वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

हिमालय यात्रा में तपोवन, नंदनवन एवं हिमालय शिखरों की जानकारी 

10 अक्टूबर 2023 का ज्ञानप्रसाद

आज मंगलवार की मंगलवेला में, सप्ताह के दूसरे दिन एक बार फिर हम नवीन ऊर्जा से ओतप्रोत अपने साथिओं के समक्ष प्रस्तुत हो चुके हैं और  आज के ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करने को उत्सुक हैं। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का एक-एक सदस्य संकल्पित है कि इस ज्ञान का अधिक से अधिक प्रचार-प्रसार हो और गुरुदेव के परम शिष्य का कर्तव्य निभाते हुए विश्व भर में अधिक से अधिक साथिओं के हृदयों में गुरुदेव को स्थापित करें। आदरणीय अरुण वर्मा भाई साहिब की समस्या हम सबके समक्ष है और सरविन्द जी बिजली की समस्या से जूझ रहे हैं, ऐसी स्थिति में संकल्प सूची का सिकुड़ना स्वाभाविक है लेकिन इसके बावजूद परिणाम कोई ज़्यादा निराशाजनक नहीं हैं। सहयोग दे रहे सभी साथिओं का सदैव आभार रहता है। 

कल वाले लेख की भांति आज के लेख में भी बहुत सारी  इनफार्मेशन है। वीडियो और पिक्चर्स के माध्यम से हम उन स्थानों और स्थितिओं की  वर्तमान जानकारी प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं जहाँ कभी लगभग 100 पूर्व हमारे गुरुदेव गए थे। हमारा विश्वास है कि हमारे साथिओं के  ह्रदय में इस धरती के स्वर्ग को जानने की  अनेकों जिज्ञासाएं उठ रही होंगीं। इन जिज्ञासाओं के निवारण  के लिए आधुनिक युग का यूनिक टीचर, internet teacher 24 घण्टे उपलब्ध है। 

तो आइए गुरुचरणों में नतमस्तक होकर, गुरुकुल पाठशाला की आज की कक्षा की ओर कदम बढ़ाएं लेकिन पहले विश्वशांति की कामना।  

 ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ।मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने। हे भगवन हमें ऐसा वर दो!

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अगर हमारे ह्रदय में किसी चीज़ की इच्छा हो और हम उसे प्राप्त करने का दृढ़  संकल्प ले लें तो ईश्वर भी उसमें पूर्ण सहयोग देते हैं, ऐसा एक बार नहीं करोड़ों बार सार्थक होता देखा गया है। ठीक उसी तरह की चर्चा इस लेख में हो रही है जिसे अखंड ज्योति के जनवरी 1961 अंक में “किसी अज्ञात लेखक” के अंतर्गत प्रकाशित किया गया था। वर्तमान लेख श्रृंखला में बार-बार स्मरण कराया जा रहा है कि दिसंबर 1960 और जनवरी 1961 में प्रकाशित दोनों लेख इसी अज्ञात लेखक का परिश्रम था। परम पूज्य गुरुदेव ने  इन  लेखों के बारे में लिखा था कि “बहुत दिन  पूर्व किसी मासिक पत्रिका में एक लेख पढ़ा था”, जो भी हो इन लेखों का कंटेंट इतना दिव्य और informative है कि सराहना करने के लिए शब्द कम पड़ जायेंगें। हमसे भी जो कुछ बन पा रहा है, समस्त उपलब्ध साधनों से इस लेखन में अपना योगदान दे रहे हैं और हमारे साथी इनसे लाभ उठा रहे हैं, बहुत प्रसन्नता हो रही है आज के  ज्ञानप्रसाद लेख का शुभारम्भ इसी संकल्प शक्ति से हो रहा है।            

“धरती का  स्वर्ग को देखने की उठ रही प्रबल इच्छा” किसी के अनुग्रह से ही वह असंभव दिखने वाले कार्य की व्यवस्था सहज ही बन गई। प्रभु की महान कृपा और महात्माओं के आशीर्वाद से कठिन कार्य भी सहज हो सकते हैं। अपना मनोरथ भी सहज हो गया उसके सब उपकरण खुद बखुद जुट गये। साथी और मार्गदर्शक भी थे। थके पैरों में नया जीवन आ गया और ठंड सहन न कर सकने वाली दुर्बल काया भी तन कर खड़ी हो गई और ठिठुरते पैर आगे को बढ़ने लगे।

गोमुख से ऊपर का अगम्य हिमालय चिरकाल से आवागमन रहित है। यहाँ जाने का कुछ प्रयोजन भी नहीं समझा जाता । गोमुख से दो किलोमीटर  ऊपर जहाँ तपोवन आरम्भ होता है वहाँ श्रावण भाद्रपद महीनों में बड़ी कोमल और पौष्टिक वनस्पतियां उगती हैं। यदि भेड़ बकरियाँ इन वनस्पतियों को चर लें तो उनका स्वास्थ्य बहुत ही अच्छा हो जाता है, मजबूत बच्चे  देती हैं। इस ऋतू में पैदा हुई भेड़ों का स्वास्थ्य अच्छा होने के कारण  ऊन भी बहुत मुलायम निकलती है। इन लाभों को देखते हुए कभी-कभी कोई दुस्साहसी पहाड़ी लोग  अपनी भेड़ें लेकर कुछ दिन के लिए ऊपरी क्षेत्र में चले जाते  हैं। यह लोग भी गोमुख से दो तीन किलोमीटर  उपर तक ही जाते हैं। ऐसे लोगों के इलावा इस क्षेत्र में और किसी  मनुष्यों के दर्शन नहीं होते। 

यह तपोवन क्षेत्र ही है जहाँ यह मनुष्य और पशु कभी-कभी देखे जाते हैं। जंगली भेड़ें, कस्तूरी हिरन तथा भूरा भालू भी इस क्षेत्र में कभी-कभी विचरण करते नज़र आते है। यहाँ एक पेड़ होता है जिसमें से “एक मनभावन गन्ध” आती रहती है। जो लोग इस गन्ध को सहन नहीं कर सकते हैं उनका सिर चकराने लगता है। इससे थोड़े ही आगे चलकर नन्दनवन है। नन्दनवन में श्रावण और भाद्रपद के दो माह वसन्त ऋतु के माह माने जाते हैं। इन दो माह में ही यह वनस्पनियाँ उगती, बढ़ती, फूलती, पकती और समाप्त हो जाती हैं। आश्विन से बर्फ पड़ने लगती है, तब वह हरियाली भी समाप्त हो जाती है। यह हरियाली जब फलती-फूलती  है तो इसमें सैकड़ों प्रकार के, एक से बढ़कर एक सुंदर फूल खिलते हैं,जिनकी बनावट, विचित्रता और भिन्नता देखकर ऐसा लगता है जैसे कि किसी चतुर चित्रकार ने रंग बिरंगे पुष्पों से सुसज्जित मखमली कालीन धरती पर बिछा दिया हो।

नन्दनवन से लगा हुआ भागीरथी शिखर है। कहते हैं कि तपस्वी भागीरथ इस पर्वत के रूप में यहाँ सदा विराजमान रहते हैं। शिखर भी उतना ही सुन्दर है जितना कि उसके नीचे का मैदान नन्दनवन । “नन्दनवन देवताओं का वन माना जाता है।” प्राचीनकाल में सम्भव है यहाँ कोई वृक्ष रहे हों,लेकिन आजकल तो यह सुन्दर हरियाली ही शेष है, जिसे देखकर प्रकृति की इस अद्भुत कृति पर आश्चर्य होता है और विचार आता है कि आज यह छोटी हरियाली इतनी सुन्दर लगती है तो प्राचीन काल में जब यहाँ वृक्ष रहे होंगे तो वोह भी इतने ही सुन्दर होंगे और उनके वातावरण में रहने वाले भी वैसे ही सुन्दर होते होंगें,ठीक उसी तरह जैसे हम देवताओं को चित्रों में देखते हैं। रंग बिरंगे फूलों के साथ रहने वाली तितली जब उन्हीं के रंग की वैसी ही सुन्दर हो जाती है तो इस नन्दनवन में विचरण करने वाली आत्माओं के सुन्दर होने में संदेह की कोई बात नहीं है। नन्दनवन की शोभा के बारे में पुराणों में उल्लेख मिलता है जिसे यह संस्कृत का निम्नलिखित  श्लोक बयान कर रहा है :

“अगहन गहनं लता पिटपिवजितम् । प्रशांतमति गंभीरं विशालं प्राव संकुलम् ।। कृष्णरक्तैः श्वेत पीतैः पुष्पैदिव्य मनोहरः । इन्द्राणीमेश भूषाभिः समाच्छन्नं समवंतः॥अहो तत्रत्य सुषमा कोवा वर्णयितु प्रभुः। इन्द्रोप्यति सहस्त्रेण यां विलोकय न तृप्यति।।”

अर्थात 

तपोवन में एक विशाल शिला के नीचे थोड़ी-सी आड़ जैसी जगह है जिसके नीचे 10 व्यक्ति विश्राम कर सकते हैं,उसकी स्थिति कुछ गुफा जैसी है। इसके अतिरिक्त इस प्रदेश में और कोई छाया का स्थान ऐसा नहीं है जिसके नीचे विश्राम किया जा सके। पेड़ तो हैं ही नहीं। लकड़ी भी यहाँ नही मिलती। एक मोटे डंठल की बनस्पति ऐसी होती है जिसके डंठलों को जलाकर अग्नि का कुछ प्रयोजन सिद्ध किया जा सकता है। तपोवन से सटा हुआ “शिवलिंग शिखिर” है। इसका दृश्य “कैलाश” जैसा ही लगता है। इसे देखने पर ऐसा प्रतीत होता है मानों वह शिखिर प्रकृति का बनाया हुआ एक विशाल शिवलिंग है जिसे किसी ने यहाँ विधिवत् स्थापित किया हो। तपोवन से गोमुख की दिशा में मेरु शिखिर है। इसके नीचे मेरु ग्लेशियर है जो केदार शिखिर तक चला गया है। शिवलिंग शिखिर से निकल कर “स्वर्ग गंगा” नामक एक छोटी-सी नदी बहती है। ऊपर से इसकी दो धारायें दो तरफ  से आती हैं। तपोवन के मध्य भाग में वह दोनों मिलकर संगम बनाती हैं। पुराणों में वर्णन भाता है कि गंगा पहले तपोवन में निवास करती थी, बाद में भागीरथ के तप के कारण भूतल निवासियों का कल्याण करने के लिए नीचे आ गयी । यह दृश्य यहाँ प्रत्यक्ष देखा जा सकता। हिमालय के हदय-धरती के स्वर्ग मे यह स्वर्ग गंगा बहती है। यही धारा गंगा ग्लेशियर में कुछ दूर विलीन होकर फिर नीचे गोमुख पर प्रकट होती है। शिवजी अपनी जटाओं में गंगा को धारण किये हुए है, यह दृश्य भी शिवलिंग शिखिर पर स्पष्ट है 

स्वर्ग गंगा मेरु शिखिर  से निकल कर शिवलिंग के भाग को स्पर्श करती हुई तपोवन में प्रवाहित होती हैं। तपोवन के अन्त में गंगा ग्लेशियर से सटा हुआ “गौरी सरोवर” है। यहाँ भगवती उमा, शिव के समीप हो सरोवर रूप से विराजती हैं। कठोरता और करुणा का यह युग्म सब प्रकार वन्दनीय है। शिव और शक्ति यहाँ पर्वत और सरोवर के रूप में साकार हैं। एक को तप कहें तो दूसरे को भक्ति । एक ज्ञान है तो दूसरे को भावना कह सकते हैं।

अभी बहुत कुछ जानने को है -कल तक  के लिए प्रतीक्षा करनी है। 

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संकल्प सूची को गतिशील बनाए रखने के लिए सभी साथिओं का धन्यवाद् एवं निवेदन। आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 9  युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज  रेणु जी और चंद्रेश जी  गोल्ड मैडल विजेता हैं। (1)चंद्रेश बहादुर-39 ,(2 )सुमनलता-27 ,(3 )रेणु श्रीवास्तव- 40,(4 ) सुजाता उपाध्याय-28,(5 )मंजू मिश्रा-25  ,(6  ) संध्या कुमार-35 ,(7 ) वंदना कुमार-25 ,(8 )नीरा त्रिखा-24,(9)पुष्पा सिंह-24    सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।


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