वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गुरुदेव की हिमालय यात्रा में चतुर्थ आयाम के दृश्य -पार्ट 1 

23 अक्टूबर 2023 का ज्ञानप्रसाद

सभी साथिओं के नवमी की हार्दिक शुभकामना। 

आदरणीय सुमनलता बहिन जी के साथ ही अनेकों साथिओं ने आज के ज्ञानप्रसाद के प्रति बहुत ही आशाएं बाँधी हुई हैं, उन्हें लग रहा है कि कुछ ऐसा प्राप्त होने वाला है जिससे वोह बिल्कुल अनभिज्ञ हैं। साथिओं की आशाओं पर उतर पाना हमारे लिए  एक चुनौती ही होती है। 

पिछले लेख में हमने चतुर्थ आयाम (Fourth dimension),  को समझने का प्रयास किया था, इसकी सहायता में हमने third eye और sixth sense जैसे शब्दों का प्रयोग भी किया था, विषय चाहे कठिन था लेकिन बहुतों ने समझ भी लिया था। 

यह तो हम सबको  मालूम है कि 1926 की वसंत पंचमी को परम पूज्य गुरुदेव का दादा गुरु से आंवलखेड़ा के उपासना गृह में साक्षात्कार हुआ था लेकिन गुरुदेव ने जो कुछ भी देखा था,एक “असाधारण शक्ति” की सहायता से ही देखा था, अगर उस समय ताई जी (गुरुदेव के माता जी) उस कोठरी में होते तो शायद उन्हें वोह न दिखता जो गुरुदेव ने देखा।  इस असाधारण शक्ति को ही चतुर्थ आयाम के अंतर्गत देखा जा सकता है। 

बहिन सुमनलता जी ने “सोपान” शब्द का प्रयोग किया था, जिसका अर्थ steps, सीढ़ियां  होता है। बुद्धि यां चेतना के स्तर भी कुछ इसी तरह के steps होते हैं।  

चेतना को इंग्लिश में consciousness कहते हैं, मोटे तौर पर चेतना के तीन स्तर, तीन steps होते हैं, 1. चेतन (Conscious), 2.अवचेतन(Subconscious) और 3. अचेतन यानि बेहोश  (Unconscious)

साधारण मनुष्य के लिए वही सब कुछ है जो उसे चेतन मन से सामने दिख रहा है। वह सड़क पर तब तक चलता  रहेगा जब तक नदी की शक्ल में स्पीड ब्रेकर नहीं आ जाता। ऐसा इसलिए है कि उसकी चेतना (बुद्धि,शक्ति) उस स्तर की नहीं है की वह पानी के ऊपर चल सके। पानी पर केवल सिद्धपुरुष ही चल सकते हैं। साधारण मनुष्य से सिद्धपुरुष तक पहुँचने  लिए “साधना” की आवश्यकता होती है। मनुष्य  की मात्र 10 प्रतिशत शक्ति ही चेतन होती है, 90 प्रतिशत तो अवचेतन, subconscious होती है। जिन्होंने ने भी जीवन में कुछ उच्च उपलब्धियां प्राप्त की हैं, इस 90 प्रतिशत शक्ति  को केंद्रित करके ही पायी हैं।

“चेतना की शिखर यात्रा” मात्र एक पुस्तक सीरीज का टाइटल नहीं है, इसके अंदर का कंटेंट हमें उन अदृश्य घटनाओं की यात्रा कराता है जिन्हें  बिल्कुल  ही अविश्वसनीय कहा जा सकता है। 

कहने को तो आज के लेख में भी हिमालय क्षेत्र को कठिन, अगम्य बताया गया है जहाँ कभी न गलने वाली बर्फ,ऊँचाई में आक्सीजन की कमी, रास्तों का न होना, निर्वाह की सभी आवश्यकताओं का पूर्णतया अभाव बताया गया है, जहाँ “चेतना दिव्यशक्तियों” की तीखी ब्रह्माण्ड किरणें साधारण मानव के मार्ग में रुकावटें डालती हैं तो फिर मानव कैसे वहां पहुँच रहा है ? इसका सरल उत्तर तो यही है कि पँहुचने  को तो कोई भी पँहुच जाए लेकिन रहस्यों की जानकारी केवल सिद्ध योगियों को ही  हो सकती है। 

यही है आने वाले लेखों का crux, जिन्हें चेतना के स्तर पर “जीना” उचित होगा क्योंकि स्थूल angle से यह घटनाएं तो हम बार-बार पढ़ ही चुके हैं। 

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हिमालय ऐसा दिव्यलोक है, जो पृथ्वी पर होते हुए भी सभी देवताओं की भ्रमण स्थली है। सभी ग्रहों और लोकों के निवासी यहाँ सहज विचरण करते हैं। यहाँ के रहस्यों और आश्चर्यों का पार नहीं हैं। सूक्ष्म शरीरधारी ऋषियों, मुनियों, दीर्घकाल तक देह धारण करने वाले सिद्धों की अलौकिक लीलाएँ यहाँ के कण-कण में बिखरी हैं। परम पूज्य गुरुदेव ने ऐसे “रहस्य लोक हिमालय” से असीम प्यार को अपने संस्कारों में सँजोया था । जन्म-जन्मान्तर के संस्कार, मनुष्य के विचारों, प्रवृत्तियों एवं कर्मों में सहज अनुभूत होते हैं और जैसे संस्कार होते हैं,मनुष्य उन्ही के अनुरूप बनता जाता है, ढलता जाता है और निरंतर आगे बढ़ता जाता है। उन्ही संस्कारों से मिल रही प्रेरणा मनुष्य को वैसा कर गुजरने के लिए आतुर करती रहती है। 

गुरुदेव में भी बचपन से कुछ ऐसी ही आतुरता और उतावली थी। उनके मन में उमंगें उठती रहती थी। बाल्यकाल में जब बच्चों के  खेल-कूद के दिन होते हैं उनका मन हिमालय में ही बसा था। इन्ही संस्कारों से प्रभावित एक घटना, जिसकी चर्चा  अनेकों स्थानों पर हो चुकी है, बहुत ही संक्षेप में निम्लिखित प्रस्तुत है : 

जिस दिन की घटना  का वर्णन यहाँ किया जा रहा  है, उस समय गुरुदेव की आयु मात्र 8  वर्ष की होगी। बालक श्रीराम अनायास ही  घर से निकल गये। काफी समय तक उनके अभिभावकों ने जब इधर-उधर, घर के आस-पास गुरुदेव को नहीं देखा तो उन्हें  चिन्ता हुई। पूज्यवर की माताजी, जिन्हें गुरुदेव  ताईजी कहते थे, अपने श्रीराम को न पाकर बिलख पड़ीं। बहुत ढूंढने  के बाद उन्हें गाँव से 5-6 मील दूर एक रेलवे स्टेशन से पकड़ा जा सका। पूछने पर उस समय तो गुरुदेव ने इतना ही कहा :  

मात्र 8 वर्ष के बालक के मुँह से निकली हुई यह बात उनकी खोज करने वालों को महत्वहीन लगी, उन्हें धमकाया गया और घर आने पर जब ताईजी ने बालक श्रीराम को फुसलाते हुए पूछा, तब उन्होंने बताया : 

बालक श्रीराम की बच्चों जैसी बातें सुनकर ताईजी को अहसास हो गया कि मेरा बेटा  हिमालय के दिव्य सन्तों का अभिन्न सगा सम्बन्धी है जो वहाँ जाने, उनसे मिलने की लटक  लगाए हुए हैं।

परम पूज्य गुरुदेव अपने बाल्यकाल में तो  हिमालय नहीं जा सके, लेकिन  उनके सपनों और अनुभूतियों में “देवात्मा हिमालय” अवश्य ही अपनी मनोरम आभा बिखेरता रहता । हिमालयवासी सिद्धों-सन्तों की आत्माएँ उन्हें अपने अपनत्व एवं प्यार से तब तक अप्रतक्ष्य रूप से भिगोती रहीं जब तक वर्ष 1926 के वसंत वाले दिन  दिव्य मिलन की घड़ी न आ गयी। वसंत के उस पावन दिन जब वह पुण्य घड़ी आई तो ऐसी अनुभूति हुई कि हिमालय के जिन रहस्यों ने जन्म से ही गुरुदेव के  मन मस्तिष्क में उथल पुथल मचाई थी, वह आज उनके  ही आंवलखेड़ा स्थित घर, उनकी ही पूजा कोठरी  में घनीभूत हो उठे।  गुरुदेव उस समय 15 वर्ष पार करके 16वें वर्ष  में पदार्पण कर रहे थे। गुरुदेव ने अपने उपासना गृह में एक  दिव्य प्रकाश देखा, जो बाहर से घनीभूत होता हुआ उनके शरीर, मन और अन्तःकरण में समा गया। गुरुदेव को इस दिव्य प्रकाश से जो  प्राप्त हुआ, उसे आत्मबोध, अन्तःस्फुरणा, दिव्य अनुग्रह, गुरुदर्शन, आन्तरिक दिव्यता या और  कुछ भी  कहा जा सकता है। परम पूज्य गुरुदेव का किसी हिमालय निवासी, किसी अलौकिक सत्ता से प्रत्यक्ष रूप से यह  “प्रथम परिचय” था। इस प्रथम परिचय से पहले तक उन्हें  हिमालय के सन्तों की संगति स्वप्नों में ही  मिलती थी। 

उसी दिन गुरुदेव को  यह बताया गया कि भौतिक रूप से इस दिव्य सत्ता का निवास उस प्रदेश में हैं, जिसे “चेतना का ध्रुव प्रदेश या हिमालय का हृदय” कहा जाता है। यह दिव्य सत्ता  स्थूल भी हैं और  सूक्ष्म भी। उपासना गृह में दिख रहा “स्थूल प्रकाश” एक ऐसे सिद्धपुरुष का शरीर हैं जो चिरकाल से नग्न, मौन, एकाकी, निराहार रह कर अपने अग्नि जैसे  अस्तित्व को अधिक से अधिक  प्रखर एवं  प्रचण्ड बनाते चले जा रहे हैं। प्रकाशपुंज रुपी गुरुदेव सर्वेश्वरानन्द जी, जिन्हें गायत्री परिजन दादा गुरु के नाम से  जानते हैं, वे हिमालय की दिव्य विभूतियों में से एक हैं। यहाँ हम उस देवात्मा हिमालय की बात कर रहे हैं  जो देखने में  तो  निर्जीव और जड़ मालूम पड़ता है लेकिन उसकी “चेतना और प्रेरणा अद्भुत हैं।” अपनी पुरश्चरण श्रृंखला के बीच में ही गुरुदेव को पहली बार हिमालय यात्रा का सौभाग्य प्राप्त हुआ। चिरकाल से जिसे वे अपने स्वप्नों में देखते रहते थे, उसे साक्षात् देखकर उनकी व्याकुलता का ठिकाना न रहा। गुरुदेव को  ऐसा अनुभव हुआ  मानो कैलाशपति शंकर ने स्वयं “पर्वत का आकार” धारण कर लिया हो। दादा गुरु  ने हिमालय की  दिव्यता का स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि पृथ्वी की भौतिक शक्तियों का शक्ति केन्द्र इसी  ध्रुव प्रदेश में सन्निहित हैं। ब्रह्माण्ड के सुर्य की शक्तियाँ पृथ्वी में ध्रुव प्रदेश के माध्यम  से आती हैं। ठीक उसी प्रकार दिव्यलोकों की चेतना-शक्तियाँ पृथ्वी पर यहीं अवतरित होती हैं। जहाँ हिमालय का हृदय अवस्थित हैं, यहीं से सर्वत्र बिखर जाती हैं। दादा गुरुदेव ने उन्हें बताया “यही चेतना का ध्रुव केन्द्र हैं।” ऐतिहासिक दृष्टि से धरती का स्वर्ग यहीं था। इसे बद्रीनाथ और गंगाजी का मध्यवर्ती अधिक ऊँचाई का, तिब्बत का समीपवर्ती भाग कहना चाहिए। देवताओं का निवास स्थान सुमेरु यहीं हैं। पाण्डव स्वर्गारोहण के लिए यहीं गये थे। असली कैलाश मानसरोवर वोह  नहीं जो चीन में चले गए बल्कि वोह  हैं जो गंगा के उद्गम गोमुख से आगे शिवलिंग पर्वत और दुग्ध सरोवर के नाम से जाने जाते हैं।  फूलों से लदा हुआ नन्दनवन यहीं है। देवता यहीं भ्रमण करते हैं, परन्तु इन दिव्य आत्माओं को केवल दिव्यदर्शी ही प्रत्यक्ष रूप से देख सकते हैं। इस हिमालय के हृदय में न केवल परिस्थितियाँ बल्कि ऐसी शक्तियाँ और आत्माएँ  विद्यमान हैं, जो यहाँ आने वालों को आत्मिक अलौकिकता का भरपूर आभास करा सकें।

सामान्य स्थिति में इस दिव्य शक्तिकेन्द्र तक पहुँच पाना तथा वहाँ ठहर सकना ध्रुव प्रदेशों North and South Poles ,Arctic and Antarctic) से भी कठिन है, कभी न गलने वाली बर्फ और ऊँचाई में आक्सीजन की कमी , रास्तों का न होना, निर्वाह की सभी आवश्यकताओं का पूर्णतया अभाव, यह सब अवरोध तो वहाँ जाने से रोकते ही हैं साथ में  “चेतना दिव्यशक्तियों” की तीखी ब्रह्माण्ड किरणें जो धरती पर फैलने के लिए बरसती हैं, वे भी सामान्य शरीर के लिए सहन नहीं हो पातीं। इसीलिए इस  प्रदेश को न केवल प्रकृति ने बल्कि “हिमालय निवासी दिव्य सन्तों”  की अदृश्य प्रेरणा से सरकार ने भी आवागमन के लिए संपर्क-निषिद्ध ठहराया है। यह स्थान दिव्य सत्ताओं की क्रीड़ास्थली है, सामान्य शरीर लेकर न वहाँ जाया जा सकता है और न ठहरा जा सकता है।

परम पूज्य गुरुदेव की  यात्राओं में से “सर्वाधिक रहस्यमय प्रसंग” उन यात्राओं के मध्य घटित हुए, जब वे हिमालय के हृदय स्थल में पहुँचे। 

इन रहस्यमय प्रसंगों को जानने के लिए हमें कल तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।

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संकल्प सूची को गतिशील बनाए रखने के लिए सभी साथिओं का धन्यवाद् एवं निवेदन। आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 11  युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज  सरविन्द पाल जी डबल प्रमोशन लेकर  गोल्ड मैडल विजेता हैं। (1)संध्या कुमार-46 ,(2 )सुमनलता-32 ,(3 )रेणु श्रीवास्तव-29  ,(4) मंजू मिश्रा-29  ,(5) सरविन्द पाल-25,49,(6 ) नीरा त्रिखा-24,(7) सुजाता उपाध्याय-42 ,(8) चंद्रेश बहादुर-39,(9) अरुण त्रिखा-28,(10) अरुण वर्मा-24,(11) वंदना कुमार-24 

सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।


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