वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गुरुदेव पांच शरीरों से कार्य करते थे-पार्ट 1 

30 अक्टूबर 2023  का ज्ञानप्रसाद

आज से आरम्भ होने वाली लेख श्रृंखला की पृष्ठभूमि की चर्चा तो पिछले सप्ताह कर ही ली थी लेकिन जब जुलाई 1997 अखंड ज्योति को आधार बनाकर लिखना आरम्भ किया तो उसमें दो  और Cross reference मिले जिन्होंने गुरुदेव के बारे में जिस ज्ञान का अथाह सागर खोलकर रख दिया उसे शब्दों में वर्णन करना असंभव है। साथिओं को केवल इतना ही कहकर लेख आरम्भ करते हैं कि हमें इतना आर्शीवाद दीजिये कि इस अथाह सागर में से अमूल्य रत्नों  को तराश के आपके समक्ष प्रस्तुत कर पाएं। 

लेख आरम्भ करने से पहले अपने साथिओं का, विशेषकर अनुराधा और पिंकी बेटिओं का धन्यवाद् करते हैं जिन्होंने “साथी हाथ बटाना” वाले गीत को सार्थक करते  संकल्प सूची में 885 आहुतिओं का कीर्तिमान स्थापित किया है। 

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गुरुदेव के निकट संपर्क में आने वाले इस तथ्य को भली-भाँति जानते थे कि वे एक शरीर रहते हुए भी पाँच शरीरों जितना एवं  भिन्न-भिन्न प्रकार के पाँच कार्यों का संपादन एक साथ ही करते रहते थे। यह सब कैसे हो पाता था, इस रहस्य का पता लगाने वाले  व्यक्ति को यही कहकर चुप होना पड़ा कि इतना काम पाँच शरीरों, पाँच व्यक्तियों द्वारा ही किया जा सकना संभव है। ऐसा कहकर चुप रहना पड़ता  है कि यदि 10 घंटे प्रतिदिन  कठोर श्रम का अधिक से अधिक हिसाब लगाया जाए तो  एक व्यक्ति एक शरीर से तो इतना काम कभी भी नहीं कर सकता।

ऐसा कहा जाता है कि गुरुदेव पाँच शरीरों से जीते थे। कई घटनाक्रम ऐसे मिले हैं जिनसे ज्ञात होता है कि जिन तिथियों में वे किसी एक स्थान पर थे उसी समय अपनी लीला कहीं और भी, किसी को परामर्श देने के रूप में एवं कहीं प्रवचन देने के रूप में दिखा रहे थे। गुरुदेव  एक दिखते  हुए भी पाँच थे।  परम वन्दनीय माताजी को गुरुदेव की अभिन्न सहचरी होने का सौभाग्य मिला है, अखंड ज्योति नवंबर 1971 में “अपनों से अपनी बात” के अंतर्गत  माताजी लिखती हैं : 

“मैं नहीं जानती कि इन घटनाओं में कितनी सच्चाई थी,लेकिन  इतना अवश्य कह सकती हूँ कि  गुरुदेव  जीवन भर पाँच शरीरों के बराबर का कार्य, भिन्न-भिन्न प्रकार के पाँच कार्यों का सम्पादन एक साथ किया करते थे। उनके स्थूल शरीर की उपलब्धि देखकर विश्वास ही नहीं होता  कि एक व्यक्ति अकेला एक शरीर से इतना काम भी कर सकता है।”

परम पूज्य गुरुदेव के पांच स्थूल शरीर कौन से हैं उसे जानने से पहले यह जानना आवश्यक है एक ही शरीर से पांच गुना कार्य लेने के लिए क्षमता कहाँ से आती है ? क्या हर कोई ऐसी क्षमता का स्वामी बन  सकता है ? क्या यह ईश्वरीय अनुदान के कारण ही संभव है ? 

तो आइए इन प्रश्नों के उत्तर समझने का प्रयास करें।    

परमपूज्य गुरुदेव के जीवन की हर श्वास गायत्री महाशक्ति को अर्पित थी। जीवन भर गुरुदेव  इसी के लिए संघर्ष करते रहे कि गायत्री महामन्त्र जन-जन तक पहुँच जाए। इसके लिए उन्हें प्रतिकूलताओं से, कट्टरवाद से कितना टकराना पड़ा है, यह सभी जानते हैं। गायत्री उन्हें सिद्ध थी। जीवन के “दृश्यमान स्वरूप” का पर्दा गिराना, स्थूल शरीर के पंचतत्वों में विलीन होने के रूप में उन्होंने  गायत्री जयन्ती का दिन ही क्यों चुना, यह मात्र एक संयोग नहीं, एक सुनियोजित जीवन-साधना है। पंचमुखी गायत्री के पंचकोशों को पूज्य गुरुदेव ने जाग्रत कर अपने जीवन में उनका न केवल साक्षात्कार किया, बल्कि अनेकों  को भी इस महासाधना  का मार्ग दिखा गए। 

वंदनीय माता जी लिखती हैं कि गुरुदेव के जीवन दर्शन की चर्चा, उनकी स्तुति प्रशस्ति के लिए नहीं, बल्कि  इसलिए करनी पड़ रही है कि उसे “आधुनिक परिस्थितियों में आत्म विकास का सर्वश्रेष्ठ प्रमाणित और प्रत्यक्ष शास्त्र” जाना  जा सके ।” गुरुदेव का इस धरती पर अवतरण ही इसलिए कराया गया था  कि मज़ाक और भ्रम से भरे हुए आधुनिक युग के  “तथाकथित अध्यात्म” की निरर्थकता का  निराकरण किया जा सके। इस तथाकथित अध्यात्म ने आधुनिक जनमानस में जो अश्रद्धा और अविश्वास का वातावरण प्रस्तुत कर दिया है, उस पर अनेकों प्रश्नचिन्ह लगे हुए हैं जिनका निवारण करना बहुत ही महत्वपूर्ण है। 

आत्मशोधन (Self-refinement)  की तपश्चर्या से अपना उद्धार स्वयं  करने के राजमार्ग को छोड़कर जो स्वल्पकाल (Short period ) में स्वल्पश्रम (Little hard work) से अपरिमित (Unexpected, unlimited ) लाभ पाने के लिये अधीर हो उठे लोग  हैं, जो  ऐसे जादू भरे तंत्र-मंत्र ढूंढ़ते हैं, जिनके आधार पर वे मनचाहे लाभ प्राप्त कर सकें।  ऐसे शॉर्टकट वाले लोगों को  यह नोट कर लेना चाहिए कि बहुमूल्य वस्तुएँ उचित मूल्य चुकाने पर ही मिलती हैं। असली हीरे की अंगूठी 10  पैसे की नहीं मिलती। यदि मिलती हो तो समझ लेना  चाहिए कि नकली है और बेचे जाने पर उसकी एक भी  पाई वसूल न होगी। जादू की तरह तुर्त-फुर्त चमत्कार दिखाने  वाले, भटकने वाले लोगों को गुरुदेव यह बताना चाहते हैं कि सिद्धियों और विभूतियों का  गरिमा और महिमा का राजमार्ग आत्मशोधन और आत्म निर्माण की चाल से चले बिना पूरा नहीं हो सकता। कोई सीधी पगडंडी ऐसी नहीं है, जो देवता, मंत्र, गुरु या संप्रदाय का पल्ला पकड़ने से चुटकी बजाते  ही परम लक्ष्य तक पहुँचा दे । 

“अध्यात्म एक क्रमबद्ध विज्ञान है जिसका सहारा लेकर कोई भी व्यक्ति उसी तरह लाभान्वित हो सकता है” 

जिस तरह बिजली, भाप, आग आदि की शक्तियों का विधिवत् प्रयोग करके अभीष्ट प्रयोजन पूरा किया जाता है।

ऐसी धारणा  है कि किसी समर्थ मार्गदर्शक, देवता या मंत्र की कृपा से अद्भुत शक्तियाँ मिलती हैं और साधना से चमत्कारी आत्मिक प्रगति का अवसर मिल जाता है। यदि यह तथ्य सच हो तो भी उसके मूल में व्यक्ति की “पात्रता” वाली शर्त अनिवार्य रूप से जुड़ी रहती है। गुरुदेव ने उसी गायत्री मंत्र की उपासना की, जिसे संध्यावंदन के समय आमतौर से सभी धर्मप्रेमी हिंदू जपा करते हैं। उनका भी इष्ट वही सविता देवता था जिसे उपासना करने वाले अनेकों साधक  नित्य जल चढ़ाते और प्रणाम करते हैं, लेकिन  समर्थगुरु तो गुरुदेव को ही  मिले। ऐसा नहीं कि यह पृथ्वी सिद्ध पुरुषों से वंचित  हो गयी है। यह भी निश्चित है कि समर्थ गुरुओं का द्वार सभी के लिए खुला पड़ा है। बादल तो हर  स्थान पर  बरसते रहते हैं। तालाब लाखों मन पानी जमा कर लेते हैं लेकिन  पत्थर की चट्टान पर एक बूँद भी नहीं ठहरती । सूर्य सबके लिये गर्मी, रोशनी लेकर उदय होता है लेकिन  जिसने अपनी खिड़की, दरवाजे बंद कर रखें हैं, उसे सूर्य देवता कहाँ लाभ पहुँचा पाते हैं। मंत्र और देवताओं में कोई शक्ति न हो, साधना-उपासना का कोई परिणाम न निकलता हो, ऐसी बात नहीं है, बात है तो केवल  पात्रता की । अधिकारी के पास उपयुक्त साधन अनायास ही खिंचते चले आते हैं। फूल के पास कितनी ही मधुमखियां और भँवरे  बिना बुलाए ही मंडराने लगते हैं। चुम्बक अपने समीपवर्ती लोह-कणों को सहज ही खींच लेता है। 

“साधक की पात्रता में ही चमत्कार भरा रहता है, जिसके आधार पर मंत्रदेवता और सहायक को सहज ही द्रवित होकर अभीष्ट सामर्थ्य प्रदान करने का वरदान देना पड़ता है।”

गुरुदेव ने सारा जीवन गायत्री महामंत्र के माध्यम से ऋतंभरा प्रज्ञा और ब्रह्मवर्चस्व की साधना की। इन तत्वों को वे आत्मदेवता में ही समाविष्ट मानते थे। गुरुदेव कहते थे कि सबसे निकट  तपोवन अपना अन्तःकरण ही है, इसी अंतःकरण में एक ब्रह्मचेतना को पहचानने का प्रयत्न किया जाता है, यह प्रयत्न ही सच्ची साधना है। विश्वव्यापी देवसत्ता का प्रतिनिधित्व अपनी अन्तःचेतना करती है, अगर इस देवसत्ता को  मना लिया जाए, उठा लिया जाए, तो फिर इस संसार की कोई ऐसी वस्तु शेष नहीं रह जाती जो प्राप्त न की जा सके। ईश्वर के राजकुमार (मनुष्य) के लिए अपने पिता की हर संपदा का अधिकार सहज ही प्राप्त है। पात्रता के उपयोग के प्रयोजन की उत्कृष्टता सिद्ध करके कोई भी विभूतियों के विशाल भंडार में से कुछ भी प्राप्त कर सकता है, ऐसा गुरुदेव का  विश्वास था और अपने बच्चों को भी  ऐसा ही बताते  रहते थे। 

परम वंदनीय माता जी बताती हैं कि गुरुदेव की साधना पद्धति को जितना मैंने देखा,समझा, है, इतना अवसर शायद ही और किसी को मिला हो।  

परम पूज्य गुरुदेव 24 वर्ष तक हर वर्ष 24 लक्ष का गायत्री महापुरश्चरण  करते रहे। सर्वसाधारण को इस संदर्भ में केवल इतनी ही  जानकारी है कि वह प्रतिदिन 6  घंटा बैठकर 11 माला प्रति घंटा के हिसाब से प्रतिदिन  66 माला का गायत्री जप करते थे। परम सात्विक 5  मुट्ठी आहार पर निर्भर रहते तथा अनुष्ठानकाल में प्रयुक्त होने वाले बंधन प्रतिबंधों का कठोरता से पालन करते थे। 

यह तो उनकी स्थूल और दृश्य साधना थी। जितना देखा जा सके मोटे तौर से उतना ही तो समझा जा सकता है। उनकी बाहरी  उपासना में इतना ही दिखता  था, इसलिए  समझने वाले उतना ही समझ सकते थे।  लेकिन गुरुदेव की  साधना  इन क्रियाकलापों तक ही सीमित नहीं थी बल्कि काया के कर्मकाण्डात्मक क्रियाकलापों से बहुत आगे बढ़कर मन और प्राण की, सूक्ष्मशरीर और कारणशरीर की परिधि प्रवेश कर गई थी।

गायत्री की उच्चस्तरीय साधना में अन्नमय, प्राणमय, आनन्दमय, विज्ञानमय एवं मनोमय  पांच कोश जागरण  की विधि-व्यवस्था है। पंचकोशी साधना के  कर्मकांड और विधिविधान का विवरण तो अनेकों स्थानों पर मिल सकता है लेकिन गुरुदेव की अतिनिकटवर्ती सहचरी होने के कारण मैं इतना कह सकती हूँ कि उन्होंने अपनी पाँचों इन्द्रियों और पांचों मनः संस्थानों का परिष्कार (refinement)  करने में अथक परिश्रम किया था और निरन्तर यह प्रयत्न किया था कि इन दसों देवताओं (पांच इन्द्रियां, पांच मन संस्थान ) को विनाश के मार्ग पर एक इंच भी गिरने न  दिया जाए, बल्कि पवित्रता और प्रखरता के पथ पर ही अग्रसर रखा जाए। इस प्रकार अन्तरंग की देव शक्तियों को परिमार्जित कर उन्होंने “देवता, मंत्र और गुरु”, तीनों  का अनुग्रह प्राप्त किया और उन पाँच शक्तिकोशों को जागृत करने में सफल हो गए, इन्ही शक्तिकोशों  को  अद्भुत ऋद्धि सिद्धियों का केन्द्र माना जाता है।

अपनी उच्चस्तरीय गायत्री साधना के माध्यम से आत्मदेव को सजग बनाकर गुरुदेव ने  क्या पाया, इसकी अविज्ञात उपलब्धियाँ इतनी अधिक और इतनी अद्भुत हैं कि उन पर सहसा किसी को विश्वास नहीं हो सकता। इस साधना से प्राप्त हुई सिद्धियों को आज प्रमाणित न किया जाए , उन पर अभी पर्दा पड़ा रहना ही उचित है। समय आने पर सभी अविज्ञात/विज्ञात तथ्य  प्रमाणित होंगे, उस समय  यह बात और भी अधिक स्पष्ट हो जाएगी कि इस संसार का, इस मानव का सर्वोपरि पुरुषार्थ आत्मसाधना के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। अभी तो उन सर्वविदित विशेषताओं को दुहरा देना ही पर्याप्त होगा जो सिद्धियों की दृष्टि से आकर्षक ही नहीं अद्भुत भी हैं।

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संकल्प सूची को गतिशील बनाए रखने के लिए सभी साथिओं का धन्यवाद् एवं निवेदन। आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 17  युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज अरुण जी  गोल्ड मैडल विजेता हैं, उन्होंने लगभग शतक बना लिया है। रेणु बहिन जी ने डबल स्कोर किया है।  

(1)अरुण वर्मा -93 ,(2 )सुमनलता-42 ,(3 )रेणु श्रीवास्तव-29,34  (4) संध्या कुमार-68  , (5) पिंकी पाल-39 (6 ) नीरा त्रिखा-48 ,(7 ) सुजाता उपाध्याय-44 ,(8) चंद्रेश बहादुर-77 , (9 )प्रेरणा कुमारी-28,(10) सरविन्द पाल-42,(11) संजना कुमारी-26,(12)मंजू मिश्रा-35,(13) पूनम कुमारी-26,(14) पुष्पा सिंह-26,(15) साधना सिंह-25,(16) अनुराधा पाल-26, (17 )वंदना कुमार-33     

सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।


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