वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

हिमालय का ह्रदय क्षेत्र भारत में कहाँ स्थित है ?

25 सितम्बर 2023 का ज्ञानप्रसाद

आज सोमवार है, सप्ताह का प्रथम दिन, मंगलवेला का समय जब सम्पूर्ण दिव्य शक्तियां अपने चरम पे होती हैं, हम सब परिजन एक उच्चस्तरीय ऊर्जा के साथ परम पूज्य गुरुदेव के श्री चरणों में, गुरुकुल प्रांगण की दिव्य पाठशाला में उस विशिष्ठ ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करते हैं जो हमें सारा दिन क्या, कई दिनों तक ऊर्जावान बनाये रखता है, ऐसी शक्ति है परम पूज्य गुरुदेव के ज्ञानप्रसाद की शक्ति। 

गंगोत्री,यमनोत्री,नंदनवन,उत्तरकाशी,तपोवन आदि कुछ एक क्षेत्र ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ हमारे परम पूज्य गुरुदेव प्रवास पर रहे। भारत के मानचित्र पर इन स्थानों की लोकेशन के बारे में जानना,

उस क्षेत्र के मौसम वगैरह के बारे में जानना एक रोचक एवं लोकप्रिय विषय हो सकता है। हमारे साथी इस बात से परिचित हैं कि इस क्षेत्र में आजकल (2023) पहुँचना कितना सरल हो चुका  है। अतिआधुनिक हाइवेज एवं helipads आदि ने उत्तराखंड राज्य का जिस गति से विकास किया है,उसे हम सब जानते हैं। इसी विकास से देवभूमि कहलाए  जाने वाले इस क्षेत्र ने पर्यटन के नाम पर जो क्षति पंहुचाई है उसे भी नकारना संभव नहीं है। 

अपने लेखों के माध्यम से परम पूज्य गुरुदेव के मागदर्शन में इस क्षेत्र की दिव्यता पर ही केंद्रित रहने का प्रयास किया जा रहा है। 

आज के लेख का विषय “हिमालय का ह्रदय क्षेत्र- धरती का स्वर्ग” हमें इस बात की जानकारी देने का प्रयास कर रहा है कि हिमालय का ह्रदय कहाँ पर स्थित है और इसे धरती का स्वर्ग क्यों कहा जाता है। क्या सच में ईश्वर का, देवताओं का वास इसी क्षेत्र में है क्योंकि देवताओं के निवास को ही तो स्वर्ग कहते हैं। हरिद्वार-ऋषिकेश को तो “स्वर्ग के  प्रवेशद्वार” की संज्ञा  दी गयी है। 

इन्हीं ओपनिंग रिमार्क्स के साथ आज की पाठशाला का शुभारम्भ करते हैं लेकिन पहले विश्वशांति के लिए प्रार्थना। 

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः ।सर्वे सन्तु निरामयाः ।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ।मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत् ॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

हिन्दी भावार्थ:

सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने।हे भगवन हमें ऐसा वर दो!    

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1950s दशक में परम पूज्य गुरुदेव ने गायत्री संगठन का अधिक से अधिक कार्यभार परम वंदनीय माताजी को सौंपना आरम्भ कर दिया। 1959 में अखंड ज्योति पत्रिका की एडिटिंग का कार्य माताजी को देकर गुरुदेव पौने दो वर्ष के लिए हिमालय में चले गये जहाँ उन्हें गुरुसत्ता से मार्गदर्शन लेना था। अलग-अलग साहित्य का अध्यन करने पर पता चलता है कि गुरुदेव की यह यात्रा 1960 के वसंत पर्व पर आरम्भ हुई थी लेकिन “चेतना की शिखर यात्रा भाग 2” में ऐसा भी वर्णन आता है कि गुरुदेव ने इस यात्रा के प्रस्थान की तिथि घोषित नहीं की थी। मथुरा से रवाना का बहुत से लोगों को तो पता था,हरिद्वार-ऋषिकेश क्षेत्र में भी अपने परिजनों को हिमालय यात्रा की जानकारी तो थी,लेकिन तिथि को सार्वजनिक नहीं किया गया था। यात्रा शुरूहोती है ऋषिकेश से, इससे अधिक किसी को भी नहीं पता, सभी को उतना ही पता है जितना परम पूज्य गुरुदेव ने बताया।

इस यात्रा का मुख्य उद्देश्य तपोवन-नंदनवन क्षेत्र में ऋषियों से साक्षात्कार करना तथा गंगोत्री में रहकर आर्षग्रन्थों ( ऋषियों द्वारा लिखित ग्रन्थ, आर्ष का अर्थ है ऋषि) का भाष्य ( अनुवाद,विवेचना एवं चर्चा) करना था। तब तक वे गायत्री महाविद्या पर विश्वकोश स्तर की रचना, गायत्री महाविज्ञान के तीन खण्ड लिख चुके थे, जिसके अब तक अनेकों संस्करण छप चुके हैं। 

हिमालय से लौटते ही गुरुदेव ने महत्त्वपूर्ण निधि के रूप में वेद, उपनिषद्, स्मृति, आरण्य, ब्राह्मण, योगवाशिष्ठ, मंत्र महाविज्ञान, तंत्र महाविज्ञान जैसे ग्रंथों को प्रकाशित कर देव संस्कृति की मूलथाती को पुनर्जीवन दिया।

आमतौर पर लोग गंगोत्री होते हुए यमनोत्री की यात्रा करते हैं लेकिन गुरुदेव ने पहले यमनोत्री की यात्रा की,उसके बाद उत्तरकाशी होते हुए गंगोत्री, फिर गोमुख और फिर “हिमालय के ह्रदय प्रदेश” में जाने का क्रम बनाया। गुरुदेव को गोमुख तक की यात्रा का मार्ग ही मालुम था। इस तरह के route के पीछे भी शायद गुरुदेव का कोई उद्देश्य ही होगा, वोह तो युगदृष्टा, भविष्यदृष्टा गुरुदेव ही बता सकते हैं।

इस पंक्तियों को लिखते समय लेखक के मन में एक बार फिर से जिज्ञासा हुई कि “हिमालय के ह्रदय प्रदेश” को जाना जाए और अपने साथिओं के साथ विस्तार से चर्चा की जाए कि हिमालय का ह्रदय क्षेत्र भारत के किस भाग में है और इस क्षेत्र में “ह्रदय” जैसी  कौन सी विशेषता है, क्या इस क्षेत्र से विश्व भर की आत्मा का उसी प्रकार  संचालन होता है जैसे एक शरीर का संचालन  ह्रदय से होता है।   

अखंड ज्योति दिसंबर 1960 के अंक में परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि बहुत दिन पूर्व किसी मासिक पत्रिका मे एक लेख पढ़ा था जिसका शीर्षक था “स्वर्ग इस पृथ्वी पर ही था।” इस लेख के लेखक ने किसी धार्मिक या आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं बल्कि भूगोल और इतिहास को दृष्टि को सामने रखकर लिखा था। लेखक ने अनेकों बातों से यह सिद्ध किया था कि हिमालय का मध्य भाग प्राचीन काल में स्वर्ग कहलाता था। आर्य लोग मध्य एशिया से तिब्बत होकर भारत मे आये थे। उन दिनों हिमालय इतना ठंडा नहीं था। पिछली हिमप्रलय के बाद ही वह हिमाच्छादित हो जाने के कारण मनुष्यों  के लिए दुर्गम हुआ है। इससे पूर्व वहाँ का वातावरण मनुष्यों के रहने योग्य ही नही बल्कि अनेक दृष्टियों से अत्यन्त सुविधाजनक व शोभायमान भी था। इसलिए आर्यों के प्रमुख नेतागण-जिन्हें  देव कहते थे इसी भूमि में निवास करने लगे। यह नेतागण अपने साथियों  और अनुयायियों का मार्गदर्शन यहीं पर ही रहकर करते थे। सम्पत्ति, ग्रन्थ तथा अन्य आवश्यक उपकरण यहीं सुरक्षित रखते थे ताकि आवश्यकता के अनुसार तथा समयानुसार उनका उपयोग समतल भूमि पर रहने वाले लोगों के लिए होता रहे और वे वस्तुएं युद्ध के समय दस्युओं, असुरों एवं अन-आर्यों ( Non- aryans) के हाथ न लगने पाएं । देवताओं के राजा की पदवी इन्द्र होती थी । प्रत्येक इन्द्र का सिंहासन इस हिमालय के हृदय प्रदेश स्वर्ग मे ही होता था।

गुरुदेव लिखते हैं कि हालाँकि इस लेख मे अनेकों प्रबल facts थे लेकिन उस समय वह बातें अपने मन मे उतरती नहीं थीं । ऐसा इसलिए था कि जिस स्वर्ग की इतनी महिमा गाई गई हो, जिसे प्राप्त करने के लिए हम इतना त्याग और तप करते हों ; क्या वह इसी पृथ्वी का एक साधारण सा क्षेत्र होगा? स्वर्ग को तो एक लोक “स्वर्गलोक” कहा गया है। लोक का अर्थ होता है पृथ्वी से बहुत दूर, अंतरिक्ष में स्थित कोई ग्रह नक्षत्र जैसा स्थान।

इस स्वर्ग के  अतिरिक्त मानव को अन्तरात्मा में अनुभव होने वाली सुख शान्ति को भी स्वर्ग माना जाता है। फिर हिमालय के एक विशेष भाग को स्वर्ग कैसे मान लिया जाए ?

हमारे पाठक इस बात से भी अवगत हैं कि इंटरनेट पर आये दिन “स्वर्ग की परिभाषा” की परिधि में विस्तार होता जा रहा है। जब हम छोटे बच्चे होते थे तो टीचर हमें अक्सर निबंध लिखने को देते थे, “कश्मीर को धरती का स्वर्ग क्यों कहते हैं ?” तो हमने कई बार अपने मम्मी पापा से यह प्रश्न पूछा होगा -आप तो कहते हैं कि अच्छे कर्म करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है और किसी का दिल दुखाने से, चोरी करने से ,धोखा देने से नर्क को जाते हैं। जब और बड़े हुए तो स्विट्ज़रलैंड को भी स्वर्ग मानने लगे। हिमाचल प्रदेश स्थित खज्जियार को भी मिनी स्विट्ज़रलैंड माना जाता है। ज्यों ज्यों आयु बढ़ती गयी तो अंतरात्मा में अनुभव होने वाली सुख शांति को भी स्वर्ग की दृष्टि से देखना संभव होता गया। अधिकतर विश्व के मानवों में जो बड़ा बनने की भागदौड़ लगी हुई है, किसी भी कीमत पर अमीर होने की जो दौड़ लगी है, पदार्थवाद ने जीवन नर्क सा बना दिया है, कोहलू के बैल की तरह दिन रात काम- काम और केवल काम ने जीवन स्तर को इतना गिरा दिया है कि साधन- सम्पन्नता की दृष्टि से देखा जाये तो आज का मानव क्या कुछ प्राप्त नहीं कर सकता, Sky’s the limit, आज का मानव आकाश के तारे तोड़कर लाने में भी सक्षम है, स्पेस में अपने घर बनाने में, स्पेस टूरिंग करने में भी सक्षम है।

इतना Comparison देखने के बाद ही किसी मानव को स्वर्ग और नर्क के अंतर् का ज्ञान हो सकता है,आंतरिक स्वर्ग-नर्क, अंतरात्मा के स्वर्ग-नर्क का ज्ञान हो सकता है।

ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार के अधिकतर सहकर्मी “जो प्राप्त है वही पर्याप्त है” के सिद्धांत को भलीभांति अपने अन्तःकरण में उतार चुके हैं और प्रगति की ओर हर पल प्रयासरत हैं। इसलिए ऐसा कहना गलत नहीं होगा कि भले ही वह पर्यटन स्थलों के स्वर्ग से वंचित रहे हों परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से, अंतरात्मा में होने वाली सुख शांति के स्वर्ग से भली भांति परिचित हैं। यह निष्कर्ष हमारे व्यक्तिगत हैं जो हमने अलग-अलग परिजनों के साथ, समय- समय पर सम्पर्क से प्राप्त किये हैं।

अब तक की चर्चा से दो बातें समझ आती हैं – एक तो अंतरात्मा का स्वर्ग, जिसे हम आंतरिक स्वर्गलोक कह सकते हैं और दूसरा धरती पर किसी स्थान विशेष का स्वर्ग। पृथ्वी पर कोई स्थान अवश्य ही हो सकता है जो स्वर्ग होने की सम्भावना को प्रकट करता हो।

वर्तमान लेख श्रृंखला में हमारा प्रयास गुरुदेव की हिमालय यात्रा के साथ-साथ, उस क्षेत्र को जानने की दिशा में है जिसे हिमालय का ह्रदय प्रदेश, धरती का स्वर्ग, सिद्ध क्षेत्र, सिद्धाश्रम,ज्ञानगंज, जहाँ न पंहुचे काया आदि विशेषणों से सुशोभित किया गया है।

आने वाले लेखों में इसी जिज्ञासा को आगे बढ़ाने का प्रयास किया जायेगा।

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संकल्प सूची को गति देने के लिए सभी का धन्यवाद् एवं आग्रह । 

आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 10  युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज कुमोदनी एवं सुजाता बहिन जी  गोल्ड मैडल विजेता हैं। कमेंट करके हर कोई पुण्य का भागीदार बन रहा है। (1)चंद्रेश बहादुर-42  ,(2 )नीरा त्रिखा-40  ,(3 )सुमनलता-36,(4 )रेणु श्रीवास्तव-38  ,(5 )सरविन्द  पाल-27(6) सुजाता उपाध्याय-46,(7 )वंदना कुमार-25,(8) निशा भारद्वाज-26, (9 )विदुषी बंता-35, (10 )कुमोदनी गौरहा-48  

सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।


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