2 अक्टूबर 2023 का ज्ञानप्रसाद
एक बार फिर हम सप्ताह के प्रथम दिन सोमवार में गुरुकुल पाठशाला में आ चुके हैं, गुरुदेव के चरणों में आज के ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करने को उत्सुक हैं। प्रत्येक सप्ताह का सोमवार हमारे लिए ऊर्जा की दृष्टि से विशेष होता है लेकिन आज वाला सोमवार डबल विशेषता लिए है। डबल विशेषता का कारण है हमारी छोटी पोती अनैरा का प्रथम जन्म दिवस, इस एक वर्ष में, इस ईश्वर रुपी आत्मा ने जो-जो करतब दिखाए हैं, उससे हम सब भलीभांति परिचित हैं,सभी साथिओं/सहकर्मिओं को इस दिव्यता का सौभाग्य प्राप्त हुआ होगा। हम सबकी बच्ची को आपके आशीर्वाद एवं शुभकामना की अपेक्षा है।
अखंड ज्योति के दिसंबर 1960 का अंक,जिस पर वर्तमान लेख श्रृंखला आधारित है, अभी अपने अंदर बहुत कुछ छिपाये हुए है,जैसे जैसे गुरुदेव निर्देश देते जायेंगें, हम आपके समक्ष प्रस्तुत होते जायेंगें। अभी तो हमारी बहिन विदुषी जी द्वारा सुझाई गयी 1985 की अखंड ज्योति वाला अंक भी प्रस्तुत करना है।
तो आइए विश्वशांति की कामना के साथ आज के ज्ञानप्रसाद लेख का अमृतपान आरम्भ करें :
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनःसर्वे सन्तु निरामयाः।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥ सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े। ॐ शांति शांति शांति॥
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आज के ज्ञानप्रसाद में हम उत्तराखंड प्रदेश के ऐसे-ऐसे स्थानों की जानकारी प्राप्त करेंगें जिनमें से कुछ एक के तो हमने नाम सुने ही होंगें लेकिन अधिकतर अनसुने ही हैं । दिव्यता की दृष्टि से तो सभी स्थान एक से बढ़कर एक ही हैं और इन सबके बारे में जानने के लिए कई जन्म चाहिए।आज के लेख का सबसे महत्वपूर्ण पार्ट “त्रियुगीनारायण मंदिर” है। इस मंदिर को लेकर आज इतना अधिक साहित्य उपलब्ध है कि इस एक लेख में इसका विवरण देना लगभग असंभव ही है। इतने अधिक साहित्य के उपलब्ध होने का कारण मंदिर की दिव्यता तो है ही, लेकिन वर्तमान में Destination wedding ने भी इस मंदिर की लोकप्रियता में बहुत योगदान दिया है। हमारे साथी ऑनलाइन सर्च तो कर ही सकते हैं, फिर भी हम दो वीडियोस शेयर कर रहे हैं जिन्हें देखकर इस मंदिर के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिल सकती है।
इसी लेख के साथ उत्तराखंड टूरिज्म का मैप भी दिया गया है जो “हिमालय का ह्रदय” क्षेत्र को जानने में लाभदायक होगा। हमारे साथी स्वयं ही जान जाएँगें कि इस क्षेत्र में कितने अधिक तीर्थस्थल हैं। आज का लेख इस विषय का अंत नहीं है, न जाने अभी कितना और जानना है, जैसे जैसे जानकारी मिलती जाएगी आपके समक्ष प्रस्तुत करते जाएँगें।
सारे का सारा उत्तराखंड ही दिव्यता का प्रतीक है। “हिमालय के हृदय” के किनारे-किनारे जितने तीर्थ हैं उतने भारतवर्ष भर में और कहीं नहीं हैं। “देवताओं की निवास भूमि सुमेरु पर्वत” पर बताई गई है। सुमेरु पर पहुँचना मनुष्यों के लिए अगम्य है। इसलिए जनसंपर्क की दृष्टि से उत्तराखण्ड की तपोभूमि के निचले भागों में देवताओं ने अपने स्थान बनाये।
राजा का व्यक्तिगत समय अपने राजमहलों में व्यतीत होता है, वहाँ हर कोई नहीं पहुँच पाता लेकिन राजदरबार एक ऐसा स्थान होता है जहाँ राजा जनकार्यों के लिए उपलब्ध रहता है। यदि सुमेरु पर्वत देवताओं का राजमहल कहा जाए तो उससे कुछ ही नीचे के समीपतम देवस्थानों को राजदरबार कहा जा सकता है। उत्तराखण्ड के नक्शे पर एक दृष्टि डाली जाए तो यह निश्चय हो जाता कि “हिमालय के हृदय” से नीचे के भाग को देवभूमि कहा जाना सार्थक ही है।
“हरिद्वार” को ही लीजिये। यहाँ ब्रह्माजी ने यज्ञ किया था। दक्ष प्रजापति ने “कनखल” में यज्ञ किया था और उनकी पुत्री सती अपने पति शिव का अपमान सहन न करके इसी यज्ञ में कूद पड़ी थी। “देवप्रयाग” में भागीरथी और अलकनन्दा का संगम है। “सूर्यतीर्थ” यहाँ है, रघुनाथ जी तथा काली भैरव की भी स्थापना है। आगे “ढूँढप्रयाग” तीर्थ में गणेश जी ने तप किया था। श्रीनगर में “भैरवी पीठ” है। “चामुण्डा, भैरवी कंसमर्दिनी, गौरी, महषिमर्दिनी, राजेश्वरी” देवियों का यहाँ निवास है। चण्ड-मुण्ड, शुंभ-निशुंभ, महिषासुर आदि असुरों का उन्होंने यहीं वध किया था। सौड़ी चटी से 5 मील ऊपर “स्वामी कार्तिक” का स्थान है। इससे पूर्व मठचट्टी के सामने सूर्य प्रयाग में “सूर्यपीठ” है और वहाँ से दो मील भणगा गाँव में “छिन्नमस्ता देवी” तथा वहाँ से दो मील आगे जैली में “कूर्मासना देवी” विराजमान हैं। गुप्त काशी में “अन्नपूर्णा देवी” का निवास है। नारायण कोटी में लक्ष्मी सहित “नारायण” की प्रतिष्ठा है। 1 मील पश्चिम के पहाड़ पर यक्ष देवता का मेला लगता है। रामपुर से दो मील आगे “शाकम्बरी देवी” है जहाँ एक मास शाक खाकर तप करने का बड़ा महत्व मान जाता है।
त्रियुगीनारायण गांव में “नारायण मन्दिर” के अतिरिक्त लक्ष्मी, अन्नपूर्णा और सरस्वती की स्थापना है। शिव पार्वती विवाह भी यहीं हुआ था, उस विवाह की अग्नि एक चकोर कुंड में आज तक जल रही है। त्रियुगीनारायण मन्दिर में अखण्ड दीपक सदैव जलता रहता है ।
सोनप्रयाग गांव में मन्दाकिनी और वासुकी गंगा है। “वासुकी नाग” का निवास इन गंगा के तट पर ही था। सोनप्रयाग, रुद्रप्रयाग डिस्ट्रिक्ट का हेडकवार्टर है और रुद्रप्रयाग गाँव से 73 किलोमीटर है।
पास ही “कालिका देवी” का स्थान है। सोनप्रयाग से आध मील आगे वह स्थान है जहाँ भगवान शिव ने गणेशजी का सिर काटा था और फिर हाथी का सिर लगाया था। यहाँ बिना सिर गणेशजी की प्रतिमा है।
केदारनाथ तीर्थ में वह स्थान है जहाँ पाण्डव अपने कुलघात के दोष का निवारण करने के लिए शंकर भगवान के दर्शनों के लिए गये थे लेकिन इस पाप को देखते हुए शिवजी वहाँ से भैसें का रूप बनाकर भागे थे । भागते हुए भैंसे को पीछे से पांडवों ने पकड़ लिया। जितना अंग पकड़ में आया उतना वहाँ रह गया शेष अंग को छुड़ा कर शिवजी आगे भाग गये। हिमालय में पाँच केदार हैं- “केदारनाथ, मध्यमेश्वर, तुंगनाथ, रुद्रनाथ, कल्पेश्वर।” रुद्रनाथ के समीप वैतरणी नदी बहती है। पुराणों में वर्णन आता है कि यमलोक में जाते समय जीव को रास्ते में वैतरणी नदी मिलती है। गोपेश्वर में एक वृक्ष पर लिपटी हुई बहुत पुरानी कल्पलता है जो प्रत्येक ऋतु में फूल देती है। स्वर्ग में कल्पवृक्ष या कल्पलता होने की बात की संगति इस कल्पलता से बिठाई जाती है। पास ही “अग्नितीर्थ” है। यहीं कामदेव का निवास था। शंकरजी से छेड़छाड़ करने के अपराध में उसे यहीं भस्म होना पड़ा था। काम की पत्नी रति ने यहाँ तप किया था इसलिए वहाँ रतिकुण्ड भी है।
पीपल कोटि से 3 मील आगे “गरुगंगा” है यहाँ विष्णु के वाहन गरुड़ का निवास माना जाता है। जोशीमठ में “नृसिंह” भगवान विराजते हैं। “विष्णु प्रयाग” में विष्णु भगवान का निवास है। यहाँ ब्रह्म कुँड, शिवकुँड, गणेशकुँड, टिंगी कुंड, ऋषि कुंड, सूर्यकुंड, दुर्गाकुंड, कुबेर कुँड, प्रहलाद कुँड अपने अधिपतियों के नाम से विख्यात हैं। पाण्डुकेश्वर से एक मील आगे शेष धारा है जहाँ ”शेष” जी का निवास माना जाता है। “बद्रीनाथ” में नर, नारायण, गरुड़, गणेश, कुबेर, उद्धव तथा लक्ष्मी जी की प्रतिमाएं हैं। सरस्वती, गंगा और अलकनन्दा के संगम पर “केशव प्रयाग” है, पास ही सम्याप्रास तीर्थ है। यहाँ “गणेश गुफा तथा व्यास गुफा” है। व्यास जी ने गणेश जी द्वारा महाभारत यहीं पर लिखवाया था।
केदार खंड में वर्णन है कि कलियुग में मलेच्छ शासन आ जाने और पाप बढ़ जाने से शंकरजी काशी छोड़कर “उत्तरकाशी” चले गये, अब यहीं उनका प्रमुख स्थान है। विश्वनाथ का मन्दिर यहाँ प्रसिद्ध है। देवासुर संग्राम के समय आकाश से गिरी हुई शक्ति की स्थापना भी दर्शनीय है। आगे ढोढी तालाब है, जहाँ “गणेश जी का जन्म” हुआ था।
गंगोत्री के समीप “रुद्रगेरु” नामक स्थान है यहाँ से रुद्र गंगा निकलती है, यहाँ एकादश रुद्रों का निवास स्थान है। जाँगला चट्टी के पास गुगुमनाला पर “वीरभद्र का निवास” है।
इस प्रकार हिमालय के हृदय स्थल पर खड़े होकर जिधर भी दृष्टि घुमाई जाए उधर तीर्थों का वन ही दिखाई देता है। गंगोत्री आदि ठंडे स्थानों के निवासी जाड़े के दिनों में ऋषिकेश उत्तरकाशी आदि कम ठंडे स्थानों में उतर आते हैं। उसी प्रकार लगता है कि देवता भी सुमेरु पर्वत से नीचे उतर उत्तराखण्ड में अपने सामुदायिक निवास स्थल बना लेते होंगे। इन देवस्थलों में आज भी जन कोलाहल वाले बड़े नगरों की अपेक्षा कहीं अधिक सात्विकता एवं आध्यात्मिकता दृष्टिगोचर होती है। देवतत्वों की प्रचुरता का यह प्रत्यक्ष प्रमाण हम आज भी देख सकते हैं।
तपस्वी लोग तपस्या द्वारा देवतत्वों को ही प्राप्त करते हैं। जहाँ देवतत्व अधिक हो वहीं उनका प्रयोजन सिद्ध होता है। इसलिए प्राचीन इतिहास, पुराणों पर दृष्टि डालने से यही प्रतीत होता है कि प्रायः प्रत्येक ऋषि ने उत्तराखण्ड में आकर तप किया है। उनके आश्रम तथा कार्यक्षेत्र भारत के विभिन्न प्रदेशों में रहे हैं लेकिन वे समय-समय पर तप साधना करने के लिए इसी प्रदेश में आते रहे हैं। विविध कामनाओं के लिए विभिन्न व्यक्तियों ने भी तपस्याएं इसी क्षेत्र में ही की हैं। अनेक असुरों ने भी अपने उपासना क्षेत्र इधर ही बनाये थे। देवताओं ने भी यहीं तप किया था।
“करते भी क्यों न? धरती का स्वर्ग और हिमालय का हृदय तो यहीं से समीप पड़ता है।”
बद्रीनाथ में विष्णु भगवान ने तपस्वी का रूप धारण कर स्वयं घोर तप किया था। उस तीर्थ में जाने का प्रधान द्वार होने के कारण हरिद्वार नाम पड़ा। राजा वेन ने यहीं तप किया था। कुशावर्त पर्वत पर “दत्तात्रेय” जी ने तप किया था। हरिद्वार से तीन मील आगे “सप्तसरोवर” नामक स्थान पर गंगा के बीच में बैठ कर सप्त ऋषियों ने तप किया था। गंगाजी ने उनकी सुविधा के लिए उनका स्थान छोड़ दिया और सात धाराएं बन कर बहने लगीं। बीच में सातों ऋषियों के तप करने की भूमि अलग-अलग छूटी हुई है। इसी स्थान पर जन्हुमुनि तप करते थे। जब भागीरथ गंगा को लाये और भगवती बड़े वेग से गर्जन-तर्जन करती आ रही थी तो मुनि को यह कौतुहल बुरा लगा। उन्होंने गंगा को अंजली में भरकर पी लिया। भागरथी आगे-आगे चल रहे थे उन्होंने गंगा को लुप्त हुआ देखा तो आश्चर्य में पड़े। कारण मालूम होने पर उन्होंने जन्हुमुनि की बड़ी अनुनय-विनय की तब उन्होंने गंगा को उगल दिया। इसी से सप्तसरोवर के बाद की गंगा को “जन्हुपुत्री या जाह्वी” कहते हैं। इससे ऊपर की गंगा भागरथी कहलाती है। जन्हु के उदर में रहने के कारण वे जन्हुतनया कही गई।
इसके आगे के लिए कल तक की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
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संकल्प सूची को गतिशील बनाए रखने के लिए सभी साथिओं का धन्यवाद् एवं निवेदन। आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 10 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज चंद्रेश भाई साहिब गोल्ड मैडल विजेता हैं। (1)चंद्रेश बहादुर-50,(2 )नीरा त्रिखा-24,(3 ) सुमनलता-36,(4 )रेणु श्रीवास्तव-46,(5 )सरविन्द पाल-43,(6) सुजाता उपाध्याय-34 ,(7)मंजू मिश्रा-31,(8 )अरुण वर्मा-28,(9 ) संध्या कुमार-37,(10) वंदना कुमार-26
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।
