2 नवंबर 2023 का ज्ञानप्रसाद
आज गुरुवार के दिन हमारा सारे का सारा पुरषार्थ गुरु को समर्पित होता है, यहाँ तक कि आदरणीय सुमनलता बहिन जी के सुझाव अनुसार, प्रज्ञा गीत भी गुरुदेव पर ही आधारित होता है।
पिछले तीन लेखों में हमें गुरुदेव के एक शरीर होते हुए पांच शरीरों के बराबर सामर्थ्य एवं शक्ति का अमृतपान किया। आज हम अपने साथिओं के समक्ष एक और eye opening विषय “गुरुदेव के स्थूल शरीर” लेकर आये हैं। आज के लेख में गुरुदेव के प्रथम स्थूल शरीर जन्म भूमि आंवलखेड़ा का वर्णन है. बाकी के चार शरीरों का वर्णन सोमवार को करने का प्रयास है। स्थूल शरीर की ही भांति गुरुदेव के पांच सूक्ष्म एवं पांच कारण शरीर की भी चर्चा करने की भी योजना है इसलिए अब के लिए इतना ही कहेंगें ,Please stay tuned.
आंवलखेड़ा पर हमने न जाने कितनी ही वीडियोस बनाई हैं, लेख के साथ ही अगर हमारी वीडियोस भी देखते जाएँ तो रोचकता में चार चाँद लगते देर नहीं लगेगी।
इन्हीं शब्दों के साथ आज के लेख का शुभारम्भ होता है।
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पिछले तीन लेखों में हमने देखा कि परम पूज्य गुरुदेव ने एक शरीर से पाँच गुनी स्तर की क्रिया-शक्ति का उपार्जन कैसे कर दिखाया । इसी तथ्य को परमपूज्य गुरुदेव ने जीवन के उत्तरार्द्ध में, 1987 से 1990 की अवधि में अखंड ज्योति में “अपनों से अपनी बात” शीर्षक के अंतर्गत इस तरह लिखा:
हमारे पाँच स्थूल एवं पाँच सूक्ष्मशरीर हैं। यह दोनों ही प्रकार के शरीर सन् 2000 तक एवं उसके बाद भी अपना कार्य सक्रियतापूर्वक करते रहेंगे लेकिन इनका विराटतम स्वरुप 2000 के बाद देखा जाएगा। स्थूल और सूक्ष्म शरीर के इलावा हमारे पाँच कारण शरीर भी सक्रिय होकर सारी विश्ववसुधा को अपनी लपेट में ले लेंगे।
गायत्री परिवार के परिजन परम पूज्य गुरुदेव को समझ पाएं यां नहीं, उनके पाँच स्थूल एवं पाँच सूक्ष्मशरीर उनके कर्तृत्त्व-संकल्पों के रूप में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होते दिखेंगें । कारण शरीरों के बारे में हम अपनी लेखनी से अभी कुछ नहीं कह सकते, क्योंकि वह भविष्य की बात है एवं अभी उस पर प्रकाश डालने पर प्रतिबन्ध है।
परमपूज्य गुरुदेव के पाँच स्थूलशरीर:
परमपूज्य गुरुदेव अक्सर चर्चा-प्रसंगों में अपने निकटस्थ, घनिष्ट शिष्यगणों के समक्ष वार्तालाप करते हुए कहते थे “मेरे पाँच स्थूलशरीर हैं और पाँच सूक्ष्मशरीर हैं। पाँच स्थूल तो वे हैं जो मेरी स्थापनाएँ हैं, जिन्हें केन्द्रीय संचालन तंत्र (Central control system ) के रूप में माना जा सकता है। इन्हीं शरीरों के विभिन्न अंग-अवयव भिन्न-भिन्न शक्तिपीठों, प्रज्ञासंस्थानों, प्रज्ञापीठों, चलते-फिरते प्राणवान कार्यकर्ताओं के रूप में सारे भारत व विश्वभर में फैले हैं। पाँच सूक्ष्मशरीर वे हैं जो पाँच वीरभद्रों के रूप में परम पूज्य गुरुदेव की 1984 से 1987 तक सम्पन्न हुई सूक्ष्मीकरण साधना के बाद से ही कार्य कर रहे हैं। पाँच वीरभद्रों की विस्तृत चर्चा तो आने वाले लेखों में करेंगें ही लेकिन वर्तमान के लिए निम्लिखित ही पर्याप्त है :
मोटी बुद्धि सूक्ष्मीकरण को या पाँच सूक्ष्म शरीरों,वीरभद्रों को समझ नहीं पाती। कोई पूज्यवर के आस पास कार्य करने वाले पाँच वरिष्ठ कार्यकर्त्ताओं को इनका वीरभद्र समझने लगे तो कोई उनकी व्याख्या अपनी-अपनी बुद्धि के अनुरूप भिन्न-भिन्न ढंग से करने लगे। वस्तुतः ये वीरभद्र शक्ति के पुँज थे, जिनको मोटे रूप में पाँच दायित्व, पाँच कार्यों का सम्पन्न करना था। पहला कार्य है विचार संशोधन करके लोगों की उल्टी बुद्धि को उलट कर सीधा करना, दूसरा कार्य है किसी भी कीमत पर नवनिर्माण के लिए प्रचुर साधन जुटाने के लिए समर्थ बनना, तीसरा कार्य दुरात्माओं के लिए भय का वातावरण उत्पन्न करके उनका मनोबल पस्त करना, चौथा कार्य है भावी परिजनों को प्रज्ञा परिवार में जोड़ना एवं अधिकाधिक सामर्थ्य व सुरक्षा प्रदान करने के लिए विकसित करना,पाँचवाँ कार्य है दिए गए चारों पॉइंट्स के अंतर्गत भावी असाधारण कार्य करने के लिए उपयुक्त तपरूपी खुराक,वातावरण जुटाना।
गुरुदेव के पाँच स्थूलशरीर इस प्रकार हैं-
(1 ) युगतीर्थ आँवलखेड़ा, (2 ) अखण्ड ज्योति संस्थान, घीयामण्डी मथुरा, (3 ) गायत्री तपोभूमि,मथुरा (4) शांतिकुंज-गायत्रीतीर्थ सप्तसरोवर हरिद्वार,(5) ब्रह्मवर्चस शोधसंस्थान हरिद्वार ।
परमपूज्य गुरुदेव के इन पाँचों स्थूल शरीरों को समझने से पूर्व यह समझ लें कि 1911 में आज से प्रायः 86 वर्ष पूर्व जन्मी हमारी गुरुसत्ता ने सुनियोजित ढंग से अपनी जीवनावधि को चार भागों में बाँट दिया।
(अ) 1911 से 1926 तक की 15 वर्ष की बाल्यकाल की अवधि, जब उनकी गुरुसत्ता बालक श्रीराम का साक्षात्कार हुआ
(आ) 1926 से 1941 तक की 15 वर्ष की अवधि जिसमें स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय प्रवेश करने से लेकर जेल जाने तक, गायत्री महापुरश्चरण आरम्भ करने से 1 लेकर बापू, कवीन्द्र रवीन्द्र व श्री अरविन्द जैसे महापुरुषों के साथ मिलन-सत्संग का क्रम एवं “अखण्ड ज्योति पत्रिका” का प्रकाशन आरम्भ हुआ। यह कार्य विभिन्न जेलों, आँवलखेड़ा व आगरा के ग्रामीण क्षेत्रों से लेकर आगरा नगर में सम्पन्न हुआ। 1941 में वे मथुरा प्रयाण कर गए।
(इ) 1941 से 1971 तक की 30 वर्ष की अवधि, जिसमें अखण्ड ज्योति संस्थान एवं गायत्री तपोभूमि की स्थापना हुई। परम वन्दनीय माताजी उनके जीवन में आयीं , तीन बार वे 1-1 वर्ष के लिए हिमालय गए। 24 लक्ष के अनुष्ठानों की महापूर्णाहुति सम्पन्न हुई, 1958 का ऐतिहासिक सहस्रकुण्डी महायज्ञ हुआ जो “गायत्री परिवार” की स्थापना का मूलभूत आधार बना । इसी अवधि में गायत्री महाविज्ञान लिखा गया एवं आर्षग्रन्थों का आदि से अन्त तक भाष्य कार्य सम्पन्न किया गया । युगनिर्माण योजना के सूत्रपात से लेकर भारत भर में गायत्री परिवार के शाखाओं की स्थापना इसी अवधि में हुई।
(ई) 1971 से 1990 की अंतिम 20 वर्ष की अवधि जब वे मथुरा से विदाई लेकर हरिद्वार होकर हिमालय चले गए। बाद में 1972 की जून में लौटकर ऋषि परम्परा का बीजारोपण कर गायत्री तीर्थ के रूप में शांतिकुंज सिद्धपीठ की स्थापना का संकल्प लिया । इस अवधि में प्राण प्रत्यावर्तन से लेकर कल्प साधना, संजीवनी साधना,नारी जागरण, वानप्रस्थ, युग शिल्पी शिक्षण सत्र सम्पन्न हुए । स्वयं पूज्यवर प्रवासी भारतीयों के लिए संदेश लेकर 3 माह के लिए 1972 के अंत से 1973 के प्रारम्भ तक विदेश यात्रा के लिए पानी के जहाज से गए । ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान व शक्तिपीठ निर्माण की प्रक्रिया, नारी जागरण अभियान के अन्तर्गत देवकन्याओं की पूरे भारत में प्रव्रज्या एवं प्रज्ञापुराण सृजन जैसा महत्कार्य इसी अवधि में हुआ। राष्ट्रीय एकता सम्मेलन,विराट दीप यज्ञों की क्रान्तिकारी श्रृंखला से लेकर क्रान्तिधर्मी साहित्य का निर्माण इसी अवधि में सम्पन्न हुआ। 2 जून, 1990 गायत्री जयन्ती को गुरुदेव ने पूर्व घोषणा के साथ महाप्रयाण किया ।
इस प्रकार 15 वर्ष, 15 वर्ष, 30 वर्ष एवं 20 वर्ष के चार खण्डों में उनका 80 वर्षीय जीवन बाँटा जा सकता है । पूज्यवर ने अप्रैल 1990 की अखंड ज्योति में लिखा कि
“कोई यह न समझे कि दीप बुझ गया और प्रगति का क्रम रुक गया । दृश्य शरीर रूपी गोबर की मशक चर्मचक्षुओं से दिखे या न दिखे, विशेष प्रयोजनों के लिए नियुक्त किया गया यह प्रहरी अगली शताब्दी तक पूरी जागरूकता के साथ अगली जिम्मेदारी वहन करता रहेगा ।”
उपरोक्त पंक्तियों के परिप्रेक्ष्य में यदि हम उनकी स्थापनाओं को,पाँच स्थूल शरीरों को समझने का प्रयास करें तो ज्यादा ठीक रहेगा ।
1.युगतीर्थ आंवलखेड़ा, गुरुदेव का प्रथम स्थूल शरीर :
आश्विन कृष्ण त्रयोदशी वर्ष 1911 के ब्रह्ममुहूर्त में आंवलखेड़ा ग्राम एक युगपुरुष का जन्म हुआ। आगरा जिले का यह गाँव आगरा-जलेसर मार्ग पर लगभग पन्द्रह मील की दूरी पर स्थित है। पं. रूपकिशोर शर्मा एवं माता दानकुँवरि जी के घर जन्मा यह बालक अपनी लीला बाल्यकाल से ही अमराइयों में सहपाठियों के साथ साधना करने, दलित वर्ग के पिछड़े वर्ग के समुदाय में जाकर उनकी सेवा करने के रूप में दिखाने लगा । हिमालय की तीव्र पुकार एक दिन इस बालक को घर से भगाकर काठगोदाम तक ले गयी, जहाँ से सम्बन्धी वापस ले आए । 12 वर्ष की आयु में मदनमोहन मालवीय जी से दीक्षा लेकर “गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है” का शिक्षण प्राप्त कर बालक श्रीराम ने 15 वर्ष की आयु में अपनी मार्गदर्शक सत्ता से साक्षात्कार किया एवं जीवन की राह का गन्तव्य एवं अपने वास्तविक स्वरूप, सभी का बोध हो गया।
आज जहाँ पर एक भव्य स्मारक, ग्रेनाइट के एक चबूतरे, एक विराट कीर्ति-स्तम्भ तथा जीवन-सागर के 14 पृष्ठों-रत्नों के रूप में ग्रेनाइट पर अंकित सुनहले पृष्ठों की शब्दावली के रूप में अंकित-विद्यमान है, यहाँ कभी एक भव्य हवेली हुआ करती थी। इसी हवेली के एक कक्ष में हमारे गुरुदेव का जन्म हुआ था। ठीक उसी स्थान पर एक चबूतरा बनाया गया है, जहाँ प्रतिदिन हज़ारों व्यक्ति आकर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं । स्वतन्त्रता संग्राम के दिनों में जहाँ सक्रियता से कार्य किया गया, बैठकें की गयीं, स्वतंत्रता संघर्ष में कई बार भागने की आवश्यकता पड़ती थी,इसके लिए गुप्त मार्ग बनाया गया था। वह स्थान अब पुनः वैसा ही बना दिया गया, क्योंकि कालक्रम के साथ भारी बरसात में यह स्थान ढह गया था। अपने ही हाथ से रोपा गया एक नीम का पेड़ व हाथों से खोदा हुआ मीठे पानी का कुआँ इसी परिसर में स्थित है। इस स्मारक की एक-एक वस्तु परम पूज्य गुरुदेव की बराबर याद दिलाती है। गुरुदेव ने आँवलखेड़ा से आगरा आने पर 2000 बीघे से अधिक ज़मीन गरीबों में बाँट दी एवं एक भाग पर माताजी के नाम पर श्री दानकुँवरि इंटर कॉलेज स्थापित किया गया । 1963 से सक्रिय इस कॉलेज से न जाने कितने ही बच्चे सुशिक्षित होकर निकल चुके हैं। आगरा से मथुरा व मथुरा से हरिद्वार आने पर पूज्यवर ने जन्मभूमि को अधिक महत्त्व न दिया, किन्तु शिष्यों एवं परम वंदनीय माताजी के आग्रह पर वे एक बार 1979-80 में गाँव गए। पूज्यवर ने तब एक गायत्री शक्तिपीठ, एक कन्या इंटर कॉलेज एवं एक चिकित्सालय की रूपरेखा बनायी । यहाँ का गायत्री शक्तिपीठ अब एक विराट आकार ले चुका है एवं आस- पास के लगभग 108 मील की परिधि तक के व्यक्तियों के लिए संस्कारित सिद्धपीठ है। इसी परिसर में स्थापित इंटर कॉलेज अब कन्या डिग्री कॉलेज बन गया है, जो पूज्यवर का स्वप्न था ।
1995 की अर्द्धमहापूर्णाहुति जिसमें लगभग 60 लाख लोगों व राजतंत्र से लेकर संस्कृति – प्रबुद्ध वर्ग की प्रतिभाओं ने भागीदारी की, एक ऐतिहासिक आयोजन बनकर रह गया । 1997 नवम्बर माह कार्त्तिक पूर्णिमा पर एक आयोजन हुआ जब गायत्री परिवार ने एक नयी करवट ली है। आंवलखेड़ा में 30 बिस्तरों का एक सामुदायिक चिकित्सा केन्द्र भी आरम्भ हो चुका है। आंवलखेड़ा गांव को एक “आदर्श ग्राम” घोषित किया गया एवं सभी योजनाएँ सक्रियता से चल रही हैं। एक स्वावलम्बन विद्यालय एवं जड़ी-बूटी शोध संस्थान की स्थापना शक्तिपीठ परिसर में अभी होनी है। यह पूज्य गुरुदेव का प्रथम शरीर है, गुरुदेव यहाँ से आगरा (फ्रीगंज) होकर वे मथुरा पहुँचे।
आज के लिए इतना ही काफी रहेगा, अगले सोमवार को गुरुदेव के बाकी चार शरीरों से ज्ञानप्रसाद का शुभारम्भ करेंगें।
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संकल्प सूची को गतिशील बनाए रखने के लिए सभी साथिओं का धन्यवाद् एवं जारी रखने का निवेदन। आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 7 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज रेणु जी गोल्ड मैडल विजेता हैं। (1)अरुण वर्मा-34,(2 )सुमनलता-26,(3 )रेणु श्रीवास्तव-46,(4) संध्या कुमार-32, (5) सुजाता उपाध्याय-29,(6 ) चंद्रेश बहादुर-31,(7) मंजू मिश्रा-30 सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।