27 सितम्बर 2023 का ज्ञानप्रसाद
कल वाले लेख का समापन जिस “मानसिक संघर्ष” की स्थिति में हुआ था, उसका निवारण आज के ज्ञानप्रसाद लेख के दूसरे भाग में वर्णित है,इस संघर्ष में जीत तो ईश्वर कृपा की ही हुई। पहले भाग में फिर से स्मरण कराने की चेष्टा की गयी है कि अखंड ज्योति के जिन अंकों पर यह लेख श्रृंखला आधारित है, उनके लिए किसी अज्ञात लेखक ने योगदान दिया था जिसे परमपूज्य गुरुदेव ने किसी मासिक पत्रिका में पढ़ा और संपादन किया था।
हमारी अति समर्पित एवं नियमित सहकर्मी आदरणीय रेणु श्रीवास्तव जी की बेटी नेहा श्रीवास्तव का आज जन्म दिवस है, आइए नेहा बिटिया को प्रेरित करें कि मोमबत्ती बुझाकर नहीं बल्कि दीप प्रज्वलित करके, गुरुदेव के विचारों को आत्मसात करते हुए जन्म दिवस मनाएं। समस्त परिवार की हार्दिक शुभकामना।
तो आइए चलें पाठशाला की ओर।
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गुरुदेव लिखते हैं कि बहुत दिन पूर्व किसी मासिक पत्रिका में एक लेख पढ़ा था जिसका शीर्षक था “स्वर्ग इस पृथ्वी पर ही था।” लेखक ने यह लेख किसी धार्मिक या आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं बल्कि भूगोल और इतिहास को दृष्टि में रखकर लिखा था। लेखक ने अनेकों युक्तियों से यह सिद्ध किया था कि हिमालय का मध्य भाग प्राचीन काल में “स्वर्ग” कहलाता था।
जैसा हम सभी जानते हैं कि अखंड ज्योति में प्रकाशित होने वाले लेखों में किसी भी लेखक का नाम प्रकाशित नहीं किया जाता, यहाँ भी लेखक “कोई एक” बता कर समस्त चर्चा की गयी थी । अखंड ज्योति के आरंभिक दिनों में परम पूज्य गुरुदेव ने प्रतिष्ठित लेखकों को लेख लिखने के लिए आमंत्रित किया था, उन दिनों लेखकों के नाम अवश्य दिखाई देते हैं।
आज कल चल रही ज्ञानप्रसाद लेख शृंखला को उन्हीं अज्ञात लेखक के अखंड ज्योति दिसंबर 1960 में प्रकाशित “हिमालय का ह्रदय-धरती का स्वर्ग” पर आधारित किया गया है। जानकारी एवं दिव्यता से ओतप्रोत 8 पृष्ठों के इस लेख का समापन अखंड ज्योति के ही जनवरी 1961 अंक में “धरती पर देवभूमि के दर्शन” शीर्षक के 11 पृष्ठों में किया गया है।
इन 19 पृष्ठों में दिए गए ज्ञान को ढूंढ कर लाना,फिर एक-एक शब्द समझने का प्रयास करना,पृष्ठभूमि बनाकर अपनी समझ और विवेक का प्रयोग करके सरलीकरण करते हुए, अन्य gadgets (मानचित्र, वीडियोस, गूगल लिंक्स) आदि शामिल करके एक रोचक रेसिपी के साथ गुरुकुल पाठशाला में परम पूज्य गुरुदेव के दिव्य चरणों में समर्पित करने में जो प्रसन्नता का अनुभव होता है उसे शब्दों में वर्णित करना असंभव ही होता है।
दोनों लेखों के अज्ञात लेखक लिखते हैं :
यह पक्तियाँ यात्रा के अनुभव वर्णन करने वाले अन्य लेखों की तरह पाठकों के मनोरंजन के लिए नहीं लिखी गई हैं, इन्हें लिखने का उद्देश्य पाठकों का ध्यान “भारत भूमि के एक अत्यन्त महत्वपूर्ण भाग” की ओर केंद्रित करना है, खासकर अध्यात्म प्रेमियों का ध्यान आकर्षित करना है। यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया है कि अध्यात्म प्रेमी अपनी भावनाओं और “आन्तरिक स्थिति के विकास” में इस क्षेत्र के योगदान का महत्व समझें और उस प्राप्त हुए “आन्तरिक स्थिति के विकास” का यथासम्भव उपयोग करें। उस क्षेत्र मे जाने का हमारा यह सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य तो था ही लेकिन प्रकृति के दिव्य सौंदर्य, वास्तविक कैलाश मानसरोवर के अनुसंधान के प्राचीनतम स्थल, अतीत के भव्य इतिहास, देवताओं के निवास, स्वर्गीय वातावरण की दृष्टि से भी “हिमालय का ह्रदय” कहलाए जाने वाले इस क्षेत्र का महत्व कम नहीं है। लेखक ने वर्णन किया है कि
“हमने इस क्षेत्र में आध्यात्मिक तत्वों की प्रचण्ड तरंगें प्रवाहित होती देखी हैं जो परिस्थिति के अनुकूल अंतःकरण का तो कायाकल्प कर ही सकती हैं लेकिन यदि पात्रता उतनी विकसित न हो तो भी साधारण स्थिति के श्रद्धालु को यहाँ बहुत कुछ मिल सकता है। यदि हिमालय के ह्रदय क्षेत्र तक पहुँच सकना सम्भव न हो तो उत्तराखण्ड के उन प्रदेशों में जाकर, जो इस क्षेत्र के समीप पड़ते हैं, आत्म विकास के लिए महत्वपूर्ण लाभ उठाया जा सकता है। जिस प्रकार हृदय में स्थित रक्त धमनियों के द्वारा सारे शरीर में फैलता है, जैसे उत्तर ध्रुव का चुम्बकत्व सारी पृथ्वी पर अपना आकर्षण फैलाये हुए है, लगता है कि उसी प्रकार हिमालय का यह हृदय अपनी दिव्य vibrations के द्वारा दूर-दूर तक आध्यात्म तरंगों को प्रवाहित करता है।
जिस प्रकार हृदय के ऊपरी भाग में कितने ही प्रकार के स्वर्ण रत्नों से जटित आभूषण धारण किये जाते हैं, उसी प्रकार इस हिमालय के हृदय के चारों ओर एक घेरे के रूप में कितने ही महत्वपूर्ण तीर्थों की एक सुन्दर श्रृंखला पहनाई हुई है। महाभारत के बाद जो तीर्थ इस क्षेत्र में अस्त-व्यस्त हो गये थे उनका पुनरुद्धार करने की प्रेरणा जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य को हुई और उन्होंने कठिन प्रयत्न करके उन तीर्थों को पुनः स्थापित कराया। जिस प्रकार चैतन्य महाप्रभु ने ब्रजभूमि के विस्मृत पुण्य क्षेत्रों को अपने योगबल से पहचान कर उन स्थानों का निर्माण कराया था, उसी प्रकार जगद्गुरु शंकराचार्य को भी यह प्रेरणा हुई थी कि वे उत्तराखण्ड की भूली हुई देवभूमियों तथा तपोभूमियों का पुनरुद्धार करावें। वे दक्षिण भारत के केरल प्रान्त से चलकर उत्तराखण्ड आये और उन्होंने बद्रीनाथ आदि अनेकों मन्दिरों का निर्माण कराया। आज उत्तराखण्ड का जो गौरव परिलक्षित होता है उसका बहुत सा श्रेय उन्हीं को जाता है।
इतिहास साक्षी है,अनेकों विश्वगुरुओं ने उत्तराखण्ड को अपना साधना क्षेत्र बनाया है। इस चयन में प्रत्येक ने सूक्ष्म दृष्टि से ही काम लिया है। वे जानते थे कि “हिमालय के हृदय-धरती के स्वर्ग प्रदेश” की दिव्य शक्ति अपनी ऊष्मा को अपने निकटवर्ती क्षेत्र में ही अधिक बिखेरती है इसलिये वहीं पहुँचना उत्तम है। अग्नि का लाभ उठाने के लिये उसके समीप ही जाना पड़ता है। आध्यात्मिक तत्वों की किरणें जहाँ अत्यन्त तीव्र वेग से प्रवाहित होती हैं वह स्थान “सुमेरु केन्द्र” ही है। सुमेरु केंद्र से केवल पानी वाली गंगा ही नहीं निकली, आध्यात्मिक गंगा का उद्गम भी वहीं है।
ऐसे अज्ञात लेखक को हमारा सादर नमन है जिनके माध्यम से पुण्य प्रदेश-धरती के स्वर्ग को हम देख पा रहे हैं। संक्षिप्त ही सही,समस्त विवरण बता रहा है कि वहां क्या कुछ देखने को है, केसा अनुभव है,इस प्रदेश की दुर्गमता को सुगमता में कैसे परिवर्तित किया जा सकता है।
भावना,साहस ,व्यवहारिकता ,अंतरात्मा और बुद्धि का मानसिक संघर्ष :
गंगोत्री से गोमुख की ओर चलते हुए मार्ग में यह विचार आया कि यदि किसी प्रकार सम्भव हो सके तो इस धरती के स्वर्ग के दर्शन करने चाहिये। “भावना” धीरे-धीरे अत्यन्त प्रबल होती जाती थी लेकिन इसका उपाय न सूझ पड़ता था। “साहस” ने कहा: यदि दूसरे इस मार्ग को पार कर चुके हैं तो हम क्यों पार नहीं कर सकते? बुद्धि ने उत्तर दिया- उन जैसी शारीरिक और मानसिक सामर्थ्य अपनी न हो, ऐसे प्रदेशों का अभ्यास और अनुभव भी न हो तो फिर किसी का अन्धा अनुकरण करना बुद्धिमत्ता नहीं है। “भावना बोली”: ज़्यादा से ज़्यादा क्या हो जाएगा, जीवन का खतरा ही तो हो सकता है। यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। कहते भी हैं कि स्वर्ग अपने मरने से ही दिखता है। यदि इस धरती के स्वर्ग को देखने में प्राण संकट का खतरा मोल लेना पड़ता है तो कोई बड़ी बात नहीं है। उस खतरे को उठा ही लेना चाहिए। उसे उठा लेने में संकोच नहीं करना चाहिए। “व्यवहारिकता” ने पूछा:इतनी सर्दी को शरीर कैसे सहन करेगा? सोने और खाने-पीने की क्या व्यवस्था होगी? अब तक समुद्रतल से 11 हजार फुट ऊंचाई चढ़ी गई है। ऋषिकेश से यहाँ तक आने में 170 मील में 9 हजार फुट चढ़े जिससे पैरों के देवता कूच कर गये हैं। अब आगे 12 मील के भीतर 9 हजार फुट और चढ़ना पड़ेगा तो उस चढ़ाई की दुर्गमता पैरों के बस से सर्वथा बाहर की बात होगी।
इस प्रकार अंतर्द्वद्व चल रहा था। निर्णय कुछ हो नहीं पा रहा था। प्रश्न केवल “साहस” का ही नहीं था, अपनी “सीमित शक्ति” के भीतर भी वह सब है या नहीं, यह भी विचार करना था। मस्तिष्क अपनी सारी शक्ति लगाकर समस्या का हल खोज रहा था, लेकिन कोई उपाय सूझ नहीं पड़ता था। “अन्तरात्मा” कहती थी कि अब धरती के स्वर्ग के बिल्कुल किनारे पर आ गये तो उसके भीतर प्रवेश करने का लाभ भी लेना चाहिये। गंगातट पर से प्यासे लौट जाने में कौन सी समझदारी है। मरने पर स्वर्ग मिला या न मिला कौन जाने। यहाँ बिल्कुल ही समीप धरती का स्वर्ग मौजूद है तो उसका लाभ क्यों नहीं लेना चाहिये?’
स्मरण शक्ति ने इस दुर्गम पथ की स्थिति बताने वाला एक प्राचीन श्लोक उपस्थित कर दिया।
तत ऊर्ध्वंतु भृमीघ्रा मर्त्य संचार दूरगाः।
आच्छन्नाः संततस्थापि धनोत्तुंग महाहिमै॥
गोमुखी तो विशाला दूर्नाति दूरे विराजते।
तत्रायं गमने मार्गः सिद्धानाँचामृताँघसाम्॥
अर्थात
(गोमुख) से आगे के पर्वत बहुत ही ऊँचे हैं,भारी बर्फ से ढके हैं। वे मनुष्य की पहुँच से बाहर हैं। उस ओर से बद्रीनारायण पुरी बहुत दूर तो नहीं है, लेकिन वह मार्ग मनुष्य के लिए असम्भव है, वह सिद्ध और देवताओं का मार्ग है। इस मार्ग से वे ही जाते है। अपने ऐसे भाग्य कहाँ जो इस सिद्ध और देवताओं के मार्ग पर चल सकें। इस प्रकार की निराशा बार-बार मन में आती थी लेकिन साथ ही आशा की एक बिजली सी कौंधती थी जैसे कोई कह रहा हो:
जाकी कृपा पंगु गिरि लंधै, अंधे कौ सब कुछ दरसाई॥
बहिरौ सुनै, गैंग पुनि बोलै, रंक चलै सिर छत्र धराई ।
सूरदास स्वामी करुनामय, बार-बार बंद तिहिं पाई
अर्थात
सूरदास जी के इस बहुप्रचलित दोहे के अनुसार जब श्रीहरि की कृपा हो जाती है तो लँगड़ा व्यक्ति भी पर्वतों को लाँघ लेता है, अन्धे को सब कुछ दिखाई देने लगता है, बहरा व्यक्ति सुनने लगता है और गूंगा पुनः बोलने लगता है। किसी दरिद्र व्यक्ति पर श्रीकृष्ण के चरणों की कृपा हो जाने पर वह राजा बनकर अपने सिर पर राज-छत्र धारण कर लेता है।
यह भाव जैसे-जैसे प्रबल होते गये वैसे-वैसे ही अन्तःकरण में एक नवीन आशा और उत्साह का संचार होता गया।
सर्वशक्तिमान की सत्ता कैसी अपरम्पार है कि वह कामना पूर्ण होकर ही रही। वह दिन भी आया जब उस पुण्य प्रदेश में प्रवेश करके वह तन, मनुष्यतन, ईश्वर का दिव्य वरदान सार्थक बना। उन अविस्मरणीय क्षणों का जब भी स्मरण हो आता है तब रोमाँच खड़े हो जाते हैं, आत्मा पुलकित हो उठती है और सोचता हूँ कि हे प्रभु यदि उन्हीं आनन्दमय क्षणों में चिरशाँति प्राप्त हो जाती तो कितना उत्तम होता लेकिन जो कर्मफल अभी और भोगना है उसे कौन भोगता, यह सोच कर किसी प्रकार मन को
समझाना ही पड़ता है।
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संकल्प सूची को गतिशील बनाए रखने के लिए सभी साथिओं का धन्यवाद् एवं निवेदन। आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 10 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज अरुण जी गोल्ड मैडल विजेता हैं। (1)चंद्रेश बहादुर-28,(2 )नीरा त्रिखा-24, (3 )सुमनलता-30 ,(4 )रेणु श्रीवास्तव-37,(5 )सरविन्द पाल-30, (6) सुजाता उपाध्याय-32,(7) स्नेहा गुप्ता-24, (8 ) मंजू मिश्रा-24 , (9 )अरुण वर्मा-61,(10 ) संध्या कुमार-32 सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।
