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21 सितम्बर 2023 का ज्ञानप्रसाद
आज गुरुवार है, गुरु का पावन दिन, आज की प्रातः का प्रथम व्हाट्सप्प सन्देश हमारी आदरणीय सुमनलता जी का था जिसमें उन्होंने सुझाव दिया था कि गुरुवार के ज्ञानप्रसाद के साथ गुरुदेव से सम्बंधित प्रज्ञा गीत संबद्ध कर दिया जाए तो कितना अच्छा हो। बहिन जी का सुझाव शिरोधार्य करते हुए आज ही रिलीज़ हुआ इशिता विश्वकर्मा जी का प्रज्ञा गीत प्रस्तुत है। बहुत बहुत धन्यवाद् बहिन जी।
आज के ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करने से पूर्व दो बाते और करनी हैं :
1.आदरणीय पूनम बहिन जी ने यूट्यूब पर स्मरण कराया कि परम पूज्य गुरुदेव और वंदनीय माता जी, दोनों का ही जन्म दिवस 20 सितम्बर को आता है, यानि कल था। गुरुदेव का आध्यात्मिक जन्म दिवस वसंत पंचमी को मनाया जाता है,इसलिए शायद शांतिकुंज से कोई जानकारी circulate नहीं हुई, जो भी हो इस पावन दिन के लिए सभी परिजनों के बधाई और पूनम जी का धन्यवाद्।
2. आज हमारे भतीजे आलोक (राधा/राजीव जी के बेटे) का शुभ जन्मदिवस है। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की ओर से आलोक को हमारी शुभकामना, आशा है कि गुरुवर के जन्म दिवस सन्देश का पालन किया जायेगा।
आज के ज्ञानप्रसाद में गुरुदेव कह रहे हैं कि हमारी जीवन साधना को यदि सफल माना जाए,उसमें दिखने वाली विचित्रता को खोजा जाए तो उसका प्रधान कारण हमारी अन्तरंग और बहिरंग स्थिति के परिष्कार को ही माना जाए। पूजा उपासना को मात्र सहायक ही समझा जाए ।
“सुनसान के सहचर” पर आधारित यह लेख हम सबके लिए बहुत ही लाभदायक सिद्ध हो सकता है, ऐसा हम विश्वास करते हैं।
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गुरुदेव कह रहे हैं कि हमारे बहुत से परिजन हमारी साधना और उसकी उपलब्धियों के बारे में जानना चाहते हैं और यह स्वाभाविक भी है। हमारे स्थूल जीवन के जितने अंश प्रकाश में आये हैं, वे लोगों की दृष्टि में अद्भुत हैं। उनमें सिद्धियों, चमत्कारों और अलौकिकताओं की झलक देखी जा सकती है। हमारे जीवन के रहस्य जानने की उत्सुकता छिपी रहनी स्वाभाविक है, सो अगर लोग हमारी “आत्मकथा” जानना चाहते हैं, अगर हमारे बच्चे इसे जानने के लिए विशेष रूप से दबाव डालते हैं तो उसे अकारण नहीं कहा जा सकता ।
हम कभी भी छिपाव के पक्ष में नहीं रहे, हमारा सारा जीवन ही एक खुली किताब की भांति है। छल, कपट, हमारी आदत में है नहीं,जो लोग हमारे साथ रहे हैं, हमारे साथ आयोजनों में जाते रहे हैं, भलीभांति जानते हैं कि जो हम कह रहे हैं सत्य ही है, हमारी विवशता है कि जब तक हम रंगमंच पर प्रत्यक्ष रूप से अभिनय करते रहेंगें, तब तक वास्तविकता बता देना ही उचित रहेगा क्योंकि अगर कुछ और बता दिया तो दर्शकों का आनन्द दूसरी दिशा में मुड़ जाएगा। हम आप लोगों को जिस कर्तव्यनिष्ठा में जगाना चाहते हैं, वह प्रयोजन पूरा न हो सकेगा। लोग रहस्यवाद के जंजाल में उलझ जायेंगे, हमारा व्यक्तित्त्व भी विवादास्पद बन जाएगा, और जिस कार्य को करने/ कराने के लिए हमें भेजा गया है उसमें भी अड़चन पड़ेगी।
नि:संदेह हमारा जीवन-क्रम अलौकिकताओं से भरा पड़ा है। रहस्यवाद के पर्दे इतने अधिक हैं कि उन्हें समय से पूर्व खोला जाना अहितकर ही होगा। सभी रहस्यों को पीछे वालों के लिए छोड़ देते हैं ताकि वोह वस्तु स्थिति की सच्चाई को प्रमाणिकता की कसौटी पर कसें और जो सही निकले उससे यह अनुमान लगाएँ कि
“अध्यात्म विद्या कितनी समर्थ और पूर्ण है ।”
एक नगण्य-सा व्यक्ति पारस को छू कर अपने लोहे जैसे तुच्छ कलेवर को स्वर्ण जैसा बहुमूल्य बनाने में कैसे समर्थ, सफल हो सका, हमारे जीवनक्रम में प्रस्तुत हुए अनेक रहस्यमय तथ्यों की समय आने पर शोध की जा सकती है और उस समय उस कार्य में हमारे अति निकटवर्ती सहयोगी कुछ सहायता भी कर सकते हैं, लेकिन अभी वह समय से पहले की बात है । इसलिए उस पर वैसे ही पर्दा रहना चाहिए, जैसे कि अब तक पड़ा रहा है।
देव संस्कृति विश्विद्यालय में गुरुदेव के व्यक्तित्व पर प्रकाशित हुए कितने ही रिसर्च पेपर्स और थीसिस गुरुदेव की शोध वाली बात को प्रमाणित कर रहे हैं।
आत्म कथा लिखने के आग्रह को केवल इस अंश तक पूराकर सकते हैं कि “हमारा साधना क्रम कैसे चला।” वस्तुतः हमारी सारी उपलब्धियाँ “प्रभु समर्पित साधनात्मक जीवन प्रक्रिया” पर ही आधारित हैं। उसे जान लेने से इस विषय में रुचि रखने वाले हर व्यक्ति को वह रास्ता मिल सकता है, जिस पर चलकर आत्मिक प्रगति और उससे जुड़ी विभूतियाँ प्राप्त करने का आनन्द लिया जा सकता है।
पाठकों को अभी इतनी ही जानकारी हमारी कलम से मिल सकेगी, सो इन दिनों उतने से ही सन्तोष करना पड़ेगा ।
60 वर्ष के जीवन में से 15 वर्ष का आरम्भिक बाल जीवन कुछ विशेष महत्त्व का नहीं है। शेष 5 वर्ष हमने आध्यात्मिकता के प्रसंगों को अपने जीवनक्रम में सम्मिलित करके बिताये हैं। पूजा-उपासना का उस प्रयोग में बहुत छोटा अंश रहा है। 24 वर्ष तक 6 घण्टे रोज की गायत्री उपासना को उतना महत्त्व नहीं दिया जाना चाहिए जितना कि “मानसिक परिष्कार” (Mental refinement) और भावनात्मक उत्कृष्टता (Emotional excellence) की बढ़ोतरी के प्रयत्नों को। यह माना जाना चाहिए कि यदि विचारणा और कार्यपद्धति को परिष्कृत न किया गया होता, तो उपासना के कर्मकाण्ड उसी तरह निरर्थक चले जाते, जिस तरह कि अनेक पूजा-पत्री तक सीमित मन्त्र-तन्त्रों का ताना-बाना बुनते रहने वालों को नितान्त खाली रहना पड़ता है।
हमारी जीवन साधना को यदि सफल माना जाए,उसमें दिखने वाली विचित्रता को खोजा जाए तो उसका प्रधान कारण हमारी अन्तरंग और बहिरंग स्थिति के परिष्कार को ही माना जाए। पूजा उपासना को मात्र सहायक ही समझा जाए ।
आत्मकथा के एक अंश को लिखने का दुस्साहस करते हुए हम एक ही तथ्य का प्रतिपादन करेंगे कि हमारा सारा प्रयास और पुरुषार्थ आत्मशोधन में लगा है, Self-purification में लगा रहा है। जितनी भी उपासना हमसे बन पड़ी है,उसे हमने भावनाओं के refinement के प्रयत्नों के साथ पूरी तरह जोड़ रखा है।आत्मा को खोल कर देखने के मार्ग में साधना की क्या प्रक्रिया है, उसे अपने बच्चों के समक्ष रखने का साहस कर रहे हैं। आशा करते हैं कि इस साहस पर प्रकाश डालने वाली चर्चाएं पाठकों के लिए अति लाभदायक होंगीं।
साधनात्मक जीवन की सारी सीढ़ियां स्वयं से ही सम्बन्धित थी। स्वयं से लड़ाई थी, स्वयं को सँभालना था। पूर्वजन्मों के संस्कार और समर्थ गुरु की सहायता से यह सब आसानी से बन गया, मन दुराग्रही, दुष्ट तो बिल्कुल न था, जो कुमार्ग पर घसीटे जाने की हिम्मत करता । कभी कभार मन ने इधर-उधर भटकने मात्र की कल्पना ही की कि एकदम प्रतिरोध का डण्डा इतने ज़ोर से सिर पर पड़ा कि सहम गया और चुपचाप सही राह पर चलता रहा । कभी कभार न तो स्पीड ब्रेकर देखा और न ही स्टॉप साइन, दरोगा ने आकर जब फाइन की पर्ची हाथ में थमा दी तो होश ठिकाने लग गए।
गुरुदेव बता रहे हैं कि युद्ध तो स्वयं से ही है, स्वयं के मन से। मन इतना चंचल होता है कि गलत,सही सब यही कराता है। हमेशा मन पर अंकुश ही लगाते रहे, अड़ियल घोड़े की भांति उसकी लगाम ही कसते रहे। इस प्रकार मन से लड़ते, झगड़ते, पाप और पतन से भी स्वयं को बचा लिया गया। जब सभी खतरे टल गये तभी सन्तोष की साँस ली ।
कबीर जी की बात बार-बार स्मरण होती आयी, “झीनी-झीनी बीनी चदरिया” बड़े ही यत्न से ओढ़ी थी और बिना दाग-धब्बे ज्यों की त्यों वापिस कर दी। झीनी-झीनी बिनी चदरिया का अर्थ है कि बनाने वाले ने बड़े परिश्रम से और पूर्ण होश से इस शरीर को बनाया है। इसलिए इसको तुम जितना जाग कर जियोगे, उतने ही बारीक और सूक्ष्म जीवन का अनुभव कर पाओगे। जितना सूक्ष्म जीवन अनुभव करोगे, उतना ही ज्यादा जागोगे। इस जीवन की चादर बड़ी पतली है, जितना पारदर्शिता से आर-पार देख पाओगे, उतनी ही बारीकी से उसकी बनावट को समझ पाओगे।
गुरुदेव कहते हैं कि परमात्मा के अनेक-अनेक धन्यवाद कि उन्होंने हमें ऐसी राह पर चला दिया जहाँ हम ऐसे पदचिन्हों को ढूँढ़ते तलाशते, ऐसे आधारों को मजबूती के साथ पकड़े हुए, ऐसे स्थान तक पहुँच गये, जहाँ लुढ़कने और गिरने का रत्ती भर भी खतरा नहीं रहता ।
अध्यात्म की कर्मकाण्डात्मक प्रक्रिया बहुत कठिन नहीं होती। संकल्प बल मजबूत हो, श्रद्धा, निष्ठा कम न पड़े, तो मन इधर-उधर नहीं भटकता और शान्तिपूर्वक एकाग्रता बनने लगती है। यही startup स्टेज है, एक बार यह स्टेज प्राप्त ही गयी तो उपासना के विधिविधान बिना किसी अड़चन के अपने ढर्रे पर चलना शुरू हो जाते हैं। छोटा सा बिज़नेस स्टार्ट करने के लिए भी तो startup investment की आवश्यकता होती है। यह इन्वेस्टमेंट केवल पूँजी की ही न होकर,समय की, श्रद्धा की, समर्पण की, परिश्रम आदि न जाने किस-किस की होती है। इन factors में से किसी एक का भी अभाव हुआ नहीं कि बिज़नेस ठप होते देर नहीं लगती। अक्सर देखा गया है कि पूँजी तो फैमिली बिज़नेस से, विरासत में मिल ही जाती है लेकिन ज्ञान, श्रद्धा, परिश्रम न होने के कारण कुछ का कुछ हो जाता है।
मामूली सा पान का दुकानदार सारी जिन्दगी एक ही दुकान पर, एक ही ढर्रे से पूरी दिलचस्पी के साथ काट लेता है। न मन विचलित होता है, न अरुचि होती है। पान-सिगरेट के खोखे, रेहड़ी के दुकानदार 12-14 घण्टे अपने धन्धे को उत्साह और शान्ति के साथ न केवल आजीवन करते रहते हैं बल्कि अपनी अगली पीढ़ी को भी उसी में लगा लेते हैं। गुरुदेव समझा रहे हैं कि अगर यह लोग (जिन्हें हम अशिक्षित कहते हैं), इतना समय श्रद्धा से लगा सकते हैं तो हमारी गायत्री साधना के 6-7 घण्टे प्रतिदिन, 24 वर्ष तक चलाने का संकल्प कैसे पूर्ण न होता । मन उनका उचटता है जो उपासना को पान-बीड़ी की दुकान, खेती-बाड़ी के परिश्रम भरे कार्य, मिठाई-हलवाई के धन्धे से कम आवश्यक और कम लाभदायक समझते हैं। जो कार्य अरुचिकर होता है उसी में मन नहीं लगता।
अक्सर ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार में प्रश्न जाता है कि साधना में मन नहीं लगता। पूजास्थली में बैठे तो हैं, माला भी फेर रहे हैं, गुरुदेव-माता जी का संरक्षण भी प्राप्त है, लेकिन क्या करें इतने साधन होने के बावजूद मन नहीं लग रहा। ऐसा केवल इसलिए होता है कि हम अपने सिर पर अरुचिकर, unwanted समस्याओं का टोकरा लेकर बैठे हैं, एक-एक समस्या को निकाल कर ईश्वर के समक्ष रख रहे हैं और इंस्टेंट निवारण ढूंढ रहे हैं।
कभी ऐसा हो सकता है ? ईश्वर से बिज़नेस ? ईश्वर से सौदेबाज़ी ? ईश्वर तो unconditional समर्पण मांगते हैं।
यही शिक्षा सोमवार जारी रखने की योजना है, जय गुरुदेव
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आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 8 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज स्नेहा गुप्ता जी गोल्ड मैडल विजेता हैं। कमेंट करके हर कोई पुण्य का भागीदार बन रहा है।
(1)चंद्रेश बहादुर-34,(2 )नीरा त्रिखा-24,(3 )मंजू मिश्रा-24 ,(4) सुमनलता-24 ,(5) संध्या कुमार-31,(6 )रेणु श्रीवास्तव-27,(7)स्नेहा गुप्ता-41,(8)सरविन्द पाल-24
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।