14 सितम्बर 2023 का ज्ञानप्रसाद
आज का ज्ञानप्रसाद आरम्भ करने से पहले ही स्मरण करा दें कि कल शुक्रवार को वीडियो सेगमेंट के स्थान पर “ एक स्पेशल कमैंट्स” सेगमेंट प्रस्तुत किया जायेगा। इस स्पेशल सेगमेंट को आप शनिवार जैसा सेगमेंट भी समझ सकते हैं।
सुजाता बहिन जी की भांति अनेकों साथी कमेंट करते हैं कि गुरुदेव के साहित्य को सभी ने पढ़ा होगा लेकिन ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार में पढ़ने का अनुभव कुछ अलग ही है। जिस सरलता से अथक परिश्रम करके अरुण भैया ज्ञानप्रसाद प्रस्तुत करते हैं, समझने में आसानी होती है।
इस सन्दर्भ में हम सभी का धन्यवाद् करते हुए इतना अवश्य कहेंगें कि यह उनका बड़पन्न है। हमारा प्रयास रहता है कि गुरुदेव के साहित्य को बिना किसी छेड़छाड़ के इतनी सरलता से प्रस्तुत करें कि कोई भी साधारण मनुष्य समझते हुए रंगमंच के दृश्य का अनुभव कर पाए। साहित्य को मात्र पढ़ना ही काफी नहीं है, उसे जीना पड़ेगा,तभी कुछ हो पायेगा।
आज का लेख हिमालय में गुरुदेव और प्रकृति के रोमांचक रंगमंचीय दृश्य वर्णन कर रहा है जिन्हें सीधा अंतर्मन में उतारना चाहिए, तभी हमारे/ आपके प्रयास सार्थक हो पायेंगें।
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गुरुदेव आज कुटिया से बाहर निकलकर भ्रमण करने लगे , तो चारों ओर सहचर दिखाई देने लगे। विशाल वृक्ष पिता और पितामह जैसे दीखने लगे। भोजपत्र के पेड़ ऐसे लगते थे, मानों गेरुआ कपड़ा पहने कोई तपस्वी महात्मा खड़े होकर तप कर रहे हों।
भोजपत्र का नाम हमने अनेकों बार भारतीय ग्रंथों में सुना है, आइए चलते-चलते इस वृक्ष की संक्षिप्त जानकारी भी प्राप्त कर लें।
कागज़ के आविष्कार से पूर्व हमारे देश में लिखने का काम भोजपत्र पर किया जाता था। कवि कालीदास ने अनेकों स्थानों पर अपनी कृतियों में भोजपत्र का उल्लेख किया है। भोजपत्र हिमालय क्षेत्र में उगने वाले भोज नामक वृक्ष के पत्तों का नाम है जो 4500 मीटर की ऊँचाई तक उगता है। Betula utilis इसका botanical नाम है। लिखने के लिए इस भोज नामक वृक्ष की छाल का प्रयोग किया जाता है, पत्ते का नहीं। यह छाल कागज़ी परत की तरह पतले-पतले छिलकों के रूप में निकलती है। भोजपत्र का उपयोग दमा और मिर्गी जैसे रोगों के इलाज में किया जाता है।
गुरुदेव भोजपत्र वृक्षों को तपस्वी महात्मा जैसे बता रहे हैं और देवदारु और चीड़ के लम्बे-लम्बे पेड़ चौकीदार की तरह ऐसे सावधान खड़े थे, मानों उन्होंने मनुष्य जाति में प्रचलित दुर्बुद्धि को अपने समाज में न आने देने के लिए कटिबद्ध रहने का व्रत लिया हुआ हो ।
छोटे-छोटे रंग बिरंगे पौधे नन्हें-मुन्ने बच्चे-बच्चियों की भांति पंक्ति बना कर बैठे थे । पुष्पों के गुच्छे देखकर ऐसे लग रहा था जैसे प्रारम्भिक पाठशाला में छोटे छात्र रंग बिरंगी टोपियां पहने हों। वायु के झोंकों के साथ यह नन्हें-नन्हें पौधे हिलते हुए ऐसे लगते थे जैसे छात्र सिर हिला-हिला कर, दो दूनी चार आदि रटते हुए पहाड़े (Tables) याद कर रहे हों।
नई घास, नए पौधों के पास बैठे पशु-पक्षी मधुर स्वर में ऐसे चहक रहे थे, मानों यक्ष- गन्धर्व इस वनश्री का गुणगान और अभिवादन करने के लिए ही स्वर्ग से उतरे हों। किशोर बालकों की तरह हिरन उछल-कूद मचा रहे थे। जंगली भेंड़ें (बरेड़) ऐसी निश्चिन्त होकर घूम रही थीं, मानों इस “प्रदेश की गृहलक्ष्मी” हों। मन बहलाने के लिए चाबीदार खिलौने की तरह छोटे-छोटे कीड़े पृथ्वी पर चल रहे थे । उनका रंग, रूप, चाल-ढाल सभी कुछ देखने योग्य था। उड़ते हुए पतंगे, फूलों के सौन्दर्य से ईर्ष्या कर रहे थे। पतंगे फूलों को कह रहे थे हमारे से अधिक सुन्दर और कौन हो सकता है। देखने से लग रहा था कि यहाँ तो सुन्दर-असुन्दर की होड़ लगी हुई है।
नवयौवन का भार जिससे संभला न जा रहा हो, ऐसी इतराती हुई पर्वतीय नदी बगल में ही बह रही थी। उसकी चंचलता और उच्छृंखलता का दृश्य देखते ही बनता था। गंगा में और भी नदियाँ आकर मिलती हैं। मिलन के संगम पर ऐसा लगता था, मानो दो सहोदर बहिनें ससुराल जाते समय गले मिल रही हों, लिपट रही हों, ऐसा लग रहा था मानो पर्वतराज हिमालय ने अपनी सहस्र पुत्रियों (नदियों) का विवाह समुद्र के साथ किया हो। ससुराल जाते समय बहिनें कितनी आत्मीयता के साथ मिलती हैं, सड़क पर खड़े-खड़े इस दृश्य को देखते-देखते जी नहीं भरता । इच्छा होती है कि इस दृश्य को टकटकी लगाकर देखते ही रहें ।
वयोवृद्ध राजपुरुषों और लोकनायकों की तरह पर्वतों के शिखर दूर-दूर ऐसे बैठे थे, मानो किसी गम्भीर समस्या को सुलझाने में दत्तचित्त होकर संलग्न हों। हिमाच्छादित चोटियाँ वयोवृद्धों के श्वेत केशों की झाँकी करा रही थीं। उन पर उड़ते हुए छोटे-छोटे बादल ऐसे लग रहे थे, मानो सर्दी से बचाने के लिए नई रुई का बढ़िया टोपा उन्हें पहनाया जा रहा हो।
जिधर भी दृष्टि उठती, ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अपने चारों ओर एक विशाल कुटुम्ब बैठा हुआ है। उनकी ज़बान तो नहीं थी, वे बोलते नहीं थे, लेकिन उनकी “आत्मा में रहने वाला चेतन” बिना शब्दों के ही बहुत कुछ कहे जा रहा था। यह चेतन जो कहता, हृदय से कहता था और करके दिखाता था। गुरुदेव लिखते हैं:
“ऐसी बिना शब्दों की, लेकिन अत्यन्त मार्मिक वाणी इससे पहले कभी भी नहीं सुनने को मिली थी। उनकी भावनाएं सीधे आत्मा तक प्रवेश करते हुए, रोम-रोम को झंकृत किए जा रही थीं। अब सूनापन कहाँ ? अब भय किसका ? हर तरफ तो अपने ही अपने हैं, सहचर ही सहचर हैं ।”
सुनहरी धूप ऊँचे पर्वतों के शिखरों से उतरकर कुछ देर के लिए पृथ्वी पर आ गई ,ऐसा प्रतीत हुआ कि अनजान,अविद्याग्रस्त हृदय में सत्संग करने के लिए ज्ञान का उदय हो गया हो।
ऊँचे पहाड़ों की आड़ में सूर्य देवता इधर-उधर छिपे रहते हैं, केवल दोपहर को ही कुछ घण्टों के लिए उनके दर्शन देते हैं। उनकी ऊर्जावान किरणें, ठण्ड से सिकुड़ते हुए जीवों में चेतना की एक लहर दौड़ा देती हैं। सभी में गतिशीलता और प्रसन्नता उमड़ने लगती है। आत्मज्ञान का सूर्य भी वासना और तृष्णा की चोटियों के पीछे छिपा रहता है,लेकिन जब कभी, जहाँ कहीं भी उसका उदय होता है, वहीं उसकी (आत्मज्ञान की ) सुनहरी किरणें एक दिव्य हलचल उत्पन्न करती हुई अवश्य दिखाई देती हैं ।
गुरुदेव भी अपने शरीर को स्वर्णिम किरणों से आनंदित हो रहे थे और मखमल के कालीन सी बिछी हरी घास पर टहलने की दृष्टि से एक ओर चल पड़े । कुछ ही दूर रंग-बिरंगे फूलों का एक बड़ा पठार था। आँखें उधर ही आकर्षित हुई और पांव उसी दिशा में बढ़ने लगे ।
गुरुदेव-पुष्प संवाद
पुष्प सज्जित पौधे ऐसे लग रहे थे जैसे छोटे बच्चे सिर पर रंगीन टोप पहने हुए पास-पास बैठकर किसी खेल की योजना बनाने में व्यस्त हों। गुरुदेव उन्हीं के बीच जाकर बैठ गए । उन्हें लगा जैसे वह भी एक फूल हूँ, सोचने लगे कि अगर यह पौधे मुझे भी अपना साथी बना लें तो मुझे भी अपना खोया बचपन पाने का पुण्य अवसर मिल जाए। भावना आगे बढ़ी । जब अंतर्मन में शुद्ध विचार उठते हैं तो तर्कवादी कुतर्क विचार भी ठण्डे पड़ जाते हैं। मनुष्य के भावों में प्रबल रचना शक्ति है। भावनाओं में इतनी शक्ति है कि वह अपनी दुनियाँ स्वयं ही बसा लेते हैं, मात्र काल्पनिक ही नहीं, शक्तिशाली और सजीव भी। भावना के बल पर ईश्वर और देवताओं तक की रचना करना संभव है। इन भावनाओं में अगर श्रद्धा के फूल पिरो दिए जाएँ तो असंभव का संभव भी हो सकता। इन्हीं भावनाओं के वशीभूत गुरुदेव का मन फूल बनने को मचल उठा। गुरुदेव को लगा कि इन पंक्ति बनाकर बैठे हुए पुष्प बालकों ने मुझे भी सहचर मानकर अपने खेल में भाग लेने के लिए सम्मिलित कर लिया है।
जिसके पास गुरुदेव बैठे थे वह बड़े से पीले फूल वाला पौधा बड़ा हंसी मज़ाक करने वाला एवं बातूनी था। उसने अपनी भाषा में गुरुदेव से कहा: मित्र, तुम व्यर्थ ही मनुष्यों में पैदा हुए। मनुष्यों की भी कोई जिन्दगी है, हर समय चिन्ता, हर समय उधेड़बुन, हर समय तनाव, हर समय कुढ़न। अगले जन्म में तुम पौधे बनना, हमारे साथ रहना। देखते नहीं हम सब कितने प्रसन्न, कितने खिलते हैं,
“जीवन को खेल मानकर जीने में कितनी शान्ति है”
यह सब लोग जानते हैं। देखते नहीं हमारे भीतर का आन्तरिक उल्लास सुगन्ध के रूप में बाहर निकल रहा है। हमारी हँसी फूलों के रूप में बिखरी पड़ रही है। सभी हमें प्यार करते हैं। सभी को हम प्रसन्नता प्रदान करते हैं। आनन्द से जीते हैं और जो पास आता है, उसी को आनन्दित कर देते हैं। जीवन जीने की यही कला है। This is art of living the life. तुम मनुष्य लोग बुद्धिमानी का गान तो करते हो लेकिन किस काम की वह बुद्धिमानी, जिससे जीवन को साधारण सी, हँस-खेलकर जीने की प्रक्रिया हाथ न आए।
पुष्प ने कहा, “मित्र, न तो मैं तुम्हें ताना मार रहा हूँ और न ही अपनी बड़ाई कर रहा हूँ, यह तो एक तथ्य है, एक fact है। तुम मुझे खुद बताओ कि जब हम धनी, विद्वान्, गुणी, सम्पन्न वीर और बलवान् न होते हुए भी अपने जीवन को हँसते हुए तथा सुगन्ध फैलाते हुए जीवन व्यतीत कर सकते हैं, तो तुम मनुष्य वैसा क्यों नहीं कर सकते ? मनुष्य के पास हमारी तुलना में असंख्य गुना साधन उपलब्ध हैं लेकिन यह सब उपलब्धियां होने के बावजूद वह चिन्तित और असन्तुष्ट रहता है तो क्या इसका कारण उसकी “बुद्धिहीनता” नहीं मानी जायेगी ?” तुम तो बहुत हो बुद्धिमान् हो, जो उन बुद्धिहीनों को छोड़कर कुछ समय हमारे साथ हँसने- खेलने चले आए, चाहो तो हम अकिंचनों से भी “जीवन विद्या” का एक महत्वपूर्ण तथ्य सीख सकते हो।”
गुरुदेव बता रहे हैं: मेरा मस्तक श्रद्धा से झुक गया, मैंने कहा, “हे पुष्प मित्र, तुम धन्य हो, स्वल्प साधन होते हुए भी तुम जानते हो कि तुम्हें कैसा जीवन जीना चाहिए। एक हम मानव हैं जो उपलब्ध सौभाग्य को कुढ़न में ही व्यतीत करते हैं। मित्र,तुम सच्चे उपदेशक हो, वाणी से नहीं, जीवन से सिखाते हो, बाल-सहचर मैं यहाँ सीखने आया हूँ, तुमसे बहुत सीख सकूँगा। सच्चे साथी की तरह सिखाने में संकोच न करना।”
हँसोड़ पीला पौधा, खिलखिलाकर हँस पड़ा, सिर हिला-हिलाकर स्वीकृति दे रहा था और कहने लगा,
“सीखने की इच्छा रखने वाले के लिए तो पग-पग पर शिक्षक मौजूद हैं लेकिन सीखना कौन चाहता है? सभी तो अपने अहंकार में डूबे हैं। सीखने के लिए ह्रदय का द्वार खोल दिया जाए तो वायु की भांति सच्ची शिक्षा स्वयमेव ही ह्रदय में प्रवेश कर जाती है।”
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आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 14 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज अरुण जी और सरविन्द जी गोल्ड मैडल विजेता हैं। उन्हें हमारी बधाई। कमेंट करके हर कोई पुण्य का भागीदार बन रहा है।
(1)सरविन्द कुमार-68,(2) चंद्रेश बहादुर-45,(3 )नीरा त्रिखा-28 ,(4)वंदना कुमार-25,(5)अरुण वर्मा-67,(6) सुजाता उपाध्याय-45,(7 ) मंजू मिश्रा-41,(8)विदुषी बंता-25,(9) सुमनलता-38,(10) संध्या कुमार-59 ,(11)रेणु श्रीवास्तव-47 ,(12)अनिल मिश्रा-25 ,(13 )पुष्पा सिंह-30,(14)पूनम कुमारी-28
सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।
