वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गुरुदेव की हिमालय यात्रा में चेतना के चतुर्थ आयाम के अंतर्गत दृश्य-पार्ट 2 

24 अक्टूबर 2023 का ज्ञानप्रसाद

कल रात के शुभरात्रि सन्देश में एक बार फिर से गुरुदेव का “नियमितता का आदेश”   स्मरण कराया गया था। इस सन्देश में गुरुवर ने नियमितता को ऐसे समझाया था जैसे किसी अबोध शिशु  को समझाया जाता है। इसी तरह का एक और शुभरात्रि सन्देश  बनाया है जो आज रात को पोस्ट होगा। 

जहाँ हम विजयदशमी के महान त्यौहार पर परिवारजनों की सुख समृद्धि का कामना करते हैं वहीँ पर आशा करते हैं कि पारिवारिक व्यस्तता में अवश्य ही कुछ सुधार होगा, हम ज्ञानप्रसाद के प्रति सक्रियता का करबद्ध निवेदन करते हैं। 

आज प्रस्तुत किया गया ज्ञानप्रसाद, “चेतना के चतुर्थ आयाम” का  दूसरा पार्ट है, कल इस complex विषय के समापन की सम्भावना है। आज के लेख में गुरुदेव की अपनी  मार्गसत्ता के साथ नंदनवन-गोमुख-तपोवन क्षेत्र की यात्रा का वर्णन है। दादागुरु ने स्वयं बताया कि यह “चेतना के चतुर्थ आयाम” के दृशय हैं। इन्हें  केवल सिद्ध आत्माएं ही देख  सकती हैं। 

हमारे साथिओं ने नोटिस किया होगा कि यूट्यूब पर limited editing tools के कारण महत्वपूर्ण कंटेंट को केवल quote/unquote (“ ”) से ही दर्शाया जाता  है,हमारी वेबसाइट पर लाल रंग से हाईलाइट किया गया है।

तो आइये गुरुकुल कक्षा की ओर  रुख करें। 

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यह दिव्य क्षेत्र आज भी “सप्तऋषियों” एवम अनगनित  तपस्वियों, की तपोभूमि बना हुआ है। यहाँ पर  “18,000 विशिष्ट” आत्माएँ लोककल्याण एवं सृष्टि-संचालन के लिए तप में संलग्न हैं। यहीं पर पहले कभी व्यास जी ने 18 पुराण लिखे थे। आदि गुरु शंकराचार्य ने लगभग  सभी भाष्य यहीं बैठकर लिखे। वैदिक भारत में प्राचीन ऋषियों द्वारा आर्ष साहित्य का सृजन यहीं हुआ । चिरअतीत से भारत की आध्यात्मिक परम्पराओं का सूत्र संचालन यहीं से होता रहा है। शिव-पार्वती का, देवसेना का निवास यहीं है, यह केवल प्राचीन मान्यता नहीं बल्कि दिव्यदर्शियों के लिए सत्य है। आध्यात्मिक एवं ऐतिहासिक स्तर पर इस भूमि की अपनी महत्ता है। जो साधन कहीं  स्थान पर  देर में सफल होते हैं, इस उपजाऊ  भूमि में जल्दी उगते और फलते-फूलते हैं।

1927 की पहली  हिमालय यात्रा के समय गुरुदेव की आयु मात्र 16-17 वर्ष थी, उस समय  के प्रसंगों की चर्चा करते हुए परम पूज्य गुरुदेव ने वन्दनीय माताजी से कभी कहा था: 

शायद यही कारण रहा होगा कि 8  वर्ष की आयु में घर से हिमालय भागने की धुन सवार हुई थी । 

माता दानकुँवरि इंटर कॉलेज  आंवलखेड़ा के विद्यार्थिओं ने अपनी लघु नाटिका में  इस दिव्य घटना का बखूबी से  चित्रण किया है। इस चित्रण को देखने के लिए हमारे चैनल पर अपलोड हुई वीडियो के इस लिंक को क्लिक किया जा सकता है।

जिन श्वेत शिखरों को गुरुदेव अपने स्वप्नों में देखते आए थे,जब प्रतक्ष्य रूप से देखने, छूने, अहसास करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो वे भावविह्वल हो गए। यात्रा की अनेक कठिनाइयों को पार करते हुए उन्होंने तपोवन पार किया। आगे पहाड़ियों की ऊँची श्रृंखला शुरू होती थी। उस श्रृंखला को पार कर आगे जाना था। 

जिन दिनों का यह विवरण है, उस समय GPS की तो बात ही छोड़ दें ,नक़्शे भी पूरी तरह develop  नहीं हुए थे, लेकिन गुरुदेव को बिल्कुल  भी नहीं महसूस हुआ कि यह कोई नई अनजान जगह है। उन्हें कहीं पर भी यह  नहीं लगा कि कहीं  भूल-भटक जाएँगें । अन्तः-प्रेरणा इस तरह मार्गदर्शन करती रही, जैसे यह रास्ता पहले से ही देखा हुआ हो। 

तपोवन से आगे की पहाड़ियों की श्रृंखला समाप्त हुई। गोमुख तक तो कुछ साधु-सन्त मिलते गए लेकिन उसके आगे का क्षेत्र सर्वथा जन-शून्य था। जो मिले उनमें  एक “महात्मा रघुनाथ दास” थे, वे अन्न नहीं लेते थे। गर्मी पड़ती तो उस क्षेत्र में हरे पत्ते मिल जाते, उन्हीं से निर्वाह करते । सर्दी में जब वनस्पतियाँ मुरझाने लगतीं, तो वे इन रूखी पत्तियों को आलू के साथ मिलाकर वर्षों से अपना काम चला रहे थे। उन्होंने गुरुदेव को बताया कि रास्ते में मिलने वाले पत्तों और फलों को बिना समझे-बूझे चखने की जरूरत नहीं, कई बार स्वाद में कोई पत्ता या फल मधुर या सुस्वादु लगने पर भी मुसीबत खड़ा कर सकता है, हो सकता है वह विषैला ही हो ।

आगे एक संन्यासी “स्वामी तत्वबोधानन्द” मिले। वे सर्दी हो या गर्मी, खुले में ही रहते थे  कुटिया बना रखी थी, लेकिन उसका इस्तेमाल कम ही करते थे। कभी-कभार कोई भूला-भटका आ जाता तो दयावश उसे ठहरा देते। स्वामी जी की  तपस्या एवं सदाशयता की सराहना करते हुए गुरुदेव आगे बढ़ गए। तपोवन के आगे “गंगा ग्लेशियर” से सटे हुए गौरी सरोवर पहुँचकर पूज्य गुरुदेव किन्हीं अनजानी स्मृतियों में खोने लगे। उन्हें ऐसा लगा जैसे वे यहाँ पहले भी कई बार आ चुके हैं। लेकिन फिर चेतन मन ने कहा कि हिमालय क्षेत्र की यह पहली यात्रा है। सरोवर की सुन्दरता निहारते हुए वे आगे बढ़े और चलते हुए नन्दनवन कब आ गया, कुछ पता ही न चला। 

वहाँ पहुँचकर उन्हें ऐसा अनुभव हुआ, जैसे रोमांच से किसी ने पर्दा हटा दिया हो। अभी एक कदम दूर जिनके संकेत-चिन्ह तक नहीं दिखाई देते थे, वहीं विलक्षण दृश्य दिखाई दे रहे थे।

“इस विलक्षणता का विवरण  निम्नलिखित पंक्तियों में वर्णन करने का प्रयास किया है”: 

पूरी घाटी में वेदमन्त्र गूंज रहे हैं, कहीं-कहीं यज्ञ का दिव्य धुआं भी उठ रहा है। शास्त्रों एवं ग्रन्थों में वर्णित ऋषियों एवं देवताओं के दृश्य साकार हो गये। पलक झपकते ही प्रस्तुत हुआ यह दृश्य मायावी लग रहा था। आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। ऐसा भी नहीं था कि स्वप्न देख रहे हों। अब तक सम्पन्न हुई यात्रा की छोटी-से-छोटी बात याद थी। जाँचने के लिए एक बार पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि झील में वैसी ही लहरें उठ रही थीं और पानी हिलोरें ले रहा था। मन्त्र ध्वनि तब भी कानों में गूँज रही थी । नन्दनवन की ओर फिर मुड़े तो वैसा ही यज्ञ धूम्र यहाँ-वहाँ उठ रहा था। हवन कुण्ड में अग्नि की ज्वालाएँ भी उठ रही थीं।

अभी वह समझने के लिए बुद्धि पर ज़ोर  डाल ही रहे थे कि  “सुदीर्घ दिगम्बर काया” यानि लम्बी चौड़ी नग्न आकृति प्रकट होती दिखाई दी। यह आकृति उन्ही दादागुरु की थी,उसी मार्गसत्ता की थी  जिन्हें गुरुदेव ने पिछले वर्ष (1926) अपनी पूजास्थली में  देखा था। गुरुदेव के  भक्तिपूर्ण प्रणाम के उत्तर में दादागुरु के  होठों पर मन्द सी मुसकान फैल गई। गुरुदेव के आश्चर्य  का निराकरण करते हुए दादागुरु ने कहा:

विश्राम आदि के पश्चात् अगले दिन परमपूज्य गुरुदेव अपने मार्गदर्शक के साथ चेतना के चतुर्थ आयाम में दृश्य, हिमालय के रहस्य की पड़ताल करते हुए आगे बढ़े। इस समय परम पूज्य गुरुदेव एवं दादागुरु साथ-साथ आकाश मार्ग से जा रहे थे अर्थात  उनका शरीर धरती से पर्याप्त ऊपर था। इसी क्रम में वे उन गुफाओं तक पहुँचे जो वहाँ के सिद्ध पुरुषों की तपस्थली थी। अब ये ऋषिगण अपने सूक्ष्म शरीरों में थे। हालाँकि कुछ ने अपने स्थूल शरीर भी बनाए रखे थे। जिन सन्तों से मुलाकात हुई इनमें से किसी से भी “वैखरी वाणी” में बातचीत नहीं हुई। जो भी बात हुई वह सिर्फ परावाणी में। 

आइए परावाणी के बारे में भी संक्षिप्त रिसर्च कर लें : 

इस ब्रह्मांडमें चार प्रकार की वाणी है । वैखरी , मध्यमा , पश्यंती ओर परावाणी ।

1.वैखरी वाणी  : जो कंठ से ध्वनि द्वारा, शब्द से बोली जाय और कान द्वारा सुनी जाय वो वैखरी वाणी है । मन मस्तिष्क के विचार आवेग को हम शब्दों में व्यक्त करें वह  वैखरी वाणी है । 

2. मध्यमा वाणी : यह ह्रदय का भाव है। दिल से जो मनोभाव होता है और वो हम व्यक्त करते है वो मध्यमा वाणी है। नवजात शिशु की माँ को पुकार, साधक की अपने इष्ट को पुकार  मध्यमा वाणी है। ये व्यक्ति के अंतर्मन  के  भाव संस्कार से प्रेरित है, ह्रदय मध्यमा वाणी का केंद्र है ।

3. पश्यन्ति वाणी : कोई शब्द ध्वनि भी नही ओर कोई भाव भी नही । बस स्वयं ही किसी व्यक्ति का आकर्षण होना या किसी स्थान के प्रति आकर्षण होना । बिना सोचे ओर बात किये स्वयं  ही किसी विषय का  ज्ञात होना पश्यन्ति वाणी है। नाभि ( मणिपुर चक्र ) पश्यन्ति वाणी का  केंद्र है और  नाभि आत्मा का स्थान है ।

4. परा वाणी :   जिनकी आत्मशक्ति जाग्रत हो और ब्रह्मांड की दिव्य शक्तिओं  से स्वयं  ही वार्तालाप हो ये परा वाणी है । मंत्र , तंत्र , पूजा , होम , अनुष्ठान ये सब करते-करते जब साधक की ऊर्जा पूर्ण जाग्रत हो जाय तब साधक परावाणी द्वारा ब्रह्मांड की  शक्तिओं  से जुड़ जाता है । बैंगनी रंग के 1000 पंखुडिओं वाले सहस्र चक्र को ही ब्रह्मरंध चक्र कहते हैं, इसे अंग्रेजी में Crown चक्र कहते हैं। परावाणी का केंद्र इस चक्र से भी  ऊपर होता  है ।

        जिन दिव्य सन्तों का सान्निध्य पर्याप्त समय तक तथा अधिक घनिष्ठ रूप से मिला उनमें से मुनि  गर्ग, ऋषि धौम्य, सन्त पुण्डलिक, बाबा नरहरिदास, जीवानन्द, सिद्धेश्वर गिरि, पवहारी तथा स्वामी कृष्णानन्द प्रमुख थे। इन सबसे मिलकर गुरुदेव को  यह बोध हुआ कि वे भी इसी दिव्य परिवार का अभिन्न अंग हैं। इनके अलावा और भी दो दर्जन से ज्यादा सिद्ध सन्तों का सान्निध्य प्राप्त हुआ। इसी परिचय क्रम में पता चला कि गोविन्दपाद वही है जिन्होंने शंकराचार्य को समर्थ और योग्य बनाया था। इस परिचय में उन दिनों की स्मृतियों को साकार रूप दे दिया। इसी तरह जीवानन्द अपने में बौद्ध काल की अनुभूतियों को समेटे हुए थे। सबसे ज्यादा स्थूल और घनीभूत सान्निध्य स्वामी कृष्णानन्द से मिला। सामान्यजन के लिए प्रायः मौन रहने वाले कृष्णानन्द गुरुदेव के लिए पर्याप्त मुखर थे। अखण्ड-ज्योति के पाठक जानते ही होंगे कि इन्हीं स्वामी कृष्णानन्द ने महामना मालवीय जी के आग्रह पर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की आधारशिला रखी थी।

शेष कल। 

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संकल्प सूची को गतिशील बनाए रखने के लिए सभी साथिओं का धन्यवाद् एवं निवेदन। आज की 24 आहुति संकल्प सूची में केवल 6 ही युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज सुजाता बहिन जी  गोल्ड मैडल विजेता हैं। (1)संध्या कुमार-31,(2 )रेणु श्रीवास्तव-24,(3 ) सरविन्द पाल-24 ,(4 ) नीरा त्रिखा-24,(5 ) सुजाता उपाध्याय-46 ,(6 ) चंद्रेश बहादुर- 24 सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।


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