वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

मस्तिष्क की कठपुतली को अंतःकरण नचाता है। 

16 नवंबर 2023 का ज्ञानप्रसाद

आज गुरूवार है, हमारे गुरुवर को समर्पित दिन, वैसे तो प्रतिदिन सब कुछ गुरुवर का ही होता है लेकिन आज के दिन प्रज्ञागीत भी गुरुवर का ही होता है। हम बार-बार कहते आए  हैं  कि ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के साथिओं के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा प्रत्येक प्रयास गुरुवर का ही है, उनके द्वारा रचित समस्त विश्वकोश पर गुरुवर का ही कॉपीराइट है, हम तो मात्र एक डाकिए की भांति उनके गूढ़ ज्ञान का स्वाध्याय करके, समझकर,अपने विचार शामिल करके आपके घर तक पहुँचाने का प्रयास करते हैं, इससे अधिक हमारा कोई भी योगदान नहीं है, अगर कोई योगदान है भी तो हमारी त्रुटियां। हमें आशा है कि परम पूज्य गुरुदेव एवं हमारे साथी इन त्रुटिओं के लिए, हमारे स्नेह को देखते हुए, क्षमा कर देंगें। 

1998 में प्रथम बार प्रकाशित हुई पुस्तक “समस्त समस्याओं का समाधान-अध्यात्म” जिस पर वर्तमान लेख शृंखला आधारित  है, एक मास्टरपीस है। 63 पन्नों की इस लघु पुस्तिका में आज गुरुदेव बता रहे हैं कि  मस्तिष्क शरीर का मालिक तो अवश्य है लेकिन वह भी स्वतंत्र नहीं है, वह भी अंतःकरण में उठ रही आकांक्षाओं और आस्थाओं का गुलाम है। अंतःकरण की परिपक्वता अध्यात्म से होती है, जो एक कठिन जीवनभर अपनाने वाली प्रक्रिया है। अध्यात्म की चर्चा तो सोमवार को आरम्भ करेंगें लेकिन अब समय है गुरुचरणों में समर्पित होने का,गुरुकुल कक्षा को ओर प्रस्थान करने का। 

तो आज की कक्षा का आरम्भ शांतिपाठ से करते हैं : 

ॐ असतो मा सद्गमय ।तमसो मा ज्योतिर्गमय ।मृत्योर्मा अमृतं गमय ।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ 

अर्थात 

हे प्रभु, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो ।मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो ।

मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो ॥

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समस्याएँ और कठिनाइयाँ स्वयं ही आकाश  से नहीं आ  टपकती हैं। वे मनुष्यों की गतिविधियों से उत्पन्न होती हैं। यह गतिविधियाँ हलचलें हाथ-पैरों की ही दिखाई पड़ती हैं, उनमें मस्तिष्क की स्थिति और प्रेरणा का प्रत्यक्ष दर्शन भी नहीं भी होता, फिर भी उसके लिए मनुष्य ही  पूरी तरह से उत्तरदायी होता है। विषम परिस्थितियों को सुधारने के लिए अवांछनीय हलचलों को रोका जाना चाहिए, लेकिन  यह ध्यान रखना चाहिए कि यह रोकथाम केवल “शारीरिक प्रतिबंधों” से संभव नहीं हो पाती। इस रोकथाम के लिए अपनी समर्था एवं प्रवृति के अनुसार जो भी तरीका अपनाया जाय उसमें  मस्तिष्क की भागीदारी बहुत ही महत्वपूर्ण है। अगर मस्तिष्क ने उस तरीके को  स्वीकार नहीं किया तो फिर वह  कोई दूसरा ढंग निकाल लेगा और पहले जैसी ही  अवांछनीयता यां  उससे ही मिलती-जुलती हरकतें होने लगेंगी। मनुष्य की चतुरता और बहानेबाज़ी तो सर्वविदित है और उसका बॉस मस्तिष्क उसे कहीं भी, किसी भी दिशा में धकेल सकता है, इसलिए अगर संकल्प कच्चे हों  तो मनुष्य बाहरी  प्रतिबंधों को तोड़ने के लिए कोई न  कोई  रास्ता खोज ही लेता है।

प्रशासन ने तो हर बुरे कृत्यों को लगाम लगाने के लिए सख्त क़ानून बनाए  हुए हैं और उन कृत्यों को  करने वाले अपराधियों के लिए जेल, पुलिस, कचहरी का पूरा प्रबंध है। जांच-पड़ताल के लिए इन्सपेक्टरों की, गुप्तचरों की सरकारी मशीनरी एक Full-fledged सेना की भांति कार्य  करती है। इस सेना एवं मशीनरी को रोकथाम के साधन भी दिये जाते हैं और उस पर खर्च भी बहुत होता है लेकिन अफ़सोस है कि इतना कुछ करने के बावजूद  भी अपराध का पूरी तरह बोलबाला बना रहता है। प्रशासन की  पकड़ में तो 10 % भी नहीं आते। जो पकड़े जाते हैं, उनमें से 75 %  तिकड़मबाज़ी से, जान पहचान से, आर्थिक बल और न जाने कौन कौन से बल का प्रयोग करके छूट जाते हैं। जिनको दंड मिलता है उनकी संख्या समस्त अपराधियों का  1 % भी नहीं होती और सज़ा काटने के बाद वे और भी निर्लज्ज हो जाते हैं क्योंकि जेल का वातावरण उन्हें वोह कुछ सिखा देता है जिसे वोह घर बैठे, सभ्य वातावरण में नहीं सीख पाते। प्रतिष्ठित एवं सभ्य व्यक्ति तो पुलिस की गाड़ी का हॉर्न सुन कर ही घबरा जाता है। अगर कहीं गलती से ऐसे व्यक्ति पर पुलिस केस बन जाता है तो वह अधमरा सा हो जाता है। 

दूसरी तरफ तो वोह लोग हैं जो जेल जाकर वहाँ अन्य साथियों से पूरा प्रशिक्षण पाकर लौटते हैं और सुधरने के बजाए  अपने हुनर में पूरे दक्ष दिखते  हैं। ऐसे लोग नौसिखिये न रहकर पूरे उस्ताद बन जाते हैं। 

परम पूज्य गुरुदेव बताते हैं कि इस चर्चा में न तो जेल, पुलिस को व्यर्थ बताया जा रहा है और न ही  उसका उपहास किया जा रहा है। कहना केवल इतना ही है कि “संसार में असंख्य प्रकार की विपत्तियाँ उत्पन्न करने के लिए जो दुष्प्रवृत्तियाँ मूल कारण हैं, उन्हें मिटाने के लिए, प्रतिबंधात्मक कदम पर्याप्त नहीं हैं।” 

सबसे महत्वपूर्ण विषय मनुष्य के  चिंतन-मनन का है, विचार मंथन का है। निर्भया केस एवं अन्य अनेकों ऐसी घिनौनी घटनाओं से कौन परिचित नहीं है। जब भी ऐसी कोई घटना होती है तो हमारा ह्रदय कांपता तो है ही, साथ में यह भी कहता है कि प्रशासन जितने भी क़ानून, प्रतिबंध बना ले, जब तक आज का मानव जो आदिमानव बन चुका है, उसका दृष्टिकोण नहीं बदलेगा तब तक कुछ भी संभव  नहीं है। ऐसे मनुष्यों के लिए आवश्यक है कि   ethics के, नैतिक मूल्यों (moral values)  के  लाभ प्रत्यक्ष दिखें । मनुष्य को  निजी विवेक के आधार पर इस निष्कर्ष पर पंहुचने की आवश्यकता है कि उसका गौरव एवं लाभ ethics  अपनाने में है। दुष्प्रवृत्तियों को अपनाने से जो दुष्परिणाम उसे भुगतने पड़ेंगे, उनका कल्पना चित्र यदि सही रूप में सामने हो तो फिर उसके फैसले नीति समर्थक होंगे। इस तरह “स्वेच्छा से छोड़ी हुई दुष्प्रवृत्तियाँ” ही छूटती हैं। मन उन्हें पकड़े रहे तो जड़ जमी रहेगी और वह बाढ़ का पानी इस रास्ते फूटता रहेगा। मजबूत काल-कोठरियों से सुरंगें लगाकर, दिन-रात पहरा देने वाले संतरियों की आँखों में धूल झोंककर, हथकड़ी, बेड़ियों सहित जेल तोड़कर कई डाकू चतुरता से भाग निकलते हैं। साधारण कानूनी प्रतिबंधों के साथ आँख-मिचौली  तो सारे जीवन भर खेलते रहते हैं। यदि हाथ में सत्ता (सियासी बल) और डराने की शक्ति हो तब तो स्थिति और भी गंभीर हो जाती है। ऐसी स्थिति में नैतिक मूल्यों  को पालन कराने वाली मर्यादा एवं विरोध  की क्षमता और भी अधिक कुंठित हो जाती है।

प्रशासन जितना प्रयास दुष्प्रवृत्तियों की रोकथाम के लिए करती है, उससे कई गुना प्रयास  विचारों का स्तर एवं प्रवाह को refine  करने के लिए किया जाना चाहिए। यदि वैसा हो सके तो फिर हर व्यक्ति स्वयं ही अपना पहरेदार,चौकीदार, निरीक्षक, मजिस्ट्रेट, जेलर आदि बन जायेगा। स्वयं ही अपना मार्गदर्शक, पुरोहित, धर्मोपदेशक बन जाएगा  और किसी से अपनी चौकीदारी कराने के स्थान पर उलटा दूसरों की चौकीदारी करने लगेगा। 

यदि चिंतन का स्तर, विचारों का स्तर इतना ऊँचा उठाया जा सके, दृष्टिकोण में उत्कृष्टता का समावेश संभव हो सके तो निश्चित रूप से क्रियाकलाप में सज्जनता और शालीनता की ही झलक मिलेगी। उस स्थिति में आदर्शवादी, मानवीय गरिमा को बढ़ाने वाले सराहनीय और अनुकरणीय आचरण ही बन पड़ेंगे। जिसका चिंतन ऊँचा है, वह भद्दी  गतिविधियाँ अपना ही नहीं सकता। पतन की दिशा में उसके पैर बढ़ेंगे ही नहीं। 

शारीरिक सुविधा संवर्धन की तुलना में मनःस्तर को सुसंस्कृत और नीतिवान बनाया जाना अधिक महत्त्वपूर्ण है। सुविधा-संवर्धन अर्थात आसानी से सब कुछ प्राप्त हो जाना  आकाश-पाताल एक करके सब कुछ प्राप्त कर लिया जाए, कितना भी क्यों न कर लिया जाय, छोटी छोटी, तुच्छ आकांक्षाओं के लिए भागा जाए, इस लालच का ह्रदय क्षेत्र पर अधिकार  बना रहे, तो फिर रावण, कंस, हिरण्यकश्यपु, भस्मासुर, वृत्तासुर, दुर्योधन आदि जैसे मानव ही विकसित होते रहेंगें। ऐसे मानव जो वैभव प्राप्त कर लेने पर भी अपने लिए और दूसरों के लिए दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियाँ पैदा करते रहेंगें ।

यहाँ एक और बात समझने योग्य है कि मस्तिष्क भी अपनेआप में स्वतंत्र नहीं है। शरीर पर जिस प्रकार मस्तिष्क का अधिकार  है; ठीक उसी प्रकार “मस्तिष्क की कठपुतली” को नचाने वाला मदारी मनुष्य का अंतःकरण, अंतश्चेतना  है, conscience है। मनुष्य को सुधारने के लिए, ठीक राह पर चलाने के लिए अंतःकरण के refinement की  बहुत बड़ी आवश्यकता है।  यह refinement विचारक्रांति के माध्यम से, अच्छी पुस्तकों के, साहित्य के स्वाध्याय से ही संभव है।  

जिस प्रकार बच्चे पतंग उड़ाते समय हाथ में डोरी थामे रहते हैं और उनके इशारों पर पतंग आकाश में तैरती उछलती-कूदती दिखाई पड़ती है, ठीक इसी प्रकार मस्तिष्क को “अंतःकरण” के निर्देश मिलते हैं। मस्तिष्क एक कुशल वकील की भांति अपने क्लाइंट के लाभ के लिए कर्तव्य पालन करता है, इसी कर्तव्य पालन में तरह-तरह की तरकीब ढूँढ़ना, सामग्री इकट्ठी करना आता  है।

अंतःकरण क्या है :  

अंतःकरण से तात्पर्य है भावना क्षेत्र, एक ऐसा क्षेत्र जिसमें मान्यताएँ, आस्थाएँ और आकांक्षाएँ विनिर्मित होती हैं। विचार तो तर्कों तथ्यों, प्रमाणों और उदाहरणों के सहारे आसानी से बदले जा सकते हैं। भय और लोभ के दबाव से भी विचार बदले जा सकते हैं लेकिन  आस्थाओं की बात दूसरी है, उनकी जड़ें बहुत गहरी होती हैं और वे विवशता में चुप ही रहने पर भी बदलती नहीं है। भीतर ही भीतर अपना काम करती रहती हैं और अवसर आते ही फिर उछल पड़ती है। किसी की आंतरिक आस्था नीति-नियमों पर वास्तव में न हो, तो  वह बाहर से धर्मोपदेशक का काम करते रहने पर भी अंदर से  पूर्ण नास्तिक जैसा बना रहेगा और गुप्त रूप से अनेकों छल-छंद रचकर अपने अनैतिक स्वार्थों को पूरा करता रहेगा। ऐसी दशा में मस्तिष्क उसका पूरा-पूरा सहयोग देगा। कुटिलता भरे कुचक्र रचने और छलपूर्ण दुष्कर्म करते रहने की सुविस्तृत भूमिका बनाकर खड़ी कर देगा। ऐसा प्रायः होता भी रहता है। लोग देशभक्ति की, लोकहित की, समाज कल्याण की दुहाई देते तो रहते हैं, दूसरों को लंबे-चौड़े उपदेश भी  देते हैं, किंतु स्वयं उनका अपना आचरण  कथन के सर्वथा विपरीत होता है । जिन तर्कों से दूसरों को प्रभावित करते हैं, उनका स्वयं के ऊपर कोई प्रभाव नहीं होता। इसका एक ही कारण होता है :  

“आस्था क्षेत्र में अनीति अपनाकर  लाभ मिलने की मान्यता का गहराई तक जमें रहना ही होता है।” 

इसके विपरीत ऐसे असंख्य मनुष्य पाये जाते हैं, जो शारीरिक सुविधाओं, संपदाओं और मानवीय प्रसन्नताओं के समस्त अवसरों को लात मारकर उच्चस्तरीय आदर्शों की रक्षा करते हैं। घोर कष्ट सहते हैं , हानि उठाते हैं, यहाँ तक कि  प्राण गंवाने से भी डरते नहीं   हैं। शारीरिक सुख और मानसिक स्वार्थ अत्यंत स्पष्ट होते हुए भी वे उसका परित्याग करके स्वेच्छापूर्वक विपत्ति उठाते और तपस्वी जीवन बिताते हैं।

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संकल्प सूची को गतिशील बनाए रखने के लिए सभी साथिओं का धन्यवाद् एवं जारी रखने का निवेदन। आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 12   युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज चंद्रेश जी,संध्या जी और सरविन्द जी तीन  गोल्ड मैडल विजेता हैं।  

 (1)अरुण वर्मा-44  ,(2 ) सुमनलता-28   ,(3 )नीरा त्रिखा-32    ,(4) संध्या कुमार-72, (5) सुजाता उपाध्याय-33   ,(6) सरविन्द कुमार-72   ,(7)निशा भरद्वाज-25, (8) चंद्रेश बहादुर- 72, (9 )संजना कुमारी-25,(10 ) स्नेहा गुप्ता-25,(11) रेणु श्रीवास्तव-47  ,(12 ) पुष्पा सिंह-25 , सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।


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