6 सितम्बर 2023 का ज्ञानप्रसाद
कल के ज्ञानप्रसाद की भांति आज भी हम दुर्गम हिमालय क्षेत्र में परम पूज्य गुरुदेव की यात्रा से सम्बंधित दो दिव्य विवरण की चर्चा कर रहे हैं। “पीली मक्खियां” और “ठंडे पहाड़ों में गरम कुंड”- स्वयं ही उच्चकोटि की शिक्षा प्रदान कर रहे हैं।
“सुनसान के सहचर” में प्रकाशित दोनों विवरण अति रोचक होने के साथ-साथ अति शिक्षाप्रद भी हैं -अगर अध्ययन करते समय शिक्षा पार्ट को आत्मसात किया जाए तो हमारा प्रयास सार्थक सिद्ध होगा।
ईश्वर द्वारा रचित इस सृष्टि में जो विपुल उपभोग सामग्री उपलब्ध है,वह सभी संतानों के लिए मिल-बाँट कर खाने के लिए है, लेकिन हर कोई जितना हड़प सके, उतने पर कब्जा जमाने के लिए उतावला हो रहा है। मनुष्य यह भी नहीं सोच रहा कि शरीर की, कुटुम्ब की आवश्यकता तो थोड़ी सी ही है, उतने तक सीमित रहें तो क्या हो जायेगा? लेकिन नहीं, हमें तो आवश्यकता से अधिक वस्तुओं पर कब्जा जमाकर, दूसरों को कठिनाई में डालकर, व्यर्थ की मल्कियत का बोझ सिर पर लादकर ही मज़ा आता है। मनुष्य को यह भी मालुम है कि यह मल्कियत ज़्यादा देर तक उसके कब्ज़े में नहीं रहने वाली। लेकिन मुर्ख की सोच का क्या करें,उसे तो “समाज में दबदबा” बनाए रखना है।
शुभारम्भ होता है आज की गुरुकुल ज्ञानशाला ( यह भी सुमनलता बहिन जी का आविष्कार है) का,परम पूज्य गुरुदेव के साथ हिमालय में।
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पीली मक्खियाँ
हिमालय के गंगोत्री क्षेत्र में चलते हुए गुरुदेव बता रहे हैं :
आज हम लोग घने वन में होकर चुपचाप चले जा रहे थे, तो सेब के पेड़ों पर भिनभिनाती पीली मक्खियाँ हम लोगों पर टूट पड़ीं, बुरी तरह चिपट गईं, छुटाने से भी न छूट रही थीं। उन्हें हाथों से, कपड़ों से हटाया, भागे भी, लेकिन देर तक पीछा करती रहीं। किसी प्रकार गिरते-उठते लगभग आधा मील आगे निकल गये, तब कहीं जाकर उनसे पीछा छूटा। उनके जहरीले डंक जहाँ-जहाँ लगे थे, सूजन आ गई, दर्द भी होता रहा।
इस विवरण से प्राप्त हुई शिक्षा:
सोचता हूँ इन मक्खियों को इस प्रकार हमारे ऊपर आक्रमण करने की क्यों सूझी, हमें सता कर इन्हें क्या मिल गया ? इन मक्खियों ने क्या प्राप्त किया ? लगता है यह मक्खियाँ सोचती होंगी कि यह वनप्रदेश हमारा है, हमें तो यहीं रहना है। हमारे लिए यह सुरक्षित प्रदेश रहे, कोई हमारे प्रदेश में आगमन न करे।
उनकी भावना के विपरीत हमने उधर से गुज़रते देखा कि वोह भी तो हमारे प्रदेश में हस्तक्षेप करती हैं, हमारे अधिकार क्षेत्र में अपना अधिकार जमाती हैं। संभव है कि हमारे उधर से (उनके क्षेत्र में) गुज़रने को मक्खिओं ने ढीठता समझा हो और अपने बल का प्रदर्शन करके हस्तक्षेप का मज़ा चखाने के लिए आक्रमण किया हो ।
यदि ऐसी ही बात है, तो इन मक्खियों की मूर्खता थी। वह वन तो ईश्वर का बनाया हुआ था,उन्होंने स्वयं तो बनाया नहीं था। उन्हें तो पेड़ों पर रहकर अपनी गुजर-बसर करनी चाहिए थी। सारे प्रदेश पर कब्जा करने की व्यर्थ की लालसा क्यों पाले बैठी हैं। उन्हें सोचना चाहिए कि यह साझेदारी की दुनियाँ है, सभी लोग इस दुनिया का मिल-जुलकर उपयोग करें, तो ही ठीक रहेगा । यदि हम लोग उधर से निकल रहे थे, उस वनश्री की छाया-शोभा और सुगन्ध का लाभ उठा रहे थे, तो थोड़ी सी लेन-देन की प्रवृति रखतीं तो उनका क्या घट जाता। इन मक्खियों ने अनुदारता करके हमें काटा, सताया, अपने डंक खोये, कोई-कोई तो इस झंझट में कुचल भी गयीं, घायल भी हुईं और मर भी गईं। वे क्रोध और गर्व न दिखातीं, तो उन्हें व्यर्थ की हानि क्यों उठानी पड़ती और क्यों हम सबकी दृष्टि में मूर्ख और स्वार्थी सिद्ध होतीं। हर दृष्टि से इस आक्रमण और अधिकार के लालच में मुझे कोई बुद्धिमानी न दिखाई दी।
लेकिन बेचारी इन मक्खियों को ही क्यों कोसा जाये ? उन्हीं को मूर्ख क्यों कहा जाये ? जबकि आज का मनुष्य भी इसी रास्ते पर चल रहा है । इस सृष्टि में जो विपुल उपभोग सामग्री परमात्मा ने पैदा की है, वह उसकी सभी संतानों के लिए मिलकर बाँटकर खाने और लाभ उठाने के लिए है, लेकिन हर कोई जितना हड़प सके, उतने पर कब्जा जमाने के लिए उतावला हो रहा है। मनुष्य यह भी नहीं सोच रहा कि शरीर की, कुटुम्ब की आवश्यकता तो थोड़ी सी ही है, उतने तक सीमित रहें तो क्या हो जायेगा? लेकिन नहीं, हमें तो आवश्यकता से अधिक वस्तुओं पर कब्जा जमाकर, दूसरों को कठिनाई में डालकर, व्यर्थ की मल्कियत का बोझ सिर पर लादकर ही मज़ा आता है। मनुष्य को यह भी मालुम है कि यह मल्कियत ज़्यादा देर तक उसके कब्ज़े में नहीं रहने वाली । लेकिन मुर्ख की सोच का क्या करें, जो कहता है “समाज में दबदबा भी तो रहता है न ।” इसी सोच के कारण, अधिकार लिप्सा के स्वार्थ और संग्रह में मनुष्य अन्धा हुए जा रहा है। मिल-बाँटकर खाने की नीति उसकी समझ में ही नहीं आती। जो कोई भी ऐसे स्वार्थी के रास्ते में बाधक होते दिखता है, उसी पर आँखें दिखाता है, अपनी शक्ति का प्रदर्शन करता है और पीली मक्खियों की तरह टूट पड़ता है। पीली मक्खियाँ तो नन्हें-नन्हें डंक मारकर, आधा मील पीछा करके वापिस लौट गईं, लेकिन मनुष्य की अधिकार लिप्सा, स्वार्थपरता और अहंकार से उद्धत होकर किये जाने वाले आक्रमणों की भयंकरता को जब सोचता हूँ तो बेचारी पीली मक्खियों को बुरा-भला कहने में जीभ सकुचाने लगती है, मनुष्य के लालच का तो क्या कहा जाए।
निम्नलिखित विचार गुरुदेव के न होकर लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं :
हम जब मनुष्य को वन्य सम्पदा नष्ट करके अपना अधिपत्य जमाते हुए देखते हैं तो बहुत ही कष्ट होता है। कनाडा का British Columbia राज्य प्राकृतिक सौंदर्य के लिए विश्वप्रसिद्ध है। मनुष्य ने पहाड़ों की चोटियों पर अपने घर बना लिए है, वही पहाड़ों की चोटियां जो रीछ, हिरन आदि जीव जंतुओं के आवास हुआ करते थे। परिणाम स्वरूप इन जीव जंतुओं को अपना पेट पालने के लिए नीचे रह रहे लोगों के घरों में शिकार करना पड़ रहा है, जिसने जनसाधारण के जीवन पर भी असर डाला है। आये दिन ऐसे जानवर लोगों के backyard में देखे जा रहे हैं। अभी तो वोह केवल dustbin आदि में ही अपना भोजन ढूढ़ रहे हैं, वह दिन दूर नहीं जब वह हमारे घर के अंदर भी आ जायेंगें। बड़ा ही सरल सा सिद्धांत है “मनुष्य ने उनके घरों में डाका डाला तो वोह चुप क्यों बैठेंगें, उन्होंने ने भी अपना पेट पालना है” वाह रे ईश्वर तेरी कलाकृति !!! यह है आधुनिक युग का सबसे विकसित प्राणी।
ठण्डे पहाड़ों में गर्म कुंड
कई दिन से शरीर को सुन्न कर देने वाले बर्फीले ठण्डे पानी से स्नान करते आ रहे थे। किसी प्रकार हिम्मत बाँधकर एक-दो डुबकी तो लगा लेते थे, लेकिन जाड़े के मारे शरीर को ठीक तरह रगड़ना और ठीक से स्नान करना नहीं बन पा रहा था, जैसा देह की सफाई की दृष्टि से आवश्यक है। आगे जगननी चट्टी पर पहुँचे, तो पहाड़ के ऊपर वाले तीन तप्त कुण्डों (Hot water springs) का पता चला, जहाँ से गरम पानी निकलता है। ऐसा सुयोग पाकर मल-मलकर स्नान करने की इच्छा प्रबल हो गई। गंगा का पुल पार कर ऊँची चढ़ाई को कई जगह बैठ-बैठकर हाँफते-हाँफते पार किया और तप्त कुण्डों पर जा पहुँचे । बराबर- बराबर तीन कुण्ड थे, एक का पानी इतना गरम था कि उसमें नहाना तो दूर, हाथ दे सकना भी कठिन था। बताया गया कि यदि चावल-दाल की पोटली बाँधकर इस कुण्ड में डाल दी जाय तो कुछ ही देर में खिचड़ी बन जाए। यह प्रयोग तो हम न कर सके,लेकिन पास वाले दूसरे कुण्ड में जिसका पानी सदा गरम रहता है, खूब मल-मलकर स्नान किया और हफ्तों की अधूरी आकांक्षा पूरी की, कपड़े भी गरम पानी से खूब धुले, अच्छे साफ हुए ।
सोचता हूँ कि पहाड़ों पर बर्फ गिरती रहती है और झरने ( waterfall) का पानी सदा बर्फ सा ठण्डा ही होता है लेकिन यहीं पर कहीं-कहीं ऐसे गर्म कुंड (Springs) क्यों फूट पड़ते हैं ? मालूम होता है कि पर्वत के भीतर कोई sulphur की परत है वही अपने समीप से गुजरने वाली जलधारा को असह्य गर्मी दे देती है।
नोट: धरती के गर्भ में कई मीटर नीचे पिघला हुआ पदार्थ होता है जिसे लावा (Magna) कहते हैं ,कभी कभार यह पिघला पदार्थ फूट कर बाहिर निकल आता है, ज्वालामुखी ( ज्वाला-अग्नि, मुखी- मुख) इसी का उदहारण है।
इस विवरण से प्राप्त हुई शिक्षा:
इसी तरह किसी सज्जन में अनेक शीतल शांतिदायक गुण होने से उसका व्यवहार ठण्डे कुंड की तरह शीतल हो सकता है, लेकिन यदि दुर्बुद्धि की एक भी परत छिपी हो, तो उसकी गर्मी गरम कुंडों की भांति बाहर फूट पड़ती है और वह छिपती नहीं।
जो पर्वत अपनी शीतलता को लगातार बनाए रखना चाहते हैं, उन्हें इस प्रकार की गन्धक जैसी विषैली पर्तों को बाहर निकाल फेंकना चाहिए। एक दूसरा कारण इन तप्त कुण्डों का और भी हो सकता है कि शीतल पर्वत अपने भीतर के इस विकार को निकाल कर बाहर फेंक रहा हो और अपनी दुर्बलता को छिपाने की अपेक्षा सबके सामने प्रकट कर रहा हो । दुर्गुणों का होना बुरी बात तो है ही, लेकिन उससे भी बुरी बात है,उन्हें छिपाना।
“इस तथ्य को यह पर्वत जानते हैं, यदि मनुष्य भी इसे जान लेता तो कितना अच्छा होता।”
यह समझ में आता है कि जो लोग ठंडे स्नान से खिन्न हो जाते हैं, उनके लिए पर्वत राज ने गर्म जल की सुविधा प्रदान की है। इस प्रक्रिया से पर्वत ने अपने भीतर बची थोड़ी गर्मी को बाहर निकालकर रख दिया हो। बाहर से तो वह भी ठण्डा हो चला,लेकिन भीतर कुछ गर्मी बच गई होगी। पर्वत सोचता होगा जब सारा ही ठण्डा हो चला, तो इस थोड़ी-सी गर्मी को बचाकर ही क्या करूँगा, इसे भी क्यों न जरूरतमन्दों को दे डालूँ ।
उस “आत्मदानी पर्वत” की तरह अनेकों व्यक्ति ऐसे हो सकते हैं, जो स्वयं तो अभावग्रस्त, कष्टसाध्य जीवन व्यतीत कर रहे हों, उनके पास जो भी जो शक्ति बची हो उसे भी जनहित में लगाकर इन तप्त कुण्डों का आदर्श उपस्थित कर रहे हों ।
इस शीतप्रदेश का वह तप्त कुण्ड भुलाये नहीं भूलेगा। मेरे जैसे हजारों यात्री उसका गुणगान करते रहेंगे, उसका त्याग भी तो असाधारण है। स्वयं ठण्डे रहकर दूसरों के लिए गर्मी प्रदान करना, भूखे रहकर दूसरों की रोटी जुटाने के समान है। सोचता हूँ बुद्धिहीन जड़-पर्वत जब इतना कर सकता है तो क्या बुद्धिमान् बने बैठे मनुष्य को केवल स्वार्थी ही बने रहना चाहिए ?
गुरुदेव की हिमालय यात्रा से प्राप्त हुई शिक्षा का यहीं पर अल्प विराम करते हैं, कल एक और शिक्षाप्रद विवरण प्रस्तुत करेंगें, तब तक के लिए जय माँ गायत्री,जय गुरुदेव, जय वंदनीय माता जी।
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प्रसन्नता की बात है कि आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 12 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज सुजाता जी गोल्ड मैडल विजेता हैं।
(1)संध्या कुमार-45 ,(2) चंद्रेश बहादुर -35,(3 )नीरा त्रिखा-27 , (4) रेणु श्रीवास्तव-31 ,(5) अरुण वर्मा-47,(6) सुजाता उपाध्याय-56,(7) सरविन्द पाल-31,(8) अरुण त्रिखा-24,(9) मंजू मिश्रा- 37, (10) सुमनलता-26, (11) निशा भारद्वाज-35, (12) विदुषी बंता-25
सभी को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।
