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हिमालय क्षेत्र में विकास के नाम पर होता विनाश-पार्ट 2

18 अक्टूबर 2023 का ज्ञानप्रसाद

आज प्रस्तुत किया गया ज्ञानप्रसाद लेख कल वाले लेख का दूसरा एवं अंतिम पार्ट है। लगातार इतने दिन हिमालय क्षेत्र के चप्पे चप्पे की यात्रा करते हुए, इसकी दिव्यता को अपनी अंतरात्मा में उतारते हुए, माँ प्रकृति के हो रहे  बलात्कार का मूल्यांकन करना भी स्वाभाविक हो जाता है। वैदिक काल से हम शांतिमंत्र का पाठ करते आ रहे हैं,क्या हमें शांति प्राप्त हुई ?

कल वाले लेख में कुछ एक तथ्यों का संक्षिप्त विवरण देने का प्रयास किया था, आज उसी चर्चा को आगे बढ़ाया जा रहा है।    

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Mother Nature -माँ प्रकृति  के सीने पर जब प्रहार होता है, उसका बलात्कार होता है तो उसके बच्चों का खून अवश्य ही खौलता है, यही दशा है ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार  के प्रत्येक समर्पित साथी  की। इतनी सुन्दर दिव्य प्रकृति का सर्वनाश होता  कैसे देखा जाये। 

जल हम सब की बहुत बड़ी आवश्यकता है लेकिन पीने वाला पानी भी बिक चुका है। पहाड़ी क्षेत्रों में 60 से अधिक जल विद्युत परियोजनाएं आपदा के क्षेत्र के आस पास ही संचालित हैं । कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक आज हमारे पर्वत हो रहे  प्राकृतिक दोहन के कारण  कराह रहे हैं । पर्वत  दु:खी हैं, नदियां अपने वेग को असमय रोके जाने से परेशान हैं। मनुष्य द्वारा किए गए इस दोहन से प्रकृति अचम्बे में है, वह नहीं समझ पा रही है कि खुद को स्वतंत्र करें या मानव अस्तित्व के विनाश की ओर अपना कदम बढ़ाए। कब तक प्रकृति हमें सिर्फ चेतावनी देकर छोड़ती रहेगी।

मानव जीवन प्रकृति पर आश्रित है : 

हम सब जानते हैं कि “मानव जीवन प्रकृति पर आश्रित” है। प्रकृति एक विराट शरीर की तरह है। जीव-जन्तु, वृक्ष-वनस्पति, नदी-पर्वत आदि उसके अंग-प्रत्यंग हैं। इनके परस्पर सहयोग से यह विशाल  शरीर स्वस्थ और सन्तुलित रहता  है। जिस प्रकार मानव शरीर के किसी भी एक अंग में खराबी आ जाने से पूरे शरीर के कार्य में बाधा पड़ती है, उसी प्रकार प्रकृति के घटकों से छेड़छाड़ करने पर प्रकृति की व्यवस्था भी गड़बड़ा जाती है।

भारतीय फिलॉसोफी यह मानती है कि हमारी देह की रचना पर्यावरण के महत्त्वपूर्ण घटकों- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से ही हुई है। इतिहास गवाह है कि  मानव ने प्रकृति की  पूजा,आराधना की है। समुद्र मंथन से वृक्ष जाति के प्रतिनिधि के रूप में “कल्पवृक्ष” निकला था, देवताओं ने उसे अपने संरक्षण में लिया था, इसी प्रकार  “कामधेनु और ऐरावत हाथी” का संरक्षण भी ऐसे उदाहरण हैं। भगवान् कृष्ण द्वारा  “गोवर्धन पर्वत की पूजा” की शुरुआत का लौकिक पक्ष यही है कि जनसामान्य मिट्टी, पर्वत, वृक्ष एवं वनस्पति का आदर करना सीखें। सदियों से चलती आ रही गोवर्धन पूजा आज भी हमें पर्वत और हिमशिखरों की रक्षा की सीख दे जाती है। 

फिर हमसे चूक कहां हुई कि हम अपनी सभ्यता और संस्कृति को भूल कर “प्रकृति की हत्या” करने में लग गए। 

प्रकृति की पूजा करने वाले भारत के इतिहास के पन्नों का अवलोकन करें तो प्रकृति का संरक्षण हमें विभिन्न रूपों में दिखाई देता है ।सिंधु सभ्यता की मोहरों पर पशुओं एवं वृक्षों का अंकन, सम्राटों द्वारा अपने राजचिन्ह के रूप में वृक्षों एवं पशुओं को स्थान देना, गुप्त सम्राटों द्वारा बाज (Hawk ) को पूजनीय  मानना, मार्गों में वृक्ष लगवाना, कुएँ खुदवाना, दूसरे प्रदेशों से वृक्ष मँगवाना आदि तात्कालिक प्रयास “पर्यावरण प्रेम” को ही प्रदर्शित करते हैं। 

फिर हम क्यों आज अपने प्रकृति प्रेम को भुलाते जा रहे हैं। हमें ज्ञान ही नहीं है कि सिंधु सभ्यता कैसे खत्म हुई। आज भी हम अटकलों और विवादों के बीच प्रकृति के सौम्य रूप से खिलवाड़ करने से पहले एक मिनट भी नहीं सोचते।

वैदिक ऋषि प्रार्थना करते थे कि पृथ्वी, जल, औषधि एवं वनस्पतियाँ हमारे लिये शान्तिप्रद हों। वैदिक काल से चलता आ रहा “शांति मंत्र क्या हमें शांति दे पाया।” यह शांतिमंत्र शान्तिप्रद तभी हो सकता है जब हम इसका सभी स्तरों पर संरक्षण करें। तभी भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण की इस विराट अवधारणा की सार्थकता हो सकती है, जिसकी प्रासंगिकता आज इतनी बढ़ गई है।

प्रकृति में बिना रोकटोक मानव का बढ़ता हस्तक्षेप वातावरण को प्रदूषित कर रहा है। प्रदूषण के कारण सारी पृथ्वी दूषित हो रही है और निकट भविष्य में मानव सभ्यता का अन्त दिखाई दे रहा है। सरकारों द्वारा चलाई जा रही योजनाओं पर विचार करना आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता बन गई है। विकास के नाम पर लिखे गए बड़े-बड़े documents ,manuscripts को समझने की बहुत आवश्यकता है ।आज समस्त विश्व को सतत (continuous) विकास की महती आवश्यकता है , जो कुछ इन डाक्यूमेंट्स में लिखा गया है, क्या विश्व की सरकारें इन recommendations को   लागू करेंगी? 

निश्चित रूप से सतत विकास से हमारा अभिप्राय ऐसे विकास से है, जो हमारी भावी पीढ़ियों को अपनी जरूरतें पूरी करने की योग्यता को प्रभावित किए बिना वर्तमान समय की आवश्यकताएं पूरी करे। पर्यावरण संरक्षण, जो सतत विकास का अभिन्न अंग है, एजेंसियां गंभीरता से नहीं लेती। यदि लेती होती तो फिर अंधाधुंध दोहन, एक ही घाटी में सैकड़ों परियोजनाएं, नदी के जल की बूंद-बूंद निचोड़ कर बेचने का प्रयास न करती। इस अवैध प्रयास को रोका क्यों नहीं जा रहा।

सतत विकास लक्ष्यों का उद्देश्य सबके लिए समान, न्यायसंगत, सुरक्षित, शांतिपूर्ण, समृद्ध और रहने योग्य विश्व का निर्माण करना है। विकास के तीनों पहलुओं-सामाजिक,आर्थिक और पर्यावरण संरक्षण को व्यापक रूप से समाविष्ट करना है। आज हम इन उद्देश्यों से भटक क्यों गए हैं ? चूक कहां हो रही है ? मानव विकास की दौड़ में अंधा क्यों होता जा रहा है?

सतत विकास सदैव हमारे दर्शन और विचारधारा का मूल सिद्धांत रहा है। सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अनेक मोर्चों पर कार्य करते हुए हमें महात्मा गांधी की याद आती है, जिन्होंने चेतावनी दी थी कि 

क्या आज हम लालच की पराकाष्ठा को पार करने पर विवश हैं ?  ऐसी कौन सी मजबूरी है कि हम अपने विनाश की काली गाथा अपने ही हाथों लिखना चाह रहे हैं ? युगों से चले आ रहे, हमारे जीवन के तीनों बुनियादी आधार;  वायु, जल एवं धरती आज संकट  में हैं। तरक्की और विकास के नाम पर जीवन को सुखी, आरामदेह एवं सुविधाजनक बनाने के  लिए हमने वह सब कुछ संकट में डाल दिया जो  प्रकृति ने हमें प्रदान किया था लेकिन  ध्यान रहे मौसम, प्रकृति और पर्वत गुलामी बर्दाश्त नहीं करेंगे। ऐसा विकास मानव सभ्यता के लिए खतरनाक साबित होगा और प्रकृति के इस बलात्कार का दंड  हमें उत्तर में खड़ा हिमालय जरूर देगा, चेतावनी स्वरूप दे भी रहा है। 

धौलीगंगा के भयंकर जल प्रवाह ने हमें चेतावनी स्वरूप यह दिखा भी दिया है। संभल जाओ, अपने से हजार गुना बड़े डायनासोर आज कहीं अस्तित्व में नहीं तो फिर इस  मानव का  अस्तित्व मिटते देर न लगेगी। प्रकृति की रौद्रता को जब 14 करोड़ वर्ष तक राज करने वाली विशालकाय डायनासोर की प्रजाति नहीं झेल पाई तो फिर मानव की औकात ही क्या है?

सभ्यता के विकास के शिखर पर बैठे मानव के जीवन में अंधाधुन विकास के खिलवाड़ ने वृक्षों के अभाव में प्राणवायु की शुद्धता और गुणवत्ता को घटा दिया है आज हम शुद्ध ऑक्सीजन के अभाव में दम घुटने को मजबूर खड़े हैं। पर्वतों  के बीच में पगडंडीया बनाकर खेती करके कुछ फसल उगाने वाले पर्वतों  की समृद्धि प्रचुर संपदा से जड़ी बूटियां निकालकर व्यापार करने वाले तथा नदियों में पानी के संसाधन बना कर जीवनयापन करने वाले पर्वत  के आम और निर्दोष मानव जाति को कब तक विकास और सभ्यता के उन्नत होने की बलि देनी होगी।

विकास के नाम पर पहाड़ों में निरन्तर वन कटाई के कारण भूमि की ऊपरी परत की मिट्टी वर्षा के साथ बह-बहकर समुद्र में जा रही है। इसके कारण बाँधों की उम्र कम हो रही है, नदियों में गाद जमा होने के कारण थोड़ा सा जल भी  भयंकर बाढ़ का रूप ले लेता है। 

आज समूचे विश्व में हो रहे विकास ने प्रकृति के सम्मुख अस्तित्व की चुनौती खड़ी कर दी है। और इन सभी गतिविधियों का खामियाजा इन्हीं पहाड़ी जनमानस, पशु- पक्षी को भुगतना पड़ रहा है ।

आज पूरी मानव सभ्यता को यह सोचने की जरूरत है : 

1.क्या हम प्रकृति के दोहन को इतना सीमित नहीं कर सकते कि अपनी जरूरतों को पूरा करने मात्र ही प्रकृति का शोषण करें ?

2.कुछ ऐसा करें कि आने वाली पीढ़ी भी प्राकृतिक नजारों, प्राकृतिक संतुलन और प्रकृति की मिठास का  उपभोग कर सके ।

3.क्या ऐसा सार्थक नहीं किया जा सकता कि पर्यावरण संरक्षण और विकास के बीच संतुलन का एक मॉडल तैयार किया जा सके ? 

निश्चित ही  विकास सुखदाई है ,आरामतलबी की ओर ले जाने वाला है, विभिन्न सुख-सुविधाओं के साथ एक कमरे में कैद करने वाला है लेकिन  क्या इन सब की कीमत हमें प्राकृतिक छेड़छाड़ करके ही पूरी करनी होगी।

उत्तराखंड की वादियों में हज़ारों  जल विद्युत परियोजनाएं चल रही हैं , हज़ारों  बांध बनाए जा रहे हैं। अभी कुछ समय पूर्व  ही ऋषि गंगा जल विद्युत परियोजना शुरू हुई थी। हमारी साइंस और टेक्नोलॉजी इतनी उच्चस्तरीय  है कि हम सेटेलाइट से हर एक उस पल का पता लगा सकते हैं जो हमारे इर्द-गिर्द हो रहा है फिर information Technology कहां पर फेल हुई कि इतने बड़े “ग्लेशियर का पिघलना” हमें दिखाई न दिया। पता तो हमें सब था लेकिन निजी व्यापारियों के लाभ के लिए जानकारियां छुपाई गई और आंखें बंद की गई।

क्यों हमारे Policy makers , हमारी सरकारें हादसों से सबक नहीं लेती? क्यों आम आदमी का जीवन इतना सस्ता हो गया है कि सत्ता पर बैठे लीडरों की आंख से उन गरीबों के लिए एक आंसू भी नहीं निकलता। क्यों  धृतराष्ट्र बनना बंद नहीं किया जा सकता ? हर बार हादसे का इंतजार करते हम सतर्क क्यों नहीं हो रहे? क्यों हमारी सरकारें कुछ सीमित मुद्दों के सिवा एक स्पष्ट रणनीति बनाकर प्रकृति को संरक्षण प्रदान नहीं कर रही? 

विचार करें अगर मानव की नींद आज नहीं खुली  तो शायद मानव के अस्तित्व की कहानियां लिखने वाला कोई भी नहीं बचेगा ।

हर बार की भांति आज का लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।

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संकल्प सूची को गतिशील बनाए रखने के लिए सभी साथिओं का धन्यवाद् एवं निवेदन। आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 9  युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज चंद्रेश जी ,अरुण जी और सुजाता जी  सभी गोल्ड मैडल विजेता हैं। 

(1)चंद्रेश बहादुर-44 ,(2 )सुमनलता-29  ,(3 )रेणु श्रीवास्तव-33  ,(4) सुजाता उपाध्याय-45,(5 )मंजू मिश्रा-31  ,(6 ) संध्या कुमार-43,(7 ) नीरा त्रिखा-24  ,(8 )सरविन्द पाल-35 ,(9 )अरुण वेर्मा-42  सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।


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