वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गुरुदेव की हिमालय यात्रा से प्राप्त शिक्षा-पार्ट 6 

13 सितम्बर 2023 का ज्ञानप्रसाद

परम पूज्य गुरुदेव की हिमालय यात्रा पर आधारित आज के शिक्षाप्रद लेख को आरम्भ करने से पहले ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के साथिओं से इस आशा के साथ, दो निवेदन करने का प्रयास करेंगें कि हमें अपने साथियों की पूर्व-सहमति उपलब्ध है। 

1.पहला निवेदन हमारी आजकल की दिनचर्या के सम्बन्ध में  है। दो दिन पूर्व ही हम अपने बड़े बेटे के पास Vancouver आये हैं ,यहाँ का समय,  भारत के समय  से साढ़े 12 घंटे पीछे है।  इस Time difference के कारण जो ज्ञानप्रसाद भारतीय समय के अनुसार प्रातः तीन बजे पोस्ट होता था अब हमारे अथक प्रयत्न के बावजूद 5:00 बजे से पूर्व पोस्ट नहीं हो पा रहा। अपने सभी साथियों से निवेदन कर रहे हैं कि केवल एक माह के लिए यानि 13 अक्टूबर तक इस स्थिति के साथ adjust कर लें और ज्ञानप्रसाद 3:00 बजे के बजाए 5:00 बजे ही प्राप्त करने की आशा करें ,बड़ी कृपा होगी।   

2.दूसरा निवेदन इस सप्ताह शुक्रवार को प्रकाशित होने वाली वीडियो के बदलाव के सम्बन्ध में है। कल प्रकाशित  हुए ज्ञानप्रसाद लेख में इतने उच्चकोटि के,विस्तृत कमेंट पोस्ट हुए हैं  कि भावनावश हमने वीडियो प्रकाशन को स्थगित करके इन कमैंट्स को आपके समक्ष रखने का विचार किया है। हम जानते हैं कि अधिकतर साथिओं ने यह कमेंट देख लिए होंगें लेकिन अनेकों ऐसे भी होंगें जो इन दिव्य, उत्कृष्ट कमैंट्स के अमृतपान से वंचित रह गए होंगें।

इसी के साथ आज के ज्ञानप्रसाद का शुभारम्भ होता है। 

********************       

सूनेपन के अन्धकार से प्रकाश का प्राकट्य  : 

इतने में देखा कि उछलती हुई लहरों पर थिरकते हुए अनेक चन्द्र प्रतिबिम्ब एक रूप होकर चारों ओर से इकट्ठे हो रहे और मुस्कराते हुए कुछ कह रहे हैं। इनकी बात सुनने की चेष्टा की, तो नन्हें बालक जैसे वे प्रतिबिम्ब कहने लगे:  

“हम इतने सारे  चन्द्र तुम्हारे साथ खेलने के लिए, हँसने-मुस्कराने के लिए मौजूद हैं, क्या तुम  हमें अपना सहचर नहीं  मानोगे ? क्या हम अच्छे साथी नहीं हैं ? हे मानव,  तुम अपनी स्वार्थी दुनियाँ में से आये हो, जहाँ जिससे जिसकी ममता होती है, जिससे जिसका स्वार्थ सधता है, वही  प्रिय लगता है। जिससे स्वार्थ सधा वही  प्रिय,वही अपना, जिससे स्वार्थ न सधा वह पराया, वह बिराना। तुम्हारी दुनियाँ का यही  दस्तूर है न। आप अपनी दुनिया को  छोड़ो और  हमारी दुनियाँ का दस्तूर सीखो। 

हमारी दुनिया में  संकीर्णता नहीं है ,स्वार्थ नहीं है, यहाँ सभी अपने हैं, सबमें अपनी ही आत्मा है। ऐसा सोचा जाता है। तुम भी इसी प्रकार सोचो। फिर हम चन्द्र बिम्बों के सहचर रहते तुम्हें बिल्कुल भी सूनापन प्रतीत न होगा।

तुम तो यहाँ कुछ साधना करने आये हो न, साधना करने वाली इन गंगाओं  को देखते नहीं, “प्रियतम के प्रेम” में तल्लीन होकर उनसे मिलने के लिए कितनी तल्लीनता और आतुरता से चली जा रही हैं । रास्ते के विघ्न उसे कहाँ रोक पाते हैं ? अन्धकार और अकेलेपन को वह कहाँ देखती है ? “लक्ष्य की यात्रा” से एक क्षण के लिए भी उसका मन कभी भी इधर उधर नहीं होता ? यदि साधना का पथ अपनाना है तो तुम्हें भी यही प्रक्रिया अपनानी होगी, यही attitude अपनाना होगा। जब प्रियतम को पाने के लिए तुम्हारी आत्मा भी गंगा की अविरल धारा की तरह आगे बढ़े जा रही होगी तो तुम्हें  भीड़ के साथ  आकर्षण कैसे लगेगा। तुम अकेले में रहना पसंद करोगे और वही सूनापन तुम्हें अच्छा लगेगा। जब ऐसी स्थिति पहुँच जायेगी तो  तुम्हें सूनेपन में भय लगेगा क्या ?,बिल्कुल नहीं।

“गंगातट पर निवास करना है तो गंगा की प्रेम साधना भी सीखो साधक।” 

शीतल लहरों के साथ अनेक “चन्द्र बालक” नाच रहे थे। मानो प्रतक्ष्य  रास, नृत्य हो रहा हो। लहरें गोपियाँ बनीं हुई हैं, चन्द्र ने कृष्ण रूप धारण किया हुआ है,  हर गोपी के साथ एक कृष्ण ! कैसा अद्भुत “ रास नृत्य” है, जिसे  यह आँखें देख रही थीं। मन आनन्द में डूबा था । 

ऋतम्भरा प्रज्ञा कह रही थी- “देख-देख ! अपने प्रियतम की झाँकी देख | हर काया में आत्मा उसी प्रकार नाच रही है, जैसे गंगा की लहरों के साथ एक ही चन्द्र के अनेक बिम्ब नृत्य कर रहे हों ।” 

इस दृश्य के संदर्भ में ऋतम्भरा प्रज्ञा को बुद्धि की प्रकाष्ठा मान कर प्रयोग किया गया है, अर्थात Highest level of wisdom.

पूज्य गुरुदेव सारी रात वहीं पर बैठे इन मनोरम दृश्यों को निहारते रहे और अपने बच्चों के लिए, हमारे लिए,  “सुनसान के सहचर” नामक दिव्य पुस्तक के लिए अपनी डायरी में notes लिखते रहे।

गुरुदेव बता रहे हैं कि अब तो सूर्य भगवान की मधुर लालिमा भी प्रकट होने लगी थी । जो देखा वोह अद्भुत था, जो अनुभव करते हुए अंतरात्मा में उतारा था, वोह अद्वितीय था,unparalleled था।

सूनेपन का भय चला गया। धीरे-धीरे झोंपड़ी  की ओर कदम  लौट रहे थे। “सूनेपन के अंधकार से प्रकाश का प्राकट्य” अभी भी मस्तिष्क में मौजूद था। मनुष्य की यह अद्भुत विशेषता है कि वह जिन परिस्थितियों में रहने लगता है, उसी का  अभ्यस्त हो जाता है,आदी  हो जाता है। जब मैंने इस निर्जन वन की इस सुनसान कुटिया में प्रवेश किया था, तो सब ओर सूना ही सूना, सुनसान सा लग रहा था। अंतर्मन  का सुनसान जब बाहर निकल पड़ा था तो सर्वत्र सुनसान ही दिखता था लेकिन अब स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है। अंतर्मन  की लघुता, संकीर्णता, तंगदिली धीरे-धीरे समाप्त होती गई,चारों ओर अपने ही अपने हँसते-बोलते नज़र आते गए। अब सूनापन कहाँ है ?कहीं भी तो नहीं है। अगर सूनापन ही नहीं तो अन्धेरे में किस बात का डर है, सभी तो साथ हैं। 

उस दिन चन्द्रमा के  दूधिया प्रकाश में चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश दिखाई दिया था लें आज उससे बिल्कुल ही विपरीत रात थी, आज अमावस की रात थी। आज गुरुदेव के कोई अन्य सहचर होंगें। 

तो आइए देखते हैं आज की स्थिति: 

अमावस्या की अन्धेरी रात, बादल घिरे हुए, छोटी-छोटी बूँदें, ठण्डी वायु कम्बल को पार करते हुए भीतर घुसने का प्रयत्न कर रही थी । छोटी सी कुटिया में, पत्ते की चटाई पर पड़ा हुआ यह शरीर आज फिर असुखकर उदासी सी अनुभव करने लगा। आज फिर से  नींद उचट गई। विचारों का प्रवाह फिर चल पड़ा। 

एक तरफ तो स्वजन सहचरों से भरे सुविधाओं से सम्पन्न घर थे और दूसरी तरफ घने वन  में,  अँधेरे की चादर लपेटे वायु के झोंके से थर-थर काँपती हुई, जल से भीग कर टपकती पर्णकुटी की थी।  जैसी मन की आदत है, दोनों के गुण-दोष गिने जाने लगे । 

पर्णकुटी वन में पत्तों और घासफूस से बनी कुटिया को कहते हैं। देव संस्कृति यूनिवर्सिटी के चांसलर श्रद्धेय डॉक्टर साहिब के निवास का नाम भी पर्ण कुटीर है। इसी कुटीर पर हमने एक वीडियो भी शूट की हुई है जिसका लिंक इधर दे रहे हैं। 

शरीर असुविधा अनुभव कर रहा था। मन तो शरीर का ही सहचर है। इस असुविधा में भला वह कैसे  प्रसन्न रह सकता है ?  शरीर और मन की मिलीभगत जो है। आत्मा चाहे जैसा समझे, यह दोनों इसके विरुद्ध हो जाते हैं, सीना तानकर आत्मा का विरोध करते हैं और ऊपर से यह मस्तिष्क, इनका खरीदा हुआ वकील है। जिसमें शरीर और मन की  अरुचि होती है, उसी का समर्थन करते रहना मस्तिष्क ने अपना व्यवसाय बनाया हुआ है। जिस प्रकार राजा के दरबारी, हवा का रुख देखकर बात करने की कला में निपुण होते हैं, राजा को प्रसन्न रखने, उसकी हाँ में हाँ मिलाने में दक्षता प्राप्त किए रहते थे, वैसा ही यह मस्तिष्क भी है। मन की रुचि देखकर उसी के अनुकूल यह विचार प्रवाह को छोड़ देता है। उस विचार प्रवाह के समर्थन में अनेकों  कारण हेतु प्रयोजन और प्रमाण उपस्थित कर देना मस्तिष्क के  बाँये हाथ का खेल है। सुविधाजनक घर के गुण और इस कष्टकारक सुनसान वन  के दोष बताने में वह बैरिस्टरों के भी कान काटने लगा। सनसनाती हुई हवा की तरह उसका अभिभाषण भी ज़ोरों  से चल रहा था ।

इतने में सिरहाने की ओर छोटे से छेद में बैठे हुए “झींगुर” ने अपना मधुर संगीत गाना आरम्भ कर दिया। एक से प्रोत्साहन पाकर दूसरा बोला, दूसरे की आवाज सुनकर तीसरा, फिर उससे चौथा, इस प्रकार कुटी में अपने-अपने छेदों में बैठे, कितने ही झींगुर एक साथ गाने लगे । उनका गायन यों उपेक्षा बुद्धि से तो अनेकों बार सुना था। उसे कर्कश, व्यर्थ और मूर्खतापूर्ण समझा था, लेकिन आज मन के लिये कुछ काम न था, इसलिए मन ने  ध्यानपूर्वक इस गायन के उतार-चढ़ाव को परखना आरम्भ किया।  सुनसान वन  की निन्दा करते-करते वह थक भी गया था। मनरूपी  “चंचल बन्दर” को बहलाने के लिए हर घड़ी नये-नये प्रकार के काम चाहिए। झींगुर की गान-सभा का समा बँधा, तो उसी में रस लेने लगा। झींगुर ने बड़ा मधुर गाना गाया। उसका गीत मनुष्य की भाषा में न था, लेकिन भाव वैसे ही मौजूद थे  जैसे मनुष्य सोचता है।

झींगुर एक किस्म का बड़े बड़े  पंखों  वाला बरसाती कीड़ा होता है जो पंखों की रगड़ से  झी झी झें झें की आवाज़ निकालता है ,इसीलिए इसका नाम झींगुर है ,अंग्रेजी में इसे Cricket  कहते हैं। 

झींगुर ने  गाया “हम असीम क्यों न बनें ? असीमता का आनन्द क्यों न लें ? सीमा ही बन्धन है, असीमता में मुक्ति का तत्त्व भरा है। जिसका इन्द्रियों में ही सुख सीमित है, जो कुछ चीज़ों  और कुछ व्यक्तियों को ही अपना मानता है, जिसका स्वार्थ थोड़ी-सी कामनाओं तक ही सीमित है,यह  तुच्छ  प्राणी, इस असीम परमात्मा के, असीम विश्व में, भरे हुए असीम आनन्द का अनुभव कैसे  कर सकेगा ? अंतर्मन से उठी आवाज़ कह रही थी: 

“जीव तू असीम हो, आत्मा का असीम विस्तार कर, सर्वत्र आनन्द ही आनन्द बिखरा पड़ा है, उसे अनुभव कर और अमर हो जा।”

इकतारे पर जैसा बीतराग ज्ञानियों की मण्डली मिलजुल कर कोई निर्वाण का पद गा रही हो, वैसे ही यह झींगुर बिना किसी रोकटोक के गाए जा  रहे थे, किसी को सुनाने के लिए नहीं बल्कि अपने ही सुख के लिए उनका यह प्रयास चल रहा था। गुरुदेव भी  उसी में विभोर हो गए । वर्षा के कारण क्षतिग्रस्त कुटिया से उत्पन्न असुविधा का कोई भी ख्याल नहीं आ रहा था। सुनसान में शान्तिगीत गाने वाले सहचरों ने उदासीनता को हटाकर उल्लास का वातावरण उत्पन्न कर दिया । पुरानी आदतें छूटने लगीं। मनुष्यों तक सीमित आत्मीयता से बढ़कर प्राणिमात्र तक विस्तृत होने का प्रयत्न किया, तो संसार  बहुत बड़ा  हो गया । मनुष्य के साथ रहने के सुख की अनुभूति से बढ़कर अन्य प्राणियों के साथ भी वैसी ही अनुभूति करने की प्रक्रिया सीख ली। अब इस निर्जन वन में भी कहीं सूनापन दिखाई नहीं देता।

तो मित्रो यह है अमावस की रात में उस सुनसान बियाबान जंगल में गुरुदेव के सहचरों का संक्षिप्त वर्णन। कल एक और ऐसा ही दिव्य दृश्य, शिक्षा से भरपूर विवरण,सुन्दर उपमा के साथ आपके समक्ष प्रस्तुत होंगें, तब तक के लिए अल्प विराम। 

****************

आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 14  युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज चंद्रेश  जी गोल्ड मैडल विजेता हैं। उन्हें हमारी बधाई। कमेंट करके हर कोई पुण्य का भागीदार बन रहा है। 

(1)सरविन्द कुमार-37,(2) चंद्रेश बहादुर -51,(3 )नीरा त्रिखा-29,(4)वंदना कुमार-24,(5)अरुण वर्मा-46,(6) सुजाता उपाध्याय-34,(7 ) मंजू मिश्रा-27,(8)विदुषी बंता-24,(9) सुमनलता-30,(10) संध्या कुमार-47,(11)रेणु श्रीवास्तव- 42,(12)तेजस गेमिंग-38,(13)अनिल मिश्रा-31,(14)प्रेरणा कुमारी-24   

सभी साथिओं को हमारा व्यक्तिगत एवं परिवार का सामूहिक आभार एवं बधाई।


Leave a comment