1 नवंबर 2023 का ज्ञानप्रसाद
आज के ज्ञानप्रसाद लेख का शुभारम्भ एक बार फिर से ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की समर्पित एवं परमप्रिय बहिनों को “करवा चौथ व्रत ” की शुभकामना के साथ कर रहे हैं। सभी बहिनों को हमारी व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई स्वीकार हो। कल पोस्ट किया गया प्रज्ञा गीत चाहे हम आज पोस्ट नहीं कर रहे हैं लेकिन फिर भी यह गीत इस पावन एवं शुभ दिवस को समर्पित है।
सभी साथिओं से निवेदन है कि “आर्थिक सहायता/सहायता ” के विषय पर गम्भीरता से विचार करके हमारा मार्गदर्शन अवश्य करें। जिस विषय की बात हम कर रहे हैं उससे अधिकतर परिजन परिचित हैं, शब्द सीमा के कारण यहाँ उसका विस्तृत वर्णन देना संभव नहीं है, अगर संभव हुआ तो स्पेशल सेगमेंट में डिटेल में लिख देंगें।
सौभाग्यवश हमारे अनेकों साथी मस्तीचक में हो रहे 251 कुंडीय यज्ञ में भाग लेने के लिए शुक्ला बाबा की पावन, दिव्य भूमि में उपस्थित हैं और हमारे साथ क्लिप्स शेयर कर रहे हैं, यही कारण है कि संकल्प सूची में फिर से गिरावट देखी जा रही है।
आज के ज्ञानप्रसाद लेख की निम्नलिखित अंतिम पंक्तिओं में परम वंदनीय माता जी जिस बात की गारंटी दे रही हैं उसे बहुत ही गंभीरता से आत्मसात करने की आवश्यकता है।
“सामान्य जप, अनुष्ठानों के कर्मकांड पूरे करने के साथ जो पंचमुखी, दशभुजी दिव्य गायत्री को अपने प्राण, हृदय मस्तिष्क और आचरण में घुला लेता है, वह वैसा ही लाभ प्राप्त कर सकता है जैसा कि गुरुदेव ने उपलब्ध किया है।”
कहना तो बहुत सरल है कि गुरुदेव पांच शरीरों से कार्य करते थे और हम भी उन्हीं की भांति शक्तिशाली हो जाएँ, माता जी ने भी आश्वासन दे दिया, लेकिन हमारे लिए क्या ऐसा संभव है ? क्या हम सारा जीवन परम पूज्य गुरुदेव की भांति अपने गुरु को समर्पित हो सकते हैं ? क्या हम बिना किसी तर्क-कुतर्क के गुरुदेव की भांति दृढ़ संकल्पित हो सकते हैं, विशेषकर प्रतक्ष्यवाद के आधुनिक युग में। जिस पंचकोशी साधना के द्वारा गुरुदेव हमें Energy centres को,षष्ठचक्रों को जागृत करने की शिक्षा देते हैं विज्ञान तो उनके अस्तित्व को मानता ही नहीं है। वैज्ञानिक तो इसे अन्धविश्वास मानते हैं और आज का मनुष्य हमारे पुरातन ग्रंथों की तुलना में इंटरनेट की बात में अधिक विश्वास करता है क्योंकि उसे तो इंस्टेंट चाहिए, उसके पास यह सब पढ़ने के लिए, समझने के लिए, अंतःकरण में उतारने के लिए कहाँ समय है।
गुरुदेव के साहित्य को पढ़ने और समझने के लिए एक KG के विद्यार्थी की भांति A for apple, B for boy के स्तर से आरम्भ करना आवश्यक है। ज्ञानप्रसाद तो रोज़ पोस्ट होता है, चाहे लेख हो, वीडियो हो यां स्पेशल सेगमेंट। पढ़ने और जीने में, देखने और पीने में बहुत बड़ा अंतर् है, अंतर्मन में उतारकर इस दिव्य साहित्य से गूंगे के गुड़ की भांति जो आनंद प्राप्त होता है, उसे केवल अनुभव ही किया जा सकता है।
इस सारी स्थिति का अवलोकन साथिओं के कमैंट्स से भलीभांति स्पष्ट होता आ रहा है।
तो इतना ही कहकर कि अभी तो हम शैशव अवस्था में हैं, आज के लेख का शुभारम्भ करते हैं
कठोर साधनाएं तो बाद की बात है, पहले हम अपने गुरु को जान तो लें। परम पूज्य गुरुदेव ने बार-बार अनेकों स्थानों पर लिखा है “ हमारे बच्चों ने हमें पढ़ा तो है,लेकिन हमें सुना नहीं है, हमारे बारे में जानकारी प्राप्त नहीं की है, जिन्होंने थोड़ी सी जानकारी प्राप्त कर ली, उन्होंने हमारा कहना नहीं माना है।
परम वंदनीय माता जी की बात में तभी सार्थकता ढूंढी जा सकती है, जब हम नियमितता से दृढ संकल्प का पालन कर पाएं।
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गुरुदेव इन्द्रियों से परिचारिका ( Air Hostess) जैसा काम लेते रहे। परिचारिका यात्रा आरम्भ करने से पहले safety demonstration तो देती है लेकिन जब दुर्घटना होती है तो यात्री उस demonstration को भूल चुके होते हैं।
गुरुदेव कभी भी अन्य लोगों की भांति इन्द्रियों के अधीन नहीं हुए। अभक्ष भोजन कभी उन्होंने खाया नहीं,अनीति का अन्न कभी गले से नीचे उतरने नहीं दिया, साधनाकाल में 5 मुट्ठी जौ का आटा और 5 पाव छाछ दैनिक आहार पर निर्वाह करते रहे, इसके बावजूद भी न उन्होंने स्वाद को आगे आने दिया, न अनीति उपार्जित अभक्ष के लिए मुँह खोला, भूख बुझाने के लिए औषधिरूपी अन्न के अतिरिक्त स्वाद के सम्बन्ध में कभी सोचा तक नहीं, वाणी से असत्य बोलने और छल करने की आवश्यकता कभी भी नहीं पड़ी । न किसी को कुमार्ग पर चलाया और न किसी का दिल दुखाया।
ऐसी निष्पाप और निर्मल जिह्वा पर सरस्वती ही विराजमान रह सकती थीं, वही सारा जीवन गुरुदेव की जीभ पर रही थीं, उनके आशीर्वाद निष्फल नही गये और न ही कभी कोई भी परामर्श टाले गये। इस मधुर एवं दिव्य वाणी की पवित्रता ने गुरुदेव का अन्नमय कोश जागृत करने में भारी सहायता की ।
गुरुदेव सदैव हर जगह सद्भावना और श्रेष्ठता की गन्ध सूँघते रहे। किसी की दुर्भाव दुर्गन्ध उन्होंने कभी ग्रहण की ही नहीं । निंदकों का कभी बुरा नहीं माना, बल्कि उन्हें साबुन का प्रयोजन पूरा करने वाला,गंदगी साफ़ करने वाला हितैषी मानकर उसका प्रेम दुलार से ही स्वागत किया। दुर्जनों में भी सज्जनता ढूँढ़ी और हर भले-बुरे में ईश्वर का अंश विद्यमान देखते हुए उसे स्वच्छ और सुन्दर बनाने के लिए जीवन भर, सामर्थ्य अनुसार प्रयत्न करते रहे। घ्राण देवता (सूंघने का देवता) को उन्होंने पापविद्ध नहीं होने दिया जिसके कारण उन्हें मनोमय कोश की जागरण-प्रक्रिया को सरल बनाने में भारी सहायता मिली ।
गुरुदेव ने आँखों से हमेशा श्रेय ही देखा । नारी के प्रति, गुरुदेव की दृष्टि माता, पुत्री और भगिनी की ही रही। विवाहित होते हुए भी सहोदर भाई की तरह पवित्रता पूर्वक जिए। लोक-शिक्षण के लिए बालक उत्पन्न करने पड़े तो वह कार्य भी धर्मकृत्य की भावना से ही संपन्न हुआ। विकारों को तब भी मन में नहीं उठने दिया। जो पढ़ा वह मंगल कामना के अतिरिक्त और कुछ न था । श्रेय को ढूँढ़ने और प्राप्त करने में ही चर्मचक्षुओं को तथा विवेकचक्षुओं को समान रूप से नियोजित किए रहे। गांधारी की पवित्र दृष्टि ने दुर्योधन का शरीर वज्र जैसा बना दिया था। संजय ने दिव्यदृष्टि से देखकर महाभारत का सारा वृत्तांत धृतराष्ट्र को सुनाया था। गुरुदेव ने दृष्टि को पवित्र रखकर उन समस्त विशेषताओं की प्राप्ति की जिनकी यहाँ व्याख्या की जा रही है। गुरुदेव ने जिसकी ओर भी भावभरी दृष्टि से देखा वह निहाल होता चला गया। ऐसे दिव्य चक्षुओं से ही अर्जुन ने भगवान के विराट् रूप को देखा था । चक्षु देवता ( नेत्रों के देवता) को जिसने सिद्ध कर लिया, उसके लिए प्राणमय कोश में सन्निहित सिद्धियाँ ऐसे दिव्य पुरुष अधीन ही समझी जानी चाहिए।
गुरुदेव ने आज्ञाचक्र को जागृत करने की, प्राण में प्रखरता लाने की, साधना की अवश्य है लेकिन इस साधना में जो खाद्य-पानी लगा, वह नेत्रों को पवित्र बनाए रखने और असुरता द्वारा दृष्टि को पापविद्ध न होने देना ही सफलता का प्रधान कारण रहा है। गुरुदेव ने अपने कानों से केवल दिव्य प्रयोजन ही सुना। सज्जनों के सदवचनों में ही रुचि रखना, स्नेह संभाषणों को याद रखना और कटु-कर्कशता को भूल जाना, निंदा चुगली से दूर रहना “कर्णेन्द्रियों की पुण्य साधना है।” इस पुण्य साधना के अंतर्गत निरर्थक सुनने और सुनाने में कोई भी रूचि नहीं रहती है, दूसरों की व्यथा, वेदना खोजने और सत्परामर्श सुनने को आतुर रहने वाले कान धन्य हैं। ऐसे कानों को अमृतकलश कहना चाहिए, इन्हीं से छन-छनकर मस्तिष्क में देवत्व का संचय होता है और आनन्द, उल्लास से अन्तःकरण भरने लगता है। आनंदमय कोश को जागृत करने के लिए नादयोग प्रभावित साधनाएँ करनी पड़ती हैं लेकिन उनकी परिपुष्टि जिस भूमिका पर होती है, वह “कर्णेद्रिय का ही सदुपयोग” ही है।
विज्ञानमय कोश का परिष्कार त्वक्-इंद्रिय पर निर्भर है। यहाँ त्वक् का तात्पर्य कार्मेंद्रिय (Sex organs) से है। कुंडलिनी शक्ति की प्रचंड क्षमता इसी केन्द्र पर केन्द्रीभूत होती है। नई सृष्टि उत्पन्न कर सकने की, नया संसार बसाने की, स्फुरणा इसी स्थल पर विराजमान है। गुरुदेव ने इस “शिवकेन्द्र” को पवित्रतम देव प्रतिमा की तरह ही समझा और उस शक्ति स्रोत के एक भी कण का गलत खर्च न करके मानव उत्थान में ही प्रयुक्त किया।
पाँच तत्त्वों के प्रकाश को प्रस्फुटित करने वाली पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ वस्तुतः पाँच देवियाँ हैं। जो मनुष्य इन पांच ज्ञानिन्द्रियों को “व्यभिचारिणी वेश्या” के गलत मार्ग पर नहीं धकेलता, उन्हें मातृवत् श्रद्धा के साथ संपूजित करता है,उसके पास सिद्धियों की कमी नहीं रहती।
मन, बुद्धि, चित, अहंकार और प्राण यह पाँच देवता पाँच शक्तिकोशों के अधिपति हैं। इंद्रियों की तरह इन पांच देवताओं को भी संभालना पड़ता है।
1.मन की चंचलता अयोग्य भोग-विलास के लिए भटकने न पाए, वासनाओं में रमण न करने लगे, तृष्णाएँ अयोग्य मार्ग में संपदा और सुख एकत्रित करने के लिए न मचलने लगें। इस नियंत्रण से मन को निग्रहीत किया जाता है।
2.अपने साथ पक्षपात, दूसरों के साथ अन्याय, रुचिकर का समर्थन और अरुचिकर का विरोध करने लगती है और तुरंत लाभ देखने वाली और दूरवर्ती परिणामों की ओर से आँख बंद कर लेने का दोष आ जाने से बुद्धि की पवित्रता पापविद्ध हो जाती है ।
3.चित्त की प्रवृत्ति उत्कृष्टता की अभिरुचि छोड़कर निकृष्ट अभिव्यंजनाओं में भटकने लगे तो समझना चाहिए कि उसकी दिव्यशक्ति का नाश हो चला।
4.अहंता अपने को ईश्वर का दिव्य अंश, सृष्टि की सुव्यवस्था का उत्तरदायी, आदर्शों का प्रतिष्ठापक मानने के स्थान पर शरीर और संपदा का अहंकार करने वाली उद्धत और उच्छृंखल आचरण करने वाली बन जाए तो समझना चाहिए, उसका देवत्व भी नष्ट हुआ।
5.प्राण का स्वरूप है, सन्मार्ग पर चल सकने का साहस और कुमार्ग पर किसी भी भय या लोभ के कारण उत्पन्न होने वाले आकर्षण को ठुकरा देने की धृष्टता । जो जीवनोद्देश्य की पूर्ति और ईश्वर की आज्ञा का पालन करने में बड़े से बड़ा त्याग-बलिदान प्रस्तुत कर सके वह सच्चे अर्थों में प्राणवान है। प्राण देवता की आराधना सन्मार्गगामी शूरवीर बनकर की जाती है
गुरुदेव इन पाँचों आत्मदेवताओं को भी उसी तरह साधते रहे, जिस तरह कि इंद्रिय देवियों की पवित्रता अक्षुण्य बनाए रहने में तत्पर रहे। गायत्री माता के पाँच मुख और दस हाथ अलंकारिक दृष्टि से चित्रित किए जाते हैं।
कितनी ही मूर्तियाँ तथा तस्वीरें इस प्रकार के चित्रण समेत मिलती हैं। यह पाँच मुख
अन्नमय कोश, मनोमय कोश, प्राणमय कोश, आनन्दमय कोश और विज्ञानमय कोश हैं।
दश भुजाएँ उपरोक्त पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच देवियों और पाँच मनसतत्त्व से संबंधित पाँच देवता है। इन दोनों को मिलाकर गायत्री महाशक्ति की दश भुजायें बनती हैं।
माता जी कहती हैं कि सामान्य जप, अनुष्ठानों के कर्मकांड पूरे करने के साथ जो पंचमुखी, दशभुजी दिव्य गायत्री को अपने प्राण, हृदय मस्तिष्क और आचरण में घुला लेता है, वह वैसा ही लाभ प्राप्त कर सकता है जैसा कि गुरुदेव ने उपलब्ध किया है।
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संकल्प सूची को गतिशील बनाए रखने के लिए सभी साथिओं का धन्यवाद् एवं जारी रखने का निवेदन। आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 8 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज चंद्रेश जी गोल्ड मैडल विजेता हैं। (1)अरुण वर्मा -24 ,(2 )सुमनलता-35,(3 )रेणु श्रीवास्तव-34 , (4) संध्या कुमार-32, (5) सुजाता उपाध्याय-26 ,(6 ) चंद्रेश बहादुर-38,(7 )सरविन्द पाल-35 ,(8 ) मंजू मिश्रा-24 सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।

