4 सितम्बर 2023 का ज्ञानप्रसाद
यह जीवन है, इस जीवन का, यही है रंग रूप, यही है, यही है। थोड़े ग़म हैं थोड़ी खुशियां – – – – –
सप्ताह का आरम्भ 1972 की मूवी “पिया के घर” के sad song से करने का कारण हमारे सबके परमप्रिय सरविन्द पाल जी के घर छाई उदासी है। सरविन्द जी की भाभी श्रीमती अल्पना पाल के आकस्मिक निधन के कारण सारा परिवार शोकग्रस्त है।मात्र 35 वर्ष की आयु में इस संसार से विदा हो जाना हमारे सबके समर्पित परिवार के लिए भी शोक का कारण है। हम सब इस दुःख की घड़ी में सरविन्द जी एवं उनके भाई राजेश जी के साथ हैं एवं दिवंगत आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं, ॐ शांति।
Show must go on के सिद्धांत का पालन करते हुए हम रविवार का अपना रिपोर्ट कार्ड प्रस्तुत कर रहे हैं।
आदरणीय विदुषी बंता जी ने अखंड ज्योति अप्रैल 1985 के अंक का रेफरेन्स देते हुए लिखा कि इस अंक में परम पूज्य गुरुदेव की हिमालय यात्राओं के बारे में बहुत जानकारी है। फिर क्या था- हमने डाउनलोड किया और जुट गए इसके अध्ययन में। कुछ घंटे पढ़ने के बाद ऐसा अनुभव हुआ कि यह अंक उन पाठकों के लिए ठीक रहेगा जिनके पास विस्तार से जानने के लिए समय नहीं है और न ही रूचि। हम तो गुरुदेव की हिमालय यात्रा पर पूर्व प्रकाशित 50 लेखों को और गंभीरता से refine करके जानने में इच्छुक थे। इसी इच्छा के अनुरूप हमने “हमारी वसीयत और विरासत” की hard copy निकाली और एक बार फिर से पढ़ना शुरू कर दिया। इसके बाद “सुनसान के सहचर” के भी अनेकों पन्ने उलट-पलट किये और अपने अंतर्मन में उतारने का प्रयास किया।
इस सारी प्रक्रिया में एक प्रश्न अपनी अंतर्मन से पूछने पर बाधित हो गए: गुरुदेव की हिमालय यात्राओं को जानने के पीछे उद्देश्य क्या है ?
1.क्या हम केवल गुरुदेव का सानिध्य ही प्राप्त करना चाहते हैं ?
2.क्या हम हिमालय की दिव्यता का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं ?
3.क्या हम हिमालय को पर्यटन की दृष्टि से देखना चाहते हैं?
4.क्या हम हिमालय में विद्यमान ऋषि आत्माओं की जानकारी प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं ?
5.क्या हम गुरुदेव के “हिमालय जीवन” से कुछ शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं ?
ऐसे अनेकों प्रश्न उठते रहे और ज्ञानप्रसाद को लिखने की deadline सामने आन खड़ी हुई।
इसी उद्देश्य पर आधारित है आज का ज्ञानप्रसाद। उन दो बच्चों में तो यह चर्चा चल रही थी कि यह “चांदी के पहाड़” हैं लेकिन गुरुदेव ने क्या शिक्षा दी ? आने वाले लेखों में ऐसे ही प्रश्नों के विश्लेषण की योजना है।
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इस जीवन यात्रा के गंभीरता पूर्वक पर्यवेक्षण ( analysis) की आवश्यकता :
जिन्हें भले या बुरे क्षेत्रों में विशिष्ट व्यक्ति समझा जाता है,उनकी जीवनचर्या के साथ जुड़े हुए घटनाक्रमों को भी जानने की इच्छा होती है। उत्सुकता के अतिरिक्त इसमें एक भाव ऐसा भी होता है, जिसके सहारे कोई अपने काम आने वाली बात मिल सके। जो हो कथा-साहित्य से जीवनचर्या का गहरा संबंध है। वे रोचक भी लगती हैं और अनुभव प्रदान करने की दृष्टि से उपयोगी भी होती हैं ।
हमारे जीवन के बारे में अक्सर आए दिन लोग ऐसी पूछताछ करते रहते हैं, लेकिन उसे आमतौर से टालते ही रहा गया है। जो प्रत्यक्ष क्रियाकलाप हैं, वे सबके सामने हैं। लोग तो जादू, चमत्कार जानना चाहते हैं । हमारे सिद्ध पुरुष होने, अनेकानेक व्यक्तियों को सहज ही हमारे सामीप्य अनुदानों से लाभान्वित होने से उन रहस्यों को जानने की उनकी उत्सुकता है ,लेकिन हमने प्रतिबंध लगा रखा है कि ऐसी बातें रहस्य के पर्दे में ही रहें। यदि उस दृष्टि से कोई हमारी जीवनचर्या पढ़ना चाहता हो, तो उसे पहले “हमारी जीवनचर्या के तत्त्वदर्शन (Philosophy of our life) ” को समझना चाहिए । कुछ. अलौकिक ( Divine) विलक्षण खोजने वालों को भी हमारे जीवनक्रम को पढ़ने से संभवत: नई दिशा मिलेगी।
हमारे जीवन वृतांत में उत्सुकता व अतिवाद के इलावा बहित कुछ ऐसा भी है जिससे अध्यात्म विज्ञान के वास्तविक स्वरूप और उसके सुनिश्चित प्रतिफल को समझने में सहायता मिलती है ।उसके सही रूप के बारे में जानकारी न होने के कारण लोग इतनी भ्रांतियों में फँसते हैं कि भटकाव और निराशा के कारण श्रद्धा ही खो बैठते हैं और इसे पाखंड मानने लगते हैं। इन दिनों ऐसे प्रच्छन्न नास्तिकों की संख्या अत्यधिक है। प्रच्छन्न नास्तिक ऐसे नास्तिक होते हैं जो होते तो नास्तिक हैं लेकिन बनते बहुत ही आस्तिक हैं, यानि बनावटी आस्तिक। यह ऐसे आस्तिक हैं जिन्होंने कभी उत्साहपूर्वक पूजा-पत्री की थी, अब ज्यों-त्यों करके चिह्न पूजा करते हैं, तो भी लकीर पीटने की तरह अभ्यास के वशीभूत होकर ही करते हैं। आनंद और उत्साह तो सब कुछ गुम हो गया। ऐसा क्यों हुआ है ? ऐसा इसलिए हुआ है कि उन्हें असफलता के सिवाय कुछ भी हाथ नहीं लगा। उपासना की परिणतियाँ, फलश्रुतियाँ पढ़ी-सुनी गईं थीं,उनमें से कोई भी कसौटी पर खरी नहीं उतरी। तो अगर कुछ भी अंतरात्मा को छू नहीं सका तो विश्वास टिकता भी कैसे ?
“हमारी जीवन गाथा” ऐसे उत्सुक साधकों के लिए महासागर में भटक रहे यात्री की भांति एक प्रकाश स्तंभ (Lighthouse) का काम कर सकती है। वह एक बुद्धिजीवी और यथार्थवादी द्वारा अपनाई गई कार्यपद्धति है । ऐसी दशा में जो भी गंभीरता से समझने का प्रयत्न करेगा उसे सही लक्ष्य तक पहुँचने का सही मार्ग मिल सकता है। शार्टकट के चक्रों में पढ़ने वालों को भ्रम, निराशा, खीज और थकान के सिवाय कुछ भी हाथ नहीं लगता। ऐसी स्थिति में साधना का मूल्य चुकाने का साहस पहले से ही सँजोया गया होता तो कोई निराशा न होती। शॉर्टकट मार्ग पर जाने वालों को ऐसा अवसर मिला ही नहीं, इसी को दुर्भाग्य कहा जा सकता है।
यदि हमारा जीवन पढ़ा गया होता, उसके साथ-साथ आदि से अंत तक गुँथे हुए अध्यात्म तत्त्व-दर्शन और क्रिया-विधान को समझने का अवसर मिला होता तो निश्चय ही बनावटी आस्तिकों की, भ्रमग्रस्त लोगों की संख्या इतनी न रही होती, जितनी अब है ।
एक और वर्ग है जिन्हें “विवेक दृष्टि वाले यथार्थवादी” कहा जा सकता है। यह ऐसा वर्ग है जो realism-reality को समझने के लिए अपनी बुद्धि और विवेक का प्रयोग करते थे ।वे ऋषि परंपरा पर विश्वास करते हैं और सच्चे मन से विश्वास करते हैं कि वे “आत्मबल” के धनी थे । उन विभूतियों (विवेक और यथार्थ) का प्रयोग करके उन्होंने अपना, दूसरों का और समस्त विश्व का भला किया था । भौतिक विज्ञान की तुलना में जो अध्यात्म विज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं, उनकी एक जिज्ञासा यह भी रहती है कि “वास्तविक स्वरूप और विधान” क्या है? कहने को तो हर कोई हलवाई अपनी मिठाई को सर्वश्रेष्ठ ही बताता है, लेकिन कथनी पर विश्वास न करने वालों द्वारा उपलब्धियों का जब लेखा-जोखा लिया जाता है, तब प्रतीत होता है कि कौन कितने पानी में है?
यही बात हमारे छोटे से समर्पित परिवार “ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार” पर भी शत प्रतिशत लागू होती है। कहने को तो हम जो चाहे कहे जाएँ लेकिन हमारे परिणाम ही हमारा मूल्यांकन करते हैं।
सही क्रिया, सही लोगों द्वारा, सही प्रयोजनों के लिए अपनाए जाने पर उसका सत्परिणाम भी होना ही चाहिए। इस आधार पर जिन्हें “ऋषि परंपरा के अध्यात्म का स्वरूप” समझना हो, उन्हें “निजी अनुसंधान” करने की आवश्यकता नहीं है । वे हमारी जीवनचर्या को आदि से अंत तक पढ़ और परख सकते हैं। विगत 60 वर्षों का प्रत्येक वर्ष इसी प्रयोजन के लिए व्यतीत हुआ है। उसके परिणाम भी “खुली पुस्तक” की तरह सामने हैं। इन पर गंभीर दृष्टिपात करने पर यह अनुमान निकल सकता है कि सही परिणाम प्राप्त करने वालों ने सही मार्ग भी अवश्य ही अपनाया होगा। ऐसा अद्भुत मार्ग दूसरों के लिए भी अनुकरणीय हो सकता है। जो लोग आत्म-विद्या और अध्यात्म विज्ञान की गरिमा से प्रभावित है, अपना पुनर्जीवन देखना चाहते हैं, प्रतिपादनों को परिणतियों की कसौटी पर स्वयं को कसना चाहते हैं, उन्हें निश्चय ही “हमारी जीवनचर्या के पृष्ठों का पर्यवेक्षण”, संतोषप्रद और समाधान कारक लगता है ।
प्रत्यक्ष घटनाओं की दृष्टि से कुछ प्रकाशित किए गए प्रसंगों को छोड़कर हमारे जीवनक्रम में बहुत विचित्रताएँ एवं विविधताएँ नहीं हैं। कौतुक-कौतूहल व्यक्त करने वाली उछल- कूद एवं जादू चमत्कारों की भी उसमें गुंजायश नहीं है । एक सुव्यवस्थित और सुनियोजित ढर्रे पर निष्ठापूर्वक समय कटता रहा है। इसलिए विचित्रताएँ ढूँढने वालों को उसमें निराशा भी लग सकती है, लेकिन जो घटनाओं के पीछे काम करने वाले तथ्यों और रहस्यों में रुचि लेंगे, उन्हें इतने से भी अध्यात्म सनातन, के परंपरागत प्रवाह का परिचय मिल जाएगा और वे समझ सकेंगे कि उनके प्रयास में सफलता/असफलता का कारण क्या है ?
अक्सर लोग क्रियाकांडों/कर्मकांडों को ही सब कुछ मान बैठते हैं और व्यक्तित्व के परिष्कार की, पात्रता की प्राप्ति पर ध्यान नहीं देते। उपासना क्षेत्र में छाई निराशा का एकमात्र महत्वपूर्ण कारण यही है। मात्र कर्मकांडों के पीछे भागने के कारण ही अध्यात्म को उपहास्पद बनने, बदनाम होने का लाँछन लगा । हमारे क्रिया-कृत्य बिल्कुल ही सामान्य हैं, लेकिन उनके पीछे उस बैकग्राउंड का समावेश है, जो ब्रह्म-तेजस को उभारती और इस उभरन के बाद कुछ महत्त्वपूर्ण कर सकने की समर्थता तक ले जाती है।
कर्मकांडों की क्रियाओं के साथ जुड़ी हुई अंतर्दृष्टि (insight) और उस आंतरिक तत्परता के समावेश से ही एक छोटे से बीज की खाद/पानी की आवश्यकता पूरी करके एक विशाल वृक्ष बनाने में समर्थ होती रही है। ऐसा कहना ग़लत नहीं होगा कि साधक का व्यक्तित्व ही साधनाक्रम में प्राण फूँकता है, अन्यथा मात्र क्रियाकृत्य “खिलवाड़” बनकर रह जाते हैं ।
तुलसीदास जी का रामगायन, सूरदास जी का कृष्णगायन, चैतन्य महाप्रभु का संकीर्तन, मीरा का गायन, रामकृष्ण का पूजन, मात्र क्रिया-कृत्यों के कारण सफल नहीं हुआ था। ऐसे प्रपंच तो हमारे आसपास असंख्य लोग करते रहते हैं, लेकिन उनके पल्ले हंसी-मज़ाक के अतिरिक्त कुछ नहीं पड़ता, वाल्मीकि ने जीवन बदला तो उल्टा नाम जपते ही मूर्धन्य हो गए। अजामिल, अंगुलिमाल, गणिका, आम्रपाली मात्र कुछ अक्षर दुहराना ही नहीं सीखे थे, उन्होंने “अपनी जीवनचर्या को भी अध्यात्म आदर्शों के अनुरूप” ढाला ।
आज कुछ ऐसी विडबंना चल पड़ी है कि लोग कुछ अक्षर दुहराने और क्रिया-कृत्य करने, स्तवन, उपहार प्रस्तुत करने भर से अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। चिंतन, चरित्र और व्यवहार को उस आदर्शवादिता के ढाँचे में ढालने का प्रयत्न नहीं करते, जो आत्मिक प्रगति के लिए अनिवार्य रूप में आवश्यक है।
अपनी साधना पद्धति में इस भूल का समावेश न होने देने का आरंभ से ही ध्यान रखा गया। अस्तु, वह यथार्थवादी भी है और सर्व साधारण के लिए उपयोगी भी । इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर ही जीवनचर्या को पढ़ा जाए ।
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आज की 24 आहुति संकल्प सूची में 15 युगसैनिकों ने संकल्प पूर्ण किया है। आज वंदना बहिन गोल्ड मैडल विजेता हैं।
(1)संध्या कुमार-29 ,(2) सुजाता उपाध्याय-34 ,(3)सरविन्द पाल-35 ,(4 ) चंद्रेश बहादुर -37,(5 )नीरा त्रिखा-35, (6) रेणु श्रीवास्तव-33 ,(7)निशा भारद्वाज -27 ,(8 ) सुमनलता-25 ,(9 ) मंजू मिश्रा-30 ,(10) प्रेरणा कुमारी -36, (11) अरुण वर्मा-31 ,(12) वंदना कुमार-51,(13) स्नेहा गुप्ता-25,(14) प्रेरणा कुमारी-26,(15) पुष्पा सिंह-32
सभी को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।