वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

शरीर हमारे मस्तिष्क का  एक “स्वामिभक्त सेवक” है। 

15 नवंबर 2023 का ज्ञानप्रसाद

कैसा संयोग है कि आज बुधवार के दिन, गणेश जी के पावन दिवस को हम एक नयी ज्ञानप्रसाद लेख श्रृंखला का श्रीगणेश कर रहे हैं। हम अनुभव कर सकते  हैं कि परम पूज्य गुरुदेव के स्थूल एवं सूक्ष्म शरीरों की डिटेल्ड चर्चा ने हम सबको कैसे मंत्र मुग्ध किया है, कारण शरीरों की जानकारी गुरुदेव ने स्वयं ही गुप्त रखना उचित समझा है। 

आज आरम्भ हो रही लेख श्रृंखला का सुझाव हमारी सबकी परमप्रिय बेटी संजना   की तरफ से आया था जिसके लिए हम बेटी का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार एक ऐसा मंच है जहाँ सभी सुझावों का, प्रतिभाओं का न सिर्फ  सम्मान किया जाता है बल्कि यथासंभव परिष्कृत करने का प्रयास भी किया जाता है। हमारे साथिओं को संजना बेटी की प्रतिभा का  स्मरण होगा जब दो वर्ष पूर्व “एक बच्ची की ह्रदय विदारक कविता” शीर्षक से हमने उसी द्वारा रचित एक  ऑडियो बुक यूट्यूब पर प्रकाशित की थी, उसके बाद तो बेटी ने क्या क्या प्रतिभा दिखाई है, सभी को मालूम है। 

आज से आरम्भ हो रही लेख शृंखला का आधार परम पूज्य गुरुदेव की मात्र 63 पन्नों की पुस्तक “समस्त समस्याओं का समाधान-अध्यात्म” है। यह पुस्तक मात्र तीन चैप्टर्स की एक continuous चर्चा है, कहाँ break देनी है और एक लेख में कितना लिखना है, हमें स्वयं ही निर्णय लेना पड़ेगा। कंटेंट इतना रोचक है कि हमें अपने विचारों को शामिल न करना असंभव ही लग रहा है। अवश्य ही पाठक भी कमैंट्स के माध्यम से चर्चा में शामिल होंगें। इसी को तो सत्संग कहते हैं।  कहने की तो बात ही नहीं है कि यह ज्ञानप्रसार की  एक बहुत ही effective एवं सरल प्रक्रिया है। सभी साथिओं का ज्ञानप्रसार के सहयोग में ह्रदय से आभार व्यक्त करते हैं। 

आज का लेख तीन विचारधाराओं से आरम्भ होकर विचारों की शक्ति पर चर्चा कर रहा है। भला-बुरा जो भी घट  रहा है, मस्तिष्क में उठते विचारों के कारण हो हो रहा है। शरीर एक robot की भांति मस्तिष्क की हर command का एक स्वामिभक्त की भांति पालन किये जा रहा है। 

तो आइए देखें मस्तिष्क बॉस हमें अँधेरे से बाहिर निकलने में भी सहायता करेगा कि नहीं। 

ॐ असतो मा सद्गमय ।तमसो मा ज्योतिर्गमय ।मृत्योर्मा अमृतं गमय ।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ 

अर्थात 

हे प्रभु, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो ।मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो ।

मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो ॥ 

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कम्युनिस्ट विचारधारा : 

बुद्धिवादियों का एक वर्ग बहुत समय से यह कहता आया है कि सभी प्रकार की विपत्तियाँ “आर्थिक कठिनाइयों” के कारण उत्पन्न होती हैं। यदि आर्थिक आत्म निर्भरता हो, परिवार संपन्नता हों  तो फिर न तो किसी को पिछड़ा रहना पड़ेगा और न चोरी-बेईमानी अपनानी पड़ेगी। बुद्धिवादियों का यह वर्ग सम वितरण (Equal distribution ) पर अधिक ज़ोर देता है, न कि उत्पादन बढ़ाने और खर्च में किफायत करने पर। उनका कहना है कि जिनके पास पैसा है, उनसे लेकर सबको बाँट दिया जाय तो अमीरी बँट जायेगी। सब लोग संपत्तिवान बन जायेंगे, फलतः अन्य समस्याओं के साथ नैतिक समस्याओं का भी समाधान हो जायेगा। इस वर्ग के लोग अपने को साम्यवादी (Communist)  कहते हैं।

शिक्षा का अभाव : 

दूसरा वर्ग शिक्षा की कमी को पिछड़ेपन का कारण मानता है । वह शिक्षा की वृद्धि के साथ-साथ नैतिकता सहित राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान का स्वप्न देखता है। 

वसुधैव कुटुंबकम विचारधारा : 

तीसरा वर्ग शासन-पद्धति के संबंध में यह कहता है कि राज्य के हाथ में असीम शक्ति होती है, वह कठोर दंड व्यवस्था के सहारे अपराधी तत्त्वों को रोक सकता है। राष्ट्रीय संपत्ति का मनमाना उपयोग करके, समृद्धि और प्रगति के अनेकों द्वार खुल सकते हैं । कई व्यक्ति देशों, वर्गों की संकीर्णता को पारस्परिक संग्राम का कारण मानते हैं और एकता के लिए  सभी मतभेदों  को मिटाकर विश्व-राज्य, विश्व-धर्म, विश्व-परिवार का सृजन होने पर सुख-शांति के मार्ग की कठिनाइयाँ दूर होने की बात सोचते हैं।

कई बार समस्याओं के सामयिक कारण व्यक्तियों की भूलें अथवा दुष्टताएँ होती हैं। परिस्थितियाँ भी कई प्रकार की निर्धनता उत्पन्न करती हैं। समाज में शिक्षित, अनुभवी, वरिष्ठ व्यक्ति उपलब्ध  साधनों के सहारे प्रतक्ष्य समस्याओं के हल निकालते भी  रहते हैं। टूट-फूट की मरम्मत और विकृतियों की काट-छाँट चलती रहती है,लेकिन  चिरस्थायी समाधान ( Long-lasting solution) का मार्ग नहीं मिलता। 

जिस प्रकार हजामत बनाते-बनाते ही नये बालों की उपज उत्पन्न हो जाती है, उसी तरह उलझनें भी नये/पुराने रूप लेकर  फिर उठ खड़ी होती है और स्थाई  शांति एक सुखद सपना भर बन कर रह जाती है। स्थाई शांति के  लिए आशा-अपेक्षा तो की जाती रहती है लेकिन  वैसी स्थिति जिसमें व्यक्ति को सुरक्षा और समाज को सुव्यवस्था की स्थिति में रहते हुए देखा जा सके, बनती ही नहीं। 

चारों तरफ व्याप्त अशांति के समाधान के लिए सुझाव तो अनेकों दिए जाते हैं, दिए जा रहे हैं लेकिन  सभी आंशिक रूप से ही सही हैं। उन सभी समाधानों  के कार्यान्वित होने से मनुष्य जाति के सामने प्रस्तुत कठिनाइयों में से कितनों का ही एक सीमा तक समाधान निकल सकता है लेकिन  वह होगा आंशिक ही, क्योंकि उसमें उन भौतिक कारणों का ही निराकरण सुझाया गया है जो प्रत्यक्षतः बहुत-सी विपतियों और उलझनों के कारण प्रतीत होते हैं। 

यह सारे प्रयास फुंसियों पर मरहम लगाने की तरह है। मोटी बुद्धि के आधार से देखा जाए तो  फुंसी स्वयं ही अपने  कष्ट का  कारण है । रक्त विकार (खून का गन्दा होना) से फुंसियाँ उठती हैं। रक्त-विकार के कारणों में  पेट में जमी विषाक्तता बहुत बड़ा कारण होती है। यदि loose motions की दवाई  दे दी जाय यां  रक्त शोधक ( Blood purification) के  उपचार किये जाएँ तो फुंसियाँ स्वयं ही सूखने लगती हैं। अंदर के विकारों का उपचार करने के साथ-साथ, सामान्य उपचार भी लाभदायक होते हैं। उस समय मरहम भी effective होती है। उसके विपरीत यदि रक्त विकृति बनी रहे तो मरहम लगाते रहने पर भी, उनके अच्छे होने में कई दिन लग सकते हैं और एक के अच्छे होते दूसरी नई उठ खड़ी होती हैं। यह तो वही बात हो गयी कि strong antibiotics देकर बीमारी को दबा देना, न कि बीमारी का बेसिक कारण जानना। यदि फुंसियों का निराकरण स्थायी रूप से करना हो तो उसके  “मूल कारण”  तक, जड़ तक, जाना होगा, जहाँ से अनेक प्रकार के रोग उठते और रूप बदल-बदलकर सामने आते रहते हैं। दाद, खाज, चेचक, गठिया, सूजन, जकड़न आदि में प्रधानतया रक्त विकार (Blood disorder)  ही कारण  होता है। यद्यपि इन सब रोगों के लक्षण,कष्ट  और  अनुभव भिन्न-भिन्न प्रकार के  होने के कारण अलग- अलग हो सकते हैं लेकिन  पूरी तरह निवृत्ति प्राप्त करनी हो तो रक्त-शोधन के लिए प्रयत्न करना होगा और उस स्रोत  को रिपेयर करना  होगा, जहाँ से सारी समस्याएं उठ रही हैं ।

गुरुदेव द्वारा दिया गया विचार क्रांति का मूल मंत्र:

मनुष्य की मूल सत्ता चेतना है। चेतना को इंग्लिश में Consciousness कहते हैं। यह Consciousness ही है जिससे मनुष्य की आस्थाएँ, मान्यताएँ, इच्छाएँ बनती हैं। इन्हीं से मनुष्य की personality का निर्माण होता है।समाज के भिन्न भिन्न वर्गों  का विश्लेषण करने पर पाया गया  है कि हर कोई आस्थाओं और अभिरुचियों से बंधा हुआ है। मान्यताएँ ही इच्छाएँ उत्पन्न करती हैं। इच्छा की पूर्ति का आदेश मस्तिष्क को मिलता है और मस्तिष्क एक वफादार नौकर की भांति  अभीष्ट वस्तु या परिस्थिति प्राप्त करने के लिए ताना-बाना बुनने लगता है। शरीर पर मस्तिष्क का पूरा कण्ट्रोल होता है, इतना पूरा कि मस्तिष्क के निर्देश पर शरीर की हरकतें गतिशील होती जाती  हैं।  मस्तिष्क जैसे-जैसे कहता जाता है, जो-जो मान्यताएं बन चुकी हैं, बिना किसी संशोधन के शरीर उनका पालन करता जाता है। 

मनुष्य तो मात्र शारीरिक कृत्यों को ही देख सकता है। चमड़े की आँखें तो घटनाओं, हलचलों, पदार्थों और प्राणियों को ही देखती हैं, इसलिए वे कार्यों को,कृत्यों को  ही महत्त्व देती हैं। उन्हीं के आधार पर निंदा होती है, उन्ही के आधार पर प्रशंसा होती है। दंड और पुरस्कार भी  उन्हीं के आधार पर मिलते हैं। लौकिक दृष्टि से यही संभव है और यही उचित भी है लेकिन यदि थोड़ी सी भी  गहराई से देखा जाय, तो वास्तविकता कुछ और ही है । विचारों की शक्ति अत्यंत प्रचंड है, वही मनुष्य को किसी निष्कर्ष पर पहुँचाती है। निर्णय का निर्धारण विचारों से ही होता है । क्या करना है ? क्या नहीं करना है ? इसका फैसला करना पूरी तरह से “मस्तिष्क” के हाथ में है। शरीर के अन्य किसी अवयव का उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं होता। पंचतत्त्वों से बनी काया तो मात्र मस्तिष्क द्वारा दिए गए  निर्देश का परिपालन करती है। शरीर एक उपकरण मात्र है, कुछ करते हुए तो उसे ही देखा जाता है लेकिन  वस्तुतः वह जड़ तत्त्वों का बना होने से कुछ सोचने में सर्वथा असमर्थ होता है। उसे अपने मालिक की आज्ञानुसार ही चलना पड़ता है।

मूर्ति गढ़ने में छेनी हथौड़े की हलचल दृष्टिगोचर होती है, हाथ उन्हें चलाते हैं। किंतु मूर्तिकार के अतिरिक्त किसी अन्य अनाड़ी व्यक्ति के हाथों में वे छैनी-हथौड़ा थमा दिये जाएँ और मूर्ति गढ़ने को कहा जाय तो वह हर्गिज नहीं गढ़ सकेगा क्योंकि अनाड़ी व्यक्ति के पास  मूर्तिकला की ट्रेनिंग नहीं होती। लेखन का कार्य  कलम और कागज़  की सहायता से चलता है। अगर  किसी अनपढ़ के हाथ में कागज़ और कलम थमा दिए जाएँ तो वह अनपढ़ कुछ भी नहीं लिख पाएगा। 

मूर्ति गढ़ने की प्रेरणा, लेखन की प्रेरणा आदि मस्तिष्क से मिलती हैं। शरीर के अंग-अवयव तो मात्र एक “स्वामिभक्त सेवक” की भांति मस्तिष्क द्वारा दिए गए आर्डर  परिपालन करते हैं। इसलिए यदि गंभीरता से देखा जाय तो सत्कर्मों/दुष्कर्मों के लिए  शरीर को या उसके किसी अंग को ज़िम्मेदार ठहराने के स्थान पर मस्तिष्क को उसकी निंदा/प्रशंसा का पात्र माना जाना चाहिए।  शरीर तो बेचारा रोबोट (Robot) की भांति वही कर रहा है जो मस्तिष्क उसे command दे रहा है, ठीक उसी तरह जैसे हम कीबोर्ड पर “गुरुदेव” टाइप करेंगें तो गुरुदेव ही टाइप होगा न कि वंदनीय माता जी। 

विचारों में ही वह शक्ति है, जो “व्यक्तित्व का स्वरूप” निर्धारण करती है, उसके उत्थान एवं  पतन को  दिशा देती है। गुण/कर्म/स्वभाव के आधार पर ही मनुष्य की विशेषता का निर्माण होता है, उसी स्तर की हलचल गतिविधियाँ होती हैं और उसी आधार पर दूसरों का सहयोग/ असहयोग/सम्मान/तिरस्कार मिलता है। इन्हीं सबको मिलाकर पिछड़ेपन या प्रगतिशीलता की स्थिति बनती है। उत्थान और पतन का वास्तविक आधार इस मानसिक स्थिति को, चिंतन की दिशाधारा को  “मन, बुद्धि एवं चित्त”  के त्रिवर्ग (Triplet)  को दिया जा सकता है। मनःस्थिति  ही परिस्थिति के रूप में प्रकट होती है।  व्यक्ति वैसा ही बनता है जैसा कि सोचता है।

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संकल्प सूची को गतिशील बनाए रखने के लिए सभी साथिओं का धन्यवाद् एवं जारी रखने का निवेदन। आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 13  युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज चंद्रेश जी गोल्ड मैडल विजेता हैं।  

 (1)अरुण वर्मा-28   ,(2 ) सुमनलता-47  ,(3 )नीरा त्रिखा-26   ,(4) संध्या कुमार-47 , (5) सुजाता उपाध्याय-30  ,(6) सरविन्द कुमार-43  ,(7) मंजू मिश्रा-28 ,(8) चंद्रेश बहादुर-58 , (9 ) विदुषी बंता-24, (10 )साधना सिंह-25 ,(11) रेणु श्रीवास्तव-37 ,(12 )पिंकी पाल-24 ,(13)  पुष्पा सिंह-25,25     

 सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।


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