वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गुरुदेव पांच शरीरों से कार्य करते थे- पार्ट 2

31 अक्टूबर 2023 का ज्ञानप्रसाद-गुरुदेव पांच शरीरों से कार्य करते थे- पार्ट 2

आज का दिन ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की बहिनों के लिए बहुत ही सौभाग्य का “करवा चौथ” का दिन है, सभी बहिनों को हमारी व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई स्वीकार हो। आज का प्रज्ञा गीत इसी पावन एवं शुभ  दिवस को समर्पित है। 

सभी साथिओं से निवेदन है कि “आर्थिक सहायता” के विषय पर गम्भीरता से विचार करके हमारा मार्गदर्शन अवश्य करें। जिस विषय की बात हम कर रहे हैं उससे अधिकतर परिजन परिचित हैं, शब्द सीमा के कारण यहाँ उसका विस्तृत वर्णन देना संभव नहीं है, अगर संभव हुआ तो स्पेशल सेगमेंट में डिटेल में लिख देंगें। 

आज ही  के दिन मस्तीचक बिहार में 251 कुंडीय यज्ञ का शुभारम्भ हो रहा है, परिवार की शुभकामना। 

परम वंदनीय माता जी द्वारा वर्णित की जा रही परम पूज्य गुरुदेव की पांच शरीरों की कार्य प्रणाली को आगे बढ़ाते हुए आज के ज्ञानप्रसाद का शुभारम्भ होता है। यह ज्ञानप्रसाद लेख अखंड ज्योति पत्रिका  के नवंबर 1971 के “ अपनों से अपनी बात” सेगमेंट  पर आधारित है। 

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(1) साधना:

गुरुदेव को  जब बाहर रहना पड़े, तब की बात अलग है लेकिन घर पर रहते हुए, प्रतिदिन 6  घण्टा उपासना किया करते थे। यह “आत्मिक श्रम” किसी भी मनुष्य  को पूरी तरह थका देने के लिए पर्याप्त है। शारीरिक श्रम 8  घंटे, मानसिक श्रम 7  घंटे और आत्मिक श्रम 6  घंटे ही हो सकता है। 6  घंटे की उपासना एक व्यक्ति को पूरे दिन थका देने वाली मेहनत के बराबर ही गिनी जानी चाहिये।

(2) पत्राचार: 

गुरुदेव के पास देश विदेश से औसतन लगभग  500 पत्र आते थे,जिनमें से कितने ही काफी लंबे और जटिल समस्याओं से भरे रहते थे। इन सबको गुरुदेव स्वयं खोलते थे। 400 के उत्तर कार्यकर्ताओं को उत्तर नोट कराते हुए लिखाते थे और  100 के लगभग ऐसे होते थे, जो उन्हें स्वयं ही लिखने पड़ते थे क्योंकि  दूसरों को बताकर इतनी जटिल समस्याओं के समाधान लिखाए भी नहीं जा सकते थे। इन पत्रों में  कितने ही नितांत गोपनीय भी होते थे। बड़े दफ्तरों में जहाँ पत्र खोले और उत्तर दिए जाने का ही काम होता है, हिसाब लगाया जाए तो यह काम 10 क्लर्कों का है । अत्यंत मुस्तैदी से करने पर भी कोई एक व्यक्ति 10 घंटे से कम में नहीं निपटा सकता। गुरुदेव की आदत थी कि वे किसी भी पत्र को 24 घंटे से अधिक बिना उत्तर दिए  रोकते नहीं  थे। देश-विदेश में अनगणित  लोगों को अतिमहत्वपूर्ण मार्गदर्शन, प्रकाश एवं समाधान देने के लिए विशाल परिवार का संगठन और संबंध बनाए रहने के लिये यह आवश्यक भी था। देखने वाले और लेखा-जोखा लेने वाले यह जानकर चकित रह जाते थे कि गुरुदेव इतना बड़ा  काम और वह भी  इस वृद्धावस्था में कैसे  निपटा लेते थे।

(3) लेखन:

हम सब जानते हैं कि गुरुदेव द्वारा लिखित  ग्रंथों के लेखन का कार्य  कितना अद्भुत  है। अखंड ज्योति पत्रिका अगस्त 1969 के “युगपरिवर्तन के छोटे किन्तु महान शस्त्रागार” लेख में गुरुदेव स्वयं लिखते हैं कि मेरा एक शरीर लेखनी की साधना में रत रहा। 20 वर्षों में जो उन्होंने  लिखा है, उसका वजन लगभग उनके शरीर के तोल  के बराबर है। आर्ष ग्रंथों का शुरू  से अंत तक अनुवाद, नवनिर्माण के संदर्भ में लिखी गई लगभग 400 पुस्तकें, 100 विज्ञप्तियाँ और भी न जाने कितना और  क्या-क्या लिखा है।  जो भी लिखा है, वह इतना गंभीर और महत्त्वपूर्ण है कि उसके लिए जो लिखा गया है, उससे सौ गुना अधिक पढ़ने की आवश्यकता पड़ी है। पढ़ने-लिखने का यह  कार्य  इतना बड़ा है कि यदि  एक व्यक्ति दिन के पूरे 24  घंटे, जीवन भर यही करता रहे तो भी तुलना नहीं हो सकती। इतना तो मानना ही पड़ेगा कि यह कार्य एक व्यक्ति के पूरे समय और श्रम से कम नहीं है।

(4) संपर्क:

गुरुदेव को व्यक्तिगत संपर्क, शिक्षण और सहायता प्राप्त करने, मार्गदर्शन-परामर्श के लिए नित्य सैकड़ों व्यक्ति निरंतर घेरे रहते थे। प्रातः 6 बजे से लेकर रात को 8 बजे तक 14  घंटे में से केवल 1  घंटा ही दोपहर के  भोजन विश्राम का बचता था, बाकी का सारा समय  उनके आस-पास जमात जुड़ी ही रहती थी । सम्पूर्ण भारत ही नहीं, विदेशों तक से, कष्टपीड़ितों से लेकर नवनिर्माण योजना में संलग्न कर्मठ कार्यकर्ताओं, साहित्यकारों, दार्शनिकों, विद्वानों और साधकों की भारी भीड़ में गुरुदेव  सदा ही घिरे रहते थे। इतना किए बिना इस विश्वव्यापी महाभियान जिसके लिए वे जन्मे और जिए, को गति प्रदान कर सकना, संभव भी नहीं था।

(5) प्रचारकार्य  और सम्पर्क:

गुरुदेव का पाँचवाँ कार्य प्रचारकार्य और जनसंपर्क था। उपलब्ध सूचनाओं से यही प्रमाणित होता है कि प्रायः पूरे वर्ष गुरुदेव को  बाहर ही  रहना पड़ता होगा, अन्यथा इतने सम्मेलनों,आयोजनों, गोष्ठियों, व्यक्तिगत परामर्शो तथा शोधसंपर्क के लिए महत्त्वपूर्ण प्रवासों की बात बन ही कैसे पाती। विगत 20 वर्षों में से एक भी दिन ऐसा नहीं मिलेगा,जब उनके बाहर रहने की सूचना उपलब्ध न हो ।

यह “पाँचों” ही कार्य उनके अनवरत रूप से चलते रहे। इनमें से प्रत्येक कार्य का विवरण इतना विस्तृत है कि उसे वर्ष के पूरे 365  दिन का समय  लगाए बिना निपटाया ही नहीं जा सकता। किसी भी दृष्टि से हिसाब लगा लिया जाए, किसी भी कसौटी पर परख लिया जाए, पाँचों प्रकार का प्रत्येक कार्य उनके निज के द्वारा ही संपन्न किया हुआ मिलेगा और उनमें से प्रत्येक कार्य  उतना है, जो पूरे शरीर से समग्र तत्परता के साथ पूरे में ही निपटाया जा सकता है। इस बात को यों भी कह सकते हैं कि गुरुदेव स्थूल रूप में एक दिखते  हुए भी पाँच थे। गायत्री माँ  के पाँच मुख और दस भुजाएँ कहे और  बताए तो  जाते हैं लेकिन  उसके “अनन्य उपासक, (गुरुदेव)” ने प्रत्यक्ष करके दिखा दिया कि “एक शरीर से पाँच गुनी स्तर की क्रियाशक्ति कैसे संभव हो सकती है।” 

परम वंदनीय माता जी बता रही है कि यह चर्चा इसलिए करनी पड़ी है  कि हम अपने बच्चों को सकें कि  गुरुदेव, मात्र व्यक्ति न होकर  “एक सजीव प्रयोगशाला (Living laboratory )” थे, इस लेबोरेटरी के रूप में “अध्यात्म विद्या की समर्थता और सार्थकता” प्रमाणित करने आए थे। परम पूज्य गुरुदेव द्वारा किये गए प्रयोगों से सर्वसाधारण को परिचित कराने के उद्देश्य से ही  यह चर्चा की जा रही है। 

निंदा, स्तुति जिन्हें गुरुदेव समान ही समझते थे,उनसे वे बहुत ऊँचे उठे हुए थे। लोग क्या कहते हैं, इस पर उन्होंने कभी ध्यान नहीं दिया। वे अपने अन्तःकरण के अतिरिक्त और किसी को अपनी गतिविधियों की समीक्षा कर सकने लायक मानते ही न थे। 

वर्तमान चर्चा तथ्यों पर प्रकाश डालने की दृष्टि से की जा रही  और यह प्रकट करने का प्रयत्न किया जा रहा  है कि “मनुष्य  सचमुच ही ईश्वर का राजकुमार है, युवराज है।” मानव शरीर में करोड़ों अरबों की संख्या में कोशिकाएं (cells) हैं, प्रत्येक cell में   ब्रह्माण्ड की समस्त शक्तियाँ बीज रूप में विद्यमान हैं। साधनात्मक प्रयत्नों द्वारा इन शक्तियों को जगाया जा सकता है। आत्मदेव यानि अपनी “आत्मा के देव”  को जगाकर जो कुछ भी इस संसार में पाने योग्य है उसे  सहज ही पाया जा सकता है। 

गुरुदेव कहते थे पाँच ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति को समझना और उनका सदुपयोग कर सकना एक ऐसा प्रयोग है, जिसके द्वारा अन्नमय कोश, मनोमय कोश, प्राणमय कोश, आनन्दमय कोश, विज्ञानमय कोशों को जगाया जा सकता है। इसी को पंचकोशि साधना का नाम दिया गया है। इन कोशों के जगने  से  समर्थ सिद्ध पुरुष जैसा लाभ उठाया जा सकता है। गुरुदेव यह भी कहते थे कि मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और प्राण की संयुक्त सूक्ष्म काया स्थूल शरीर से भी असंख्य गुनी सामर्थ्यवान है।

वृहदारण्यकोपनिषद  में एक उपाख्यान आता है जिसका  बहुत ही सरल शब्दों में निम्नलिखित वर्णन किया गया है : 

देवताओं ने वाणी से कहा, “आप हमारे उत्कर्ष का माध्यम बनिए।” सत्यव्रती वाणी ने वरदान दिया और देवता शक्तिशाली हो गए। असुरों ने सोचा इस तरह तो देवता हमें जीत लेंगे। उन्होंने देववाणी को पापविद्ध कर दिया और वह उचित-अनुचित कुछ भी बोलने लगी। परिणामस्वरुप  देवताओं का वह अस्त्र निष्फल हो गया। तब देवताओं ने घ्राण-इन्द्रिय ( सूंघने के शक्ति) से कहा, “तुम हमारी सहायता करो।” श्रेष्ठ ग्राही घ्राण ने देवों की सहायता की और वे बढ़ चले। तब असुरों ने गिराने के लिए घ्राण को पापविद्ध कर दिया और वह शुभ-अशुभ किसी भी गंध को ग्रहण करने लगी। देवताओं का  वह अस्त्र भी निष्फल हो गया और देव गिरने लगे। तब देवता चक्षु (दृष्टि) के पास गए और उनसे सफलता की प्रार्थना की। श्रेयदर्शन का व्रत धारण किए हुए चक्षु देवताओं को समुन्नत करने लगे। तब कुटिल असुरों ने उन्हें भी पापविद्ध कर दिया। और वे उचित-अनुचित कुछ भी देखने लगे, इस बार भी देवताओं की  शक्ति नष्ट हो गई और देव हतप्रभ हो गए। इसी प्रकार असुरों ने कान और मन को भी  पापविद्ध किया और वे भी असहाय हो गये।

अन्ततः दु:खी देवताओं ने “प्राण” का आश्रय लिया। इस बार  असुर उसे पापविद्ध न कर सके,देवता विजयी हुए और असुर हार गए। ( इसी विषय पर संलग्न वीडियो शार्ट अवश्य देखें। )

उपनिषद्कार ने प्रतिपादन किया है कि 

जो इस “प्राण” की रक्षा करता है, वह कभी नहीं हारता और मृत्युंजय बन जाता है।

प्राणों की रक्षा उसी शक्ति  से होती है जिस शक्ति से हमारे अंदर प्राण लाए  यानि ईश्वर। वह शक्ति  हमारे अंदर प्राण डाल  भी सकती है और प्राण निकाल भी सकती है। 

उपरोक्त कथानक में इस तथ्य पर बल डाला  गया है कि “इंद्रियाँ” (Senses) देवशक्तियों से ओत-प्रोत हैं। यदि उन्हें पाप कर्मों से बचाया जाए, केवल कल्याण के लिए ही प्रयोग किया जाए और मनुष्य  श्रेयपथ पर ही चले  तो यह सुनिश्चित है कि इन इन्द्रियों में सन्निहित शक्ति भंडार के सदुपयोग से मनुष्य जीवन-संग्राम के हर मोर्चे पर विजयी हो सकता है। लेकिन  यदि यहीं इंद्रियाँ असंयमी, उच्छृंखल और कुमार्गगामी हो जाएँ तो फिर देवताओं को भी  पराजय का मुँह देखना पड़ेगा। ऐसा माना गया है कि जिस मनुष्य का प्राण प्रबल है, संकल्प अडिग है,वही पापविद्ध किए जाने के असुर षडयंत्र को विफल कर सकता है और पराजय की हर आशंका को निरस्त करते हुए अजर-अमर मृत्युंजय बन जाता है।

“गुरुदेव ने इसी  कथानक का मर्म अपने जीवनक्रम में उतार लिया।” 

पंचकोशी साधना के विषय पर गुरुदेव ने बेहतरीन साहित्य की रचना की है, जिसका डिटेल्ड अध्यन तो अति आवश्यक है लेकिन हम जैसे साधारण मनुष्यों के लिए भी वंदनीय माता जी ने अति सरल भाषा में वर्णन किया है जिसका अमृतपान  हम कल वाले लेख में अपनी माँ के चरणों में समर्पित होकर करेंगें। 

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संकल्प सूची को गतिशील बनाए रखने के लिए सभी साथिओं का धन्यवाद् एवं जारी रखने का निवेदन। आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 11  युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज रेणु बहिन  जी गोल्ड मैडल विजेता हैं। (1)अरुण वर्मा -29  ,(2 )सुमनलता-30 ,(3 )रेणु श्रीवास्तव-50, (4) संध्या कुमार-37, (5) पिंकी पाल-28 (6) नीरा त्रिखा-26 ,(7 ) सुजाता उपाध्याय-42 ,(8) चंद्रेश बहादुर-39  , (9 )सरविन्द पाल-43,(10) मंजू मिश्रा-39,(11) पूनम कुमारी-24 सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।


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