवन एक संघर्ष” है, ज़िंदगी ज़िंदादिली का नाम है मुर्दादिल क्या खाक जिया करते हैं।
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संकल्प सूची को गतिशील बनाए रखने के लिए सभी साथिओं का धन्यवाद् एवं जारी रखने का निवेदन। आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 11 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज रेणु जी गोल्ड मैडल विजेता हैं।
(1)वंदना कुमार-24 ,(2 ) सुमनलता-41 ,(3 )विदुषी बंता-31 ,(4) संध्या कुमार-37 ,(5) सुजाता उपाध्याय-55 ,(6) नीरा त्रिखा-24 ,(7)चंद्रेश बहादुर-30 ,(8)रेणु श्रीवास्तव-61,(9 ) अरुण वर्मा-54 ,(10)मंजू मिश्रा-31,(11) निशा भारद्वाज-29, सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।